1 -
परत-दर-परत एक गांव -
कहते हैं हर जगह इतिहास के पन्नों जैसी होती है और हर जगह का एक इतिहास होता है । सो ' गौहन्ना ' उससे अलग कैसे ? न जाने कितनी सदियों के थपेड़े खा के भी यह गांव जिंदा है . जिंदा इसलिए कि आधे से अधिक गांव जिस 'डेहवा' पर बसता है वो गांव के दूसरे कोने की दुमंजिली छत के समानांतर होता है। कहने का मतलब,उस कोने की दुमंजिल 'डेहवा' की नींव के बराबर होती है ।
बताते हैं कि कई बार 'डेहवा' की खुदाई के दौरान बड़ी -बड़ी असामान्य प्रकार की ईंटें मिलती रही हैं । लोगों का कहना है कि कुछ गहने और तांबे के सिक्के भी मिले, लेकिन लोगों ने छिपा लिए । इन तांबे के सिक्कों का एक नमूना देखने को तब मिला जब खेल-खेल में ही अपनी दोस्ती 'मिठाई भाई' से गहरा गई थी -
"केहू से बतायो न भाय
बप्पा हमका बहुत मरिहैं "
मिठाई के भरोसे से दिखाया गया वो सिक्का अनगढ़ और मोटा था।
मोटाई कुछ यूं जितना आज का तीन या चार सिक्का समा जाय । कुछ ऐसा याद आता है कि किसी आदमी की आकृति भी थी ।
जब तक इतिहास और पुरातत्व की जानकारी होती तब तक बहुत से साक्ष्य बिखर गए और बिना साक्ष्य के इतिहास कैसा ? और फिर अदने से गांव के पुरातत्व को मानेगा कौन? फिर भी इतनी जल्दी इस गांव का इतिहास समाप्त हो जाय तो गांव का नाम गौहन्ना कैसा ?
लगता है वैदिक कालीन आर्य यहीं रहते रहे होंगे। गौ पालन इतना रहा होगा कि नाम ही गौ से पड़ गया । परत-दर-परत न जाने कितनी बार यह गांव बसा और उजड़ा होगा ? उन्नीसवीं सदी में जब गांव के बीच से रेलवे लाइन गुजरी तो न जाने क्या-क्या मिला, लेकिन कहीं रिकॉर्ड न हो सका । बस लोगो की चर्चा का विषय ही बना रहा ।
जो रिकॉर्ड हो सका, उसमें आज भी सिर रहित विष्णु भगवान की मूर्ति है जो काले पत्थर की है। नक्काशी इतनी अद्भुत है कि लगता है सुई से तराशी गई हो । मूर्ति के पैरों के पास यक्षिणी की नृत्य मुद्रा की मूर्ति , विष्णु जी के पैरों तक मेहराब दार वस्त्र कम से कम इसे 'सेन काल' यानि तेरहवीं शताब्दी तक ले जाते हैं । यह मूर्ति गांव के पास डोभी तालाब की खुदाई के समय मिली थी। ऐसा कहते हैं इसे मुस्लिम आक्रमणकारियों ने तोड़ कर तालाब में फेंक दिया था।फ़िलहाल उस पर गांव के सुंदर मिस्त्री ने अनगढ़ सिर लगा कर लाल-पीले रंग से पेण्ट कर दिया है।
गांव के उत्तर में 'काली माई' का चौतऱा दसियों खंडित मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों के साथ बहुत कुछ कहता है । 'शीतला माई' के स्थान पर सबसे ज्यादा बलुआ पत्थर की मूर्तियां हैं। किसी का सिर, तो किसी का धड़ , किसी को देखकर पुरुष व किसी में स्त्री का अंदाजा लगता है । सिर के चारों तरफ मुकुट जैसा चक्र या मण्डल भी मिलता है । उसमें देवी-देवता की पहचान करना थोड़ा मुश्किल होता है बस अंदाज़ा लगाया जा सकता है। गहने भी मूर्तियों पर उत्कीर्ण मिलते हैं। मिट्टी की पकी मूर्तियाँ खासकर सिर का भाग बहुतायत से गांव के हर देव स्थान पर है ।
शीतला माता रोगों से बचाने की देवी हैं तो पूरब में भवानी बगिया में ज्वाला माई ,बूढ़ी माई और भैरों बाबा के डीह इन्हीं मृण्मूर्तियों व प्रस्तर मूर्तियों से भरे पड़े थे जो समय के साथ इधर-उधर हो गए ।
'कारे देव' बाबा की मूर्तियों पर नाग पंचमी को दूध और लावा भीगे बदन, मौन रहकर चढ़ाने जाना पड़ता था । दक्षिण में 'मेंहदी महरा' और पश्चिम में 'बाबा हरदेव' पर भी इसी तरह की मूर्तियों के अवशेष आज भी मिल जाएंगे । ये सब भले ही पाषाण काल की निशानी न हों फिर भी कांस्य या ताम्र युग तक की संभावना से जरूर जुड़े होंगे ।
'गौरैया बाबा' की बगिया के पास तालाब में मूर्तियों के साथ-साथ एक दस फीट से बड़े आदमी का जीवाष्म मिलने के बाद गांव वाले डर गए थे । बकौल स्वामी दयाल श्रीवास्तव चाचा व अन्य कईयों के अनुभव में 'डेहवा' में आज भी खुदाई करते समय ऐसा लगता है कि नीचे कोई कमरा या घर हो ।
लोक कथा के अनुसार बुजुर्ग लोगो का मानना ये भी है कि कभी 'भर' नामक घुमंतू पशुपालक प्रजाति यहां रहती थी जो अपने पूर्वजों के नक्शे लेकर गांव में बीजक लगा कर खजाने की खोज में डेहवा आते रहते थे ।
आज भी शादी विवाह के समय या किसी शुभ आयोजन के लिए इन सभी डीह-डयोहार को पूजने जाना पड़ता है । जो इस बात की पुष्टि करता है कि पुरातन इतिहास और संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए रखना है। कभी तो कोई ऐसा आएगा जो बताएगा कि इस गांव में मानव सभ्यता कितनी पुरानी रही होगी ?
2-
वैसे तो सफेद दूब थोड़ा दुर्लभ मानी जाती थी लेकिन हमारे जमाने में विद्यार्थियों के लिए इसका महत्व किसी रत्न से कम नहीं था । जिस तरह एकमुखी रुद्राक्ष को योगी ढूँढ़ते हैं और दक्षिणावर्ती शंख को संसारी ढूँढ़ते हैं,उसी तरह श्वेत दूर्वा यानि सफेद दूब को बचपन में हम विद्यार्थी ढूँढा करते थे । बॉटनी के लिहाज़ से 'म्यूटेंट घास' उस जमाने में हम बच्चों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होती थी।
घर से विद्यालय लगभग दो किलोमीटर दूर था । कहने को वो प्राइमरी स्कूल था लेकिन इलाके में वही एक स्कूल था जहां से कई पीढ़ी पढ़ कर निकली थी। बड़ागांव का यह प्राइमरी स्कूल बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने का था । दीवारें इतनी मोटी थी जैसे किले की दीवार और छत खपड़ैल थी जिसकी ऊंचाई किसी मल्टीस्टोरी के तिमंजिले तक रही होगी । मेरे बाबा जी जो अपने हलके के नामी आल्हा गायक थे वो भी उसी प्राइमरी के पढ़े थे, जहां हम पढ़ रहे थे । कोस- कोस की दूरी से झोला टांगे और तख्ती- बुचका लिए लल्लन, बब्बन,मुन्नन,लाल जी , बाल जी, सुडडन, गुडडन जैसों की न जाने कितनी टोली कई गांवों से वहाँ पढ़ने आती थी।
जब ये टोली पढ़ने निकलती थी तो खेतों और खलिहानों के रास्ते स्कूल पहुँचती थी रास्ते में अगर सफेद दूब दिख जाती थी तो टोली उस पर टूट पड़ती थी जिस किसी के हाथ सफेद दूब की एक भी पत्ती लग जाती थी उसको लगता था जैसे कोई अमूल्य निधि मिल गई हो । जिसको नहीं मिलती थी वो इस उम्मीद से आगे बढ़ चलता था कि कहीं आगे उसे भी सफेद दूब मिल जाएगी ।
छुटपन में हम लोग जिस रास्ते से जाते थे वह रेलवे लाइन का किनारा होता था । उसके किनारे अक्सर सफेद दूब मिल ही जाती थी । मेरे गांव गौहन्ना से बड़ागांव प्राइमरी स्कूल तक पहुँचने में नन्हे क़दमों से लगभग आधा घंटा लग ही जाता था , फिर रास्ते में मस्ती भी तो होती थी इसलिए कभी-कभी उससे ज्यादा समय भी लग जाता था । स्कूल में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का अपना मज़ा होता था मज़ा इसलिए कि जब प्रभात फेरी निकलती थी तो पूरा बड़ागांव घूमना पड़ता था ..
झंडा ऊँचा रहे हमारा
विजई विश्व तिरंगा प्यारा..
प्रभात फेरी का ये लंबा रास्ता कभी खलता नहीं था। बड़ागांव के कई व्यापारी थाली में बताशे और लड्डू लिए हम बच्चों का इंतजार करते थे । जैसे ही प्रभात फेरी की अगुवाई करते दखिनपारा वाले गुरु जी यानि हेड मास्टर साहब उस दुकान के सामने पहुँचते, उनका स्वागत फूलों से होता था और बताशे, लड्डू हम लोगों को मिलते थे। लड्डू और बताशे के चक्कर में प्रभात फेरी बिल्कुल भी नहीं छूटती थी । प्रभात फेरी की लाइन बिगड़ने न पाए इसका विशेष ध्यान 'गौहन्ना वाले मास् साब' को रखना पड़ता था । उनके हाथ की छड़ी को हम लोगों ने कभी जुदा होते नहीं देखा था। उनका खौफ इतना था कि बेमन से पढ़ने वाले गोलू-भोलू भी रीढ़ की हड्डी सीधी करके 'दो का दो , दो दुन्नी चार' रटते नजर आते थे ।
स्कूल में जूट की टाट- पट्टी किसी गद्दे से कम नहीं होती थी और माससाब की कुर्सी किसी सिंहासन से कम नजर नहीं आती थी । कौन कितना फर्राटे दार पाठ पढ़ के सुना देता था उस बच्चे की धमक पूरी क्लास में रहती थी वही क्लास का 'मानीटर' बना दिया जाता था जिसका जलवा ही जलवा होता था ।
पाठ पढ़ते समय जिसकी किताब के बीच सफेद दूब होती थी उसके चेहरे पर थोड़ी कम शिकन होती थी कि या तो उसका नंबर नहीं आयेगा या तो वो पाठ पूरा कर लेगा। वैसे तो 'करेरु वाले मास साब' हमेशा मुस्कराते रहते थे लेकिन जिस बच्चे की कॉपी मंगा ली उसके प्राण सूख जाते थे । कॉपी अच्छी निकल गई तो ये नसीहत जरूर मिलती थी कि नाखून काट के आया करो और आँख में काजल जरुर होना चाहिए । सब बच्चे अगले दिन कजरौटा लगा के चमाचम चमकते हुए आते थे उस दिन पूरी क्लास ही मासूमियत भरी फुलवारी लगती थी ।
एक दिन कॉपी पलटते हुए 'डेलवाभारी के मास साब' ने एक बच्चे की किताब से दसियों सफेद दूब निकाली
पूछा
" ये क्या है " ?
"इससे विद्या माई खूब आतीं हैं "
. . बच्चे ने असलियत बता दी ।
सुन के गुरु जी हंसने लगे और अपने जमाने की यादों में खो गए । हाँ हम लोग भी तो यही करते थे।
ये सफेद दूब ही तो सरस्वती साधना का बीज मंत्र रूपी जड़ी थी ।
3-
बरसात के दिनों में अक्सर जिस छोटे लाल रंग के जीव को हम लोग देखते थे उसे अवध क्षेत्र में 'राम जी की घोड़ी' कहते थे । जैसे-जैसे बरसात होती थी खेत और बगीचों की मेड़ पर इनकी झुंड की झुंड दिख जाया करती थी ।
डर तो लगता था लेकिन ये बात सभी बड़े बुजुर्गो ने बता दी थी कि राम जी की घोड़ी है तो राम जी की घोड़ी से डर कैसा । अपने राम जी के इलाके में तो राम जी की जय-जय कार थी ऊपर से जब सुनसान जगह या रात में निकलना हो तो हनुमान जी थे ही-
..'भूत पिसाच निकट नहिं आवै
महावीर जब नाम सुनावे
जब डर ज्यादा लगता था तो हनुमान चालीसा थोड़ा जोर-जोर से पढ़ना पड़ता था लेकिन काम हो जाता था।
एक बार रात में खेत सींचने ट्यूब-वेल पर जाना पड़ा।
ट्यूब वेल गांव से एक किलोमीटर दूर थी । रात में इसलिए जाना पड़ा कि उस समय गांव में दिन में बिजली मिलना किसी साहब के दर्शन करने जैसा था । दिन की बिजली एलीट शहरातियों के खाते में थी । गांव में तो बिजली थी ही नहीं लेकिन चूंकि एक किलोमीटर दूर सरकारी ट्यूब वेल में बिजली थी इसलिए गांव को विद्युतीकृत मान लिया गया था। अब मान लिया गया तो मान लिया गया। किसको फुर्सत थी कि गांव जा के तफतीश करे ? वैसे भी हाकिम ने जो कह दिया सो कह दिया।
...'न खाता न बही जो हाकिम कहे वो सही'
तो उस अंधेरी रात में बिजली के इंतजार में लालटेन के उजाले में काशी चाचा के साथ हम भी चले जा रहे थे।
उमस भरी झींगुर की झन्नाटेदार रात में हवाई चप्पल में अंदाजे-अंदाजे से हम लोग ट्यूब वेल पर जा पहुंचे । पहुंचते ही बड़े जोर से पेड़ से भर भराने की आवाज आई। ऑटोमेटिकली हम लोगों का हनुमान चालीसा चालू हो गया । बाद में पता चला पेड़ से बिल्ली कूदी थी ।
ट्यूब वेल में उस समय बिजली नहीं आ रही थी। पहली पंच वर्षीय योजना की बुलंद निशानी उस ट्यूब वेल के बगल में एक आवास जैसा कुछ था । आवास जैसा इसलिए कि फिलहाल खंडहर हो रहा था। सुना था किसी जमाने में ऑपरेटर साहब वहां रहते थे । वैसे तो गांव में पानी किसके खेत में जाएगा ये तय करने का काम ऑपरेटर साहब का ही था, लेकिन जब से ऑपरेटर साहब ने शहर में ठिकाना ढूँढा था तब से 'लठ्ठ के जोर से' पानी आगे बढ़ता था ।
उसी इमारत के उपर छत पर दिन में चरवाहे सुरबग्घी और लच्छी खेला करते थे । सुरबग्घी शतरंज की बिसात की तरह थी उसके खेलने का मजा कहीं भी कुछ कंकड़ इकठ्ठा कर लिया जा सकता था तो लच्छी बिना उछले-कूदे नहीं खेली जा सकती थी । इसे खेलने का मज़ा तो हमको भी खूब आता था लेकिन शाम होने के पहले ही भाग कर घर में इस तरह पहुंच जाते थे जैसे लगता था कि बच्चा खेतों की रखवाली करके आया हो ।
ट्यूब वेल के बगल की खंडहर इमारत के इर्द-गिर्द राम जी की घोड़ी यानि लाल रंग की लिल्ली घोड़ी का साम्राज्य हुआ करता था । लिल्ली घोड़ी नाम हो सकता है लाल रंग से पड़ गया होगा लेकिन मुकम्मल तौर पर यह बता पाना मुश्किल था कि उसका नामकरण कैसे हुआ ? बस इतना पता था कि राम जी की घोड़ी है तो इसे मारना नहीं है, नहीं तो पाप लगेगा ।
हाँ ! तो उस रात बिजली का इंतजार करते करते रात के लगभग दो बज गए जैसे ही बिजली आई तो 'बिजुली माई की जय' के नारे के साथ मोटर स्टार्ट कर दी गई । पानी हर -हर -हर -हर ईंटों की नाली से होकर खेत की तरफ चल निकला । बताते चलें कि ये नाली भी उसी पंचवर्षीय योजना की थी जब की ट्यूबवेल थी, आधा से ज्यादा पानी वो अपने 'टैक्स' के रूप में निगल जाती थी। बचा-खुचा पानी जब खेत में पहुंचता था तो लगता था जैसे सूखे मन में हरियाली आ गई हो । चूंकि किसान इस तरह के 'टैक्स' देने का आदी होता था इसलिए नाली से उसे कोई शिकवा नहीं था । खेत तक पानी पहुँचाना और खेत का पूरा भर जाना किसी जंग जीतने से कम नहीं था । रात के अंधेरे में सांप बिच्छू के खतरे राम-भरोसे निपट जाया करते थे. काशी काका को गेहूँ के बोझ में बैठा बिच्छू सिर में भी डंक मार चुका था वो अपनी बहादुरी के किस्से रात भर सुनाते रहे. हम डरे-डरे से थे लेकिन किसी को महसूस नहीं होने देते थे । जहाँ-जहाँ राम जी की घोड़ी दिख जाती थी तो लगता था कि रास्ता निरापद ही होगा । 'जूलॉजी' के पन्नों का यह प्यारा 'मिलीपीड' बचपन के दिनों का एक ऐसा अजूबा होता था जिस को रास्ते में देख के लोग पैरों को इस कदर संभाल के रखते थे कि कहीं राम जी की घोड़ी दब न जाए ।
आज भी यदा कदा जब ये प्यारा सा बचपन का जीव दिख जाता है तो सबसे पहले पैरों को संदेश मिल जाता है कि संभल के, आगे 'राम जी की घोड़ी' है .
4-
पिड़की -
हाँ वह छोटी सी एक चिड़िया थी बिल्कुल कबूतर जैसी जो मेरे घर के बाहर वाले छप्पर में एक किनारे बड़ेर पर अपना घोंसला बनाती थी। घोंसला भी कुछ ऐसा न बहुत सुंदर और न ही अनगढ़। इसमें वो रहती थी और जोड़े में रहती थी। दादी बताती थी कि हर साल वो घोंसला बनाने यहीं आती है और अपना आशियाना बना कर रहती है। जब बच्चे हो जाते हैं तो उनको पालती है और बड़े होने पर कुछ दिन के लिए कहीं चली जाती है और अगले साल फिर आ जाती है। गौहन्ना में इसे पिड़की ही कहते थे, हो सकता है, इसका असली नाम कुछ और हो। हाँ पहाड़ों में इसे घुघुती भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसका नाम 'डव' है।
इसी तरह अंदर वाले पहले कमरे में जहां 'आजी' सोती थीं , उस कमरे में कड़ी के ऊपर और छत के नीचे जो खाली जगह होती थी उसमें गौरैया रानी अपना घोंसला बनाती थी और उसमें उसके छोटे-छोटे बच्चे हर साल नई पीढ़ी के रूप में आते थे। उसको भी अपना आशियाना हर साल यहीं बनाना होता था । उसकी भी दिनचर्या अजीब थी। रात को जब घर का दरवाजा बंद होता था उसके पहले ही वह आकर अपने घोसले में सो जाती थी और ज्यों ही सुबह घर का दरवाजा खुलता था, फुर्र से निकलकर खाने पीने की तलाश में बाहर निकल जाती थी। वैसे तो उसे घर में ही खाने-पीने के लिए अनाज के दाने और खाने का बचा हुआ हिस्सा जैसे दाल,चावल, रोटी सब कुछ मिल जाता था। लेकिन फिर भी उसका प्राकृतिक आहार भी होता था जिसे वह लेने घर के बाहर जरूर जाती थी।
बचपन में हम बच्चों को गौरैया पकड़ने का बड़ा शौक था। उसको पकड़ना और लाल रंग में रंग कर छोड़ने का एक अजीब शौक था। इसके लिए एक डलिया ली जाती थी और उसके नीचे कुछ दाने बिखेर दिए जाते थे। एक लकड़ी के सहारे डलिया खड़ी रहती थी और लकड़ी का एक सिरा रस्सी के सहारे हम लोगों के हाथ में होता था। जैसे ही गौरैया दाना खाने आती थी,रस्सी खींच लेने पर डलिया गिर जाती थी और गौरैया उसमें फँस जाती थी ।
घर में रहने वाली गौरैया और पिड़की जिस जगह रहती थी वह बिल्ली से बेहद सुरक्षित थी। पक्षियों के लिए बिल्ली सबसे खतरनाक जानवर होती है। एक बार ऐसा हुआ कि आँगन के छप्पर में सुबह-सुबह म्याऊँ-म्याऊँ की आवाज सुनाई दी। मम्मी ने उठकर देखा तो एक सफेद बिल्ली का बच्चा बड़े प्यार से म्याऊँ-म्याऊँ कर रहा था । मम्मी ने उसे धीरे से छप्पर से नीचे उतार लिया और कटोरी में दूध पीने के लिए दे दिया। इस प्यार ने उस बच्चे को हमेशा-हमेशा के लिए हमारे घर में रहने के लिए मजबूर कर दिया उसका नाम पड़ा 'लूसी'। अब जबकि गांव में काली और चितकबरी बिल्ली के अलावा किसी ने कभी सफेद बिल्ली नहीं देखी थी, तो यह बिल्ली सबके लिए कौतूहल का विषय हो गई। यह बिल्ली हम बच्चों के साथ इतना घुल-मिल गई थी कि दिन भर हम लोगों के साथ खेलती रहती थी । हमको भी स्कूल से लौटते ही लूसी के साथ खेलने का इंतजार रहता था ।
'डोल-डमक-डम-डग-निक-डग-डग'
यह कहकर हम लोग लूसी को बहुत परेशान करते थे . जब वह ज्यादा परेशान हो जाती थी तो दादी के पास भाग जाती थी और कभी-कभी तो रात में दादी के पास ही सोती थी। जिस छप्पर से लूसी उतरी थी उसी छप्पर के नीचे बुलबुल ने भी अपने घोंसले बना रखे थे। उसके प्यारे प्यारे बच्चे चीं -चीं -चीं -चीं करते रहते थे। कट्टर दुश्मनी के बाद भी लूसी बुलबुल का कुछ नहीं करती थी।
घर के बाहर 'शेरू' नाम का एक हट्टा-कट्टा कुत्ता होता था। उस कुत्ते की कहानी कुछ यूँ थी कि जब हम लोग जूनियर हाई स्कूल में सत्तीचौरा पढ़ने गए तो कुछ दिनों के बाद एक कुत्ता जो लाल रंग का था अपने गांव से बच्चों के साथ-साथ स्कूल आ गया। जब शाम हुई तो हम बच्चों की टोली के साथ हमारे घर आ गया। अब जब घर आ गया तो उसे रोटी दूध खाने को मिलने लगा और वह मेरे घर का ही होकर रह गया । एक बार ढूँढ़ते -ढूँढ़ते वह अपने पुराने मालिक के पास पहुंच भी गया लेकिन दो-तीन दिन में ही वापस मेरे घर आ गया और फिर कभी नहीं गया। यह वह दौर था जब बड़े बुजुर्ग सुरक्षा के लिए घर के बाहर मड़हा में सोते थे। यह शेरू भी दादा के साथ रात भर उन्हीं के बगल रहकर पूरी चौकीदारी करता था। एक बार मोटरसाइकिल से गुजर रही पुलिस गश्त टीम को रात में जब शेरू ने घेर लिया तो उन्हें दादा को जगा कर गुजारिश करनी पड़ी कि अपने कुत्ते को पकड़ लो।
समय के साथ हम लोग बड़े हो गए और पढ़ने के लिए घर से बाहर निकल गए । शेरू और लूसी भी समय की सुरंग में न जाने कहाँ विलीन हो गए। इधर गौरैया का भी दिखना धीरे-धीरे कम हो गया। लोगों का मानना था कि जब से मोबाइल टावर लगे हैं, गौरैया गायब हो गई। घर पक्का बन जाने से पिड़की को अपना घोंसला बनाना मुश्किल हो गया। इस बीच बहुत दिनों के बाद मम्मी का फोन आया कि दीवार में ईटों के बीच में जो जगह छूटी थी,वहां गौरैया ने फिर से घोंसला बना लिया है और दरवाजे पर कुछ पिल्ले रोटी माँग रहे हैं ।
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बँड़वा बजागुर-
गांव तो गांव ही होता है जहां सबको जिंदा रहने की छूट होती है । गौहन्ना में भी बँड़वा बजागुर भी कई घरों में मिल ही जाते थे । थोड़े चितकबरे और सफेद, थोड़ा मोटे थोड़ा आलसी से होते थे इसलिए इनसे कोई डरता नहीं था । मिसिर दादा के घर में आँगन के चूल्हे के बगल उसने अपना घर बना रखा था । कई बार मम्मी उसे बाहर बगीचे तक फिंकवा देतीं थीं फिर भी वह लौट के घर में ही मिलता था । जैसे लगता था कि उसे इस घर में ही मज़ा आता हो । खैर रेप्टाइल संप्रदाय का यह सांप कोबरा की तुलना में न तो आक्रामक था न ही फुर्तीला । कोबरा को नाग यानि असली साँप माना जाता था। फन पर खड़ाऊँ बनी रहती थी । अक्सर बाग बगीचों में मिलने वाले ये साँप कभी-कभी घरों में निकलते थे तो अफरा-तफरी मच जाती थी । घोड़ा पछाड़ साँप पीले रंग का होता था। मान्यता थी कि वह घोड़े से भी तेज भागता है । मंत्र फूँकने वाले इन साँपों को बुलवा कर जहर चूसने का दावा करते थे पर ऐसा सच में कभी नहीं दिखा। हाँ कुछ लोग झाड़-फूँक से ठीक जरूर हुए लेकिन कैसे यहआज तक स्पष्ट नहीं हुआ । जो गहनागन बाबा के देव स्थान तक जिंदा पहुंच गए वो बच जरूर जाते थे । नाग-नागिन की कहानी गांव-गिराँव व लोकगीतों से होती हुई कथा -कहानी और फिल्मों तक सुपर हिट होती रही ।
मै तेरी दुश्मन, दुश्मन तू मेरा
मैं नागिन तू सँपेरा
जनम जनम से तेरा मेरा बैर..
खैर गांव में नाग पंचमी को विधिवत नाग देवता को धान का लावा दूध के साथ चढ़ाया जाता है । इतना ही नहीं सम्मान पूर्वक उनका नाम लिया जाता है । साँपों की आधी पहचान सँपेरों के पिटारे कराते थे । उनकी बीन की धुन सुन कर गजब की अनुभूति होती थी। भजन मंडली भी हारमोनियम पर नागिन की धुन निकाले बिना चैन नहीं लेती थी -
मन डोले तेरा तन डोले
मेरे दिल का गया करार रे
कौन बजाए बाँसुरिया ...
कहते हैं जनमेजय का सर्प यज्ञ अवध में खंडासा के पास सिड़सिड़ गांव में हुआ था. जहां सांपों के अवशेष आज भी मिलते हैं। वहीं गौहन्ना के बगल में चार किलोमीटर दूर स्थित ऐहार गांव अर्थात अहिहार यानि सर्प का हार वह जगह थी जहां परीक्षित ने कलियुग के प्रभाव से ऋषि के गले में मरा साँप डाल दिया था।
मिसिर दादा की एक खरही यानि जलौनी वाले फसल अवशेष इमली के पेड़ के नीचे होती थी । एक बार उस खरही में एक अजगर निकल आया । गांव में अजगर देखने वालों की भीड़ लग गई। बेचारा अजगर क्या करता ? नाम ही है अजगर , गांव के हर आदमी को ये दोहा याद है -
अजगर करे न चाकरी
पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गए
सबके दाता राम
कुछ हिम्मती लोगों ने अजगर को खैंची में भर कर गांव से दूर बरगद के पेड़ जो चक्का बाबा के रूप में ग्राम देवता के रूप में पूजित हैं वहाँ जाकर छोड़ दिया । धीरे-धीरे वो मस्त मौला प्राणी पेड़ पर चढ़ गया उसके बाद उसका पता नहीं चला । बकौल मम्मी जो रपट-रपट के चलें वो रेप्टाइल होते हैं। समझने के लिए उससे बढ़िया क्या होगा । इन्हीं के समुदाय की बिच खोपड़ी और गोहटा यानि गोह हर बगीचे में होती थी जिसे देख कर हम लोग दूर भागते थे, हां कभी आमना-सामना भी हो जाता था ।
गांव की खेती किसानी में ऑर्थ्रोपोडा समुदाय के एक और खतरनाक प्राणी जिससे सामना होता था वह बिच्छू था । लाल रंग का छोटा बिच्छू कम चढ़ता था लेकिन करियेवा यानि काला बिच्छू बहुत ही खतरनाक होता था। जिसको डंक मार दिया, उसको तीन दिन बाद ही राहत मिलती थी । गांव में बीछी यानि बिच्छू झाड़ने वाले को लोग दौड़ के बुला लाते थे और अक्सर वो जहर उतार भी देते थे । लोकगीतों का ये बिच्छू मुंबईया फिल्मों में भी नखरे उठवाता रहा-
दैया रे दैया
चढ़ गयो पापी बिछुआ
कोई उतारो बिछुआ
सारे बदन में चढ़ गयो
पापी बिछुआ..
गांव में एक कहावत मशहूर थी कि जब सौ जूता खाने भर का कोई पाप करता था तब उसे बिच्छू काटता था । ये सब डर ही होता था कि गांव में लोग पाप से बचते थे । तब गांव में मिट्टी के कच्चे घरों में और खेतों में इन खतरों से दो चार होना ही पड़ता था । जब से पक्के घर और फर्श बन गई । इन सहचरों ने अपने डेरे दूर बना लिए । अब इनकी जानकारी सपेरों की बजाय गूगल बाबा ज्यादा दे पा रहे हैं ।
6-
हर एक का अपना पसंदीदा घर होता है । पक्षियों का भी यही हाल है । बचपन में जिस रास्ते से हम लोग पढ़ने जाते थे, उस पर दो पेड़ ऐसे थे जिस पर चिड़ियों का बसेरा साफ-साफ दिख जाता था। रेलवे लाइन के किनारे एक बहुत पुराना पीपल का पेड़ था जिस पर गिद्धों का बसेरा था। वही गिद्ध जो कालांतर में लुप्तप्राय हो गए। प्रकृति के स्वच्छक कहे जाने वाले इन पक्षियों की ग्रामीण संदर्भ में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी. आवारा मृत जानवर को यह एक-दो दिन में साफ कर देते थे ।
अब तक बचपन में जितने भी पक्षी मैंने देखे थे, उनमें गिद्ध सबसे बड़े थे। उनसे डर इसलिए नहीं लगता था क्योंकि बचपन से ही देख रहे थे। लेकिन होते ये खतरनाक थे। बहुत बड़े आकार के दोनों पंखों को मिला दिया जाए तो 3 से 4 मीटर की चौड़ाई होती थी । ऊंचाई भी लगभग एक से डेढ़ मीटर होती थी। उड़ने में इन्हें थोड़ा समय लगता था लेकिन जब उड़ जाते थे तो बहुत ऊँचाई पर उड़ते थे। हम लोग बचपन में सुनी राम कथा के जटायु से इसे जोड़ कर देखते थे। इनकी गर्दन पर बाल नहीं होते थे । नब्बे के दशक के बाद इनका दिखना कम हो गया और उस पीपल के पेड़ से यह पूरी तरह गायब हो गए। यहाँ तक कि इलाके में भी इनका दिखना बंद हो गया। बहुत दिनों के बाद जब मेरी पोस्टिंग उत्तराखंड में हुई तो हरिद्वार और रुद्रप्रयाग के पहाड़ों में फिर से इन्हें देखने का मौका मिला। लेकिन संख्या यहां भी बहुत कम थी। वैज्ञानिकों का मानना था कि जानवरों को दी जाने वाली डाईक्लोफेनाक दवा के साइड इफेक्ट से गिद्धों की संख्या घट गई।
स्कूल जाने के ही रास्ते पर बड़ागांव बाजार में एक पाकड़ का पेड़ था जिस पर बगुलों की जमात रहती थी। उजले-उजले ढेर सारे बगुले उस पाकड़ के पेड़ पर रहते थे। पेड़ तो छोटा ही था, लेकिन बगुलों की संख्या सैकड़ों में थी । क्योंकि बड़ागांव में मुसलमानों की संख्या ज्यादा है और उन्हें पशु-पक्षियों के मांस से कोई परहेज नहीं। इसलिए एक बार ऐसा हुआ कि जब हम लोग स्कूल से लौट रहे थे तो देखा कि दो नवयुवक अपनी एयरगन लिए पाकड़ के पेड़ के नीचे खड़े निशाना साध रहे थे और थोड़ी ही देर में उन्होंने दो-तीन बगुले मार गिराए और उठा ले गए। हम लोगों के लिए यह दृश्य बड़ा वीभत्स था लेकिन क्या कर सकते थे? प्राइमरी क्लास में हम बच्चों के लिए एक पाठ्यक्रम होता था जिसमें सिद्धार्थ और देवव्रत की कहानी से इतना समझ में आ गया था कि किसी जीव को मारना नहीं चाहिए। तब से वह संकल्प आज भी कायम है लेकिन यह देख कर बड़ी कोफ्त होती है कि आज के बच्चों के पाठ्यक्रम में चिकन, अंडों को भी बड़ी कम उम्र के बच्चों को खाद्य पदार्थ के रूप में पढ़ाया जाता है. इसका कोमल मन पर और संस्कार पर क्या असर पड़ेगा? यह तो बुद्धिजीवी वर्ग ही जाने लेकिन इतना तो तय है कि फिर कोई सिद्धार्थ देवव्रत से शायद ही जीत पाए ।
फिलहाल गौहन्ना और आसपास के गांव में इस तरह का अब कोई पेड़ मेरी नजर में मौजूद नहीं है हां इक्का-दुक्का बाँस की बँसवारियाँ और बेर के पेड़ पर बया के घोसले आज भी लटके हुए मिल जाएंगे।
7-
झापस-
यह वह दौर था जब बरसात होती थी और जमकर होती थी। यहां तक की कई -कई दिनों तक बादल छाए रहते थे और बरसात होती रहती थी। कभी कम तो कभी ज्यादा । सूर्य के दर्शन होने मुश्किल हो जाते थे । छप्पर और घर सब कुछ टपकने लगता था। इस मौसम को गौहन्ना में 'झापस' कहते थे ।
उन दिनों चूल्हे पर खाना बनता था और लकड़ी ईंधन का काम करती थी । झापस के दौरान अक्सर लकड़ियां सीलन भरी हो जाती थीं और गीली लकड़ियों को जलाने में पसीने छूट जाते थे। वह तो भला हो केरोसिन का, जिसे डालकर चूल्हे जला लिए जाते थे और खाने का इंतजाम हो जाता था । झापस के दौर में धुँआ भी आसमान में बहुत ऊँचा नहीं उठता था और पूरे घर में भर जाता था । खाँसते -खाँसते सबका बुरा हाल हो जाता था। छप्पर और ओसारा तो टपकते ही रहते थे। यहाँ तक कि चूल्हे पर भी बारिश की बूँदें टपकती थीं और खाना बनाना भी मुश्किल हो जाता था। लेकिन हिम्मत घर की महिलाओं की , दादी और अम्मा की फिर भी वह खाना बना ही लेती थी कि कोई भूखा न रह जाए। कभी-कभी चूल्हे की मिट्टी भी बारिश के पानी से लथपथ हो जाती थी ।
इसी झापस के दिनों में शाम को कीट और पतंगे आसमान में झुंड के झुंड उड़ते रहते थे और कभी दीपक से टकराते थे, कभी लालटेन से। यहां तक कि खाते समय हमेशा यह डर लगा रहता था कि कोई कीड़ा आकर खाने में न पड़ जाए। वैज्ञानिकों के हिसाब से कीड़ों का प्रजनन समय यही होता था। लेकिन गांव में कहते थे कि जब विनाश का समय आता है तो कीड़ों के पंख लग जाते हैं। चीटियों के लिए खास तौर से यह कहावत बहुत प्रसिद्ध थी। शाम के समय जब ये कीट पतंगे उड़ते थे तो उनको खाने के लिए कुछ जीव भी ताक में रहते थे। उनमें उल्लू और चमगादड़ मुख्य थे। उल्लू और चमगादड़ के ठिकाने अक्सर पुराने पेड़ के कोटर होते थे पीपल और बरगद खासतौर से उनके ठिकाने होते थे। लेकिन आज के दौर में इन दोनों का दिखना बहुत कम हो गया है।
गांव के ज्यादातर मकान उस समय मिट्टी के ही बने होते थे। पक्के मकान इक्के-दुक्के लोगों के पास ही थे । झापस के दिनों में मिट्टी के मकान बहुत ही खतरनाक स्थिति में हो जाते थे और दीवारें गिर भी जाती थीं। पुराने मकान तो अक्सर ढह जाते थे। मिसिर दादा का मकान आधा ईंटो का था जिसकी छतें मिट्टी की थी । झापस में इन छतों से पानी रिसकर कड़ी से होकर टपकता रहता था ।
झापस के इन्हीं दिनों में गांव में मच्छरों की संख्या में अभूतपूर्व इजाफा होता था । लेकिन करते भी क्या इन्हीं मच्छरों के बीच रहना होता था । पुरुष वर्ग तो घर के बाहर ही सोता था और मच्छरों के झुंड के झुंड रात भर उनको नोचते रहते थे । मच्छरों को भगाने के लिए धुँआ सुलगाया जाता था। झापस के समय मेढकों की भी धमाचौकड़ी गांव में दिख जाती थी और उनके पीछे-पीछे कुछ साँप भी आ जाते थे। यह मेढ़क जब निकलते थे तो पीले-पीले होते थे लेकिन कुछ दिन बाद इनके रंग हरे हो जाते थे। कहते थे कि बरसात के पहले यह मेंढक दलदली मिट्टी में छुपे रहते थे इसलिए पीले हो जाते थे। झापस के समय मेंढकों की टर्र-टर्र व झींगुर और खंझड़ी की झंकार पूरे गांव में गूँजती रहती थी।
झापस के दिनों में ही धान की रोपाई होती थी और कहते थे कि पानी का धीरे-धीरे बरसना फसलों के लिए वैसा ही होता था जैसे कि उस पर कोई खाद छिड़क रहा हो । इसलिए झापस के मौसम को किसान खुश होकर स्वीकार करता था लेकिन जब झापस बहुत दिनों को हो जाता था तो आम जनजीवन को बड़ी कठिनाई उठानी पड़ती थी। मौसम के परिवर्तन के साथ-साथ जिसमें ग्लोबल वार्मिंग भी शामिल है,अब कई दिनों की बरसात गांव में नहीं होती। वह जो झापस का दौर था उसे यह ग्लोबल वार्मिंग भी निगल गई। अब की बरसात में गांव के तालाब भी मुश्किल से भर पाते हैं अन्यथा उस दौर में चारों तरफ की धरती और खेत खलिहान लबालब भरे दिखते थे । दलदली और मार्शी लैंड गांव-गांव पाए जाते थे ।
8-काल कलौटी -
मानसून को भारतीय खेती का सबसे बड़ा जुआ कहा जाता है। जब बरस गया तो फसल अच्छी, जब नहीं बरसा तो फसल चौपट। ज्यादा बरस गया तो नुकसान, कम बरसा तो भी नुकसान। इसी तरह समय से बारिश हुई तो फायदा, नहीं हुई तो फसल चौपट। कुल मिलाकर खेती-किसानी बारिश पर ज्यादा निर्भर रहती है, क्योंकि सिंचाई के साधन या तो सीमित हैं या श्रम साध्य हैं या मँहगे हैं।
गौहन्ना की खेती इससे अलग नहीं थी। यहां भी सरकारी ट्यूबवेल एक ही थी और उसमें भी सिंचाई के लिए किसका नंबर कब आएगा पता नहीं? कुछ लोग तालाब से खेतों तक पानी ले जाने के लिए बेड़ी का प्रयोग करते थे जो एक तरह की पतली डलिया होती थी, जिसे दो लोग पकड़ कर पानी निकालते थे। इस डलिया को 'दोगला' भी कहते थे। इसी तरह कुँए से पानी निकालने के लिए 'कूँण' का प्रयोग होता था जिसमें चरखी के दोनों तरफ बाल्टी जैसी कूँण लगी होती थी। बड़े किसान 'रहट' का उपयोग करते थे, जो बैलों से चलती थी। इन सबके बावजूद बारिश जब तक न हो जाए ,धरती का पेट प्यासा ही रहता था। छोटे किसान के लिए बारिश बहुत बड़ा सहारा थी।
गौहन्ना गांव में जब बारिश का इंतजार करते-करते लोग थक जाते थे तो कुछ टोटके किए जाते थे इनमें काल-कलौटी भी एक था। काल-कलौटी के लिए एक मेढ़क को रस्सी से बांधा जाता था और गांव के छोटे-छोटे बच्चे बुलाए जाते थे और छप्पर से पानी गिराया जाता था। इस गिरते हुए पानी में मेढक के साथ-साथ छोटे-छोटे बच्चे भीगते थे और कीचड़ में लोटते थे । यह प्रक्रिया गांव के चारों कोनों पर की जाती थी और सभी संभ्रांत घर के लोग इसे करवाते थे। बच्चों को खाने-पीने की कुछ चीजें दी जाती थी और सभी घरों में उनके लिए दिल खोलकर खाने-पीने की व्यवस्था होती थी। अकसर ऐसा होता था कि इस खेल के बाद बारिश हो ही जाती थी । अब यह महज संयोग था या फिर गांव वालों की दृढ़ आस्था जो भगवान को भी बारिश कराने पर मजबूर कर देती थी ।
कहते हैं कि जब दवा काम नहीं आती तो दुआ काम आती है । एक कहानी आपने भी सुनी होगी कि एक बार इंद्र देवता नाराज हो गए और उन्होंने पानी बरसाना बंद कर दिया । गांव में एक किसान ऐसा भी था जो लगातार बैलों को लेकर खेत में जाता था। लोग पूछते थे कि ऐसा क्यों करते हो? तो उसका जवाब होता था कि इंद्रदेव कहीं इतने दिनों में पानी बरसाना भूल जाएं ,लेकिन मैं अपनी किसानी को भूलना नहीं चाहता। बताते हैं कि उसकी इस बात पर इंद्रदेव ने प्रसन्न होकर बारिश करा दी थी। यही आस्था होती है।
गौहन्ना और आसपास के गांव में यह टोटका आमतौर पर प्रचलित था । एक मान्यता यह भी थी कि अगर स्त्रियाँ हल चलाएँ तो बारिश हो जाती है। वैसे तो गांव में केवल पुरुष वर्ग ही हल चलाता था, लेकिन बारिश के लिए इस परंपरा में विश्वास करने वाले बूढ़े -बुजुर्ग इस मान्यता को हवा देते रहते थे परिणाम स्वरूप कभी-कभी स्त्रियों को भी हल चलाने की छूट मिल जाती थी। स्त्रियों को प्रायः अंधेरे में ही हल चलवा कर यह टोटका पूरा कर लिया जाता था । इस टोटके से भी कभी-कभी बारिश हो जाती थी ।
विज्ञान के तर्कों पर इस तरह की बातें एक अंधविश्वास से ज्यादा कुछ नहीं। लेकिन जहां आस्था प्रबल होती है,वहां विज्ञान की नहीं चलती। और जब बात पेट भरने की हो तो उसके लिए मानव सभ्यता हर तरह के प्रयोग अपनाती रही है । यही हाल ग्रामीण समाज का भी रहा है। उनके अपने अनुभव हैं, उनकी अपनी मान्यताएं हैं जिस पर उनका हद दर्जे तक भरोसा है।
फिलहाल काल कलौटी का मेढक बाद में किसी तालाब में छोड़ दिया जाता था और गांव के लड़के जो कीचड़ में सने हुए होते थे, जाकर अपने अपने घर नहाते थे। आज के इस दौर में यह खेल लगभग- लगभग लुप्त हो गया है और बोरिंग ने धरती के सीने में इतने छेद कर दिए हैं कि बारिश हो या ना हो, खेती को जब चाहिए पानी मिल ही जाता है लेकिन धरती का दर्द तब महसूस होता है जब पानी का स्तर नीचे चला जाता है और बड़ी-बड़ी बोरिंग भी फेल हो जाती है। तब फिर से वही तालाब और जल संचय की बात होने लगती है।
9-
"मिसिर दादा तोहार नेवता है" । नाई ने आवाज लगाई ।
कहाँ ? मिसिर दादा ने पूछा।
हाजीपुर पराग पांड़े के भागवत बैठी है ।
अच्छा-अच्छा । अरे लल्ला घर से 'नेवतौनी' लै आओ ।
नेवतऊनी लेकर नाई अगले घर में निमंत्रण देने चला गया । अवध क्षेत्र में निमंत्रण को नेवता संबोधन के साथ जाना जाता है । निमंत्रण भी 'जेंवार' के सभी लोगों को भेजने की परम्परा है । जेंवार उस इलाके को कहते हैं जिनके साथ खान-पान का सम्बन्ध होता है। इसका दायरा प्रायः दस किलोमीटर के आस-पास हुआ करता था । अस्सी के दशक के नेवता खाने वालों के अनुभव कुछ अलग ही होते थे । क्या बड़े, क्या बुजुर्ग सभी को कुर्ता बनियान निकाल के भोजन की पंगत में बैठना पड़ता था। यहाँ तक कि घनघोर जाड़े में भी उपरिवस्त्र के साथ कोई भी पंगत में नहीं घुस सकता था । पंगत उठने के पहले गांव देश में क्या हो रहा, क्या होना चाहिए इसकी चर्चा के लिए पर्याप्त समय होता था । एक दूसरे के गांव का कुशल क्षेम वहीं पूछा और पता किया जाता था । रिश्ते-नाते भी इन्हीं आयोजनों और बैठकों में तलाश किए जाते थे ।
जब पंगत यानि पंक्ति या पाँत बैठ जाती थी तो किसी नए आदमी को उनके उठने तक इंतजार करना पड़ता था और पंगत तभी उठती थी जब समूह में सभी भोजन कर तृप्त हो जाते ।
'पूड़ी भाई पूड़ी ' परोसने वाले खिलाने में चूक नहीं करते थे । कोई सूखी सब्जी जैसे कद्दू या घुईया आदि बनवाता था तो कोई सूखी के साथ रसेदार सब्जी जैसे कटहल या परवल आदि बनवाता था । सक्षम लोग दोनों की व्यवस्था करते थे । 'गलका' एक विशेष तरह का व्यंजन था जो अचार की तरह चटखारे के लिए अनिवार्य रूप से होता था । खाने के साथ-साथ बूंदी या गोरस और शक्कर का चलन था । गोरस यानि मठठा या छाछ आस पास के गांव से लोग उसके घर फ्री में सहयोग की भावना से पहुँचा जाते थे । खाने वाले भी 'मोछा-बोर' धकेलते जाते थे। गोरस और बूरा शक्कर पूरे खाने को आसानी से पचा देती थी। फिर चाहे गाड़ी ओवरलोड ही क्यों न हो गई हो। और हाँ एक राज की बात ये भी होती थी कि कितनी भी जनता भंडारे में आ जाय गोरस कभी कम नहीं पड़ता था आखिर तक आते-आते एक बाल्टी असली मठ्ठे में पांच बाल्टी पानी भी मिलाना पड़ जाय तो भी लोग बुरा नहीं मानते थे । सरयू किनारे की छोटी पूड़ी से लेकर गोमती किनारे की अंगौछा छाप पूड़ी को पचाने में
गोरस की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी ।
नेवता खाने के बाद जबसबको साबुत कपड़े मिल जाते थे तब दक्षिणा और पान की बारी आती थी पहले ये गांव-वार किसी मुखिया को दी जाती थी जो उस गांव के सभी निमंत्रित को बांटता था। बाद में सुविधा के लिए खाने के आखिरी दौर में पान और दक्षिणा पत्तल पर ही दे दी जाने लगी ।
गौहन्ना गांव और आस-पास के इलाके में दो तरह के निमंत्रण और भी प्रचलित थे जिन्हें 'चुलिहा-नेवार' और 'लंगोट-बन्द' नेवता कहा जाता था । चुलिहा नेवार नेवता में घर के सभी लोगो चाहे वो पुरुष हो या स्त्री , बुजुर्ग हो या बच्चे सब का निमंत्रण रहता था यानि उस दिन चूल्हा नहीं जलाना बस आयोजक के घर धमकना और जम के खाना होता था । वहीं लंगोट बन्द नेवता में घर के पुरुष वर्ग को ही जाना होता था । बताते हैं कि पहले के जमाने में भोजन की उच्चतम शुद्धता बनाने के लिए हल्दी और नमक भोजन बनाते समय न डालकर अलग से पत्तल पर परोसा जाता था । नमक को 'रामरस' कहते थे। नमक का बड़ा सम्मान था मजाल था कि नमक जमीन पर गिर जाय . नमक को लेकर बड़ी हिदायतें थीं कि अगर जमीन पर गिर जाएगा तो आँख की बरौनी से उठाना पड़ेगा । ये डर ऐसा था कि नमक ही रसोई का राजा बन गया ।
एक बार मिसिर दादा के साथ उनका हमराह साहब दीन भी भंडारे में बैठे । परोसने वाले में नमक यानि रामरस वाले ने चिल्ला कर पूछना शुरू किया-
उसने थोड़ा सा नमक पत्तल में रख दिया । साहब दीन को गुस्सा आ गया ये क्या थोड़ा ही रखा ? परसने वाला ताड़ गया कि अजनबी है। पहली बार पंगत में बैठा है बस उसने ज्यादा रख दिया।
साहबदीन खुशी में पूड़ी का पहला टुकड़ा रामरस के साथ खा बैठे और फिर उसके बाद उन्होंने किसी भी भंडारे में रामरस नहीं मांगा ।
पूड़ी कद्दू का संयोग बहुधा हर गांव में प्रचलित था। बाद में एनडी यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय प्रोफेसर एसबी सिंह ने जो रहस्योद्घाटन किया उसे सुनकर आंचलिक विज्ञान के सामने नत मस्तक होना पड़ा । बकौल प्रोफेसर साहब पूड़ी में वसा होता है और कद्दू में विटामिन-ए । विटामिन-ए वसा में घुलन शील है. इसलिए दोनों की जोड़ी फेमस है । कद्दू पूड़ी खाइए, कभी अपच नहीं होगा ।
इन आयोजनों प्रयोजनों में जिसके घर भंडारा होता था उस को पूरा गांव ,समाज मदद करता था । कोई बरतन उपलब्ध करवाता था तो कोई हलवाई का काम करता था । मिल जुल कर बड़े से बड़ा भंडारा, जिसमें हजारों लोग खाते थे आसानी से निपटा लिया जाता था । बड़े परोजनो यानि प्रयोजनों में कमान प्रायः गांव के पुरुष समाज के पास ही होती थी । एक की इज्जत पूरे गांव की इज्जत होती थी । इसलिए गांव के लोग सबसे आखिरी में भोजन करते थे जब दूर दराज के लोग छक कर चले जाते थे ।
आज के दौर में सामूहिकता के इस सामाजिक ताने बाने की परम्परा धीरे धीरे 'कैटरर' के हाथ में चली गई । पत्तल दोने बनाने वाले बन मानुष बेरोजगार हो गए । कुल्हड़ बीते जमाने की बातें हों गईं। उनकी जगह प्लास्टिक के गिलास ने ले ली । कुम्हार का चाक आहिस्ता-आहिस्ता धीमा होता गया और उनको भी रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो गया । पुराने लोग यह भी कहते मिल जाते हैं कि न अब उस तरह नेवता खाने वाले रहे, न खिलाने वाले । 'बफे-सिस्टम' जिन ने हज़म किया वो आज भी खड़े होकर खाना खा ले रहे हैं । बस ये महज औपचारिकता भर है. रिश्तों और भाई-चारे की गरमाहट अब ढूँढने से भी नहीं मिलती ।
10-
ये नाम कैसे और कब पड़ा होगा? कहना मुश्किल है। लोक-मान्यताएँ कब विकसित हुईं ? उनका स्वरूप कब और कैसा रहा होगा? इसे लोगों से सुनकर ही जाना जा सकता है। इसका लिखित इतिहास बहुत कम ही होता है और हाँ इतिहास सबूत मांगता है, इसलिए दुरदुरिया पुरानी लोक मान्यता के पैमाने पर अवध क्षेत्र की पवित्र प्रथाओं में से एक है जिसे सुहागिनें मनौती के रूप में या मनौती पूरी होने के रूप में आयोजित करती हैं । इतिहास का पन्ना इसे समेट नहीं सकता, समझ नहीं सकता ।
"मम्मी आज संतोष के घर दुरदुरिया है
कह कर अम्बरीष नाऊ की पत्नी आगे बढ़ गई । उधर भड़भूजा के यहाँ दुरदुरिया का भुजिया चावल भुनाने के लिए संतोष का बेटा जा पहुंचा। गांव में तीन जगह भाड़ जलता था एक भुजइन अम्मा के यहाँ , दूसरा भगत भुजवा के यहाँ और तीसरा महरिन अम्मा के यहाँ । भुजाने वालों की अपनी पसंद अलग- अलग थी। किसी को भगत की भुजाई पसंद थी तो किसी को महरिन अम्मा की । लेकिन इनके भाड़ हमेशा नहीं जलते थे सिर्फ एक भुजइन अम्मा का भाड़ दो-चार दिन छोड़ दें तो हमेशा जलता था ।
"मैता ई दुरदुरिया कै चाउर है
"अच्छा अम्मा " मैता दीदी की आवाज आई।
"संतोष के, आज दुरदुरिया है"
दुरदुरिया की पूजा में सात सुहागिनें बुलाई जाती हैं और उनको यही भुने चावल अर्थात चबैना या यूँ कहें कि धान की लाई सभी स्त्रियों को दिया जाता है। सभी स्त्रियाँ स्नान आदि के बाद भूखे पेट दुरदुरिया की पूजा में शामिल होती हैं । सभी सातों को आयोजक स्त्री जिसने मनौती मानी होती है उसके कोंछ में थोड़े -थोड़े हिस्से भरने पड़ते हैं। इस प्रकार सबके सहयोग से उसका कोंछ भर जाता है और माना जाता है कि इस आशीर्वाद से मनौती पूरी हो जाएगी । फिर औसाना या अवसाना माई की कथा होती है । सिंदूर माई को चढ़ाकर प्रसाद के रूप में खुद भी लगाया जाता है । मिल-बाँट कर एक दूसरे को सहयोग और आशीर्वाद का यह आयोजन अवध और आस-पास के इलाके में हर गांव में मिल जाएगा । संतोष और उम्मीद की यह मान्यता किसी को निराश नहीं होने देती ।
वैसे तो उनका नाम 'अलका' है लेकिन गांव में सारे बच्चे उनको 'मम्मी' ही कहते हैं जो अपने समय की सबसे पढ़ी-लिखी महिला रहीं । बकौल मम्मी औसाना माई अवसाना का अपभ्रंश है । दुरदुरिया गौरी यानि पार्वती जी की ही पूजा है । जब सीता जी भगवान राम को देखने के बाद गौरी जी की पूजन को गईं, तो प्रार्थना की ..
अमित प्रभाव बेदु नहि जाना
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि
.. (राम चरित मानस, बाल कांड)
राम के इलाके में उनके आराध्य आदि देव भगवान शिव की पत्नी गौरी जी की पूजा तो होगी ही,वो चाहे जिस रूप में क्यों न प्रचलित हो । गौरी-गणेश के बिना आज तक कोई पूजा हुई है क्या?
शास्त्र के दृष्टिकोण भले ही इसका वर्णन न मिलता हो और अवसाना का दूसरा अर्थ हो लेकिन समाज शास्त्रीय दृष्टिकोण से गौरी पूजा का स्थानीयकरण होकर अवसाना माई की पूजा के रूप में ये आज भी प्रचलित है । इसे दुरदुरिया नाम कैसे मिला होगा, यह शोध का विषय है। फिलहाल इतना ही मान लेना पर्याप्त है कि दाने चबाने के समय आने वाली दरर -दरर की आवाज से इसका सम्बन्ध हो सकता है ।
कतिपय शोधकर्ता दुरदुरिया को दुःख दुरिया का अपभ्रंश मानते हैं जो दुःख को दूर कर देती है।
जब भी कभी अवध क्षेत्र का समाज शास्त्रीय अध्ययन होगा लोक मान्यता का ये त्योहार बहुत गूढ़ार्थ भरा मिलेगा ।
11-
बात उन दिनों की है जब अवध क्षेत्र में बारात तीन दिन तक गांव में रुकती थी। उन दिनों बारातियों का स्वागत तीनों दिन अलग-अलग तरीके से होता था । उनमें एक दिन शिष्टाचार का भी होता था। शिष्टाचार में वर और वधू पक्ष के उद्भट विद्वान इकट्ठा होते थे और दोनों तरफ से प्रश्न-प्रतिप्रश्न के माध्यम से शास्त्रार्थ होता था। इस परंपरा में शादी-विवाह में आने वाले बारातियों में खासतौर से विद्वान और ब्राह्मणों को ले जाने का चलन खूब प्रचलित हुआ, क्योंकि शास्त्रार्थ में जीत वर या वधू पक्ष की नाक का सवाल था। प्रायः वधू पक्ष के लोग जीत जाते थे और यह चर्चा पूरे गांव में किसी सनसनी की तरह फैल जाती थी। वधू पक्ष की महिलाओं को यह जीत आनंदित करती थी। ।
बारात के आगमन पर दरवाजे पर जिस चीज से बारातियों का स्वागत किया जाता था वह बीड़ा कहलाता था । कन्याएँ जिनमें दुल्हन की सहेलियाँ ज्यादा होती थीं, छतों पर 'बीड़ा' लेकर बारात के आने का इंतजार करती थीं । बीड़ा शब्द पान के बीड़े से लिया गया है लेकिन कालांतर में जब ग्रामीण क्षेत्र में पान की उपलब्धता कम रहती थी, तो अन्य पत्तों या छोटे-छोटे फलों से और फूलों से बारातियों का स्वागत होता था । इन बीड़ों में बतासे और कड़े फल भी होते थे जिनसे कभी कभी चोट भी लग जाती थी। लेकिन कितनी भी चोट लग जाए कोई बाराती शिकायत नहीं करता था और इस हमले को हँस कर झेल लेता था।
बारात को खिलाने पिलाने में कोई कमी न रह जाए, यह जिम्मेदारी पूरे गांव की होती थी। बारात आने के पहले गांव के सभी जिम्मेदार लोग इन व्यवस्थाओं को पूरा करवाते थे कोई खाना बनाता था कोई चारपाइयाँ इकट्ठा करता था, कोई गद्दा रजाई इकट्ठा करता था, कोई बर्तन इकट्ठे करता था वगैरह-वगैरह। क्योंकि पहले के जमाने में टेंट हाउस जैसी कोई व्यवस्था नहीं होती थी और न ही 'कैटरर' नाम का कोई तंत्र होता था। इसलिए सामूहिक योगदान से इतनी बड़ी बारात को जिसमें कभी-कभी चार- पाँच सौ लोग होते थे, सकुशल सम्मान सहित रुकाया,टिकाया और विदा किया जाता था। उस बारात का बड़ा बखान होता था, जिस बारात में अगले दिन दही-बड़े के साथ साथ कटहल की सब्जी मिल जाती थी। यह दोनों व्यंजन इतने स्वाद और मधुरता वाले होते थे कि पूछो मत और इनको खाते-खिलाते समय पीछे से ससुराल पक्ष की मधुर गालियाँ सुनकर इनका स्वाद कई गुना बढ़ जाता था। आप सोच रहे होंगे कि खाना खाते समय कोई गाली सुनकर कैसे खुश होगा? लेकिन अवध क्षेत्र में भगवान राम के जमाने से या हो सकता है उससे पहले से यह जो उलाहना भरी गालियों की परंपरा जिसे स्थानीय भाषा में गारी कहते हैं व्यापक रूप से प्रचलित है । बताते हैं कि राजा दशरथ जब भगवान राम का विवाह करने मिथिला गए थे तो उन्हें भी भरपूर गालियाँ सुनने को मिली थीं । एक छोटी ढोलक के साथ अवध क्षेत्र की दो-चार महिलाएँ सैकड़ों बारातियों को गारी-गान सुना सकती हैं । परंपरा की मर्यादा इस स्तर तक है कि कोई भी पुरुष इसका विरोध नहीं कर सकता। सबको चुप मारकर मुस्करा कर इन गीतों को सुनना पड़ता है। बारातियों में संभ्रांत लोगों के नाम ढूँढ -ढूँढ कर उन्हें गालियाँ सुनाई जाती हैं।
बारातियों तक तो यह परंपरा शिष्टाचार और गाली तक ही रहती है लेकिन दूल्हे के ऊपर गजब बीतती है। जब वह कोहबर में जाता है तो उसकी स्थिति भीगी बिल्ली जैसी होती है। उसे चारों तरफ से दुल्हन की सखियों-सहेलियों के बीच अपना जौहर दिखाना होता है जिसमें अँगूठी और छल्ला ढूँढने से लेकर बाती-मेराई जैसी परम्पराएँ निभानी होती हैं। दूल्हे राजा तो अकेले होते हैं वहाँ और कोई दूसरा पुरुष जा ही नहीं सकता। इधर दुल्हन की सहेलियाँ दुल्हन को जिताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़तीं सो अक्सर दूल्हे राजा 'कोहबर' में हार ही जाते हैं। इस हार की मीठी गुदगुदी आजीवन दांपत्य जीवन में घुली रहती है।
'माड़व हिलाई' विदाई के पहले अवध की एक महत्वपूर्ण परंपरा है। खिचड़ी खाने और प्यार भरी गारी खा लेने के बाद इसमें बारातियों की तरफ से दूल्हे के पिता और कुछ महत्वपूर्ण लोग आँगन में लगाए गए 'माणव' यानी छप्पर को हिलाने आते हैं । अब बदमाशी यहाँ भी होती है। छप्पर के ऊपर रंग भरे कुल्हड़ रख दिए जाते हैं और जैसे ही वर पक्ष के लोग माणव हिलाते हैं , उन पर रंगों की बौछार हो जाती है । इस परंपरा को भी वर पक्ष के लोगों को हँसकर झेलना होता है । इस तरह शादी विवाह की कुछ अनूठी परम्पराएँ वर-वधू दोनों पक्षों को आजीवन ऐसे बंधन में बाँधती हैं जिसकी मीठी यादें पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती हैं।
छपरा भले ही बिहार का एक नामी जिला हो लेकिन गौहन्ना में छपरा का मतलब घास फूस के छप्पर से ही रहा है जिसे सरपत और मूँज से बनाया जाता था । साथ में बीच-बीच में तिलेठी और झखरा भी घुसाया जाता था तब जा कर छप्पर मजबूत बनता था ।
अब ये शब्दावलियाँ गांव-गिराँव के ही शोध का परिणाम थीं,जो किसी शब्दकोष में मिलना मुश्किल है। अतः समझने के लिए बताना जरूरी है 'झखरा' अरहर के सूखे पौधे को कहते हैं , तो 'तिलेठी' सरसों या राई का सूखा पौधा होता था । मेड़ और खाईं पर मिलने वाला मुंजा या सरपत गन्ने के परिवार का छोटा भाई कह सकते हैं,जिसके ऊपर पानी नहीं रुकता था । इस तरह छप्पर मजबूत बन जाता था ।
छप्पर उठाने के लिए आवाज लगानी पड़ती थी । जहाँ ज्यादा लोग एक साथ खड़े मिलते तो लोग मुहावरा बोलते कि-
छपरा सामूहिक सहयोग और मेलजोल की भावना का आसमान हुआ करता था ।
गांव में ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने होते थे जिनकी दीवारें मोटी-मोटी हुआ करती थीं । रद्दे पर रददे रख कर दीवार छत की ऊँचाई तक लाई जाती थी । दीवार के लिए चिकनी मिट्टी जिस तालाब की अच्छी होती थी वहीं के लिए मारा-मारी रहती थी। बेतला ताल से लेकर नकसरा डोभी और झिलिया के ताल काम में आते थे । इसी बहाने हर साल ये तालाब बिना 'मनरेगा' स्कीम खुदते रहते थे और गांव की वाटर बॉडी रिचार्ज होती रहती थी । पक्के घरों के बनने से तालाब भी उथले होते चले गए और जल स्तर रसातल में चला गया । खपड़े और नरिया के घर संभ्रांत लोग ही बनवा पाते थे ।
छत ढालने के लिए मूठ और करी का प्रयोग होता था जिस पर मिट्टी की पटाई होती थी । किसी का घर बनाने में कोई सहयोग कर देता था तो दूसरे को बदले में श्रमदान जिसे 'हूंड़' कहते थे देना पड़ता था ।
छपरा को हर जगह छपरा नहीं कहा जा सकता था। उसके नाम अलग-अलग थे जब वो शहन दरवाजे पर होता था तो 'ओसारा' कहलाता था , बाहर 'मड़हा' कहलाता था और छत के ऊपर पूरी तरह छत को ढकता था तो 'रावटी' कहा जाता था, जिसमें बीज को कई मटके व मटकी में रखा जाता था। एक प्रकार से ये तब का जीन बैंक होता था ।
'मड़हा' दोनों तरफ ढाल दार होता था। उसके चारों तरफ रोकने के लिए लकड़ी की 'थूनी' लगाई जाती थी जो Y आकार की होती थी। मध्य भाग 'बड़ेर' को बड़ी बड़ी लकड़ियों यानि 'थमरा' पर टिकाया जाता था ।
छप्पर का छोटा रूप 'परछती' कहलाता था और छप्पर के जिस हिस्से से बरसात का पानी जमीन पर गिरता था उसे 'बरौनी' कहते थे, ठीक आंख की बरौनी की तरह ।
इन छप्परों में खेती किसानी के बीज से लेकर 'सिकहर' पर रोटी और खाना भी टंगा होता था । अक्सर छप्परों पर तोरी, लौकी, कद्दू , सेम के पौधे मिल ही जाते थे । किचन गार्डन का यह फार्मूला गांव के हर घर में दादी-आजी को पता होता था । गांव खुद में ही स्वावलंबी होते थे । जब इनमें फल आते थे तो किसी छोटे बच्चे को छप्पर पर चढ़ा कर फल तुड़वाए जाते थे जिससे छप्पर को नुकसान न पहुँचे और सब्जी भी मिल जाय ।
छप्पर किसानों के खेत में रखवाली के लिए जब रखा जाता था तो इस मचान को 'अटाना' के नाम से जाना जाता था । ये अटाना जमीन से पांच-छह फीट की ऊँचाई पर होता था, जिससे पूरा खेत देखा जा सके । उस अटाना पर चढ़ने के लिए थूनी में ही खड्डे बना दिए जाते थे । ये अटाना कुछ समय के लिए हवा महल की अनुभूति जरूर करा दिया करता था ।
जानवरों के रहने के लिए बनाए जाने वाले स्थान को 'सरिया' कहा जाता था जिसका छपरा ज्यादातर एक तरफ ढाल वाला होता था । छप्पर को कस कर बांधने के लिए अरहर की 'कईनी' का प्रयोग होता था । बांस के डंडे छप्पर की मजबूती के लिए बीच बीच में जरूर लगाए जाते थे । प्रायः ये डंडे डेढ़ से दो फीट की समान दूरी पर दोनों तरफ रहते थे ।
छप्पर का गर्मियों में अलग ही आनंद होता था तापमान कितना भी बढ़ जाय लेकिन बिना एसी के अंदर का मौसम मजेदार रहता था । जाड़े के दिनों में मड़हा के चारों ओर टटिया लगानी पड़ती थी जो जाड़ों से सुरक्षा देती थी। अरहर की टट्टी और गुजराती ताला के कहावत वाली ये टटिया ठंडी हवा से बचाव करती थी ।
जब कभी गांव में आग लग जाती थी तो मंजर खतरनाक होता था. कभी-कभी एक-दो घर के बाद आग बुझा ली जाती थी तो कभी-कभी गांव के गांव साफ हो जाते थे । फायर ब्रिगेड होते जरूर थे लेकिन जब तक सूचना जाती थी और वो दो-चार घंटे बाद आते थे तब तक सर्वनाश हो चुका होता था । लेखपाल या तहसीलदार मातम पुर्सी के लिए आ जाय तो एहसान जैसा होता था । आज की तरह न तो जनता जागरूक थी,न ही उसे इन सब लोगों से बहुत उम्मीद थी। गौहन्ना गांव में बिजली लगने के बाद सबसे ज्यादा घर इसलिए जल गए थे कि चलती बिजली लाइन में पानी डालने से करंट लग रहा था । दिया यानि दीपक और तपता यानि अलाव और कभी कभी हुक्का और बीड़ी पीने वालों की असावधानी छप्पर के छप्पर निपटा जाती थी ।
अब गौहन्ना में भी पक्के घरों का चलन हो गया है । हाँ आज भी छप्पर मौजूद हैं पर छपरा के छवैया यानि आर्किटेक्ट अब ख़तम होते जा रहे हैं । कुछेक आर्किटेक्ट बड़े बड़े होटलों ने बुला लिए हैं,जहां छपरा में लोग बैठ कर लग्ज़री महसूस करते हैं । ग्रामीण जीवन के इस मौलिक आर्किटेक्ट को आज जब होटल में देखता हूँ तो सोचता हूँ कि ग्रामीण जीवन की मज़बूरी में विकसित कला कृति अब कमाई का जरिया भी बन गई है।
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'झिलमिल सितारों का आँगन होगा
सितारों का आँगन गौहन्ना के गांव में भी हुआ करता था । जहां कुछ पल के लिए पूरा घर सुस्ताता था । गौरैया दाना चुगने आती थी और तुलसी का पौधा सीधे आसमान से आती किरणों से नहाता था । गांव-गांव आँगन बनाने की परंपरा सदियों से रही है आज भले ही घर पक्के हो गए हों लेकिन आँगन नहीं तो घर की रौनक नहीं। हाँ शहरों ने आँगन अलबत्ता लगभग खो दिए हैं ।
गांव में पूरा घर केवल घर नहीं था। उसके कई भाग और अनुभाग हुआ करते थे । घर के बाहर का हिस्सा दुआर-मुहार कहलाता था । किसी के घर के संस्कार उसके दुआर-मुहार की रौनक और साफ सफाई से समझे जा सकते थे । घर में घुसने का पहला दरवाजा शहन दरवाजा कहलाता था । चौखट दरवाजे का अनिवार्य हिस्सा हुआ करती थी । चौखट पर मत्था टेकने की कहावत तो सुनी ही होगी। चौखट और दरवाजे से झुक कर प्रवेश की परम्परा घर को मन्दिर की संज्ञा तक स्थापित करते थे ।
घर का सम्मान सबको करना होता था । दरवाजे पर गोबर और गेरू से लिपाई घर-घर में होती थी । कुंडा, साँकल या जंजीर आदि दरवाजे के सुरक्षा सरदार होते थे ।बहुत कम ऐसा होता था कि बाहर ताला लगाना पड़े, क्योंकि संयुक्त परिवार इतना बड़ा होता था कि उसका कोई न कोई सदस्य घर में रहता ही था ।
चौखट से आगे कदम रखते ही जो कमरा मिलता था, उसे दालान कहते थे । प्रायः उसी के बगल एक कमरा 'चौपार' या चौपाल का होता था जहां पुरुष वर्ग सामूहिक चर्चा के लिए इकठ्ठा होते थे । मेहमानों की आवभगत भी उसी कमरे में होती थी ।
दालान में ही अनाज की 'कोठरी' और 'डेहरी' भी हुआ करती थी जिसमें साल भर के अनाज की व्यवस्था पूरी तरह दुरुस्त रहती थी । डेहरी मिट्टी की बनी होती थी, ऊपर से भरते थे नीचे के छेद से निकासी की जाती थी।
यहीं कहीं आस-पास एक कमरा 'बखार' का होता था, जहां खेत से आया अनाज खासकर गेहूं, चना, मटर बोरे में भरकर भूसे के अंदर रख दिया जाता था । इस तरह ये अनाज कम ऑक्सीजन के केंद्र में कीड़े-मकोड़े से बहुत दिनों तक सुरक्षित रहते थे ।
चौखट-दालान पार करने के बाद घर का सबसे महत्वपूर्ण भाग आँगन होता था जिसे गौहन्ना में अँगना कहते थे।
नरायन दादा सबेरे-सबेरे गाते थे
अंगना के तीन तरफ तीन कोठरियों के अलग अलग नाम थे।
एक तरफ रसोई होती थी और ज्यादातर उस में ही कुल देवता स्थापित होते थे। हर घर का कुल देवता विशिष्ट होता था, जिसे आज भी 'देवतन' के नाम से जानते हैं। शादी-विवाह, मुंडन , जनेऊ, किसी भी संस्कार या प्रयोजन की सफलता कुल देवता की प्रसन्नता पर निर्भर होती है । रसोई के पकवान , नई फसल आदि सबसे पहले वहीं अर्पित किये जाते हैं । विवाह के समय कोहबर इसी कमरे में बनता है । 'कोहबर' चित्रकला अवध की बेहतरीन लोक कला है जिसे अगर संरक्षण न मिला तो लुप्त हो जाएगी । मधुबनी पेंटिंग से ये कला रत्ती भर भी कम नहीं है।
रसोई में हर किसी को पैर धुल कर नंगे पैर ही जाना होता था । बिना नहाए कोई खाना नहीं बना सकता था । चूल्हा-चौका घर के पवित्र स्थान के रूप में स्थापित होता था ।
जिस संस्कृति में अन्न को ब्रह्म का दर्जा मिला हो वहां चूल्हा-चौका यज्ञ स्थल तो होगा ही । कहते हैं कि दुनिया की सबसे पहली प्रयोग शालाएं रसोई घर ही रहीं होंगी और दुनिया की सबसे पहली वैज्ञानिक महिलाएं ही रही होंगी । पोषण और स्वास्थ्य के जितने प्रयोग यहां हुए, वे पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहे।
नई नवेली दुल्हन की कोठरी अलग ही होती थी जिसमें उसका अपना राज्य होता था । पूरब की कोठरी, पछू की कोठरी , दखिन की कोठरी आदि नामों से इन्हे जाना जाता था । दूध गरम करने की जगह को दुध-गड़ा कहते थे । अनाज पीसने के लिए बड़े-बड़े पत्थर के जाँत होते थे । सुबह सुबह उठकर महिलाओं को ये जाँत या छोटी चकिया पकड़नी पड़ती थी तब जाकर घर में रोटी की व्यवस्था होती थी। अलग से योग या कसरत करने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता था ।आँगन के सिल-बट्टे में पिसे मसाले गारंटी के साथ शुद्ध हुआ करते थे। । धान कूटने के लिए पहरुए और ओखली कोने में मौजूद रहते थे ।
पूजा का घर देवतन का स्थान ही हुआ करता था अब तो अलग से भी पूजा का कमरा बनने लगा । किसी-किसी घर में दुमहला भी होता था लेकिन होता मिट्टी का ही था । मिट्टी के घर में छत के ऊपर अटारी होती थी ।ये गाना तो सुना ही होगा
'आया आया अटरिया पे कोई चोर'
खैर अब अटारी होती नहीं सो चोर का क्या करना ?
फिर भी उस दौर में दिया यानि दीपक या चिराग रखने के लिए ताखे या ड्यूठी हुआ करती थी । कपड़े टांगने के लिए बांस की अरगनी या लकड़ी की खूँटी पर्याप्त हुआ करती थी । कूड़े , मटके के अनाज छत के ऊपर बनी रावटी में रखे जाते थे । तहखाने या भुइंनशा बड़े-बड़े घरों में ही होते थे ।
अवध क्षेत्र के ये घर, घर से ज्यादा मन्दिर थे । तब के घर मिट्टी के होने के बावजूद एक अनोखी दुनिया थे जिसमें संपूर्णता थी और अपने पराए सब के लिए दिल खोल कर जगह ही जगह थी । चाहे दुआर-मुहार हो या अँगना -दलान सब की अपनी पहचान और गरिमा थी ।
कहते हैं
'नींद न जाने टूटी खाट'
नींद कुछ को आती ही नहीं, तो गौहन्ना के लोग गोंदरी बिछा के आराम से सो जाते हैं । गोंदरी स्थानीय बिस्तर बनाने की कला है जिसे धान के पैरा यानि पुवाल से बनाया जाता है। रस्सी और पुवाल की मदद से बनी यह संरचना महलों के गद्दे को फेल करती है । जाड़े के दिनों में गरीब ग्रामीणों के लिए इससे बड़ा सहारा मिल जाता है । मुंशी प्रेमचन्द की पूस की रात कहानी अगर पढ़ी होगी तो गांव के जाड़े का अहसास थोड़ा बहुत जरूर हुआ होगा । खेत में पानी लगाने से लेकर जानवर से खेतों की रखवाली तक सब कुछ किसान उस कड़कती ठंड में कर लेता है । किसी बगीचे में अगर 'पैरा' यानि पुवाल की खरही अर्थात ढेर लगा हो तो रात आसानी से कट जाती थी ।
गांव में जाड़े से निपटने के लिए 'तपता' यानि अलाव जलता था । खेत के फूस व छप्पर के 'कराइन' को फूँक के जाड़ा निपट जाता है । तपता गौहन्ना गांव की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । मोहल्ले के लोग जिसके घर तपता जलता था वहां रात में भोजन के पहले या बाद में थोड़ी देर बैठ कर अपने सुख-दुख साझा करते थे । किसके घर क्या हुआ ? किसके घर मेहमान आए, किसके घर में आज क्या बना, सब पता चल जाता था । बड़ों के बीच बच्चे भी घुस के इन चर्चाओं का रसास्वादन किया करते थे ।
तपते के चारों तरफ बैठने के लिए 'बीड़ा' की व्यवस्था की जाती थी । बीड़ा पुवाल से ही बनता था जिसे आजकल के छोटे मोढ़े से समझा जा सकता है । बीड़ा केवल बुजुर्ग या सम्मानित व्यक्ति को ही मिलता था । बच्चे वगैरह जमीन पर बैठ कर आग सेंकते थे । 'मचिया' संभ्रांत लोगों के बैठने की कुर्सी थी । मचिया छोटी खाट की तरह होती थी जिसे चार पायों पर रस्सी से बुनकर बनाया जाता था । खटिया या चारपाई पर बैठ कर कम ही लोग आग सेंकते थे। इसे अच्छा नहीं मानते थे। हाँ तखत पर रोक नहीं थी। लेकिन अग्नि देवता का सम्मान जरूरी था। इसलिए सब लोग नीचे बैठते थे । अगर किसी ने पैर के तलवे आग की तरफ कर दिए तो उसको बहुत डांट पड़ती थी कि आग देवता को पैर नहीं दिखाते । कहते हैं कि जब तक माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक कुछ घरों में आग संरक्षित की जाती थी । एक दूसरे को चूल्हा जलाने के लिए आग माँगनी पड़ती थी ।
इस तपते में शाम के समय आलू और गंजी भूनी जाती थी जो रात के भोजन में बड़े चाव से खाई जाती थी । आलू का 'भरता' गौहन्ना का मजेदार व्यंजन हुआ करता था और अगर आटे की बाटी भी साथ में भूज ली गई है तो पूर्ण आहार बन जाता था । अक्सर गौहन्ना की बाटियाँ सादी ही होती थीं। उनमें सत्तू कभी-कभार ही पड़ता था । सादी बाटी भी घी , भरता और चटनी के साथ मस्त लगती थी ।
तपते की आग से कभी-कभी बड़े हादसे भी हो जाते थे। छप्पर की आग दो-चार घर हर साल निपटा देती थी । लेकिन जाड़े से बचने का ये सबसे अच्छा उपाय था ।आजकल घरों में हीटर ने तपता की जगह ले ली है और गद्दे रजाई ने गोंदरी प्रथा की जगह ले ली है । फिर भी कुछ पुराने लोग और रात में सरकारी ट्यूब वेल से खेत सींचने वाले किसान अभी भी इसे बनाना जानते हैं ।
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'चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार
काशी कबहुँ न छोड़िए विश्वनाथ दरबार'
चना -चबैना अवध के ग्रामीण क्षेत्र का अभिन्न हिस्सा रहा है । सुबह-सुबह अगर चबैना न मिले तो दिन की शुरूआत अधूरी सी लगती है ।
हल लेकर खेतों को जाते हुए किसान से लेकर बस्ता टांगे स्कूल जा रहे विद्यार्थियों तक चबैना का साथ न जाने कितनों की यादों में रचा बसा होगा ।
संस्कृतियां जीवंत किताबें है। 'गौहन्ना' में उन दिनों चाय की बजाय सुबह-सुबह दिशा -फराकत के बाद जब भूख लगती थी तो चबैना ही जल्दी से सुलभ होने वाला स्नैक्स था । एक बार भुजा लिया तो महीने भर चलता था ।
मेहमानों का स्वागत अक्सर चबैना से ही होता था । एक 'नोइया' या 'मवनी' जो 'सरपत' और 'सींक' की बनी होती थी, में चबैना भर कर गुड़ के साथ ही पाहुन को पानी पिलाने की परम्परा थी। मजाल था कि सादा पानी परोस दिया जाए । साथ में नमक- मिर्च, लहसुन, धनिया की सिल-बट्टा पर पिसी चटनी का मज़ा ही कुछ और होता था ।
चबैना कुकरी शास्त्र यानि पाक कला का प्राचीन आविष्कार कहा जा सकता है जब लोग ऐसा भोजन चाहते थे जो बिना सड़े-गले कई दिन तक वैसा ही बना रहे । दूर सफर के साथी भी ऐसे ही भोजन हो सकते थे । कैसे भी बाँध लिया, कहीं भी खा लिया। अलग से किसी चीज की जरूरत नहीं । इसलिए चबैना या भूजा संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बन गया । गांव में इसे बनाने के लिए पहले धान को उबाल कर धूप में सुखा कर भुजिया बना लिया जाता है। फिर भूसी हटाकर भाड़ में बालू पर रोस्टिंग की जाती है ।
चबैना इतनी सुलभ वस्तु थी कि कैकेई ने वरदान मांगने के बाद किंकर्तव्य विमूढ़ राजा दशरथ को ताना मारते हुए कहा था ..
..जानेहु लेइहि मागि चबेना।
(राम चरित मानस, अयोध्या काण्ड)
सामूहिक रूप से सभी चबैना सभी भूजे(भूने ) हुए अन्न का प्रतिनिधित्व करता है । गेंहू के रूप में 'गुड़धानी' बन जाता है, तो मक्के के रूप में 'मुरमुरा' । ज्वार के रूप में 'लावा' बन जाता है तो कच्चे बाजरे के रूप में 'परमल'। बड़े बड़े शहरों में भेल-पूरी के नाम से जाना जाता है और बड़ी अकड़ के साथ बिकता है ।
गांव में इनको भूजने वाले तीन परिवार हुआ करते थे जहाँ सुबह-शाम लाइन लगा करती थी । 'भुजइन अम्मा' का ये पैतृक पेशा था जिनके पास दो भाड़ थे एक मटकी वाला तो दूसरा लोहे की कड़ाही वाला ।दिन भर की मेहनत के बाद बाग के पत्तों को इकट्ठा कर मैता, सुभागा और कबूतरा दीदी मुश्किल से दो दिन भाड़ चलाते थे। उस पर भी भुजाने वालों का ये आरोप रहता ही था कि ज्यादा भुजौनी निकाल लिया । भगत भुजवा और उनकी पत्नी रेलवे लाइन के पार अपना काम करते थे। बाद में उनके घर के उपर से सड़क निकल जाने से उन्होंने अपना भाड़ गांव किनारे मुरावन टोला में खोल लिया था ।
महरिन काकी के कोई संतान न थी लेकिन उन्हें चबैना भूनने का हुनर जबरदस्त था । लेकिन उनका भाड़ रोज नहीं जलता था ।
जब हम लोग स्कूल जाते थे तो दोपहर में भूख मिटाने के लिए घर से गुड चबैना ही मिलता था । कपड़े में बांध कर, झोले में रख के चबैना ले जाते थे और साथियों के साथ खाते थे । खेतों में काम कर रहे किसान और मजदूरों के लिए भी सुबह का 'पनपियाव' यानी नाश्ता अक्सर चना-चबैना ही होता था ।
गांव में धीरे-धीरे चबैना का स्थान बड़े बड़े दाने वाली 'लईया' ने ले लिया और दुकानों पर बिकने वाले बड़े भुने चनों ने भाड़ और भुजाने की परम्परा को नुकसान पहुँचाना शुरू कर दिया । भुजिया करने की फुरसत किसी को नहीं थी । उधर नमकीन और दालमोट चबैना से ज्यादा स्वादिष्ट लगने लगी थी । बाद में पता चला कि कुछ जलदीराम टाइप कम्पनियों ने उसे ढ़ंग से पैक कर चबैना से नमकीन बना कर बेच दिया । अपना मुरमुरा यानि पॉप कोर्न तो सिनेमा हाल की पहचान ही बन गया ।
..."मिश्रा जी आपको विटामिन बी -12 चेक करवा लेना चाहिए "। डाक्टर ने कहा।
"एक तो आप वेजेटेरियन हो और दूसरे आपका काम दिन भर दिमाग से जुड़ा हुआ है । बी ट्वेल्व आपके लिए जरूरी है "। - डॉक्टर ने कहा ।
घर आकर मैंने सोचना शुरू किया कि देखा जाय कि किस शाकाहारी आहार में ये ज्यादा मिलेगा । तो पता चला कि पफ्ड राइस , मक्के आदि में ये ज्यादा मिलेगा ।
सोचा ये तो मैं बचपन से ही खा रहा था। छोड़ने का घाटा ये हुआ कि बी- ट्वेल्व की टेबलेट खरीदनी पड़ी ।
उसी दिन बाज़ार से ढूँढ कर चबैना फिर से टेबल पर सजा लिया । शाम को ऑफिस से लौटने के बाद चबैना के साथ आज भी उन्हीं यादों में खो जाता हूं जिसे बचपन में जिया था । सबसे अच्छा तो तब लगा जब ट्रेन के एसी डब्बे में भी बंगाल का एक परिवार थाली भर कर भूज़ा लिए बैठा था । अपनी जड़ों से जुड़े रहने का यह एक सुखद अहसास था । अवध के साथ साथ बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, बुंदेलखंड आदि का ये आज भी पौष्टिक आहार है ।
वैसे युवा पीढ़ी चाहे तो एक अच्छा स्टार्ट अप इससे शुरू हो सकता है बेचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्म तो हैं ही और हमारे जैसे खरीदार भी मिल ही जायेंगे ।
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बासी से आप परिचित हो या न हों हिंदी की ये लोकोक्ति जरूर सुनी होगी
मतलब जब बासी बचेगी ही नहीं, तो कुत्ता क्या चोरी करेगा । रात के भोजन का बचा हुआ अंश अवध क्षेत्र में 'बासी' के रूप में प्रसिद्ध है । सुबह का नाश्ता या यूँ कहें कि कलेवा 'बासी' से ही होता है । अक्सर घरों में इतना भोजन बनता है कि रात को बच ही जाता है। वहाँ शहरी सभ्यता के अनुसार रोटियां गिन कर नहीं बनती। कोई किसी से पूछता नहीं कि कितना खाओगे? जितना मन हो उतना खाओ । रात के बचे भोजन को बड़े सलीके से छत से टंगे 'सिकहर' पर इस तरह रखा जाता था जिससे चूहे और बिल्ली से बचा रहे। सुबह वह भोजन खाने योग्य रहा या नहीं ये भी माताएँ - बहनें उसकी महक सूँघ कर बता दिया करती थीं। इस काम के लिए तब तक कोई फ़ूड सेफ्टी प्रोटोकॉल विकसित नहीं हुआ था।
सुबह -सुबह जब दाल-भात सान कर चूल्हे पर गरम किया जाता था तो बच्चों के साथ साथ बड़ों-बड़ों की लार टपक जाती थी और अगर उसमे घी पड़ जाय तो उसका आनंद कुछ और ही होता था । करोनी यानी खुरचन का झगड़ा बच्चों में आम होता था । वो सोंधापन आजतक दुर्लभ ही रहा ।
बताते हैं कि वाजिद अली शाह के राज में जिन तीतरों को लड़ाई के लिए तैयार किया जाता था, उन्हें रात की घी लगी रोटी सुबह-सुबह खिलाई जाती थी । जिसका तीतर जीतता था उस के बारे में ये चर्चा रहती थी कि इसने अपने तीतर को घी लगी बासी रोटी जमकर खिलाई होगी ।
"बच्चों ताज़ा भोजन ही खाना चाहिए। बासी खाना हमें नहीं खाना चाहिए " ..मास्टर साहब ने कहा ।
बासी खाना खाने से बीमारियों का खतरा रहता है ।
"जी गुरु जी "... बच्चे समवेत स्वर में बोले ।
....अगले दिन बच्चे फिर वही बासी खाकर आते ।
"अरे जब खाना गरम कर दिया तो बीमारी कैसे फैलेगी" लाल जी भैया बोले ।
"मनसुख आज तुमने क्या खाया" ? नौमी लाल ने पूछा ।
"बासी रोटी बची थी भैया अम्मा खेत निरावै जात रहीं तौ वही रोटी मा सरसई कै तेल लगाय कै पियाजी के साथ खाय लिहन । का करी जाड़ा मा इतनी जल्दी खाब थोड़े खराब होत है।".. मनसुख ने जवाब दिया।
"खेल के बाद आज सभी बच्चों को कुछ खाने को मिलेगा" ..मास्टर साहब बोले
"गुरु जी ये तो ब्रेड है "..मनसुख ने कहा
"आप तो बासी खाने को मना करते हो ये ब्रेड तो
दो दिन पहले बनी है। न विश्वास हो तो पैकेट पर लिखा है देख लो । हम तो रात की ही बासी रोटी सुबह खाते हैं ।
उसके बाद भी बचता है तो जानवर को खिला के ख़तम कर देते हैं" ।
"चुप रहो बहुत बोलते हो" मास्टर जी ने कहा।
मनसुख सहित पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया । सभी बच्चे चुपचाप ब्रेड खाने लगे ।
दिल्ली में पढ़ाई करते समय यमन के रहमान के घर जाना हुआ। वो परिवार के साथ पूसा में 'सरस्वती हॉस्टल' में रहा करते थे । रहमान ने जब रोटी ला के रखी तो मैं दंग रह गया । इतनी लंबी चौड़ी रोटी पहली बार देख रहा था। रहमान भाँप गया, बोला ये अफगानी रोटी है बाज़ार से खरीद कर लाया हूँ , खासतौर से आपके लिए क्योंकि आप शाकाहारी हो ।
.....वो रोटी किसी तौलिए के बराबर बड़ी थी और इतनी सूखी हुई थी कि लगभग दस दिन पहले की बनी लग रही थी । बाद में पता चला कि कई देशों में ऐसी ही सूखी रोटी खाने का चलन है । हिन्दुस्तान की तरह ताजी रोटी सब मुल्क में नहीं चलती । ज्यादातर लोग दुकान से ही रोटी खरीद कर लाते हैं । भारत में तो तवे की गरमा-गरम रोटी का ही जलवा रहता है ।
आयुर्वेद के अनुसार बासी रोटी के अलग ही गुण हैं। कई रोगों को मिटाने के लिए बासी रोटी खाने की सलाह भी दी जाती है । आधुनिक विज्ञान दस दिन पुराने ब्रेड और महीनों पुराने बिस्किट को तो बर्दाश्त कर लेता है लेकिन रात की बासी पर आज भी नाक भौं सिकोड़ लेता है । खैर ये परम्परा धीरे धीरे गौहन्ना से भी गायब हो रही है।
फिर भी सुबह-सुबह काम पर जाने वाले किसान को जब बासी लेकर उसकी घरैतिन पहुँचती है, तो उसके चेहरे की मुस्कान दुगुनी हो जाती है । थकान तो बासी खाते-खाते अपने आप ही उतर जाती है ।
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कुछ नया नाम लग रहा है न? लेकिन गौहन्ना में यह नाम न जाने कब से चल रहा होगा । अवध क्षेत्र में इस व्यंजन को फ़रा नाम से ही जानते हैं । आपकी सुविधा के लिए बता दें कि इसकी तुलना आप 'मोमोज' से कर सकते हैं । लेकिन दोनों में थोड़ा अंतर भी जानना जरूरी होगा,नहीं तो इस अवधी व्यंजन के आनंद को महसूस नहीं कर पाएंगे ।
जिस तरह हर क्षेत्र का कुछ खास व्यंजन होता है, उसी तरह अवध क्षेत्र का फरा बहुत खास होता है । इसे चावल के आटे से बनाते हैं और चावल के आटे की छोटी-छोटी पतली रोटियों के ऊपर उड़द की पिसी भीगी हुई मसाले वाली दाल इसमें भर दी जाती है । किसी छोटी कागज की नाव की तरह इसका आकार होता है लेकिन इसका मुंह खुला रहता है । फरा को बटुली या पतीली के ऊपर भाप में लगभग बीस से पच्चीस मिनट पकाना पड़ता है ।
मोमोज और फरा में मूल अंतर मुँह के खुले और बन्द होने का होता है। मोमोज पूरी तरह बन्द होता है जबकि फरा का मुँह खुला रहता है और इसका अंदर का सामान बिल्कुल नायाब होता है ।
कहते हैं कि किसी पर्यटक स्थल पर जब लोग जाते है तो वहां के स्थानीय व्यंजन ढूँढ़ते हैं । लेकिन अवध के ढाबे और होटल अवध के कम पंजाब की नकल में ज्यादा फँस गए, इसलिए वहाँ आप फरा नहीं ढूँढ पाएंगे । करते भी क्या हाईवे ट्रक का ड्राइवर, खलासी सब पंजाब के तो खाना भी उसी तरह का चल निकला किसी का ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि अयोध्या भ्रमण पर आने वाले पाहुन को 'लोकल- डिश' की भी तलाश होगी ठीक उसी तरह जिस तरह आपको दक्षिण भारत में सांभर- डोसा की तलाश रहती है । ठीक उसी तरह जब आप गुजरात में ढोकला और खाँखरा ढूँढ़ते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप पंजाब में मक्के की रोटी और सरसों का साग ढूँढ़ते हैं जो आपको वहां के हर ढाबे पर मिल जाता है ।
गौहन्ना और आस पास के क्षेत्र में फरा बनाने के लिए छलनी या जालीदार सिकहुला का प्रयोग किया जाता है । फरा बनाने का चलन कार्तिक मास से फाल्गुन तक ज्यादा होता है । तैयार फरे को घी के साथ खाने का आंनद ही कुछ और होता है । आम या इमली की मीठी चटनी के साथ इसे परोसा जाता है । इसको गरमा-गरम खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन अगर ये बच जाए तो घी और जीरे के छौंक के साथ इसे नए अंदाज में आप खा सकते हैं । इस डिश के साथ गांव में गन्ने के रस से चावल का 'रसियाव' भी खाया जाता है । जो किसी खीर की तरह बनता है । गांव के इन व्यंजनों में जन्मों-जन्मों की तृप्ति एक साथ मिल जाती है ।
फरा के सीजन में ही दलभरी पूड़ी का चलन भी रहता है । चने की दाल को पीस कर रोटी के अंदर भर कर बनाने की कला गांव - गांव में प्रचलित है । ये दलभरी पूड़ी तवे पर बड़े इत्मीनान से सरसों के तेल में सेंकी जाती है और मक्खन , गुड़ या अचार खासकर भरवा मिर्चे के साथ परोसी जाती है ।जिस के मुँह ये एक बार लग गई तो लग गई फिर आदमी आलू का पराठा खाना भूल जाता है ।
इस तरह के न जाने कितने व्यंजन अवध की स्थानीय ग्रामीण संस्कृति में घर - घर बनाए जाते हैं । इनमे से कुछ की चर्चा करते रहेंगे । फिलहाल जब तक होटल और ढाबे में ये डिश नहीं बनने लगती तब तक जब भी अवध क्षेत्र के ग्रामीण अंचल में जाएँ तो इन व्यंजनों को खाना न भूलें ।संकोच मत करिएगा कि कोई खिलाएगा नहीं । जम के लोग खिलाएंगे , खुश होकर खिलाएंगे ।
18 -सँहिड़ा
अलग अलग क्षेत्रों में इसके नाम अलग अलग हैं, लेकिन इसका स्वाद जब बोलता है तो सर चढ़कर बोलता है । एक बार जिसने खा लिया तो ताउम्र इसको ढूँढता फिरता है । हाँ ये हर जगह नहीं बनता इसीलिए तो ढूँढना पड़ता है । गौहन्ना में इसे सँहिड़ा कहते हैं। अवध क्षेत्र में कहीं कहीं इसे पतोड़ भी कहते हैं क्योंकि ये घुइया यानि अरवी के पत्तों से बनाया जाता है ।
घुइया के नरम पत्तों को एक के ऊपर एक किसी सीरीज की तरह जमाया जाता है। इन पत्तों के बीच में रात भर की भीगी हुई उड़द की सफेद दाल का पेस्ट लगा कर उन्हें चिपकाया जाता है । इस दाल के पेस्ट में नमक , मसाला, हींग आदि डाल कर स्वादिष्ट बना दिया जाता है । इन पत्तों को अब रोल कर चार-चार अंगुल दूर से काट दिया जाता है । अब ये किसी गोल परतदार प्याज की तरह हो जाता है । ऊपर से भी उड़द की दाल का वही पेस्ट लगाकर राई या सरसों के तेल में तल लिया जाता है । तलने के बाद आखिरी प्रक्रिया में खाली कड़ाही में हल्की आंच पर भाप से पकाया जाता है ये भाप उसी तले हुए सँहिड़ा की ही होती है अलग से पानी नहीं डालना होता ।
सोंधापन लिए हुए सँहिड़ा को ताजा-ताजा इमली या आम की चटनी के साथ खाने का मजा ही कुछ और है ।इस व्यंजन को कई दिनों तक रखा जा सकता है। बासी सँहिड़ा को तवे पर गरम कर खाने का भी रिवाज है ।
अवध के इन व्यंजनों में सँहिड़ा के साथ बनने वाले रिकवछ को भी उड़द की भीगी दाल से बनाते हैं । दाल की अँगूठे के आकार की पिट्ठी को तेल में तल कर उड़द की ही भुनी और छौंकी कढ़ी में डाल दिया जाता है ।
बेसन के आटे से बनने वाली फुलौरी का नाम तो सुना ही होगा । पकौड़ी से मिलते जुलते इस व्यंजन में केवल बेसन के आटे को राई या सरसों के तेल में मात्र नमक-जीरा मिला कर तल लिया जाता है फिर इसे कढ़ी में डालकर या पना बना कर खाया जाता है ।
पना चावल के आटे को भूनकर गुड़ का रस या घोल मिलाकर धीमी आंच पर घोटकर बनाया जाता है. जब घोल गाढ़ा हो जाता है तो इसमें नमक व इमली की या आम की खटाई मिला दी जाती है । पना में रात भर फुलौरी को डाल कर और भी स्वादिष्ट बना दिया जाता है । पना का ये खट्टा-मीठा स्वाद आपको किसी कुकरी बुक या वेबसाइट पर शायद ही नसीब हो किन्तु अवध के गांव में ये जरूर मिलेगा । फुलौरी की लोकप्रियता इतनी थी कि इस पर एक लोकगीत बहुत दिनों तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा -
व्यंजन जब ज़बान से आगे आनंद की अभिव्यक्ति बन जाए तो ये समझ लेना चाहिए कि वह लोक सुख का आधार भी है । जिसे गौहन्ना वाले आज भी खाकर अपने हर ग़म को भूल जाते हैं ।
19 -
पूड़ी , पराठे , कचौड़ी , छोले तो उत्तर भारत में हर जगह मिल जाते हैं लेकिन कुछ व्यंजन तो अवध की शान हैं । ठोकवा भी उन्हीं में से एक है जो सूखे महुवे के फूल को भिगो कर और कूँच कर यानि लुगदी बना कर पराठे की तरह सेंक कर या तल कर बनाया जाता है । यह कूँचने वाला शब्द गौहन्ना और आसपास जिस अंदाज से बोला जाता है, उसी अंदाज से उस शब्द का अर्थ समझना पड़ता है । अगर गुस्से से बोला गया तो मतलब पिटने से होता है अगर प्यार से बोला गया तो मतलब सचेत करने से भी होता है । ठोकवा ठोक-ठोक कर बनता है इसलिए नाम ही ठोकवा पड़ गया । महुवे के पेड़ गौहन्ना व पूरे अवध क्षेत्र में जगह जगह मिलते हैं । महुवे के बारे में एक कहावत मशहूर है
याहू की ताई दतुइन करी दादा
मतलब इनको खाने के लिए दातून यानि ब्रश करने की जरूरत नहीं बस मिले तो खा जाओ ।
ताजे महुआ के फूलों से रस निकाल कर गरम कर उसमें आटा मिला कर तवे पर चिल्ला और बरिया बनाने का रिवाज है । ठोकवा और बरिया महीनों तक खराब नहीं होता । वैसे कुछ लोग ठोकवा, बरिया और चिल्ला से आगे प्रयोग के माहिर भी गौहन्ना में थे । बाकी आप समझ गए होंगे ।
लंबे समय तक चलने वाले खाद्य पदार्थ उन जगहों पर ज्यादा प्रयोग कर के खोजे और बनाए गए जहां या तो यात्राएं लंबी करनी होती थीं या फिर खाद्य संरक्षण एक मज़बूरी रही हो । धार्मिक यात्राओं , रोजगार की तलाश में जाने वाले लोग एक एक महीने का खाद्य बाँध कर चलते थे । जहां रात हुई वहीं इस तरह की चीजें खा कर सो गए सुबह फिर से सफ़र पर निकल लिए ।
इस तरह के सूखे राशन में सतुआ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। सतुआ गोजई यानि जौ को चने के साथ पीस कर बनाया जाता है। पीसने के पहले इसे भून लेते हैं । पूर्वांचल और बिहार का प्रसिद्ध बाटी-चोखा जिसने भी खाया होगा, उसे पता होगा कि असली टेस्ट सतुआ से ही आता है । सतुआ सीधे पानी में घोलकर पेस्ट के रूप में चटनी या सिरके या फिर गुड़ के साथ खाया जाता है । सतुआ खाने का त्योहार भी होता है, जिसे सतुआ संक्रांति कहते हैं ।
सूखे खाने की परंपरा में आटे की 'पँजीड़ी' भी होती है जिसे अक्सर सत्य नारायण भगवान की कथा में बनाया जाता है । गेंहू के आटे को हल्का भूनकर गुड़ मिला कर पंजीड़ी बनाई जाती है । इसी तरह चावल के आटे को भूनकर गुड़ के शीरे में घोंटकर जो लड्डू बनाया जाता है उसे गौहन्ना में 'ढूंड़ी' कहते हैं। इसमें अगर तिल और सोंठ मिला दी जाय तो मज़ा दुगुना हो जाता है । लाई की ढूंड़ी तो बच्चे बूढ़े सब बड़े मज़े से निपटा जाते हैं । गुलगुले गुड़ के घोल में गेहूं के आटे को फेट कर सरसों के तेल में तल कर बनाया जाता है । अपने लल्ला भैया को गुलगुला इतना पसंद था कि उनका बस चलता तो खाने की जगह गलामू यानि गुलगुले ही रोज बनते । लेकिन क्या करें दांतों ने मीठे की गवाही प्राइमरी स्कूल में भी देनी शुरू कर दी थी सो मास्टर साहब ने ज्यादा मीठा खाने से उन्हें रोक दिया था । इसी डर से उनके कुछ दाँत सलामत बचे रहे ।
दाल और सब्जी के विकल्प के रूप में प्रचलित मेथौरी की बात ही अलग है । खबहा कोहड़ा यानि पेठे वाले कद्दू को घिस कर उड़द की पिसी दाल में मसाले के साथ मिला कर बनने वाली मेथौरी को कहीं कहीं कोंहड़ौंर या बड़ी के नाम से भी जानते हैं । सुनने में आया है कि आजकल अमेजन और कई नामी ऑनलाइन प्लेटफार्म पर भी ये बिक रही है । आने वाले समय में छोटा-मोटा ऑनलाइन गृह उद्योग इन सबसे तो चलेगा ही । खाना ही ऐसा क्षेत्र है जहां मंदी की दाल नहीं गलती ।
20 -
बात गन्ने और गांव की हो तो 'सिखरन' का जिक्र आना स्वाभाविक है । अवध क्षेत्र में गन्ने के कोल्हू गांव गांव पाए जाते हैं । खेत में खड़े गन्ने को चूसने का जो मज़ा है, वो दाँत वाले ही जानते हैं । लेकिन सिखरन गन्ने के रस में दही मिला कर बनाया जाता है । जब गन्ने का सीजन ख़तम हो जाता है तो राब को घोल कर दही मिला कर सिखरन बनता है । दही की जगह मठ्ठा मिल जाय तो पूछना ही क्या ? कैसी भी गर्मी में चल कर कोई आया हो । एक लोटा सिखरन सारी थकान उतार देता है ।
गौहन्ना गांव में एक दो खेत गन्ने के हर किसान के पास होते थे । सरौती गन्ने की उस समय धूम हुआ करती थी। बाद में उन्नत किस्म के गन्ने आने लगे थे । गांव में एक कोल्हू हुआ करता था जो मिसिर दादा के खँलगा में चलता था जिसे कोल्हार कहते थे । इस सीजन का इंतजार पूरे गांव को रहता था जब कोल्हू का चलना शुरू होता था । सहकारिता के सिद्धांत के तहत सबको अपने बैल बारी-बारी से और फ़ाँदी के हिसाब से कोल्हू में हाँकने पड़ते थे। हाँकने वाले को नाँद भरने तक बैल हाँकना होता था ।
गन्ने के रस को बड़े कड़ाह में उबाल कर गुड़ बनाया जाता था । कड़ाह के नीचे लकड़ी , सूखे पत्ते , फसल के अवशेष व खोई आदि झोंक कर लगातार आग जलाई जाती थी । एक निश्चित गाढ़ापन आने पर मिट्टी के बड़े चाक में उसे निकाल कर ठंडा किया जाता था फिर पूरा ठंडा होने के पहले ही उसे गोल-गोल भेली बना कर रख लिया जाता था. गुड़ बनाने वाले विशेषज्ञ बड़े सम्मान से देखे जाते थे। सबको गुड़ बनाना नहीं आता था ।ये भेली अगले साल तक घर की शान हुआ करती थी । रस को अगर थोड़ा पतला उतार लिया जाए तो 'राब' बन जाती थी । गन्ने से बनने वाली शहद जैसा उत्पाद - राब को कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है जिसे रोटी से खाने के साथ साथ घोल कर भी पिया जाता था ।
जिस जगह गुड़ बनता था यानि कोल्हार ग्रामीण सामाजिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र हुआ करता था जहाँ पूरे गांव मोहल्ले में क्या चल रहा है सबकी चर्चा होती थी ।जगने के लिए रात-रात भर कहानियों और किस्सों का दौर चलता था । भूत-प्रेत के किस्से भी रोमांच पैदा करते थे । गांव के बच्चे गुड़ और उससे भी ज्यादा छेंवटा की लालच में वहां जमे रहते थे । छेंवटा कड़े गुड़ का अवशेष होता था जो कड़ाह में तले में जम जाता था । कुछ आलू , गंजी प्रेमी भार की गरम आग में आलू ,गंजी यानि शकरकंदी भूजा करते थे । गुड़ बनाते समय निकलने वाली मैल को लदोई कहते थे । पहले तो भिंडी की जड़ डाल के उसे साफ किया जाता था बाद में खाने वाले सोडे का प्रयोग होने लगा ।इससे गुड़ लाल से थोड़ा गोरा होने लगा । लेकिन आयरन की मात्रा घटने लगी ।
सिखरन के साथ सबसे ज्यादा बढ़िया संयोग जिस व्यंजन का बनता था वो घुघरी कहलाती थी, जो ताजी मटर के दानों के साथ आलू को मिलाकर जीरे के छौंक के साथ बनाई जाती थी। सुबह का नाश्ता घुघरी और सिखरन ही होता था । गन्ने के सीजन में गांव का पूरा कूड़ा कबाड़ जल कर राख बन जाता था जो खेतों में वापस डाल दिया जाता था । गन्ने की खोई चूल्हे में बायो ईंधन के रूप में जलाई जाती थी ।
इस बीच मिसिर दादा ने धीरे-धीरे कोल्हू से हाथ खींच लिया क्योंकि तब तक इंजन और बिजली से चलने वाले क्रेशर आ गए थे। गांव से बैल भी नदारद होने लगे थे उनकी जगह ट्रैक्टर ने ले ली थी ।धीरे-धीरे चीनी मिल गांव के पास ही खुल गई । रौजागांव की चीनी मिल आने के बाद कोल्हू पूरी तरह बन्द हो गए । किसानों के गन्ने नकद के चक्कर में चीनी मिल जाने लगे । गन्ने का एरिया बढ़ने लगा और घरों से गुड़ गायब होकर चीनी बन के लौट आया,साथ ही अपने साथ कुछ बीमारियों को भी साथ लाया । क्योंकि न तो चीनी में आयरन था न ही कैल्शियम सो इन सबकी आपूर्ति गांव में भी मेडिकल स्टोर से ही होने लगी है जो किसी ज़माने में फ्री में गुड़ और भेली से मिल जाता था ।
21 -
उत्सवों के देश भारत में उल्लास के नए-नए तौर तरीके और त्यौहार होते हैं । उत्सव और व्यंजन का हमेशा से चोली दामन का साथ रहा है । बरा उत्सवों का राजा रहा है । होली हो या ईद बरा अवध की शान रहा है । दक्षिण भारत में सांभर बड़ा तो अन्य जगह बड़ा या बरा नाम से इसे जाना जाता है । शादी विवाह, मुंडन, जनेऊ, हर संस्कार बरा के बिना अधूरा है । दही में पड़ जाय तो दही बड़ा भी बन जाता है । खट्टी या मीठी जिस तरह की चटनी के साथ खाना हो, बरा तो बड़ा ही होता है । जीरा के बिना दही-बड़ा अधूरा ही रहता है । उड़द की भीगी व पिसी हुई दाल से बड़ा सहित कई व्यंजन बनाए जाते हैं ।
गौहन्ना और आसपास के इलाके में अस्सी के दशक में शादियाँ तीन दिन की हुआ करती थीं। बताते है भगवान राम की बारात जनकपुर में महीनों रुकी थी तो अवध में तीन दिन भी न हो, यह कैसे हो सकता है ? बारातियों को दूसरे दिन रसेदार कटहल की सब्जी मिलती थी और साथ में दही-बड़ा भी मिलता था । अवध क्षेत्र की कटहल की रसेदार सब्जी जिसने खाई होगी उस का स्वाद वही जानता होगा । ढूँढे से भी वो स्वाद आजतक किसी होटल में नहीं मिला । इस तरह की शादियों में दही-चूरा भी खूब चलता था । भगवान राम की शादी में जब दशरथ जी जनकपुर पहुंचे तो स्वागत में उपहार में दही-चूरा भर-भर के मिला था , जिसे रास्ते भर बाराती खाते हुए आए थे।
भरि भरि कांवरि चले कहारा।।
आज के दौर में तीन दिन की शादियाँ रात भर में निपट जाती हैं, जो लगता है भविष्य में तीन घंटे की ही रह जाएँगी ।
गौहन्ना और आस-पास के क्षेत्रों में गुड़िया और अनंता के त्योहार पर सिंवई भी बनती है । बगल के गांव बड़ागांव में ईद पर सिंवई ही उत्सव की शान होती है । होली के मुख्य व्यंजन के रूप में गुझिया पूरे देश में प्रसिद्ध है । कहते है कि गुझिया अवध की ही खोज है । सोंठ से बनने वाले व्यंजन सोंठौरा बच्चे के जन्म के समय माँ का अनिवार्य पौष्टिक आहार होता है । खिचड़ी के दिन उड़द की खिचड़ी जरूर बनती है । खिचड़ी के चार यार प्रसिद्ध हैं
और फिर थरिया यानी थाली भर-भर खिचड़ी यारों के साथ स्वाद का खजाना बन जाती है । फिलहाल इन सब व्यंजनों में राजा साहब यानी बरा दही-बड़े के रूप में आजकल शहरों में खूब बिक रहे हैं ।
22 -
नाम तो उनका शंकर दत्त शुक्ला था । नए-नए रौनाही थाने में आए थे । लेकिन इलाके के लोग उन्हें 'शुक्ला दरोगा' के नाम से ही जानते थे । चलते बुलेट से थे। जिस तरफ उनकी बुलेट निकलती थी, रास्ता साफ हो जाता था । तब के जमाने में 'दबंग' जैसी फिल्में नहीं बनी थीं न ही 'सिंघम' का किरदार। बल्कि पुलिस तो तब पहुँचती थी जब हीरो अपना काम कर चुका होता था । लेकिन फैजाबाद जिले के रौनाही इलाके के हीरो तो शुक्ला दरोगा ही थे । लंबा-चौड़ा शरीर और ऊपर से पहलवान और जब बुलेट पर बैठते थे,अकेले ही पूरा थाना लगते थे ।
ये वह दौर था जब गांव के इलाकों में चोरी, डकैती, लूट आम घटनाएँ हुआ करती थीं । गौहन्ना भी इससे अछूता न था । उस समय गौहन्ना बाराबंकी जिले का हिस्सा हुआ करता था, लेकिन था वर्तमान अयोध्या जिले का बॉर्डर । थाना भी रुदौली हुआ करता था , लेकिन शुक्ला दरोगा के आने से आस-पास के थानों से भी अपराधी नदारद होने लगे थे । खौफ उनका इतना था कि गांव के किनारे अगर बुलेट की आवाज आ जाय तो पुराने डकैतों के उस्ताद के भी पैजामे गीले हो जाते थे । वकील साहब से दोस्ती के नाते उनका हलके से बाहर गौहन्ना गांव आना लगा रहता था । गांव वाले भी उन्हें अपना ही दरोगा समझते थे ।
प्रशासन के फॉर्मूलों में एक अघोषित पर मशहूर फॉर्मूला 'कौआ टाँगना ' होता है । जिस तरह किसान फसल बचाने के लिए खेत में एक कौआ मार कर टाँग देता है तो अगले दिन से उस खेत में कोई भी कौआ नजर नहीं आता उसी तरह शुक्ला जी भी करते थे । शुक्ला दरोगा इस फार्मूले के माहिर थे । फैशन के चक्कर में न जाने कितने हिप्पी लौंडे उनकी भेंट चढ़ चुके थे। मजनुओं के लंबे -लंबे बाल को नाई से उस तरह उतरवाते थे जैसे खुरपे से घास छीली जाती है. उसके बाद तो लंबे बालों का शौक एक लंबे समय तक मजनू लोग पूरा नहीं कर पाए ।ये घटना भले रौनाही चौराहे पर हुई हो,लेकिन खबर गांव-गांव में चटकारे लेकर सुनी और सुनाई जाती थी ।
"अरे आज एक जने आधी बाँह मोड़ के रौनाही गे रहे
शुक्ला दरोगवा पकर के उनके कपड़ा आधी बाँही से कटवाय दिहिस " ....
.... शाम को अलाव के पास इस तरह की चर्चाएं गांव-गांव में आम थीं । संभ्रांत लोग और सभ्य समाज में इस तरह की चर्चाएं एक तरह से लोगों में कानून के प्रति और अधिकारी के प्रति भरोसे का प्रतीक थीं और उसका असर ये था कि चोर उचक्के, लफंगे और मजनुओं ने भूमिगत होने में ही भलाई समझी । इस दौर में मीडिया के नाम पर रेडियो व अखबार ही हुआ करते थे। आज का दौर होता तो सोशल मीडिया पर तानाशाह होने का आरोप लगा के वीडियो वायरल कर दिया जाता । हालाँकि शुक्ला दरोगा जितना करते थे, उससे ज्यादा उनकी कहानियाँ उस दौर में वायरल हुआ करती थीं । अब कौन तस्दीक करने जाय कि ये सब हुआ भी या नहीं। उन्हीं कहानियों में एक कहानी ये भी थी कि कोई एक हाथ से सायकिल चला रहा था ,तो शुक्ला जी ने उसका आधा हैंडल कटवा दिया था । कोई अपनी पत्नी को धूप में पैदल बिदा कराकर ला रहा था, तो उसको कंधे पर लाद कर ले जाने का फरमान सुना दिया आदि-आदि । ये सब कहानियाँ बड़े नए नए अंदाज में लोग एक दूसरे को सुनाकर खुश हुआ करते थे ।
मुगदर भाँजने और कसरत के शौकीन शुक्ला जी दस-दस लीटर दूध पीने के लिए मशहूर थे । कटोरा भर के घी पीने वाले शुक्ला दरोगा इलाके की जनता के हीरो थे और जनता के रहनुमा । जिनके नाम से ही पूरा इलाका चैन की नींद सोता था। इस दौर में सिपाही सायकिल से ही अपनी बीट का दौरा करते थे । थ्री नॉट थ्री टांगे और बेंत सायकिल में फंसाए ये सिपाही जिस गांव में रात हो जाती थी वहीं रुक जाते थे। खाने-पीने का इंतजाम किसी संभ्रांत परिवार से हो ही जाता था । गांव का चौकीदार साहब के पैर दबाने से लेकर नहलाने तक पूरा खयाल रखता था ।
सुबह-सुबह गांव से निकलने के पहले सिपाही दसियों सूचना लेकर निकलता था । हफ़्ते भर की मुखबिरी गांव में इकठ्ठा हुई रहती थी, जो मुखबिर न भी हो वो अपने नम्बर बढ़ाने के चक्कर में कुछ न कुछ बता ही देता था ।
सुना है शुक्ला दरोगा आवा हैं।उनही का देखै जाइत है ।'
आम जनता अपने हीरो शुक्ला दरोगा को देखने के लिए उमड़ पड़ती थी। जिस तरफ से उनकी बुलेट गुजरती थी, उस तरफ उनकी चर्चा हफ़्ते भर रहती थी । साहब का इकबाल जिस तरह बुलंद होना चाहिए उस तरह बुलंद था । बताते हैं कि एक बार रेलवे की पटरी पर भी बुलेट दौड़ा दिए थे । उनके तबादले के बाद भी कई सालों तक शुक्ला दरोगा के लिए इलाका तरसता रहा। पुलिस उपाधीक्षक पद से सेवा निवृत्ति के बाद भी ये 'सिंघम' आज भी उस दौर के लोगों के दिलो-दिमाग में बसा हुआ है ।
23 -
मिसराइन आजी
"ये तीन खुराक दवा है। तीन दिन सुबह सुबह खाली पेट खाना है ठीक हो जाओगे" ।
"फिर कब आना है आजी "
"भगवान चाहे तो इतने में ही ठीक हो जाओगे। छत्तीस रोग की मारंग है ये जड़ी "
"अच्छा आजी पांव लागी "
दूर-दूर इलाके में सफेद बालों वाली बुढ़िया आजी का बड़ा नाम था। उनके ठीक होने वाले मरीजों में कोसों दूर तक के लोग थे । गांव में सब लोग उन्हें 'मिसराइन आजी' के नाम से जानते थे ।
जबसे हमने उन्हें देखा तो कमर से झुक कर चलते ही देखा। लेकिन जीवटता इतनी थी कि एक बार पेड़ से गिरते किशोर को कभी गोद में ही लपक लिया था और एक बार 'पनिहा सांप' को अपनी कुबरी से जमलोक का रास्ता दिखा दिया था । सौ साल की उमर में भी मेरे बाबाजी से दुगुना-तिगुना मेहनत वो करती थीं। बाबा के साथ-साथ सैकड़ों पेड़ पौधों की वो माँ भी थीं । झक सफेद बाल के साथ उनके चेहरे की चमक सारी झुर्रियों पर भारी थी ।
"अरे दहिजरा के नाती ! खेत खवाय लिहिस केकै बकरी आय रे ?"
ये आवाज़ पांच सौ मीटर तक गूंज जाती थी, जब मिसराइन आजी की दहाड़ सुनाई देती थी ।
वो जिस गांव से पली बढ़ी थीं वहां उनका घर अकेला ही था। अकेले घर का गांव, आस पास कोई डॉक्टर नहीं। अगर जिंदा रहना है तो जड़ी बूटियों का ज्ञान न हो तो जीवन चलना मुश्किल हो जाय । ज्ञान-विज्ञान के गँवई रिसर्च को सूट-बूट-टाई वाले डॉक्टर साहब को हज़म होना भी नहीं था। सो आज तक नहीं हुआ। उनको कौन बताए कि एंटीबायोटिक की चिड़िया जब पैदा भी नहीं हुई थी तब से लोग ऐसे ही ठीक होते आए थे।मिसराइन आजी जड़ी-बूटियों का चलता फिरता इंसाइक्लोपीडिया थीं ।
गांव में जड़ी-बूटी के जानकार लोग अक्सर मिल जाया करते थे। गांव के ही शिवराम मुराव टूटी हड्डी को बिना प्लास्टर खींच कर सेट कर देते थे और हाँ मजाल कि कोई उन्हें पैसा दे दे । न बाबा न । गुरु जी सिखा गए थे कि किसी से पैसा मत लेना सो गरीबी में गुजर-बसर कर लिया, लेकिन पैसा नहीं लिया ।
मिसराइन आजी के सामने गांव की चौथी और पाँचवी पीढ़ी धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी लेकिन क्या छोटा, क्या बड़ा सब उन्हें 'मिसराइन आजी' ही कहते थे । याददाश्त इतनी तगड़ी कि किसकी शादी कब कहां से हुई ? क्या-क्या हुआ ? सब ज़बान पर रटा पड़ा था। किसकी रिश्तेदारी कहाँ है? कौन खानदानी है ,कौन बहेल्ला ? सब पता था ।
सैकड़ों सोहर और भजन मुँह जबानी याद थे । पढ़ी-लिखी तो थी नहीं, लेकिन कढ़ी जरूर थीं ।
मांगलिक कार्यक्रमों में पुरवाने वाले थक जाते थे, लेकिन मजाल था कि मिसराइन आजी थक जाएं ।शाम को वसार के नीचे बैठ के भेड़िया की कहानी , शिवि और हरिश्चन्द्र की कहानी , भगीरथ की कहानी सुन के न जाने कितनी पीढ़ी बड़ी हुई थी।
पति और बेटे के जाने के बाद गया ,जगन्नाथ, बद्रीनाथ सब कर आई थी . उनका चारों धाम का यात्रा वृतांत सांकृत्यायन जी को भी फेल करता था ।
मिसराइन आजी की कई पीढ़ी कृतज्ञ रही । मजाल कि आस-पास का कोई बिना खाए सो जाय । बकौल बृजराज पाड़ें "आजी ने उन्हे जिंदा बचा के रखा था । घर में कभी -कभी ऐसी भी नौबत आती थी कि चूल्हा नहीं जलता था लेकिन आजी ने भूखे नहीं सोने दिया" ।
बीरे और जय कुमार के लिए मिसराइन आजी माँ -बाप सब कुछ थीं ।
मिसराइन आजी के दसियों कूँड़े में अलग अलग तरह के न जाने कितने बीज होते थे। आज के जमाने के अच्छे-अच्छे जीन बैंक उसके आगे फेल थे ।
'हे लल्ला ई बिया बोवै का है '
कद्दू का बीज और लौकी का बीज छोटे-छोटे बच्चों से बुवाई करवा कर गृह वाटिका की मानो ट्रेनिंग दे देती थी। उनकी लौकी और कद्दू कुछ ही दिनों में झखरा से चढ़ कर छप्पर पर छा जाती थी और फिर बड़े बड़े फल , क्या कहने..
नखत बिहान चार बजे उठ कर जांता में कई सेर आटा पीसने के बाद मिसराइन आजी का भजन जब
गूँजता था तो ऐसा लगता था कि भोर की किरण राग भैरवी सुना रही हो। जब तक हम लोग दैनिक क्रिया से निवृत्त होकर आते थे, तब तक आजी 'बासी' गरम कर हम लोगो के लिए तैयार रखती थीं । दिन भर की थकान के बाद रात में मिसराइन आजी का भजन गूँजता था ..
अबकी राख लेव भगवान
तरे पारधी बान साधे
ऊपर उड़त सचान
अबकी राख लेव भगवान ...
तो पूरा मोहल्ला उस भजन में लीन हो जाता था। उनके भजन में वो मधुरता थी कि इतने दिनों बाद भी कभी- कभी ऐसा लगता है कि दूsssर से
मिसराइन आजी कोई भजन गा रही हों..
...जतन बताए जायो कैसे दिन बितिहैं?
यहि पार गंगा वहि पार जमुना
बिचवा मा मड़ैया छवाए जायो
कैसे दिन बितिहैं ?
जतन बताए जायो ! ...
माया महा ठगिनी हम जानी
निरगुन फांस लिए कर बैठी
बोले मधुरी बानी
ये सब अकथ कहानी
माया महा ...
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महरा दादा को जब से देखा, तब से उनके स्वरूप में अंत तक ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ । छरहरा बदन , कद चार फीट , रंग काला और बाल काले ये थे महरा दादा जो हर एक के मददगार थे । बीड़ी पीना उनका एकमात्र शौक था । गौहन्ना में उनसे बड़े बूढ़े लोग उन्हें गंगा दीन कह कर बुलाते थे लेकिन एक पूरी पीढ़ी उन्हें महरा दादा ही कहती थी । महरा दादा कहाँर समुदाय के प्रतिनिधि के साथ-साथ सम्पूर्ण कहार जाति और संस्कृति के चलते फिरते उदाहरण थे ।
कहारों का समूह दुल्हन को डोली में बैठा कर पिया के घर तक पहुँचाता था । दूल्हा जब विवाह करने जाता था तो पीनस में कहाँरों के कंधे पर ही जाता था । निर्गुण भक्ति धारा में आखिरी समय को भी विवाह उत्सव की उपमा दी जाती रही है और वहां भी चार कहाँर जीवन की डोली उठाते हैं और आत्मा रूपी जीव को परमात्मा रूपी पिया तक पहुँचाते हैं ।
ग्रामीण जीवन में चूल्हे-चौके तक जिस जाति की पहुँच थी वो कहाँर होते थे । पहले के जमाने में हैंड पंप तो होते नहीं थे। कुँए से पानी भर-भर कर बड़े-बड़े मिट्टी के कूड़े में घरों में रखा जाता था । ये पानी नहाने-धोने के अलावा खाना बनाने व बर्तन माँजने के काम आता था । सुबह-शाम पानी भरने का काम महरा दादा का परिवार ही करता था । जिसके बदले हर फसल में उन्हें 'तिहाई' मिलती थी । तिहाई एक तरह का पारिश्रमिक होता था जो लगभग दस किलो अनाज प्रतिमाह जैसा होता था, लेकिन मिलता एक साथ ही था, वो भी फसल कटने पर । प्रायः दो-चार घरों में जिनमें महरा दादा की जजमानी थी, उन सबसे उनको साल भर खाने का पर्याप्त राशन मिल जाता था । सत्य नारायण बाबा की कथा और शादी विवाह में नेग-चार भी मिल जाया करते थे । दूल्हे को स्नान कराने का हक सिर्फ इन्हीं को था । दूल्हा और दुल्हन को डोली या पीनस में ले जाने में इनके कंधे कट जाते थे, लेकिन फिर भी हर एक की खुशी का हिस्सा बनने में महरा दादा का जवाब नहीं था ।
महरा दादा कहाँरों के नृत्य जिसे गांव में कँहरउवा नाच कहा जाता था, के माहिर थे। जब कँहरउवा नाच गांव में होता था, तो पूरा गौहन्ना देखने जाता था । कँहरउवा गीत भी इसी समुदाय से जन्मा होगा जिसे बाद में कंहरवा के नाम से किताबों में स्थान मिला । उस गीत के बोल धीमी लय में आगे बढ़ते हैं
'सीता सोचे अपने मन मा मुंदरी कँहवा से गिरी' ...
इस तरह के न जाने कितने गीत महरा दादा को मुँह जबानी याद थे । पढ़े लिखे वो थे नहीं लेकिन कढ़े जरूर थे। उनकी बिटिया मीरा जब छोटी थी, तभी उनकी पत्नी को बीमारी हो गई और दुनिया छोड़ गईं। लेकिन महरा दादा ने हिम्मत नहीं हारी । बिक्रम और मीरा को पाल-पोस कर बड़ा किया । अपने हाथ से खाना बनाकर दोनों को खिलाना उनके रूटीन का हिस्सा था । इसी बीच मेहनत , मजदूरी से लेकर डोली उठाने की रस्म भी उन्होंने बदस्तूर जारी रखी । उनके बड़े भाई ने रोजगार के विकल्प के रूप में भड़भूजे का पेशा अपना लिया था ।
मिसिर दादा का 'तपता' यानि अलाव महरा दादा के बिना नहीं जलता था । तपते के चारों ओर बैठी मंडली गांव और इलाके की चर्चा के साथ-साथ कथा कहानी भी सुनती-सुनाती थी । जब लोग रात में सोने जाते थे तब महरा दादा के गीत उन्हें मीठी नींद में ले जाते थे । भोर में महरा दादा का कँहरा बड़ी दूर तक सुनाई देता था ,जो धुन और तरंग हवा में गूँजती थी वो अद्भुत होती थी ।
अपनी बेटी मीरा को खोने के बाद अपनी नातिन के सहारे एक बार फिर से उन्होंने जिंदगी को संभाला, लेकिन अंत समय आते आते स्मृति-लोप के शिकार हो गए । गौहन्ना में भी डोली और पीनस धीरे धीरे लुप्त हो गए और कारों ने उनकी जगह ले ली, लेकिन रस्में निभाने के लिए कँहार आज भी चाहिए ही ।
महरा दादा मिसिर दादा की अंत समय तक सेवा करते रहे। लल्ला की शादी की हसरत उनके सामने पूरी हुई। लेकिन लल्लन की शादी वो न देख सके । वे कहते थे
"जल्दी बियाह कै लेव , हमरे सामने" ।
खैर नियति को कुछ और ही मंजूर था । वकील साहब के जाने के बाद महरा दादा अंदर ही अंदर टूट गए थे । उसके एक साल बाद ही वो भी अनंत सफ़र की ओर प्रयाण कर गए इस बार वो दूल्हे थे और गांव वाले कँहार।
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कहते हैं शिक्षा का प्रकाश जहाँ -जहाँ जाता है वहां पीढ़ियों से चल रहा अंधकार ख़तम हो जाता है । वकील साहब लखनऊ यूनिवर्सिटी से पढ़ कर गांव आए थे घर की इकलौती संतान थे सो उनकी पढ़ाई-लिखाई में कोई कोर-कसर मिसिर दादा ने नहीं छोड़ी थी । ये अलग बात थी कि उनको यूनिवर्सिटी में राजनीति का चस्का कुछ ज्यादा ही लग गया था । ये चस्का परधानी के इलेक्शन में चमका और सबसे कम उमर के परधान यानि गौहन्ना गांव के मुखिया वकील साहब बन गए ।
पढ़े लिखे होने से नजरिया भी बदल जाता है। अस्तु गांव की अशिक्षा दूर करने का विचार तेजी से आगे बढ़ा । एक स्कूल खोलने की योजना बनी । भूखल लोध, डाक्टर मौर्या , नेगपाल, कुशहर लोहार, कृष्णा बढ़ई , श्री चंद्र लाला सब इकठ्ठा हुए और स्कूल खोलने की योजना बनी । स्थान के लिए सबसे पिछड़े एरिया 'डेहवा' को चुना गया।
मिसिर दादा ने मूँजा , सरपत, झखरा, थूनी,थमरा सब कुछ दिया । गांव वालों के श्रमदान से गौहन्ना का पहला स्कूल देखते-देखते खड़ा हो गया । बड़ी हसरत से पूरा गांव स्कूल देखने उमड़ पड़ा । स्कूल के पहले हेडमास्टर बने चन्द्र बहादुर श्रीवास्तव जिन्हे लोग चंद्र बहादुर चाचा कहते थे । उनकी पत्नी सहित दो शिक्षक और बनाए गए- नगेसर मास्टर और कुशहर मास्टर । दिन-रात मेहनत कर स्कूल को इस टीम ने चमका दिया ।
कुशहर मास्टर पतली कद काठी के लंबे शरीर के सौम्य व्यक्तित्व के धनी थे । ज्यादा पढ़े तो नहीं थे यही कोई आठवीं पास रहें होंगे लेकिन जिन बच्चों को पढ़ा दिया उन्हें सब कुछ मुँह जबानी याद रहता था । बीस तक पहाड़ा , ककहरा ये सब आस-पास के किसी भी सरकारी स्कूल से बेहतर गौहन्ना के बच्चों को याद था । कुशहर मास्टर घर-घर से बच्चों को बुला-बुला कर या यूँ कहें पकड़-पकड़ कर स्कूल लाते थे । स्कूल से उनका जुड़ाव इस कदर था कि रात में भी स्कूल का चक्कर मार आते थे । जब स्कूल सरकारी प्राइमरी स्कूल में बदल गया तो भी उन्होंने स्कूल जाना न छोड़ा । पहले तो सरकार की तरफ से नियुक्त अध्यापकों ने इनको स्कूल न आने को कहा सो इनकी तबियत धीरे-धीरे बिगड़ने लगी । गांव के बच्चे इनके घर पढ़ने जाने लगे । स्कूल में छात्र संख्या भी घटने लगी। सरकारी मास्टर साहबान समझ गए कि स्कूल में इनकी आत्मा बसती है और बच्चों के लिए मास्टर साहब का मतलब कुशहर मास्टर ही था। इसलिए सब ने मिल कर तय किया की अपनी तनख़ाह से कुछ रुपए हर महीने कुशहर मास्टर को दे के इन्हे यहीं स्कूल में अनौपचारिक रूप से रहने दिया जाय । इस तरह कुशहर मास्टर स्कूल में फिर से आने लगे और स्कूल की रौनक वापस लौट आई ।
वैसे भी छप्पर में शुरू हुए गांव के स्कूल की तनख़ाह मुश्किल से दस-बीस रुपए महीना थी । बात दस बीस रुपए की नहीं थी अपितु गांव के विकास की थी। अतएव किसी ने वेतन नहीं देखा बस यह देखा कि गांव शिक्षित कैसे हो . वकील साहब की मुहिम में सारे अध्यापक दिल से जुड़े थे । कुशहर मास्टर की तो आत्मा ही स्कूल में बसती थी । वकील साहब कभी-कभी वेतन नहीं दे पाते थे, लेकिन कुशहर मास्टर कभी शिकायत नहीं करते थे । उनके दो बेटे थे और दोनों फैजाबाद शहर में प्राइवेट संस्था में नौकरी करते थे । उनके बेटे परशु राम वकील साहब के साथ पढ़े भी थे। इसलिए कुशहर मास्टर वकील साहब के अभिभावक की भूमिका में भी रहते थे । स्कूल कैसे चलाना है ये सब चंद बहादुर चाचा को कुशहर मास्टर बताते थे ।
गांव का स्कूल किसी तरह सरकारी हो जाय , यह हसरत पूरी होने में लगभग छः साल लग गए । वकील साहब ने लड़-झगड़ के स्कूल को सरकारी में तब्दील करवा दिया । लेकिन अब भी स्कूल छप्पर में ही चल रहा था । वकील साहब भी कहां मानने वाले थे आखिर लखनऊ यूनिवर्सिटी के पढ़े थे । लंबी जद्दो-जहद के बाद स्कूल की बिल्डिंग पास हो गई । इस बीच सरकारी हेड मास्टर ने स्कूल की ईंट अपने घर गिरवा कर अपना घर बनवाना शुरू कर दिया । गांव वाले अवाक रह गए। जब हेड मास्टर पर कार्यवाही की नौबत आई तो आनन फानन में कुछ ईंटें स्कूल तक पहुँची , लेकिन फिर भी सीमेंट बालू कम पड़ गई । वकील साहब ने अपने घर की ईंट सीमेंट,बालू कुशहर मास्टर के कहने से स्कूल में लगवा दी। मिसिर दादा अपने बेटे के इस कृत्य को बेबसी में स्वीकार कर गए । पूरे गांव ने फिर से एकबार श्रमदान कर स्कूल का लिंटर डलवा दिया । इस तरह कुशहर मास्टर के सपनों को स्कूल गौहन्ना बनकर तैयार हो गया और हेड मास्टर सस्पेंड होने से बच गया । कुशहर मास्टर धीरे-धीरे उम्र के अंतिम पड़ाव पर पहुंच गए थे, लेकिन उनकी आत्मा और प्राण में बसा यह स्कूल आज हाई स्कूल हो चुका है । कुशहर मास्टर की आत्मा स्वर्ग से जब इसे देखती होगी तो उसे अपार खुशी मिलती होगी ।
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है न सुनने में कुछ अजीब सा ? लेकिन यह सच है। जब गौहन्ना गांव की अदब की संस्कृति में कुछ नई बात तलाशी जाएगी तो इस परम्परा को देख सुनकर लोग चौंक पड़ेंगे, क्योंकि शायद ही इस तहजीब व मजाक का सिलसिला कहीं और चलन में हो ।
दरअसल मुल्ला पाँड़े का असली नाम सतीश चंद्र पांडेय था। अब गौहन्ना की मजाकिया संस्कृति में एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को मौलाना कह के चिढ़ाती है । बगल मे बड़ागांव मुस्लिम बहुल गांव है और कोई भी हिन्दू अपने को मुसलमान कहलाना क्यों पसंद करेगा?सो चिढ़ाने की यह परम्परा चल पड़ी होगी । इसी चलन को जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चल रहा है और आज भी बदस्तूर जारी है, उसमें वकील-साहब के जिगरी दोस्त सतीश चंद्र पांडेय जो वकील-साहब के गांव के रिश्ते में चाचा लगते थे को 'मुल्ला पाँड़े' की उपाधि मिल गई । उपाधि वकील साहब ने दी तो वकील साहब को भी पांडेय जी ने मौलवी साहब कहना शुरू कर दिया ।
मुल्ला पांड़े को वकील साहब के तंज पर अपनी पीढ़ी यानि वकील साहब के पिता जी मिसिर दादा का साथ मिलता था । इतना ही नहीं वकील साहब के बच्चे अपने बाबा की पीढ़ी का साथ देते थे यानी उनके लिए वकील साहब की पीढ़ी मौलाना वाली पीढ़ी थी । कहने का मतलब हर अगली पीढ़ी तुरन्त पहले वाली पीढ़ी के लिए चिढ़ाने व मजाक का सिलसिला जारी रखती थी ।
"का हो उस्मानी, नमाज पढ़ आयो का"?
-- बाल जी ने पवन बढ़ई को चिढ़ाया
पवन बढ़ई भला क्यों पीछे रहते?उन्होंने भी पलट वार किया
"तोहार रोज़ा खुला कि नाही?
न खोले होव तो बड़ेगांव चले जाव
इस तरह के संवाद गौहन्ना के रोजमर्रा की आदतों में है ।
ये सिलसिला कब से शुरू हुआ होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन मजहब परिवर्तन से इसको जोड़ कर देखा जा सकता है जब कुछ हिन्दुओं ने आक्रांताओं से डर कर या लालच में मुस्लिम धर्म अपना लिया होगा तो उन्हें सामाजिक पद क्रम सोपान में नीचे रख दिया गया होगा । यह बात इससे भी समझी जा सकती है कि मुस्लिम समुदाय के लिए हिन्दुओं के घरों में बर्तन अलग ही होते थे जो प्रायः कांच आदि के होते थे जैसे कांच का गिलास या चीनी मिट्टी की प्लेट ।
ऐसा नहीं है कि गौहन्ना गांव में मुसलमान बिरादरी नहीं थी । दर्जी टोला मुसलमानों का ही था जिनको हर हिन्दू हर फसल पर तिहाई के रूप में मेहनताना देता था । बड़े अदब और सम्मान से अब्दुल बाबा मतलब अब्दुल दर्जी को पूरा गांव 'बाबा' बुलाता था ।
पीढ़ी अंतराल वाले इस मजाकिया सिलसिले को जब तक समाज शास्त्री अपने नजरिए से समझे तब तक पुख्ता रूप से बस इतना समझिए कि इस परम्परा को गौहन्ना और आसपास के गांव जाने-अनजाने आज भी निभा रहे हैं और उनके रोजमर्रा के जीवन में ये चुहल-बाजी रिश्तों में मिठास घोलती रहती है। बताते चलें कि सतीश चंद्र पांडेय उर्फ मुल्ला पांड़े अंत समय तक वकील-साहब यानि राम तेज मिश्रा से दोस्ती निभाते रहे। उनके जाने के बाद वकील-साहब अकेले पड़ गए । सब कुछ होते हुए भी मुल्ला पाँड़े के जाने का सूनापन वकील साहब जिन्हे मुल्ला पाँड़े मौलवी साहब कहते थे कोई दूसरा न भर सका , उनकी जिंदगी में कोई दूसरा मुल्ला पाँड़े दोबारा न मिला ।
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वैसे तो उनका असली नाम कुछ और था लेकिन गांव में वे नरायन के नाम से ही मशहूर थे। थोड़ा दिमाग उच्च स्तर पर था, इसलिए अपने में मगन रहते थे और बात-बात पर नाराज भी हो जाते थे। बहुत पहले वे अपने गांव से भागकर गौहन्ना आ गए थे। वहां उन्हें सहारा दिया मिसिर दादा ने। मिसिर दादा के पास बहुत बड़ी जागीर थी कई बीघे में खेती होती थी और उनके दरवाजे पर कई जानवर बंधे होते थे। इन जानवरों में 2-3 जोड़ी बैल और कई भैंस शामिल थी। अब मिसिर दादा को भी किसी किसी सहायक की जरूरत थी और नरायन को भी कोई आश्रय चाहिए था। इसलिए दोनों की जोड़ी जम गई। और नरायन मिसिर दादा के घर में रहने लगे। उनका असली नाम तो 'सुंदर' था लेकिन मिसिर दादा ने नारायण नाम सोच समझकर इसलिए रखा कि जब भी बुलाएंगे भगवान का नाम जबान पर आएगा।
हम बच्चे नरायन को नरायन दादा ही कहते थे गांव वाले भले ही उनको नारायण कहें लेकिन हमारे लिए तो दादा ही थे। कभी कंधे पर उठाकर घूमते थे तो कभी बगीचे में मोर, कौवा, तोता आदि दिखाते रहते थे। एकदम सुबह-सुबह वो उठ जाते थे और कहरवा गाते थे। भोर में उनके कहरवा की मीठी आवाज बहुत दूर तक सुनाई देती थी ।
सुबह-सुबह उनको 'बासी' खाने का शौक था और अपने काम पर जाने के पहले वह बासी खा कर निकलते थे। वकील साहब को भाई मानने के नाते वकिलाइन को वह भौजी मानते थे और इस रिश्ते को उन्होंने एक नया नाम दिया था 'जनिया' . अब इसका अर्थ क्या होता है यह तो वही जाने लेकिन सुबह-सुबह बड़े हक के साथ उनको जनिया से अपनी बासी चाहिए होती थी। बासी खाने के बाद वे खेतों की तरफ निकल जाते थे और मिसिर दादा के खेतों में जी जान से मेहनत करते थे। मिसिर दादा भी उन्हें इस बात का लगातार एहसास कराते रहते थे कि यह सारी खेती और जायदाद उन्हीं की है। दोपहर को लौटते समय वे जानवरों के लिए चारा लाना नहीं भूलते थे। सुबह खेतों पर जाने से पहले वह जानवरों को एक राउंड खाना खिला चुके होते थे। चारा लाने के बाद दोपहर में उस चारे को काटना और जानवरों को पानी पिलाना उनके रूटीन में था। शाम को अपनी भैंस खोल कर उसे चराने ले जाना और अँधेरा होने के पहले उसे सही सलामत खूँटे से बाँधना उनका रोज का काम था।
भैंस चराते समय कभी-कभी साथी चरवाहों से उनकी खटपट भी हो जाती थी लेकिन बाद में सब कुछ सुलझ जाता था। मिसिर दादा की एक खासियत थी कि नरायन को शाम को वह एक 'स्पेशल डोज' देते थे, जो थी उनकी शादी। मिसिर दादा रोज उनकी शादी की बात छेड़ते और एक ऐसी नायिका उनके दिमाग में बैठा देते थे जिसकी कल्पना कर नारायण दादा खुश रहते थे। ऐसा नहीं कि यह काम मिसिर दादा ही करते थे बल्कि धीरे-धीरे गांव में दो-चार मसखरी वाले लोग भी उनकी शादी की चर्चा छेड़ देते थे। इनमें से एकाध पात्र गांव की बिंदास महिलाएँ भी होती थीं जो उनसे कहती थी कि मुझसे शादी कब करोगे ? अब उनकी इतनी ही बात पर नरायन दादा शरमा जाते थे और उनके मन ही मन में लड्डू फूटने लगता था।
नरायन दादा की एक दृष्टि बाधित थी। उसके बावजूद वह अपना काम बड़ी कुशलता से निपटाते थे। जाड़े के दिनों में अलाव यानि तपता के सामने लोग उनके लोकगीत सुनते थे और उनकी शादी की चर्चा किया करते थे। हाँ वैसे तो उनमें कोई भी ऐब नहीं था लेकिन शाम को उन्हें दो बीड़ी जरूर चाहिए होती थी। एक वह खाने के पहले पीते थे और दूसरी खाने के बाद। उनके बीड़ी के शौक में महरा दादा भी उनका साथ देते थे जो उनको तीसरी और चौथी बीड़ी भी उपलब्ध करा दिया करते थे।
नरायन दादा जब मिसिर दादा से ज्यादा ही नाराज हो जाते थे तो भागकर अपने पैतृक गांव इब्राहिमपुर पहुंच जाते थे, लेकिन एक-दो दिन से ज्यादा वहाँ नहीं रुकते थे और वहाँ के लोगों से कहते थे कि मेरी जायदाद और मेरे जानवरों को कौन देखेगा ?अब फिर मैं गौहन्ना जा रहा हूँ । उनके सामान में उनके दो जोड़ी कपड़े, अँगोछा और उनकी थाली और गिलास थे जो मिसिर दादा के बगल बने मड़हा में सुरक्षित रहते थे, जहां पर नरायन दादा रात को सोते थे। उनके सामान में कुछ अनोखी चीजें भी होती थीं , जिसमें टिकुली , बिंदिया और कुछ लाल रंग के कपड़े होते थे जो वे शायद इसलिए संभाल कर रखते थे कि जब उनकी शादी होगी तो नई बहू को देंगे। टीड़ी की दुलहिन तो उनको अक्सर छेड़ती रहती थी कि हमसे शादी कब करोगे ?नरायन दादा उनको आश्वासन देकर मगन हो जाते थे ।
ऐसा नहीं था कि नरायन दादा हमेशा बहुत सभ्य और शालीन व्यवहार करते थे। जब उखड़ जाते थे तो उनकी गाली सुनना सबके बस की बात नहीं होती थी। उस अनगिनत गाली को सिर्फ मिसिर दादा ही झेल पाते थे। दोनों में इस बात को लेकर एक अनकहा समझौता होता था कि जब एक बोलेगा तो दूसरा केवल सुनेगा । नरायन दादा का गुस्सा तभी शांत होता था जब कोई बड़ा बुजुर्ग उनको समझाता था । सह आस्तित्व का ये समझौता मिसिर दादा और नरायन ने आजीवन निभाया। उनके खाने-पीने से लेकर दवा-दारू तक सब कुछ मिसिर दादा ने किया। नरायन दादा भी मिसिर दादा के लिए किसी भी सीमा तक लड़ने को तैयार हो जाते थे। इसलिए नरायन दादा ने गौहन्ना गांव को ही अपनी कर्मभूमि बना लिया और अपनी आखिरी साँस भी मिसिर दादा के मड़हा में ही ली। हाँ अंत तक उनकी शादी न हुई तो न हुई ।
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बचपन में प्राइमरी क्लास में पढ़ने के लिए हम लोग बड़ागांव ही जाते थे । गौहन्ना में प्राइमरी स्कूल लगभग 1984 के आसपास खुला । बड़ागांव की इस पढ़ाई में दो किलोमीटर पैदल आने जाने का सिलसिला था सो पाँय की पनहिया यानि चप्पल खूब घिसती थीं । तब के जमाने में जूते पहन के स्कूल बहुत कम लोग जाते थे। जूते और यूनिफॉर्म का चलन कॉन्वेंट और मॉन्टेसरी के आने के बाद हुआ । हमारी चप्पलें ही हमारी असली हमसफर थीं । रेलवे किनारे के ट्रेक से ही जाना होता था जिस पर चप्पलें घिसतीं बहुत थीं । अक्सर हवाई चप्पल के पट्टे टूट जाते थे , जिन्हें बड़ागांव के पियारे दादा बनाते थे । पियारे दादा इलाके में पियारे चमार के नाम से मशहूर थे । उनका घर ही उनका कारोबार और कारखाना दोनों था । जूते चप्पल की मरम्मत के साथ साथ वो नए जूते भी बनाते थे । कठिन से कठिन और मुश्किल मरम्मत जो इलाके में कहीं नहीं होती थी वो पियारे दादा के घर होती थी । तालाब के किनारे बने उनके घर पर ग्राहकों, आगंतुकों का ताँता लगा रहता था । घंटों इंतजार के बाद हम बच्चों की चप्पल भी सही हो जाती थी । कभी कभी तो दूसरे-तीसरे दिन आकर ले जाना पड़ता था । बुजुर्ग कांपते हाथों से जब वो अपना काम करते थे तो ऐसा लगता था कि अलीबाबा और चालीस चोर में मोची का काम इन्होंने ही किया होगा ।
जूते उन दिनों मँहगे होने के साथ बड़े छात्रों या युवकों को नसीब होते थे। अक्सर वे लोग भी जिस जूते को पहनते थे वो प्लास्टिक के होते थे। चमरौधा जूता कस्बों जैसे रुदौली या फैजाबाद में ही मिलता था और तब के जमाने के लिहाज से मँहगा भी था । कुछ बड़े होने पर जब प्लास्टिक का जूता नसीब हुआ तो पहले दिन की खुशी शाम आते-आते एक अजीब दर्द में बदल गई । जूता पीछे से पैर की ऐड़ी के पास अपना कमाल दिखा चुका था । गौहन्ना की भाषा में कहें तो जूता काट रहा था और पैर दर्द से कराह रहा था । यह दर्द ऐसा था कि कहा भी नहीं जाता था और सहा भी नहीं जाता था । बड़े बुजुर्गों ने समझाया कि सबके साथ ऐसा ही होता है नया जूता काटता ही है. दो-तीन दिन में काटना बंद कर देगा । किसी तरह इस दर्द को भुगत कर पैरों ने जूते से दोस्ती गाँठ ली और टखने की गाँठ की मोहर आजीवन लग गई । बरसाती जूते यानि प्लास्टिक के जूते गांव की जीवन शैली में कीचड़ , धूल , मिट्टी, पानी सब के लिए आल इन वन समाधान थे जिनका विकल्प चमड़े वाले जूते बन भी नहीं पाए ।
फिलहाल इन जूते चप्पल के एकमात्र कुशल डॉक्टर पियारे दादा को देखकर किताबों में भक्ति युग के महान संत रैदास के बारे में हम लोग कल्पना किया करते थे । उनकी सधी उंगलियाँ ठर्रे के धागे को जिस सलीके से चलाती थीं,उससे ऐसा लगता था कि पनही की उमर अब दोगुनी हो जायेगी । उनकी कठौती में गंगा तो नहीं लेकिन कर्म गंगा जरूर देखी जा सकती थी । पियारे दादा को गुजरे अरसा गुजर गया लेकिन बड़ागांव और उसके आसपास फिर से पियारे जैसा कोई नहीं हो सका ।
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नाम सुन के चौंकिएगा मत । जर्मन सिंह न तो जर्मनी से आए थे, न ही जर्मनी से कोई रिश्तेदारी थी। बस नाम जर्मन सिंह माँ -बाप ने दे दिया तो जर्मन सिंह हो गए थे । हमारे इलाके के वो पोस्टमैन थे, जिन्हें प्यार से लोग 'डाकिया बाबू' कहते थे । ये उस दौर की बात थी जब मोबाइल नहीं थे। चिट्ठी और तार से संदेश आते - जाते थे । शहर में बड़े घरों में टेलीफोन भी हुआ करते थे ।
गौहन्ना गांव के साथ - साथ जर्मन सिंह के पास दो-तीन गांव और भी थे । उनके पास एक ऊँची सी साइकिल हुआ करती थी जो इन
गांवों तक दौड़ लगाती रहती थी । जर्मन सिंह निकट के गांव बरसेंडी के जमींदार घराने के थे । लंबे कद के जर्मन सिंह खुद में निराले व्यक्तिव के थे। जाड़ा हो या गर्मी , धूप हो या बरसात, अपनी ड्यूटी पे हमेशा मुस्तैद रहने वाले जर्मन सिंह को हम लोग चाचा कहते थे ।
हमारे घर उन दिनों गांव की प्रधानी भी थी, तो न जाने कितनी सरकारी पत्रिका या न्यूज लेटर तो आते ही थे, साथ में जर्मन न्यूज आया करती थी जिसे नाना जी ने कभी हमारे पते पर लगवा दी थी। यह पत्रिका भारत जर्मन संबंधों को मजबूत बनाने के लिए जर्मन दूतावास से कई जगह जाया करती थी। उसमें हमारा घर भी एक था । कोई भी चिट्ठी-पत्री आती थी तो हम बच्चे डाकिए की साइकिल के पीछे दौड़ लगा लिया करते थे। एक बार जर्मन न्यूज आई तो मैं खुशी से चिल्ला पड़ा जर्मन आया ये भूल गया कि डाकिया चाचा का नाम भी जर्मन है ।
तार पढ़ने के लिए गांव में पढ़े लिखे लोग ढूँढे जाते थे । तब तक हम लोग भी मिडल क्लास वाले हो गए थे । उन्हीं दिनों रघुराज नाऊ के घर एक तार आया जो उनके बेटे ने दिल्ली से भेजा था । तार किसी ज्यादा पढ़े-लिखे ने बाँच दिया और घर में कोहराम मच गया
भाषा थी - ' मदर इज इल कम सून ' अर्थ निकाल दिया गया माँ चली गई जल्दी आओ । किसी तरह मेरे घर ला कर पढ़ाया गया तो पता चला अभी जिंदा हैं लेकिन बीमार हैं। जल्दी आ जाओ ।
ऐसा लोग बताते थे कि इस तरह की घटनाएँ अंग्रेजी के तार में अक्सर हो जाती थीं । हम लोग अड़ोस- पड़ोस वालों की चिट्ठी लिखते भी थे और पढ़ के सुनाते भी थे । उस व्यक्ति को जिसके घर चिठ्ठी आई होती थी , हमारे स्कूल से लौटने का इंतजार बेसब्री से होता था ।
हम लोगों ने इस बीच सुमन सौरभ, चंपक, नंदन जैसी पत्रिकाएँ डाक से मँगाना शुरू कर दिया था । घर से पैसे माँगकर डाकघर में पत्रिका के हेडक्वार्टर पे मनी ऑर्डर कर देते थे और पत्रिका आना शुरू हो जाती थी । कभी-कभी पत्रिका बंक भी मार जाती थी तो उस महीने मायूसी हाथ लगती थी ।
गांव के जो लोग बंबई और सूरत कमाने जाते थे ,उनके परिवार को मनी ऑर्डर का इंतजार रहता था । पड़ोस की भगतिन आजी को तो सऊदी से मनी ऑर्डर आता था । गांव की अर्थव्यवस्था में इस मनी ऑर्डर की ठीक -ठाक भूमिका थी ।
हमने एक बार चंदामामा का मनी ऑर्डर भेज कर पूरे साल इंतजार किया पत्रिका न आई तो न आई। निराशा जरूर हुई पर मैगजीन से नाराजगी न हुई । विद्या कसम इतनी बढ़िया मैगजीन आज तक नहीं पैदा हुई , सो आज भी उसे पढ़ने का मन करता है । बिक्रम बेताल की पहेली जिंदगी भर अनसुलझी ही रही आज भी अनसुलझी है । बेताल हर बार बिक्रम के कंधे से उड़ जाने का आदी था ।
वैसे तो जर्मन राष्ट्र से अपनी कोई करीबी न थी, लेकिन उन दिनों दो जर्मनी हुआ करते थे एक पूर्वी और एक पश्चिमी । बाद में जनता ने बर्लिन की दीवार तोड़ दी और एक राष्ट्र के रूप में फिर से नए जर्मनी का उदय हुआ । इसी बीच सोवियत संघ का टूटना और चेक और स्लोवाक अलग-अलग राष्ट्र के रूप में उदय ये जानकारी जर्मन न्यूज से मिलती रही । बाद में प्रतियोगिता दर्पण जैसी पत्रिका भी जर्मन चाचा डाक से पहुँचाते थे जिसने नौकरी खोजने में बहुत मदद की ।
चिट्ठियां खुशी और गम दोनों संदेश लाती थीं । नाना के आने की खबर, बुआ की ट्रेन किस तारीख को चलेगी ये सब चिट्ठी में ही आता था । कभी -कभार आदमी पहले आ जाता था, चिट्ठी देर में मिलती थी । बैरंग चिट्ठी का खर्चा चिट्ठी पाने वाले को उठाना पड़ता था जो बहुत खलता था । सबसे आसान पंद्रह पैसे वाला पोस्टकार्ड होता था जिसकी कोई गोपनीयता नहीं होती थी । अंतर्देशीय पत्र बंद होता था लेकिन जगह की एक सीमा होती थी। फिर भी इसमें पोस्टकार्ड से ज्यादा जगह मिलती थी। लिफाफे विस्तार से संदेश ले जाते थे वो भी पूरी गोपनीयता के साथ । इसलिए गोपनीय संदेशों और प्रेमियों की पसंद लिफाफे थे। मँहगे जरूर थे लेकिन जब बात लंबी और गोपनीय हो तो इतनी कीमत चुकानी पड़ेगी ही। रजिस्ट्री लेटर के मिलने की सौ प्रतिशत गारंटी थी । बाकी पत्र तो बीच से गायब भी हो जाते थे। कहते हैं आजादी के समय चुनिंदा पते के पत्रों को पढ़ के ही सौंपा जाता था लेकिन आजादी के उस दौर के बाद केवल रक्षा बंधन के लिफाफे ही फटे मिलते थे।
जर्मन सिंह गर्मियों के दिनों में सिर पर अंगौछा बाँध कर चलते थे । उनका लाल गर्म चेहरा देख कर लगता था कि चिट्ठी बाँटने में उन्हें कितना कष्ट उठाना पड़ता है । किसी -किसी दरवाजे पर उन्हें कोई पानी पिला देता था । हमारे घर उनको बैठने में खुशी होती थी । उनके साथ घर जैसा रिश्ता लगातार बना रहा । जर्मन सिंह को आजीवन अपने परमानेंट न होने की टीस बनी रही । इसी उम्मीद में जिंदगी के अंतिम पड़ाव तक जमींदार घराने के जर्मन सिंह चिट्ठी ढोते रहे इससे पहले कि उनके दर्द की चिट्ठी महकमे के मुखिया पढ़ पाते जर्मन चाचा उस जगह के लिए रूखसत हो गए जहां न चिट्ठी आती है और न ही जाती है ।
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हम लोगों के बचपन यानि अस्सी के दशक में गौहन्ना और आसपास के गांव अपनी जरूरतों के लिए जिस बड़ी बाजार पर निर्भर थे, वह थी बड़ागांव की बाजार। इस बाजार की शान थी बड़कऊ की चाट । जिसने एक बार खाया तो मुरीद हो गया । ढाक के पत्ते पर चटपटी और तीखी मीठी हर तरह की चाट बनाना बड़कऊ के बाएं हाथ का खेल था । बूढ़ा हो या बच्चा सब उन्हें बड़कऊ ही बुलाते थे । बीच बाजार में उनका चाट का ठीहा कभी भी बिना भीड़ के नही रहा । उनकी दुकान के सामने एक दो चाट वाले और थे जो गलती से आ गए या दूसरी दुकान के नाराज ग्राहकों को संभालते थे ।
इसी बाजार में एक कोने पर साइकिल पर चूरन वाले का चूरन बड़े मजेदार अंदाज में लाउड स्पीकर की आवाज के साथ बेचा जाता था -
'कैसा भी कब्ज हो , दर्द हो मिनटों में आराम
ये चूरन बालम खीरा से बना खास आपके नाम
कैसी भी आती हो खट्टी डकार
इसी तरह दाद- खाज- खुजली की दवा जालिम लोशन, कातिल लोशन भी बेची जाती थी..
'खुजलाते खुजलाते परेशान हो जाते हैं नही मिलता आराम
सिर्फ एक बार लगाइए जालिम लोशन जो करे दाद खाज खुजली का काम तमाम'
बाजार में इन चीजों के साथ साथ किताब की भी दुकान लगती थी । बड़ी सी पल्ली पर सैकड़ों किताब बिछा कर बेचने वाला आवाज लगाता ...
'पढ़िए वशीकरण की किताब , जानिए अपना भविष्य
एक ही किताब में सब कुछ मिलेगा
हर किताब दस रुपए, दस रुपए, दस रुपए .. '
उसकी दुकान पर आल्हा ऊदल की किताब, इंद्र जाल की किताब , घर का वैद्य, तोता मैना की कहानी , सुलताना डाकू , फूलन देवी जैसे विषयों पर सस्ती किताबें खूब बिकती थीं ।
धनिया ,मिर्चा आलू ,गोभी, जैसी सब्जियों की साप्ताहिक हाट में जलेबी से लेकर बड़कऊ की चाट हर चीज के ग्राहक आते थे । बड़कऊ की चाट के टेस्ट का चरम बड़कऊ की टिकिया पर आकर खत्म होता था, जिसे हमारे जैसे स्कूली बच्चों से लेकर बड़का , छोटका, मलकिन , भक्तिन सब चोरी छिपे खाते थे । हाँ इलाके के ताऊ जैसे संभ्रांत लोग अपने घरों में उसे पैक करवा के ले जाते थे । सुना है अब बड़कऊ तो नही रहे लेकिन बड़ागांव बाजार में दुकान आज भी उसी नाम से मशहूर है ।
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"अरे हरी राम के सधई बाबा आए हैं। पीपल के पेड़ पर चढ़े हैं "।
हरी राम वैसे तो दुबले- पतले थे और कद- काठी में भी सामान्य थे, लेकिन जब उनके ऊपर सधई बाबा सवार होते थे तो असामान्य कार्य उनके बाएँ हाथ का खेल होता था । दस-दस आदमी उनको पकड़ने की कोशिश करते थे और वो उन्हें झटक देते थे ।
आज हरी राम पर फिर से सधई बाबा की सवारी आई थी और वो पेड़ पर चढ़े हुए थे । वैसे तो हरी राम को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था लेकिन जब सवारी आती थी तो दौड़ते हुए पेड़ पर चढ़ जाते थे ।
"बाबा अबकी हाई स्कूल कै इम्तिहान है पास होब कि नाहीं " ? किसी विद्यार्थी ने पूछा ।
"पास होय जाबो बच्चा" - उत्तर मिलता था और विद्यार्थी के हौसले बुलंद हो जाते थे ।
ये आत्माओं की सवारी गौहन्ना गांव में कुछ लोगों को ही आती थी। लोगों के लिए वे आशा के केंद्र थे। उम्मीद यह कि हर समस्या का समाधान ऐसी जगह मिलेगा । उनका सम्मान उनके डर की वजह से ज्यादा होता था । रास्ते में 'ढरकौना' चौराहे पर मिल जाय तो अनिष्ट की आशंका बनी रहती थी । गलती से भी उसे कोई पार नहीं करता था ।
कोई बच्चा खो गया , भैंस दूध नहीं दे रही , औरत विदा होकर नहीं आ रही, पति परदेस से कब लौटेंगे, लड़के को नौकरी कब मिलेगी , बीमारी कैसे ठीक होगी? इन सभी समस्यायों का समाधान ग्रामीण जनता को इन लोगों के पास मिल जाता था । कहने का मतलब इनके ठिकाने 'सिंगल विंडो सिस्टम' होते थे, जो हर समस्या को हल कर सकते थे । तीर कहें या तुक्का, अक्सर लोगों को फायदा हो भी जाता था ।
गांव में 'हठीले बाबा' कोई मुस्लिम आत्मा थी,तो किसी पे 'बरम बाबा' का साया था कोई किसी से ठीक होता था तो किसी को किसी दूसरे से फायदा होता था । मिठाई
के बप्पा राम परसाद पांड़े कलमा पढ़ के झाड़ते थे तो बेचन बाबा लोहबान सुलगा के भूत उतारते थे । लल्लू पांड़े का इलाका दूर-दूर तक फैला था । बड़ी दूर-दूर से लोग उनके यहाँ हाजिरी लगाने आते थे । खेत-पात तो था नहीं, शादी हुई नहीं थी। यही उनकी जीविका थी और यही उनका धंधा भी ।
नजर उतारने वालों में बूढ़ी दादी का जवाब नहीं था। जम्हाई लेते हुए चुटकी में नजर उतार देती थीं। लेकिन हाँ , मंगल और बीफै (बृहस्पतिवार) को ही नजर झाड़ी जाती थी किसी और दिन नहीं । भैंस , गाय , नई बहू तो नजराती ही थीं। कभी कभी बड़े-बूढ़े भी नजरा जाते थे । अब नजर उतारने का कोर्स डॉक्टर को तो पढ़ाया नहीं जाता सो इस विद्या की डॉक्टर तो बुढ़ेई दादी ही थीं ।
घिर्राऊ के मेहरारू को 'ज्वाला माई' की सवारी आती थी तो मस्टराइन को 'शीतला माई' का वरदान था ।
अगरबत्ती , लोहबान , कपूर , मिर्च, डली वाला नमक, झाड़ू या डंडा ये सब इन सिंगल विंडो सिस्टम के उपकरण हुआ करते थे । विज्ञान के दौर में जब गांव में डॉक्टर न मिले तो बीमार को कपूर और लोबान का धुंआ डिसइन्फेक्टेंट का थोड़ा बहुत काम कर ही देता था। यह उसका साइको इफेक्ट होता था कि उसका मनोबल ऊँचा हो जाता था और वो जल्दी ठीक होने लगता था । गाय के गोबर की भभूत आयुर्वेद में वैसे भी औषधि के समतुल्य मानी गई है ।
कहते हैं आदमी का मन ब्रह्माण्ड की शक्तियों का केंद्र है। इससे जो चाहो करवा लो । पल भर में कहीं घूम लो तो पल भर में कहाँ क्या हो रहा ये पता कर लो । परा विद्या पूरी दुनिया में रहस्य, रोमांच और संशय का केंद्र रही है जिसे विज्ञान ने कभी मान्यता नहीं दी । लाख विज्ञान पढ़ने के बाद भी आज भी जब निम्मल बाबा जैसे लोगों के पीछे डॉक्टर, इजीनियर और शहरी समाज की भीड़ उमड़ती हो तो उन बेचारे गरीब ग्रामीणों का क्या दोष जिनको न विज्ञान का ककहरा पता है और न ही समस्या का वैज्ञानिक समाधान ।
फिर भी ओझा देवा, सोखा , की ये परंपराएं मानव शास्त्र में विस्तार से पढ़ी लिखी और समझी जाती हैं । शोधकर्ताओं के लिए आज भी ये संस्कृतियों को समझने के साथ-साथ कौतूहल का विषय भी है ।
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अवध क्षेत्र का यह एक अजीबोगरीब खेल था, जिसे गौहन्ना में जम कर खेला जाता था । था इसलिए कह रहा हूं कि नई पीढ़ी में शायद ही कोई इस खेल को खेलता होगा। मेरी पीढ़ी के लोगों का यह एक पसंदीदा खेल था ।
इस खेल को खेलने के लिए एक छोटे मैदान और दो- तीन बेल या पत्थरों की आवश्यकता होती थी । एक गोल घेरे में दो बेल रखकर तीसरे बेल से निशाना साधा जाता था । इस तरह पूरे मैदान में बेल से बेल पर निशाना साधा जाता था। गुल्ली-डंडे के बाद यदि कोई खेल ज्यादा प्रचलित था तो वह यही खेल था ।
गौहन्ना में इसी तरह का एक खेल 'लच्छी' हुआ करता था जिसमें पेड़ के नीचे एक गोल घेरा बनाकर लकड़ी का डंडा रखा जाता था जिसे कोई एक बच्चा पैरों के नीचे से दूर फेंक देता था और जो बच्चा उसे उठाने जाता था उसको पेड़ पर चढ़े बच्चों को छूकर वह लकड़ी चूमनी होती थी। अगर सबको छूने से पहले कोई बच्चा पेड़ से कूदकर उस लकड़ी को दोबारा फेंक देता था तो पहले वाले बच्चे को फिर से वही प्रक्रिया तब तक दोहरानी पड़ती थी जब तक सब बच्चों को छूकर वह लकड़ी न चूम ले। इस खेल के चक्कर में एक बार ऐसा भी हुआ कि एक बच्चे के गाल को लकड़ी ने पूरी तरह छेद दिया था।
गर्मी की छुट्टियों में गुल्ली-डंडा खूब होता था। अक्सर बड़े बुजुर्ग इस बात की चेतावनी देते रहते थे कि गुल्ली-डंडा मत खेलो। आँख में लग जाएगी और अक्सर ऐसा होता भी रहता था लेकिन बच्चे कब मानने वाले ? गुल्ली-डंडा में जिस तरह क्रिकेट में रन बनते हैं उसी तरह पॉइंट मिलते थे। जितनी दूर गुल्ली जाती थी उसको डंडे से नाप लिया जाता था और किसी रन की तरह उतने डंडे उस खिलाड़ी के खाते में जुड़ जाते थे।
बचपन में खेल का नशा इतना तगड़ा होता था कि स्कूल से आने के बाद सीधे खेल के मैदान में हम लोग पहुँच जाते थे और जब तक अँधेरा नहीं हो जाता था तब तक घर लौटने का सवाल ही नहीं था। इसी बीच कभी-कभी घर से लोग हमें ढूँढने भी निकल पड़ते थे। उनको आते देख हम फुर्ती से रफूचक्कर हो कर घर में घुस जाते थे और मार खाने से बच जाते थे। घर से कोई आ रहा है, इस बात की सूचना एक दूसरे को देने का फर्ज हर बच्चे का होता था। लेकिन फिर भी कभी-कभी कोई न कोई दोस्त फँस ही जाता था और पिट जाता था।
फिलहाल गौहन्ना में ये पुराने खेल अब नई पीढ़ी को शायद ही पता होगा। इस दौर में उनके पास खेलने के लिए क्रिकेट के साथ-साथ वीडियो गेम जो मौजूद है।
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ये वो कैंची नहीं, जो कपड़े काटती है। गौहन्ना और आसपास के गांवों में साइकिल सीखने वाला अपनी शुरुआत कैंची से ही करता है । साइकिल के फ्रेम के बीच से पैर निकाल कर दूसरी साइड के पैडल को मारकर साइकिल चलाने की विधा कैंची कहलाती थी । इसमें साइकिल के ऊपर के डंडे को गद्दी से होते हुए बड़ी स्टाइल से पकड़ना पड़ता था और दूसरे हाथ से सिर्फ एक हैंडल को थाम कर साइकिल बैलेंस जिसने कर ली फिर उसकी आंखों की चमक बताती थी कि वो साइक्लिस्ट हो गया । ये कैंची धीरे-धीरे डंडे तक और डंडे से गद्दी पर बैठने तक का सफर तय करा देती थी । गद्दी वाला नौसिखिया अपने को किसी राजा से कम नहीं समझता था अकड़ इतनी कि कभी-कभी हाथ छोड़ के स्टंट दिखाने की हसरत उसे पटक डालती थी । साइकिल सीखने की उमर और किशोर मन की चंचल उमर में कोई अंतर नहीं होता है। जितना सीखने में मजा आता है उससे ज्यादा दिखाने में मजा आता है ।उस समय पढ़ने वाले लड़कों में ये क्रेज बढ़-चढ़ के दिखता था, जब कोई रूपसी पैदल पढ़ने जा रही होती थी। उस समय उनकी साइकिल उनको किसी हीरो की अनुभूति कराती थी । ये वह दौर था जब गांव में साइकिल कम ही हुआ करती थी और लड़कियों को साइकिल न के बराबर मिला करती थी आज के दौर में तो लड़कियों को साइकिल चलाते देखना एक आम बात है ।
कैंची साइकिल का यह सफर गौहन्ना में सीधे शुरू न होकर टायर के साथ शुरू होता था। साइकिल के उतारे हुए रिजेक्ट टायर लोग गांव ले आते थे। उस टायर का वैसे तो गाय भैंस बांधने में प्रयोग होता था, लेकिन हम जैसे बच्चों के लिए वो साइकिल चलाने की पहली प्रैक्टिस होती थी । एक लकड़ी के डंडे से टायर को दूर तक बिना गिरे दौड़ाने का कंपटीशन गौहन्ना के बच्चों का आम शगल था । जिस बच्चे के पास टायर नहीं होता था, वह टायर वाले बच्चे की खुशामद कर टायर प्रैक्टिस करता था । गांव के टायर भी अपने आप में कई कैटेगरी के होते थे। कुछ टायर पूरी तरह युवा होते थे और डंडे खाकर भी तन कर दौड़ते थे। कुछ टायर अधेड़ वाली स्टाइल में लहरा कर अपना सफर पूरा करते थे वहीं कुछ टायर बुड्ढों की झुकी कमर के जैसे कुछ ही दूर जाकर लुढ़क जाते थे । जब ये टायर बुड्ढे हो जाते थे तो कुछ दिन झूला झूलने के भी काम आते थे ।
नए-नए साइकिल सीखने वालों से कोई लिफ्ट माँग ले तो साइकिल वाले का चेहरा खिल जाता था । आगे वाले डंडे पर हर गढ्ढे पर हिचकोले खाता लिफ्ट मांगने वाला निरीह प्राणी किसी तरह अपनी मंजिल पर पहुंच कर भगवान को धन्यवाद देता था कि आज भगवान ने उसे बचा लिया । वहीं पीछे कैरियर जिसे अवध में 'कैरियल' ही कहते हैं पर लिफ्ट लेने वाला अपने को भाग्यशाली समझता था । अक्सर नौसिखिए साइकिलिस्ट कैरियल पर बैठाते ही थोड़ी दूर जाकर लुढ़क जाते थे सो बहुत अनुभवी लोग ही कैरियर के योग्य माने जाते थे । साइकिल की यह सीख भी हमें यही सिखाती है कि जिंदगी में भी कम अनुभव के लोगों को अपने आगे नहीं बैठाना चाहिए और अनुभवी लोगों के पीछे चलने की कोशिश करनी चाहिए । जब बात बैलेंस की हो तो शुरुआत कैंची से करनी चाहिए। गद्दी पर बैठना धीरे-धीरे अपने आप ही आ जायेगा ।
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बाबा जिन्हें हम बच्चे दादा ही कहते थे, का वादा था कि जब आठवीं में आ जाओगे तो साइकिल दिलवा देंगे । इस खुशी में प्राइमरी स्कूल पार कर आठवीं क्लास में पहुँचने की जल्दी पड़ गई थी । पहला नंबर बड़े भाई का था। वह स्कूल में मुझसे दो क्लास आगे थे सो पहली साइकिल उनको मिल गई । साइकिल सेकंड हैंड थी इसलिए सस्ती मिल गई थी। यही कोई दो सौ रुपए के आसपास आई थी, लेकिन भैया की खुशी का ठिकाना न था ।
गौहन्ना की कच्ची सड़कों पर धूल और रब्दे में साइकिल चलाना किसी चैलेंज से कम नहीं था । बड़े भाई साहब अनुशासित ढंग से साइकिल चलाते थे ।कुछ दिन बाद उन्होंने मुझे भी साइकिल के अगले डंडे पर बैठने की अनुमति दे दी । प्रेम चंद की कथा के बड़े भाई साहब और मेरे बड़े भाई साहब में कोई ज्यादा अंतर नहीं था । ठेठ आदर्श और संस्कारों में वो उसी तरह डूबे हुए थे जिस तरह जलेबी चाशनी में डूबी हुई होती थी । अब साइकिल पर अगले डंडे पर बैठकर मुझे उनकी दृष्टि के सामने से अपने सर को टेढ़ा रखना पड़ता था । कभी गलती से भी सीधा हो जाता तो डाँट -डाँट कर उसे टेढ़ा रखने पर मजबूर कर दिया जाता था । इसी चक्कर में एक दो-बार दृष्टि बाधित होने पर हम दोनों लोग खेत में चार ढुनमुनी खा चुके थे।साइकिल वो चला रहे होते थे अलबत्ता गलती मेरी ही होती थी ।
इस साइकिल के सफर ने स्कूल के रास्ते में न जाने कितने मौसम देखे थे । गौहन्ना गांव के किनारे ही थाले वाली रोड जिसपे पानी भरा होता था, वहाँ कहीं-कहीं साइकिल को कीचड़ में फँसने से बचाने के लिए कंधे पर उठाना पड़ता था । गधे और बाप-बेटे की कहानी के सरीखे वो साइकिल कहती थी, बहुत मेरे ऊपर बैठते थे बच्चू अब मजा आया ? इसी तरह गजेदुआ गांव में तालाब के किनारे चिकनी मिट्टी में जब साइकिल के मडगार्ड में जब कीचड़ फँस जाता था तो उसको छुड़ाने में नानी याद आ जाती थी । दस किलोमीटर साइकिल भांजने के बाद जब स्कूल पहुंचते थे तो बड़ी बेदर्दी से उसे लोहे की चेन में स्कूल का चपरासी बाँध देता था । बाँधता भी क्यों न, चाहे तीन ताले लगा लो दो-चार साइकिल महीने में कॉलेज से चोरी हो ही जाती थीं । एक विद्यार्थी के लिए ये दर्द भुलाए नहीं भूलता था। कभी-कभी जब साइकिल पंचर हो जाती थी तो उसे घसीट कर दो-चार किलोमीटर ले जाकर पंचर बनवाना इतना खलता था कि ये भी सोच लेते थे कि जब बड़े हो जायेंगे पैसा हो जाएगा तो एक पंप और पंचर बनाने का सामान साइकिल में ही बाँध कर चलेंगे ।
खैर साइकिल रानी अपनी मस्ती से हमको रोज बल्लभा ले जाती और ले आती थीं । साइकिल भाँजने के इस दौर में उतरी हुई चेन को साइकिल पर चढ़े-चढ़े ही फिर से चढ़ाना आ गया था । एक साइकिल पकड़ कर दूसरे मित्र की पंचर साइकिल को साथ-साथ खींचने का हुनर भी आ गया था । दाँए -बाँए दोनों तरफ से चढ़ने का प्रयोग यार दोस्तों ने सिखा दिया तो स्टंट दिखाने के चक्कर में हाथ छोड़ कर मीलों साइकिल चला लिया करते थे ।
इस बीच मामा जी , जिनको हम लोग वकील मामा कहते थे, हालांकि वो सेना में थे, ने नई साइकिल के पैसे भेज दिए थे। लेकिन बदकिस्मती ऐसी कि एक नेकदिल इंसान उस पैसे को हजम कर गया और नई साइकिल जो किस्मत में नहीं थी वो न नसीब हुई तो न ही नसीब हुई । हाँ अपनी पुरानी साइकिल रानी किसी और को बर्दाश्त भी कैसे करती ? सो उन्होंने थोड़ी-मोड़ी टूट और मरम्मत के साथ हाई स्कूल और इंटर दोनों परीक्षाएँ फर्स्ट डिवीजन पास करवा दीं ।
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साइकिल का असली नाम बायसाइकिल या बाईसिकिल था ये बात तब पता चली जब अंग्रेजी के मस्साब ने यह बताया कि दो पहिए होने के कारण ये बाईसिकिल कहलाती है । खैर इतने बड़े होने के बाद भी हमारे लिए साइकिल ही रही और वास्तव में इसने इतनी बार साइक्लिक ढंग से जीवन में प्रवेश किया कि पूछो मत । तब मजबूरी में चलानी पड़ती थी और अब भी सेहत के चक्कर में चलानी पड़ती है। कुछ नहीं तो बाबा रामदेव की योग वाली स्टाइल में काल्पनिक साइकिल ही चलानी पड़ती है बगल के एडीएम साहब सेहत के चक्कर में तो असली वाली चलाते हैं वो भी सुबह-सुबह ।
नब्बे के दशक तक आते-आते साइकिल का यह सफर इंटर कॉलेज से यूनिवर्सिटी तक आ गया था । हुआ यूँ कि इंटरमीडिएट पास करने के बाद गौहन्ना से लगभग तीस किलोमीटर दूर यूनिवर्सिटी में एडमिशन मिल गया था । यूनिवर्सिटी का असली नाम तो नरेंद्र देव यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी था, लेकिन ज्यादातर लोग एनडी या कुमारगंज यूनिवर्सिटी कहकर काम चला लेते थे । इस यूनिवर्सिटी की एक क्लास ईर घाट होती थी तो दूसरी तीर घाट होती थी। सो मजबूरी में साइकिल रखनी पड़ती थी । यूनिवर्सिटी का कैंपस बीसों किलोमीटर में फैला था । एक्सपेरिमेंटल स्टेशन मेन कैंपस से बहुत दूर हुआ करते थे । खैर अपने को इस बात का सुख था कि हर हफ्ते घर भाग आने को मिल जाता था । साइकिल उठाई और तीन घंटे में तीस किलोमीटर भाँज कर घर पहुंच गए । अब घर तो पहुँच जाते थे लेकिन इतने मजबूत न थे सो कभी-कभी बुखार भी चढ़ जाता था लेकिन घर जाने की खुशी और मम्मी के हाथ का खाना मिलने का अहसास इस तीस किलोमीटर पर भारी पड़ता था । घर का पैसा बच जाय इसलिए मेस के बजाय होस्टल में कमरे पर ही खाना बनाने के लिए घर से राशन ले जाने का एकमात्र साधन साइकिल ही थी । दो झोले दाल, चावल आटे के लटकाए और निकल लिए यूनिवर्सिटी ।
कभी-कभी यूनिवर्सिटी की क्लास देर शाम छूटती थी। जाड़े के दिनों में पाँच बजे क्लास छूटने का मतलब अँधेरा ही होता था । इस क्लास के बाद तीन घंटे का सफर घर पहुँचता था । एक बार ऐसी ही कुछ स्थिति बनी कि शनिवार को क्लास देर से छूटी और दो चार किलोमीटर के बाद साइकिल पंचर हो गई । अंधेरा गहराने का खतरा और वीरान जगह किसी पंचर की दुकान के न मिलने का भय बढ़ता जा रहा था । बड़ी मुश्किल से सीड प्रोसेसिंग प्लांट 'अकमा' के पास उम्मीद की किरण में एक साइकिल की दुकान दिखी । पैदल साइकिल घसीटते-घसीटते थकान भी हो रही थी । लेकिन असली मुश्किल यह नहीं थी। मुश्किल थी जेब में पैसे उतने नहीं थे जिससे पंचर बनता था । पंचर बनवाने के तीन रुपए की जगह जेब में कुल जमा दो ही रुपए थे । पंचर वाले ने पंचर बनाने से मना कर दिया । उस जमाने में अपनी इलेक्ट्रोनिक घड़ी भी मैं उसके पास रखने को तैयार हो गया, लेकिन वो भी किसी सरकारी बाबू की तरह अपने उसूल से न डिगा तो न डिगा । लिहाजा किसी तरह पूरे दस किलोमीटर घसीट कर रिश्तेदारी में रुकना पड़ा ।
एक बार साइकिल रानी घर पर थी और पिता जी को ट्रेन तक भेजने के लिए ज्यों शुक्ला जी उनको लेकर आगे बढ़े साइकिल के चिमटे समेत नीचे आ गिरे ।चिमटा टूट गया था। साइकिल रानी की वेल्डिंग हुई। नई छड़ें लगाकर फिर से साइकिल बनवाई गई । दादा जी का मन था कि मेरे लिए एक मोपेड खरीद दी जाय लेकिन न इतने पैसे हुए, न ही वो आई । इस तरह साइकिल रानी का राज यूजी, पीजी दोनों में बरकरार रहा ।
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वैसे तो सुना है कि यूरोप के कुछ देशों में पीएम और प्रेसिडेंट भी साइकिल से चलते हैं लेकिन हिंदुस्तान में ऐसा नहीं है । यह वह दौर था जब साइकिल मजबूरी की सवारी मानी जाती थी । हमारा यूनिवर्सिटी का अगला चरण नब्बे दशक के बीतते-बीतते दिल्ली जा पहुँचा । इससे पहले कि साइकिल की बात करें एक वाकया सुनाना मुनासिब होगा । हुआ यूँ कि जिस दिन भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान पूसा में प्रवेश लेना था उसके एक दिन पहले लखनऊ में एक रिश्तेदार के माध्यम से पोस्टल डिपार्टमेंट के डब्बे जिसे आरएमएस डब्बा कहते थे से जाने का जुगाड़ हो गया ।
रिजर्वेशन इतनी जल्दी मिलना भी नहीं था सो न मिला। अब गंगा-यमुना एक्सप्रेस में आरएमएस के डब्बे में झोरिया-बोरिया यानी बैग-बैगेज लिए जनरल टिकट से दिल्ली की यात्रा पूरी हुई । सुबह जब डब्बे से उतरे तो पहले से घात लगाए टीटी साहब आरएमएस डब्बे का शुल्क माँगने लग गए। किसी तरह झिकझिक के बाद विद्यार्थी होने के नाते छूटे तो मुख्य द्वार के निकट फिर एक टीटी साहब टिकट देख के बोले ये तो पुराना टिकट है इस पर डेट नहीं है हमने कहा डेट नीचे प्रिंट है वो माने न और धीरे धीरे डेट वाला हिस्सा उन्होंने टिकट से फाड़ दिया । अब वो रोब से पैसे माँगने लगे मुझे लगा ये संकट गहरा गया है और एडमिशन भी लेना है सो बहुत हिम्मत कर मैने कहा पैसे मैं दे रहा हूँ , आपको रसीद बनानी पड़ेगी । रसीद के नाम पर उन्होंने आना-कानी शुरू कर दी और यह अहसान जता के मुझे छोड़ा कि स्टूडेंट हो नहीं तो बताता । खैर गिरते-पड़ते दस बजे से पहले पूसा इंस्टीट्यूट में दाखिल हो गया ।
दूसरे दिन से पता चला कि क्लास और होस्टल की दूरी दो-तीन किलोमीटर होती थी। कुछ विभाग जिन्हे वहाँ डिवीजन कहते थे, आपस में पांच-छः किलोमीटर भी दूर थे। इंदर पुरी से राजेंद्र नगर गेट तक पार होने में पसीने छूट जाते थे सो अधिकतर स्टूडेंट साइकिल रखते थे । कैंपस के अंदर साइकिल का बोलबाला था । वैज्ञानिक और प्रोफेसर अपनी गाड़ियों मसलन स्कूटर, बाइक या कार से चलते थे । कुछ स्टूडेंट हिम्मत कर के वजीफे से बाइक खरीद डाले थे । फिलहाल अपनी हिम्मत शुरुआत में साइकिल की ही हुई । कैंपस के साइकिल मैकेनिक ने किसी पुराने स्टूडेंट की जो कहीं सेलेक्ट हो गए थे की साइकिल मुझे अपना कमीशन छुपाते हुए दिलवा दी । मेरे साथ मेरे मित्र भानू ने भी साइकिल खरीदी। ये दोनों ही साइकिल सेकंड हैंड थी जैसा मैंने पहले बताया था,नई साइकिल नसीब में नहीं थी तो नही ही आई । मेरी साइकिल का हैंडल अंग्रेजी के एस आकार का था इसलिए मुझे बहुत झुक कर चलाना पड़ता । गांव की ठेठ देहाती साइकिल से इस स्पोर्ट साइकिल का सफर ज्यादा दिन तक झेला नहीं गया । हमारे दिमाग से ज्यादा तेज ये दिल्ली की साइकिल भागती थी । अंततोगत्वा भानू जो कानपुरिया कल्चर के थे और मुझमें साइकिल एक्सचेंज का समझौता निःशुल्क हो गया । अब वो भी कंफर्टेबल थे और मैं भी । ये वाली साइकिल तेज तो भागती थी लेकिन ब्रेक का कहना भी मान जाती थी ।
अब ये साइकिल रोज मुझे क्लास , लैब, एक्सपेरिमेंटल स्टेशन का सफर तय कराती । नॉर्थ इंडियन हो या साउथ इंडियन, पूसा में सब की हमसफर साइकिल ही थी । कुछ साइकिलें वहां नायाब किस्म की थी । बैचमेट एसके मीणा की साइकिल लेडीज मॉडल थी तो पालिनी स्वामी की साइकिल का चेन कवर पूरा ही कवर रहता था। यमन के रहमान साहब अपनी छोटे कद की साइकिल चला कर भी समय से क्लास नहीं पहुँच पाते थे। थाईलैंड के एक-दो स्टूडेंट साइकिल माँग-माँग कर पूरे साल अपना काम चला लेते थे ।
इस बीच एसआरएफ मिलने की खुशी में भानू ने बाइक खरीदने की योजना बना डाली । मुझसे यह कह कर सहयोग माँगा गया कि तुमको भी बाइक से क्लास कराएँगे। खैर भानू की बाइक आ गई और अपनी साइकिल को कुछ आराम मिला । सरकारी सेवा में सेलेक्शन के बाद इंस्टीट्यूट से निकलते समय अपनी साइकिल मैने किसी को दान में दे दी थी और नौकरी करने लखनऊ आ गया था । शुरुआती दौर में ट्रेनिंग के लिए डालीगंज से इंदिरा नगर तक का रास्ता यहां भी साइकिल से ही तय होता रहा, जब तक सैलरी मिलनी शुरू नहीं हुई । लखनऊ यूनिवर्सिटी के छात्र गोपाल जी की साइकिल जो मुझे ट्रेनिंग कराने ले जाती थी, इन सबमें सबसे ज्यादा तहजीब वाली थी। बड़े आराम से चलती थी क्योंकि वो लखनऊ की सड़कों पर नज़ाकत और नफ़ासत से चलती थी ।
चौकीदार तो गांव में एक ही थे जिनका असली नाम बहुत कम लोग जानते थे। सब लोग चौकीदार ही बुलाते थे । लाल साफा पहन के थाने जाते थे । जब पुलिस वाले गांव आते थे तो गांव की हाल खबर और मुखबिरी सब कुछ चौकीदार के हवाले रहती थी। इस तरह उनका रुतबा कायम रहता था । गौहन्ना गांव में रात में चोरी और डकैती न हो इसलिए पुलिस वाले गांव के लोगों से ही पहरेदारी करवाते थे । अस्सी के दशक में उत्तर प्रदेश के गांवों में चौकीदारी और पहरेदारी एक मान्यता प्राप्त सिस्टम था , जिससे पुलिस की निश्चिंतता रहती थी । इन पहरेदारों को वैसे तो कोई मानदेय नहीं मिलता था लेकिन पुलिस के डर से हर गांव में पहरेदारी होती थी ।
'जागते रहो ..
जागते रहो...'
का पहरा देने वाले गांव के ही पांच छः लोग हर मोहल्ले से आवाज लगाते गुजरते थे । ये वो दौर था जब फूलन देवी, सुलताना डाकू और मलखान सिंह जैसे डकैतों पर अवध के गांव-गांव नौटंकी यानी रंगमंच के अभिनय होते थे ।
चोरी और डकैती किसी न किसी गांव में हो ही जाती थी ।
गौहन्ना गांव भी उससे अछूता नहीं था । हां इतना जरूर था कि अगर गुहार लग गई तो डकैतों की दाल नहीं गल पाती थी । बताते हैं इलाके के कई घरों को निचोड़ चुके ये डकैत तेलिया-मशान का प्रयोग करते थे जिसके प्रभाव से घर के लोग सोते ही रह जाते थे । हालाँकि ये सिर्फ मिथक था लेकिन गांव में इन सब की चर्चा होती रहती थी।
उस दिन पहरेदारी में जिन लोगों का नंबर आया था, उसमें भूखल , कृष्णा , सुमिरन आदि थे । रात में दो पुलिस वाले गश्त पर उस दिन गौहन्ना गांव आ धमके थे और फ्री के पहरेदारों को न पाकर उनका खून खौल उठा । पुलिस वाली ऐंठ जगी तो पता चला पहरेदार लोग किसी दूसरे मोहल्ले में बीड़ी पी रहे थे । आपे से बाहर पुलिस के जवानों ने आव देखा न ताव और पहरे दारों पर लट्ठ बरसाने लगे जैसे कोई गुलामी करने वालों से बदसलूकी करता है। उससे भी ज्यादा कुछ कर गए वो पुलिस वाले ।
अलसुबह ये बात पूरे गांव में आग की तरह फैल गई । वकील साहब प्रधान थे और लखनऊ यूनिवर्सिटी की राजनीति भी कर चुके थे । दस बजते-बजते रुदौली थाना गौहन्ना गांव वालों ने घेर लिया था। उस दौर में जब लोग पुलिस को देखकर घर में दुबक जाते थे, थाने का घेराव पूरे इलाके में चर्चा का विषय हो गया । मजबूरी में थानेदार को माफी माँगनी पड़ी और दोनो सिपाही लाइन हाजिर कर दिए गए । उसके बाद फिर गौहन्ना गांव से पहरेदारी और चौकीदारी जैसी बेगार प्रथा हमेशा हमेशा के लिए बंद हो गई । धीरे-धीरे आस पास के गांव भी विद्रोह कर इस बेगार से मुक्त हो गए और पुलिस को अपनी गश्त खुद ही झेलनी पड़ गई ।
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गोरैया बाबा का स्थान मिसिर बाबा की बगिया में ही था । टेराकोटा मूर्तियों का एक बड़ा समूह मिट्टी के टीले के ऊपर पूजित होता था । जब धान की फसल कटती थी तो पिटाई गोरईयन बगिया में होती थी । धान के पौधे के बंडल किसी लकड़ी के पटरे या खैंची पर पटक-पटक कर मँड़ाई पारम्परिक तरीके से की जाती थी । तैयार धान के ढेर को राशि कहते थे और पहली राशि का शुभ गोरईयन बाबा को धान चढ़ा कर होता था । पीटने वाले को मजदूरी 'लवनी' के रूप में मिलती थी नापने के लिए छोटी-छोटी डलिया जो गोबर से लिपी होती थी, काम में आती थी । यही हाल गेंहू की 'दँवाई ' में भी होता था ये 'दँवाई ' शब्द दाबने से बना होगा जिसमें बैल गेंहू के पौधों पर तब तक चलते थे जब तक उनके खुरों से दब कर गेंहू नीचे न निकल जाए । जब से थ्रैशर आ गया तो गेंहू की दँवाई आसान हो गई लेकिन धान की दँवाई में कोई खास परिवर्तन नहीं आया ।
गोरईयन बाबा का मेला गौहन्ना में दशहरा के तीसरे दिन होता था । मेला गांव का इकलौता मेला था जिसका बड़ी शिद्दत से इंतजार होता था । दूर-दूर से हलवाई आकर दुकान लगाते थे और मिठाई , जलेबी, चाट पकौड़ी, टिकिया का मजा ही कुछ और होता था । गांव में उस दिन बहू-बेटियाँ कोशिश कर के मायके आकर अपने गांव का मेला देखती थीं ।
बड़ेगांव के बड़कऊ की टिकिया जिसने न खाई उसने टिकिया का असली मजा नहीं लिया । मेले में दंगल और कुश्ती बगल के खेत में होती थी । जिसे देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ उमड़ती थी । एक छोटे से गांव की साल भर की यह रौनक तब और बढ़ जाती थी जब रात में 'मीठेगांव' वालों की नौटंकी का मंचन होता था । कभी सुल्ताना डाकू तो कभी आल्हा ऊदल का खेला । नौटंकी पांडाल खचाखच भरा होता था । रामलीला का अलग ही मजा था । गांव के दो किशोर गांव के लोगों के कंधे पर राम-लक्ष्मण के रूप में रावण के पुतले पर तीर मारते थे और धुन बजती थीं
मंगल भवन अमंगल हारी sss
द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी sss ।
राम सियाराम सियाराम जय जय राम...
रात की नौटंकी में माइक से आवाज आई....
भूखल लोध ने सुल्ताना डाकू के रोल से खुश होकर दस रुपए का इनाम दिया ।
गामा पहलवान भला क्यों पीछे रहते ।
चमेली की नाच से खुश होकर गामा तेली ने बीस रुपए इनाम दिए । कम्पनी उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती है ।
कड़-कड़-कड़-कड़-घम नगाड़े ने आवाज निकाली तो रात के सन्नाटे को चीरती हुई कुर्मी के पुरवा से आगे बरई तक जा पहुंची ।
किसी ने कहा
कहूँ नाच होत है हो
गौहन्ना मा लागत है हो
चलो देख आवा जाय
और लाठी कांधे पर रखे चार लोग बरई से नाच देखने तीन किलोमीटर दूर गौहन्ना आ जाते थे ।
इस तरह गोरईयन कै मेला में लोक जीवन में खुशियों की बरसात हो जाती थी ।
फिलहाल अब मेला मात्र परम्परा में रह गया है । टेलीविजन, सिनेमा और समय के अभाव ने लोक कलाओं को लगभग-लगभग खो दिया है । फेसबुक और यू ट्यूब पर गांव के मेले-ठेले और लोक-कला के कुछ अवशेष जरूर मिल जाते हैं ।
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बच्चे और कॉमिक्स का रिश्ता वही जानता है जिसने कॉमिक्स बचपन में पढ़ी हो । प्राइमरी स्कूल बड़ागांव से लौटते समय रेलवे फाटक के पास बाज़ार में जिस नई दुकान से भेंट हुई,वह थी कॉमिक्स की दुकान । तब तक किताब पढ़ना आने लगा था और कहानियों का चस्का भी लग चुका था । घर में एक दो कॉमिक्स की किताबें आ चुकी थीं, तो इतना पता था कि इसमें कहानियाँ होंगी ।
"हाँ घर ले जा सकते हो एक कॉमिक्स का किराया 25 पैसे प्रति दिन लगेगा " दुकान वाले ने कहा।
सोच में पड़ गया कि रात भर में पढ़ पाऊँगा कि नहीं ?
फिर हिम्मत कर के ले लिया और अगले दिन पढ़ कर लौटा भी दिया । इस तरह चाचा चौधरी और साबू के ज्यादातर कथानक बचपन में ही पढ़ डाले । दुकान पर चंदा मामा , नन्दन , पराग, लोट-पोट जैसी बच्चों के लायक कई किताबें रहती थीं । कॉमिक्स की इस लत को परवान चढ़ने का समय तब आया जब गर्मी की छुट्टियों में मामा जी के पास जाने को मिला ।
मामा जी की पोस्टिंग उस समय रायपुर हुआ करती थी । 1984 में रायपुर मध्य प्रदेश का ही शहर हुआ करता था । शांत , मनभावन रायपुर का तालाब बड़ा और बहुत खूबसूरत लगता था । रायपुर में जिस किराए के कमरे में मामा जी रहा करते थे, उसके नीचे के परिवार में एक बड़े भैया रहते थे जो कॉमिक्स के सुपर शौकीन थे नाम था 'राम चन्द्र कामत' । उनके पास कॉमिक्स का खजाना था, जिसमें चाचा चौधरी, पिंकी, बबलू, अमर चित्र कथा , नन्दन, न जाने कितने संग्रह उनके संदूक में मौजूद थे। मैंने भी उनसे धीरे-धीरे दोस्ती गाँठ ली और रोज एक कॉमिक्स पढ़ने लगा । इन कॉमिक्स को पढ़ते-पढ़ते जाने-अनजाने संस्कृति , विज्ञान, देश दुनिया , प्रकृति की समझ अपने आप जेहन में गहराई से उतरने लगी ।
डाँट भी खूब पड़ती थी कि हर समय कॉमिक्स में लगे रहते हो। पढ़ाई कब होगी ? परीक्षा में कैसे पास होगे ?
खैर कॉमिक्स का ये चस्का जो लगा तो लगा ही रहा । जब थोड़ा और बड़े हुए तो सुमन-सौरभ और चंपक माता जी ने डाक से ही मँगवाना शुरू कर दिया । किसी किसी महीने पत्रिका घर तक नहीं पहुँचती थी तो उलझन बनी रहती थी । वैसे तो बड़े भाई साहब बड़े संस्कारित और जेंटल मैन टाइप वाले थे । लेकिन इस मामले में कभी-कभी मुझको भी पीछे छोड़ देते थे ।
इस बीच गांव यानि गौहन्ना में ही पुस्तकालय का पता चल गया था ये था 'पांडेय पुस्तकालय' . इसके सर्वे-सर्वा थे फूल चन्द्र पाण्डेय जिन्हे सब लोग पी सी पांडेय के नाम से ज्यादा जानते थे । पेशे से वो कचहरी में मुंशी थे और पापा के तख्ते पर उनके रोज के सहकर्मी थे। इसलिए उनके पुस्तकालय पर धीरे-धीरे अपनी पहुँच आसान हो गई । लगभग सौ,डेढ़-सौ पुस्तकों का उनका संग्रहालय उनकी एक कोठरी का हिस्सा हुआ करता था । अपने पुस्तकालय के लिए उन्होंने बाकायदे मुहर बनवा रखी थी और हर किताब पर उनका ठप्पा लगा रहता था।
पुस्तकालय का यह नशा कॉमिक्स से गुजरते हुए हम दोनों भाइयों के मन में भी समा गया। सोचा कि पुस्तकालय खोला जाए । यही कोई चौथी- पाँचवी कक्षा के छात्र के रूप में हम लोगों ने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की योजना बनाई । नाम रखा गया ' मिश्रा पुस्तकालय '.
खँलगा वाले घर में बकायदे पोस्टर चिपका कर बीस- तीस किताबें जमा की गईं । बड़े भाई साहब ठहरे बड़े, सो उन्होंने पुस्तकालयाध्यक्ष बना कर मुझे बैठा दिया । दिन भर पुस्तकालय में भूखा प्यासा बैठा रहा। बोहनी भी नहीं हुई ।
अगले दिन से 'मिश्रा पुस्तकालय' बन्द कर दिया गया घर वालों की डाँट पड़ी सो अलग।
पुस्तकालय भले बन्द हो गया, लेकिन बिक्रम बेताल , सिंहासन बत्तीसी , पंच-तंत्र, हितोपदेश, प्रेरक प्रसंग, बाल महाभारत जैसे न जाने कितनी किताबों के पन्ने गर्मी की छुट्टियों में हम लोगों ने पलट डाले । 75 पैसे की विज्ञान प्रगति घर में अनिवार्यतः आती रहती थी। उसका असर यह रहा कि विज्ञान जेहन में घुस गया जो आज भी जिंदा है ।
नंदन पत्रिका की पहेली में जीता गया पहला पुरस्कार जो उस समय पचास रुपए का था, उसने मेरा पहला बैंक एकाउंट खुलवा दिया । बैंक था क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा बड़ागांव । उस पचास रुपए की खुशी अद्भुत थी । उसके बाद आकाशवाणी, लखनऊ ने भी इनाम में टॉर्च भेज दी ।
चंदा मामा पत्रिका का चस्का इतना था कि घर की चोरी-चोरी वार्षिक शुल्क उसके पते पर भेज दिया। बड़े भाई हमेशा की तरह योजनाकार का काम करते थे। परदे के सामने नहीं आते थे । इस बार पत्रिका नहीं आई। बड़ा दुख हुआ। बाद में समझ में आया कि मनी ऑर्डर में पूरी कहानी हम लोगो ने हिंदी में लिख मारी थी और चंदा मामा का मुख्यालय तमिलनाडु में था । आज जब बच्चों के लिए चाचा चौधरी की कॉमिक्स खरीद कर लाता हूँ , तो बच्चों के पहले खुद ही उसे पढ़ने बैठ जाता हूँ । पत्रिका नहीं होती, तो टीवी पर ही बच्चों के साथ कार्टून का मजा लेता हूँ । मोटू पतलू डॉक्टर झटका और घसीटा का जमाना अभी बीता नहीं है । कभी मन हो तो कार्टून चैनेल आप भी देख लेना। कसम से बचपन लौट आएगा ।
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ग्रामीण जीवन की एक विशेषता होती है कि वो कठिन से कठिन बातों को भी बड़ी आसानी से कह देती है और बहुत सी बातों को हँसी-मजाक में उड़ा देती है । अगर आपस में झगड़ा या मन-मुटाव भी हो जाय तो कुछ दिन बाद ख़तम हो ही जाता है ।
गौहन्ना के आस पास के लगते हुए गांवों में एक दूसरे पर तंज कसने के लिए कुछ स्थानीय भाषा के मुहावरे प्रचलित थे , जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे थे । हो सकता है आज भी कुछ लोगों को याद हों। लेकिन ये परम्परा अब लुप्त प्राय हो रही है । वैसे ये अध्ययन और शोध का विषय है कि ऐसा किन कारणों से रहा होगा ? फिर भी एक दूसरे गांव के बीच ये चुहलबाजी बड़ी रोचक थी ।
गौहन्ना और मीसा दोनों गांव आपस में आधा किलोमीटर की दूरी पर हैं। इन दोनों गांव के लोग अक्सर जुमला दोहराते हैं -
जब गौहन्ना वाले बोलते हैं तो -
जब मीसा वाले अपनी तारीफ करेंगे तो कहेंगे-
बताते हैं मीसा और गौहन दो सगे भाई थे, जिन्होंने ये दोनों गांव बसाए । श्रेष्ठता दिखाने के लिए दोनों गांव एक दूसरे से इसी जुमले के सहारे मजे लेते हैं । हालांकि दोनों गांव के रिश्ते बड़े मधुर और सबसे पुराने हैं ।
ठीक इसी तरह बड़ागांव जो आस-पास के दस किलोमीटर की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है के लिए इजाद किया गया जुमला है
अब बड़ागांव में मुर्गी ही ज्यादा पाली जाती थीं ,क्योंकि इस्लाम बहुल इलाका था। तो उसके लिए आसान जुमला यही ईजाद हो गया और सबकी जुबान पर भी चढ़ गया ।
गौहन्ना गांव से एक कोस दक्षिण की दूरी पर स्थित है मुंशी का पुरवा गांव और उसी के बगल है बलैया गांव । अब दोनों के रिश्ते जब से बने बिगड़े हों लेकिन उनका मुजरा सुबह-सुबह ही होगा ये कहावत आम है -
'मुंशी कै पुरवा बलैया के डांड़े
मोर तोर मुजरा होय भिंसारे '
अवधी भाषा के लोक कवियों में किसने इस तरह की सूक्तियां विकसित की इसका कोई उल्लेख किताबों में नहीं मिलता । बस परम्परा ही इतिहास है और इतिहास ही परम्परा ।
बताते हैं कि कभी-कभी कई गांवों की पंचायतें एक साथ बैठ कर आपसी मुद्दे सुलझा लिया करती थीं । लोगो में संवाद था विवाद नहीं । विवाद हल करने के लिए सोलह गांवों की पंचायतों के साथ बैठने की लोक श्रुति हमने भी सुनी है । आपस में खान-पान का रिश्ता कई गांवों तक था । इस खान-पान के भौगोलिक दायरे को 'जेंवार' कहा जाता था और जेंवार बाहर होने का मतलब था किसी व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार । इस प्रकार समाज का अनुशासन सब पर भारी था इसलिए जुर्म भी कम या न के बराबर थे । अगर कोई घटना हो भी गई तो सालों-साल मुकदमे नहीं चलते थे। दंड देकर या जुर्माना भर कर मामला निपटा दिया जाता था । दंड को इस इलाके में 'डाँड़ ' नाम से भरवाया जाता था , जिसे पंचायत लेती थी ।
गौहन्ना से एक कोस पूरब में सनगापुर गांव है और उसी के बगल में पिरखौली गांव भी है । दोनों की जनसंख्या में ठाकुर लोगों का बाहुल्य है । अब ठाकुर हैं तो मूँछ की लड़ाई लगी ही रहती है । इन लड़ाइयों के चक्कर में दोनों गांव के लिए जो जुमला बना, वो था-
अब इस तरह के लोक मुहावरे कुछ ही शब्दों में गांव के मूल चरित्र का भी चित्रण कर दिया करते थे । अगर कोई नया आदमी किसी गांव को जा रहा हो तो दूसरे गांव वाला संकेतों में ही गांव के बारे में बहुत कुछ इन्हीं कविताओं से समझा देता था ।
ये लोकोक्ति सिर्फ इन्हीं गांवों तक सीमित नहीं थीं। हर इलाके के अपने जुमले और मुहावरे थे , जो अब केवल बुजुर्गों की यादों में ही जिंदा हैं । अब ये परम्परा धीरे धीरे विस्मृत हो रही है। इससे पहले कि ये लुप्त हो जाय , लेख बद्ध तो हो ही जानी चाहिए । क्या पता किसी सामाजिक शोध के लिए उपयोगी हो जाय ।
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लौकल
जेम्स वाट ने जिस भाप की ताकत देखी थी, उसी भाप को इस्तेमाल कर जार्ज स्टेफेंशन ने भाप वाला रेलवे इंजन सन 1830 में बना डाला। जब अंग्रेजों को भारत में माल ढोने और सिपाहियों की बटालियन को ढोने की जरूरत पड़ी, तो रेलवे लाइन हिन्दुस्तान में भी बिछ गई ।
गौहन्ना गांव बसा ही कुछ ऐसा था कि आस पास के गांव के बगल से रेलवे लाइन निकली, लेकिन इस गांव के बीचोबीच से रेलवे लाइन को ले जाना पड़ा । उस रास्ते में जितने भी घर पड़े उनको टूटना ही था। सो किसी ने लाइन के उत्तर घर बनाया तो किसी ने दक्षिण । अपना पुश्तैनी घर भी उसी चपेट में निपट गया और मिसिर दादा के दादा के दादा ने लाइन के दक्षिण फिर से घर खड़ा कर दिया । इस तरह गौहन्ना गांव दो भाग में बँट गया एक लइनी यहि पार, दूसरा वहि पार । एक दूसरे के लिए दोनों लोग पार के हो गए। रेलवे लाइन ने भले ही गांव को भौगोलिक विभाजन दिया हो लेकिन दिल के विभाजन वो न कर सकी । बस एक दूसरे से मिलने को ये देख कर लाइन पार करनी पड़ती थी कि कहीं किसी ओर से कोई गाड़ी तो नहीं आ रही क्योंकि क्रॉसिंग पे रेलवे फाटक तब तक नहीं लगा था ।
बताते हैं कि जब अंग्रेजो ने रेलवे लाइन बिछाई थी, तो दोनों किनारों से कोई जानवर न घुस सके इसलिए पत्थर के खंभों से होकर कंटीले तार लगाए गए थे । प्रचलित कथा अनुसार एक बार किसी राजा का हाथी तार के अंदर तो घुस गया लेकिन बाहर न निकल सका और रेल गाड़ी की चपेट में आ गया । तब से वो तार अंग्रेजों को हटाने पड़े और केवल रेलवे फाटक को छोड़ कर अपनी सुरक्षा खुद करें की तर्ज पर रेल गाड़ी बेधड़क पटरियों पर दौड़ रही है । कई गांव के जानवर इन पटरियों पर अनजाने में अपनी जिंदगी गंवा बैठे । गांव के लोग कभी गुहार लगाने रेल विभाग के पास भी नहीं गए। अगर जाते भी तो कौन सा वो सुन ही लेते। कभी-कभी बच्चे और बूढ़े भी इसकी चपेट में आ चुके थे सिर्फ सुरेमन दीदी सौभाग्य से जिंदा बच गईं थीं ।
सुबह 7 बजे का समय , वकील साहब को लोकल ट्रेन पकड़नी थी आज पूजा करते करते लेट हो चुके थे ।
"निहोरे देख आओ सिंगल डाउन भवा कि नाही"
निहोरे रेलवे क्रॉसिंग से ही आवाज लगाते "दादा सिंगल होय गवा"
इतना सुनते ही वकील साहब को भेजने के लिए साइकिल निकल जाती ।
साइकिल वाले को इस स्पीड से साइकिल दौड़ानी पड़ती कि ट्रेन मिल जाय । अक्सर ट्रेन मिल ही जाती थी ।
स्थानीय कार्यों के लिए फैजाबाद और रुदौली जाने के लिए ट्रेन ही सुलभ साधन थी । कभी-कभी मात्र दस किलोमीटर रुदौली जाने के लिए दिन-दिन भर ट्रेन का इंतजार करना पड़ता था ।
वैसे ट्रेन की आदत गौहन्ना वालों को इतनी पड़ गई थी कि कब कौन सी गाड़ी आई बिना देखे बता देते थे । चरवाहों को लौकल के साथ ही निकलना होता था और जब लौकल फैजाबाद से वापस आती थी उस समय जानवर हाँक कर घर लाने का समय फिक्स रहता था ।
लौकल तो लौकल ही थी। जैसा नाम वैसा गुण भी । कोयला उड़ाते हुए जब चलती थी , उसका ही रौला होता था। मर्जी उसकी चलती थी। कभी बिफोर आती थी तो कभी दस-दस घंटे लेट । लेकिन मजाल जो कोई उसपे उँगली उठा दे । कभी-कभी जब गुस्सा होती थी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से आगे जाने को मना कर देती थी अब झोंकते रहो उसमें कोयला । जब मन आयेगा तब ही चलेगी। यात्री भी उसके नखरे जानते थे,सो चना-चबैना और पूड़ी-पराठा बाँध कर ही चलते थे ।
एक बार लौकल की बड़ी बहन साबरमती गाड़ी से बैठ कर हम और पिता जी कानपुर के लिए निकले । शाम को लगभग 6 बजे गाड़ी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से चल कर दस बजे लखनऊ जा पहुँची । पापा ने कहा कानपुर दो घंटे का रास्ता है आज रात लखनऊ रुक लेते हैं सुबह कानपुर चलेंगे । मेरे मन में डर था कि सुबह दस बजे एडमिशन के लिए पत्थर कॉलेज यानि चन्द्र शेखर आजाद कृषि विश्व विद्यालय में काउंसलिंग में देर न हो जाय , बड़ी मेहनत से एडमिशन मिला है । अतः रात में ही निकल चलो ये गाड़ी कानपुर तो जा ही रही है। पिता जी बोले चिंता न करो हमे पता है कैसे पहुँचना है । खैर रात में एक परिचित फार्मासिस्ट जो पिता जी के दोस्त थे, उनके घर जा पहुँचे । सुबह-सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ने लखनऊ जंक्शन जा पहुँचे । ट्रेन का पता किया तो पता चला रात की वही साबरमती अब तक खड़ी है और जल्दी ही चलने वाली है । हँसते हुए फिर से उसी ट्रेन में हम लोग सवार हुए । टिकट पहले से ही उसी का था ।
अक्सर खिड़की किनारे बैठने वालों की आँख में कोयले के कण पड़ ही जाते थे । दरियाबाद में लौकल का इंजन कोयला और पानी लेकर ही आगे बढ़ता था । जब बाराबंकी स्टेशन आता था, समोसा वालों को ढूँढने की होड़ लग जाती थी । वहां के समोसे टेस्ट में कुछ खास हुआ करते थे और जिसको बाराबंकी के समोसे की लत लग जाती थी, फिर उसकी जेब में अगर पैसे है तो उसे समोसे खरीदने से कोई रोक नहीं सकता था । जनरल डब्बे में प्रायः चना बेचने वाला घुस ही जाता था पुलिस वाला दिख भी जाय तो उसको कैसे मनाना है ये उसको पता होता था ।
'नींबू वाले चने - नींबू वाले चने
और जैसे ही नींबू वाला चने में नींबू निचोड़ता था पूरा कूपा महक जाता था। अच्छों -अच्छों को अपनी जेब उस चने के लिए ढीली करनी पड़ जाती थी ।
रसौली स्टेशन तक आते आते मूंगफली वाला भी आ ही जाता था
फिर उसके बाद गुलाब रेवड़ी वाले का नंबर
अच्छा चलो पांच ले लो और इस तरह रेवड़ी का सौदा पट जाता था ।
इधर गाड़ी पटरंगा और रौजागांव पार करती थी , उधर सूरदास अपनी खँजड़ी के साथ लौकल के डिब्बों में घूम घूम कर भजन गाना शुरू करते थे
'सीता सोंचे अपने मन मा मुंदरी कंहवा से गिरी ..
गरीबों की सुनो , वो तुम्हारी सुनेगा
तुम एक पैसा दोगे , वो दस लाख देगा '..
और कोई न कोई उन सूरदास को चवन्नी-अठन्नी दे ही देता था । कोई झिड़क भी देता था । लेकिन उनकी खँजड़ी के बिना उन दिनों लौकल भी उदास सा लगता था । इसी बीच जादू दिखाने वाले कलाबाज नटों का कुनबा रुदौली में जिस डब्बे में घुसता था, उस डब्बे को टी टी भी छोड़ कर भाग खड़ा होता था । गौरियामऊ और बड़ागांव आते-आते ये डेरे उतरने लगते थे और डेली पैसेंजर ताश के पत्तों के साथ अपनी मंडली सजा लेते थे । टी टी अब आराम की मुद्रा में आ चुका होता था और डेरवा आते-आते बिना स्टेशन के चेन पुलिंग कर गाड़ी खड़ी हो जाती थी। उसके बाद जब तक कटे हौज पाईप को कोई जोड़ न दे, तब तक उस अज्ञात गाड़ी रोकने वाले को गालियों का तोहफा मिलता रहता था ।
अब गाड़ी लौकल थी तो मज़ा भी लौकल ही था । बिजली के बल्ब गाड़ी से गायब होकर गांव भी पहुंच जाते थे। सीट फाड़ के बाज़ार के लिए झोरा (झोला) बन जाता था । समय के साथ साथ लौक़ल पे लोगों ने रहम की और लौकल सकुशल फैजाबाद पहुंचने लगी । लेकिन आउटर पर खड़ी होने की उसकी पुरानी आदत आज भी नहीं छूटी ।
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इस तन को इंजन समझ लिया -
"अरे गैस जलाओ हो , कीर्तनिहा आवत होईहैं" ।
आवै दियो अबही मिंटर नहीं आवा ।
थोड़ी देर में पेट्रो मैक्स का मिंटर उजाला ही उजाला फैला देता था । पेड़ पर चढ़ कर कोई लाउड स्पीकर का भोंपू सेट कर आता था ।
गौहन्ना की कीर्तन मण्डली आसपास के इलाके में शानदार कीर्तन मण्डली हो चली थी । इस कीर्तन मण्डली की शुरुआत सन अस्सी के लगभग हुई थी और थोड़े बहुत पैसे जोड़-जाड़ कर एक हारमोनियम , एक ढोलक और एक जोड़ी मँजीरे की व्यवस्था बन गई थी । गांव में जिसको कीर्तन करवाने का मन होता था, बस उसे पेट्रोमेक्स यानि घासलेट वाली गैस लाइट की और हो सके तो माइक की व्यवस्था करनी होती थी । माइक न हो तो भी चलेगा । सब कुछ फ्री था । बस भजन कीर्तन की मस्ती पे सब कुछ न्योछावर था ।
शाम आठ बजे के लगभग नेवाज की ढोल कसने लगती थी और पन्द्रह बीस मिनट में मण्डली अपना आलाप ले लेती थी ..
"गाइए गणपति जग बंदन
शंकर सुवन भवानी के नन्दन"
"अरे चलौ हो मिसिर दादा के दुवारे कीर्तन होय लाग" मतलब मास्टर साहब का कीर्तन शुरू हो गया ।
मोहल्ले की एक आवाज ने सबके कदम मिसिर दादा की घर की ओर मोड़ दिए । मास्टर साहब यानि संतराम त्रिपाठी जो उन सबके सर्वमान्य मुखिया थे। जिनके घर सारा साजो-सामान जमा रहता था, अक्सर शुरुआत वही किया करते थे ।
अगला नंबर राम मिलन मौर्या का हुआ करता था
बड़ी मधुर आवाज में मँजीरे की ताल के साथ वो गाना शुरू करते ..
"सीता राम से, राधे श्याम से
लागी मेरो लगन, चारों धाम से" ..
अरे वाह मौर्या जी एक और ...
राम मिलन मौर्या और भगवान बख्श मौर्या जिन्हें लोग डागडर (डॉक्टर ) साहब भी कहते थे, दोनों सगे भाई थे। 'मिलन' बड़े तो डागडर मौर्या छोटे थे । डागडर मौर्या भजन लिखने का भी शौक रखते थे और अपने भजन में नए-नए प्रयोग करते रहते थे । अलंकार विधा के साथ साथ फिल्मी अंदाज में भी गानों को नए अंदाज में पेश करने का उनका कोई सानी नहीं था । मौर्या जी को सुनने के लिए भीड़ दूर -दूर से आती थी। क्या सहजौरा, क्या मीसा, क्या बड़ागांव - सब डागडर मौर्या के फैन थे। डागडर मौर्या के पहले अगर श्री राम तेली को मौका न मिले तो वो उदास हो जाते थे इसलिए उन्हें अक्सर मौर्या से पहले ही मौका दे दिया जाता था । जिस तरह नामी वक्ता के बोलने के बाद भीड़ खिसक जाती है, उसी तरह मौर्या जी को सुनने के बाद भीड़ इक्का-दुक्का ही मिलती थी।
नेवाज़ दादा यानि ढोलकिहा को कितनी भी झपकी आ जाय मगर मजाल था कि कीर्तन पर ढोलक की लय बिगड़ जाय । बताते हैं कि उनके सामने अच्छे-अच्छे तबला वादक भी पानी भरते थे । उनके बुढ़ापे के समय में राम नरेश उर्फ मस्ताना अलबत्ता ढोल को समझ चुके थे । मस्ताना के आने के बाद अब ढोल नए अंदाज में मटकने लगी थी। लंबू बढ़ई की हारमोनियम अब ढोल की आवाज में दब जा रही थी । इसलिए धीरे-धीरे मस्ताना ने पेशेवर अंदाज में हारमोनियम पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया था ।
श्री राम तेली शरीर से दुबले पतले जरूर थे लेकिन जब गाना शुरू करते थे तो पांडाल हिला कर रख देते थे..
"चोरी माखन की दे छोड़
कन्हैया मैं समझाऊँ तोय
बड़े घरों की राधा रानी
नहीं बरेगी तोय"
..और फिर उमंग में जो नाचना शुरू करते थे तो 'पुरवइया' ही भजन पूरा करते थे श्री राम तेली की मस्ती बहुत देर बाद ही टूटती थी ।
पुरवईयों में बृजराज पांड़े के साथ जय कुमार , बीरे, सुमिरन , नोहर दादा , कल्लू पांड़े की टीम हुआ करती थी और अच्छे श्रोताओं में वकील साहब , नेगपाल , भूखल और मुल्ला पांड़े का जवाब नहीं था। कहो तो रात-रात भर कीर्तन चलता रहे सुबह होने पर ही पता चलता था कि अब कीर्तन रोकना भी है ।
"आओ हो वकील साहब एक तोहरौ भजन होय जाय"
दूसरी आवाज ..
"हाँ -हाँ बलाओ काहे न गइहैं "
..क्या भरोसा है इस जिंदगी का
साथ देती नहीं है किसी का
.. दुश्मन मिलें भोरहिएं मिलें
मतलबी यार न मिलें ..
वाह वकील साहब वाह।
अब मनीराम की बारी । मनीराम कोरी डेहवा पर रहते थे और जवाबी कीर्तन में मौर्या , मस्ताना और मनीराम की जोड़ी से इलाका घबराता था। दुर्गा पूजा , दशहरा के मौकों पर क्या बड़ागांव, क्या रुदौली, क्या पटरंगा हर जगह ये तिकड़ी झंडा गाड़ चुकी थी । कीर्तन कीर्तन न होकर सुपर संग्राम होता था । कभी-कभी तो बड़े-बड़े इनाम भी मिल जाते थे। नाम होता था सो अलग । तो गौहन्ना की तिकड़ी चौहद्दी में मशहूर हो चली थी ।
कुँवर लोहार के मँजीरे पर मनीराम ने अपने भजन की शुरुआत की ..
आ जाओ मात मेरी ..
पूजा करूंगी तेरी ..।
"का मौरया कै नींद होय गै"?
वकील साहब बोले
"चालीस पचास भैं अबही "
"अच्छा दुई चार भजन तो होय जाय "
और डागडर मौर्या का आलाप शुरू हुआ नहीं कि चारपाई से उठ के सोते हुए लोग भागते चले आते थे
आ ... आ ...
इस तन को इंजन समझ लिया
हर बार प्यारे ज्ञानी ..
दशा इस दीन की भगवन बना दोगे क्या होगा?
एक और मौर्या जी एक और ..
ऐसे करते करते न जाने कितने भजन होते थे .
..बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी
दुख़ हरो द्वारिका नाथ शरण मैं तेरी
कभी-कभी मीसा के ननकऊ बढ़ई के बाप निरगुन भजन से आनंद ला दिया करते थे.
..नौ मन लकड़ी मा जारा गए
वही मजवा मा बालम मारा गए ..
सुंदर पासी अपनी मस्ती में गा उठते ..
भजन करो भगवान शंकर दानी का
कौन भरोसा दो दिन की जिंदगानी का..
फिलहाल अब वहाँ भी लोगों के पास समय नहीं है । गांव की गुटबंदी में किसी को कीर्तन की फुर्सत कहाँ ? फिर भी थोड़ा बहुत कीर्तन का दौर आज भी गौहन्ना में मिल जाएगा । लेकिन वो एक दौर था जहां जाति-धर्म से ऊपर दिन भर खेत में काम करने के बावजूद निश्छल भाव से ईश्वर की आराधना होती थी ।
एक पूरी की पूरी पीढ़ी जिन कीर्तन की धुनों पर जवान हुई उस को क्या पता कि अनजाने में ही गौहन्ना और उस दौर के संस्कार अपने आप उसमें घुल-मिल गए । यादों के झरोखे में जब भी उस दौर में जाता हूँ तो लगता है आज भी सुबह-सुबह कोई गुनगुना रहा है ..
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
अब रैन कहां जो सोवत है ।।
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है।।
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हाँ सही पढ़ा आपने बिक्स और बाम गौहन्ना के हर घर में थे । उस समय सर्दी जुकाम के लिए बिक्स और बाम ही असली दवा हुआ करती थी । किसी को खाँसी-जुकाम हुआ तो बिक्स ठीक कर देती थी । गांव की दुकान पे आसानी से मिल भी जाती थी ।
वैसे तो गाँव में दो दुकानें थीं,जहां सुई से लेकर दवाई तक सब कुछ मिल जाता था । एक दुकान साहु चाचा की थी दूसरी कुँवारे बढ़ई की । साहु चाचा बचपन में ही माँ - बाप का साया खो चुके थे, लेकिन उनकी मेहनत देख कर ये लगता था कि ये दुकान वो ही खड़ी कर सकते थे । सायकिल से अनाज की बोरी लाद कर पैदल रुदौली तक दस किलोमीटर चले जाते थे ।उनकी दुकान में बिस्किट , साबुन के साथ साथ रोजमर्रा की दवाएं भी होती थीं। बाम और बिक्स आसानी से मिल जाते थे । कुँवारे बढ़ई की दुकान भी हंड्रेड इन वन थी जो चाहो वो हाज़िर । पैसे तो होते नहीं थे। अनाज से बदल कर चाहे पैसे ले लो या सामान । दोनों सुविधा थी ।
अब रात में बुखार आ जाय तो डॉक्टर को दिखाने दो किलोमीटर कौन जाय ? पन्द्रह पैसे की आनंदकर टेबलेट दोनों दुकानों पर आसानी से मिल जाती थी और नब्बे परसेंट केस में आनंदकर आनंद दे ही जाती थी । ऐनलजेसिक दवाएं एनालजिन और नोवलजीन के नाम से सबको पता थीं । उस समय एंटी बायोटिक का नाम आना शुरू ही हुआ था। लेकिन गाँव तक इनका चलन कम ही था । सो लोग बगैर एंटी बायोटिक ठीक हो जाते थे या यूँ कहे ठीक होना ही उनकी नियति थी । पेचिश के लिए हरा पुदीना और अमृतधारा की दो बूँद वास्तव में दो बूँद जिंदगी की हुआ करती थी । बहुत हुआ तो ये सब गाँव की दुकान के एक कोने के मेडिकल रेक में उपलब्ध रहती थी।
बरसात के सीजन में आँख तो उठ ही जाती थी उठने का मतलब इंफेक्शन से समझें तो बेहतर होगा । अब गाँव में आँख उठने पर कोई डॉक्टर ढूँढने नहीं जाता था । नई-नई खुली इंदरपाल की दुकान में आँख वाली 'कुचुन्नी' चवन्नी यानि पच्चीस पैसे में मिल जाती थी । वास्तव में तो ये पेनिसिलिन थी लेकिन मजाल क्या कि सुबह तक आँख ठीक न कर दे । जितनी डॉक्टर की फीस उससे कम में अगर ठीक हो जाय तो कोई डॉक्टर को क्यों ढूँढे ।
दाद,खाज,खुजली वाला जालिम लोशन तब भी बिकता था। आज भी बिकता है । थोड़ा बहुत समझ दार लोग बी-टेक्स मलहम पर भरोसा करते थे । लेकिन खुजली अक्सर जाती नहीं थी । मान्यता ये भी थी कि गंदे तालाब में नहाने या अमुक मिट्टी लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं कुछ गाँव इसीलिए प्रसिद्ध भी थे । होता-हुआता कुछ नहीं था बस मन का एक संतोष हुआ करता था । कभी-कभी लोग ठीक भी हो जाते थे ।
"अरे केहू दौर के आईडेक्स लाओ हो। जन्नू पेड़े से गिर गए "
आयोडेक्स ही उस समय सब चोट का इलाज हुआ करती थी । अच्छी से अच्छी चोट गायब । अगर हड्डी उखड़ जाय तो शिव राम मुराव शाम को एक बली रोटी यानि एक तरफ सिंकी मोटी रोटी बँधवा देते थे। रात भर रोटी बँधी रहती थी सुबह एक हलके झटके में हड्डी ठीक हो जाती थी । कई बार हमने भी टेढ़ी गरदन उनसे ही ठीक करवाई। आज का जमाना होता तो फोर्थ जेनरेशन के डॉक्टर बिना ऑपरेशन ठीक ही न होने देते ।
कहते हैं दाँत का दर्द होता है तो दिन में तारे नज़र आने लगते हैं लेकिन गौहन्ना में एक निश्चिंतता रहती थी । गांव में पसियन टोला में दाँत झाड़ने के एक्सपर्ट यानि बिना डिग्री के डेंटिस्ट दाँत ठीक कर देते थे । बुध और शनिवार छोड़कर दवा देते थे । कोई पत्ती दाँत के नीचे रखते थे और कान में सरसों का तेल डाल के मंत्र मारते थे। फिर तो कान के रास्ते भर-भरा कर कीड़ा गिरता था । दाँत का कीड़ा कान से कैसे गिरता था ये तो डेंटिस्ट ढूँढें लेकिन दर्द गारंटी के साथ ठीक हो जाता था । दाँत ही नहीं बिच्छू और फेटारा (साँप ) झाड़ने वाले भी गांव में मौजूद थे ठीक प्रेमचंद की मंत्र कहानी के पात्रों की तरह ।
सबसे ज्यादा आने वाली समस्या होती थी सिर दर्द और सिर दर्द की परवाह जिनको होती थी वो ज्यादा से ज्यादा हिमसार तेल लगा के उसे ठीक कर लेते थे । ग्रामीण जीवन में बीमारी प्रायः अपने आप ही अपना रस्ता नाप लेती थी। जो थोड़ी बहुत होती भी थी वो बिक्स और बाम के खौफ से ठीक हो जाती थी ।
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विज्ञान तो तब से था जब से मानव ने जन्म लिया, लेकिन आधुनिक सभ्यता में प्राचीन परंपरागत ज्ञान को यह कहकर खारिज करना शुरू किया कि इसका कोई रिसर्च नहीं। जब लेखन नहीं था तो श्रुति परंपरा से ज्ञान और परंपराएं पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहीं। पूर्वजों से मिले ज्ञान को अगली पीढ़ी ने सँजोया और उससे मिले ज्ञान को अगली पीढ़ी ने। गौहन्ना और उसके आसपास के गाँव में विज्ञान भी कुछ इसी तरह चला खासकर मौसम और संभावनाओं का विज्ञान।
"अरे चिंउटी उधिरान हैं। लागत है पानी बरसे"
यानी जब-जब चीटियाँ बड़े लाव-लश्कर में अपनी बिल से बाहर निकलने लगती थीं तो गांव के बड़े-बूढ़े यह अनुमान लगा लेते थे कि अगले कुछ दिनों में बारिश होने वाली है। इसी तरह अगर दीमक के झुंड के झुंड आसमान की तरफ उड़ने लगते थे, तो भी लोग बारिश का अनुमान लगा लेते थे। कहते हैं कि जापान में भी कुछ विशेष प्रकार के पशु-पक्षी भूकंप आने के पहले इधर-उधर भागने लगते हैं जिससे वहाँ के लोग यह जान जाते हैं कि भूकंप आने वाला है। कुछ ऐसी ही परंपरा सदियों से अवध क्षेत्र में भी चली आ रही है जहाँ बारिश और सूखे का अनुमान लोग इन जीव-जंतुओं को देखकर लगा लेते हैं।
गाँव में जब काँस फूलने लगती है तो बारिश का समापन मान लिया जाता है । यह एक संकेत है कि अब बारिश नहीं होगी और शरद ऋतु आने वाली है और ऐसा अक्सर होता भी है कि जब काँस फूल जाती है तो बारिश अपने बुढ़ापे पर आ जाती है। पौराणिक भारतीय मौसम विशेषज्ञ घाघ की कहावतें आज भी गाँव में प्रचलित हैं और खेती के लिए इन कहावतों पर अब भी भरोसा किया जाता है-
शुक्रवार की बादरी रही शनीचर छाय
ऐतवार का बादरी बिन बरसे न जाय
मतलब शुक्रवार को यदि बादल आए और शनिवार को भी बना रहे तो रविवार को बारिश अवश्य होगी
यानी पूर्वा नक्षत्र में अगर पुरवाई हवा चलेगी तो इतनी बारिश होगी कि सूखी नदी में भी नाव चलने लगेगी
यह कहावतें अनुभव आधारित वैज्ञानिक सूत्र हैं जो गांव में आज भी प्रचलित है और प्रायः सही उतरती हैं ।
इसी तरह पशु पक्षियों के व्यवहार के आधार पर कुछ और संभावनाएं भी ग्रामीणों में प्रचलित थीं जैसे कुत्ते और बिल्ली का रोना अच्छा नहीं माना जाता । मोवा जो एक प्रकार की उल्लू की बड़ी प्रजाति है, उसका गांव में आना और बोलना अच्छा नहीं मानते यह मानते हैं कि उसके आने से गाँव में किसी ने किसी की मृत्यु हो जाएगी।
इसी तरह किसी कार्य के लिए कुछ पशु-पक्षियों का व्यवहार शुभ भी माना गया जैसे गिरगिट का दिख जाना, दशहरे के दिन या यात्रा करते समय नीलकंठ का नजर आ जाना आदि। यदि किसी के ऊपर मकड़ी चल जाए तो यह माना जाता है कि जिस रंग की मकड़ी चढ़ी उस रंग का कपड़ा उसे मिलने वाला है। ऐसे ही लोटे का पानी गिरना मेहमान के आने का संकेत होता है। मुँडेर पर कौवे का बोलना किसी खास मेहमान के आने का संकेत होता है और प्रायः यह देखा गया है कि ऐसा होता भी है।
भरी बाल्टी का दिख जाना यात्रा के सफल होने का संकेत है । नाग पंचमी के दिन साँप का दिख जाना एक अच्छा संकेत माना जाता है।
कुआँ खोदने के पहले बहुत से विशेषज्ञ जो गाँव में ही होते थे वे अनुमान लगाकर यह बता देते थे कि पानी कहाँ पर निकलेगा? उनका यह अनुमान या तो किसी वनस्पति की उपस्थिति पर आधारित था या फिर अपने विज्ञान पर जिसमें वह कभी-कभी कुल्हड़ में पानी भरकर रात भर इंतजार करते थे।
गाँव की ही जड़ी-बूटियों से बिच्छू और साँप के काटने का उपचार कर देना गाँव के कुछ विशेषज्ञों के बाँए हाथ का खेल था।जड़ी-बूटी से दाँत के कीड़े निकाल देना और चढ़ी हूक उतार देना इसके भी स्थानीय विशेषज्ञ होते थे। जिन हड्डियों को बड़े-बड़े आर्थोपेडिक विशेषज्ञ नहीं ठीक कर पाते गाँव में छोटे-मोटे विशेषज्ञ भी इसे ठीक कर देते थे। लिगामेंट तो ऐसा बैठा देते थे कि दोबारा दर्द ही नहीं होता था । गौहन्ना में शिवराम मुराव और नरेश लोध इसके एक्सपर्ट थे ।
बच्चों को जब तेज सर्दी और जुकाम हो जाता था जिसे गौहन्ना में पाँजर मारना बोलते हैं तो गांव की बुजुर्ग महिलाएं किसी खास जड़ी-बूटी से उसे ठीक कर देती थीं । सूजन उतारने के लिए रेंड़ यानि अरंड का पत्ता आज भी सूजन वाली जगह पर गाँव के लोग बाँधते हैं। हालाँकि आधुनिक विज्ञान इसे मान्यता नहीं देगा क्योंकि उसको लिखा हुआ चाहिए। लेकिन जिसको फायदा हो जाता है, उसके लिए प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। कुछ-कुछ कुँए इस तरह के होते थे कि उसके पानी में नहाने से त्वचा संबंधी रोग दूर हो जाते थे। हो सकता है उसमें सल्फर की मात्रा रहती हो। कानमूर झाड़ने और दांत झाड़ने वाले भी हर गाँव में मिल ही जाते हैं । कुत्ता काटने के बाद सात कुँए झाँकना अनिवार्य होता था।
यह शोध का विषय हो सकता है कि इसमें कितना विज्ञान है और कितना अंधविश्वास । लेकिन गाँव के यह परंपरागत मूल्य और विश्वास जो फलित होते हैं , किसी विज्ञान से कम नहीं।
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यह वह दौर था जब टेलीविजन यानि टीवी गाँव -गाँव आना शुरू हो गया था और रामायण और महाभारत लोगों के दिमाग पर छाए हुए थे। लोक कलाओं जैसे नाच, नाटक और नौटंकी के दौर बदल कर फिल्मों का दौर गांव में भी आ गया था। इसके लिए किसी थिएटर या सिनेमा हॉल में जाने की जरूरत नहीं थी। टीवी का डब्बा और उसके ऊपर कैसेट चलाने वाला वीसीआर। बस इतने भर से पूरी फिल्म टीवी पर दिख जाती थी। नाच और नौटंकी में जितना खर्चा आता था उससे कई गुना कम में मुंबईया फिल्में गाँव -गाँव दिखाई जाने लगीं ।
पहले शादी,विवाह,मुंडन आदि कार्यक्रमों में लोक कलाकारों को बुलाकर उत्सव मनाया जाता था।धीरे-धीरे गाँव में वीसीआर के माध्यम से फिल्मों का जो चलन चला तो चलता ही गया । तीन -तीन घंटे की फिल्में पूरी रात चलती रहती थीं । रात भर में कम से कम 3 फिल्म वीसीआर वाला चला ही देता था। फिल्म कौन सी चलेगी ? यह निर्धारित करने का अधिकार वहाँ बैठी युवा टीम को होता था । दर्शकों में पुरुष , महिलाएँ सभी का प्रतिनिधित्व होता था ।
कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया
ऐ ठहर-ठहर ,ये सुहानी सी डगर
कौन दिशा में ले के चला रे बटोहिया...
नदिया के पार , राजा और रंक, अमर अकबर एंथोनी , गाइड जैसी हिट फिल्मों के साथ साथ उन फिल्मों को जो सिनेमा हाल से उतर चुकी होती थीं लोग चाव से उन्हें वीसीआर पर देखते थे । इन सबके बावजूद जब तक अमिताभ बच्चन की कोई मूवी न दिखाई जाय, मजा अधूरा रहता था । ये वो दौर था जब जमींदारी का असर गाँव में दम तोड रहा था और अमिताभ बच्चन का अत्याचार के खिलाफ प्रतिकार उन्हें महानायक बना रहा था । कुली , जंजीर, शोले जैसी फिल्में लोगों को शोषण के खिलाफ अपनी आवाज जैसी लगती थीं।
"किसी ने हिलने की कोशिश की तो भून कर रख दूंगा"
मैं हूँ प्रेम रोगी मेरी दवा तो कराओ
जाओ-जाओ-जाओ किसी वैद्य को बुलाओ
मैं हूँ प्रेम रोगी ..
मिस्टर इंडिया और नगीना जैसी फिल्मों में श्रीदेवी के रोल ने पूरे उत्तर भारत को चपेट में ले लिया था। इन फिल्मों के गाने लोगों की जुबान पर थे। मिथुन चक्रवर्ती के डांस के फैन जगह-जगह थे। वही धर्मेंद्र और शत्रुघ्न सिन्हा के डायलॉग लोगों को मुँह जबानी याद थे।
इसी बीच करन-अर्जुन , चाँदनी , दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्मों का दौर शुरू हो गया था। नए-नए हीरो आने लगे थे। गोविंदा के ठुमके शाहरुख खान का बिंदास पना और सलमान खान की मासूम अदाएँ लोगों को पसंद आने लगी थीं । नदिया के पार का शहरी रिमेक 'हम आपके हैं कौन' धड़ल्ले से चल निकली। इन फिल्मों के पहनावे और खान-पान का असर गाँव की संस्कृति पर भी साफ दिखने लगा था। नई पीढ़ी के लड़के लड़कियों में फिल्मों के व्यवहार झलकने लगे थे। धीरे -धीरे गाँव के कई घरों में टीवी आने लगी जिससे कई घरों में अलग-अलग चैनलों में दिखाई जाने वाली फिल्मों से वीसीआर का चलन खत्म होने लगा और 21वीं सदी तक आते-आते वीसीआर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया।
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गौहन्ना और अवध में आम के बीज को किसुली या बिजुली कहते हैं । बिजुली नाम इसलिए अब तक याद है कि जब आम छोटा और कच्चा होता था तो उसकी किसुली बहुत छोटी सफेद और बिना जाली की होती थी। कच्चे आम को फोड़ते ही वह हाथ में आ जाती थी जिसे बिजुली भी कहते थे । ये बिजुली पकड़ते ही फिसलती थी। इसलिए इसके साथ एक मजेदार वाकया जुड़ा हुआ था । किसकी शादी किस दिशा में होगी, ये बिजुली के उछलने की दिशा पर निर्भर था। बिजुली को अँगूठे और तर्जनी के बीच में रखकर उछाला जाता था या यूँ कहें कि दबाया जाता था और बिजुली जिधर की तरफ उछलती थी मान लिया जाता था कि उस तरफ उस बच्चे की शादी होगी । अब यह उछालने का क्रम हम बच्चों के लिए मनोरंजन और खुशी दोनों का साधन था।
अवध क्षेत्र में फलों का मतलब ज्यादातर आम से ही था। वहाँ आम के न जाने कितने बाग होते थे। बागों के नाम भी अलग-अलग तरह के होते थे जैसे भवानी बगिया, दसवन तारा , बझरैया, गोरइया बाबा, कारे देव बाबा , घेरवा जैसे न जाने कितने तरह के नाम बाग- बगीचों के होते थे। इन बगीचों में तरह-तरह के आम होते थे। कोई भी दो पेड़ के आम एक टेस्ट के नहीं होते थे। कुल मिलाकर हर बाग आम की जैव विविधता का भंडार था । अचार बनाने वाला आम मोटा होता था। रसीले आम केवल खाने के काम आते थे । खटाई का आम अलग होता था । जब आम की पूरी बहार आती थी तो उसका अमावट पड़ता था । अमावट के लिए आम का रस और गूदा निकाल कर किसी कपड़े के ऊपर धूप में सुखाया जाता था सूखने के बाद रोटी की तरह उसे लपेट दिया जाता था । इसे साल भर कभी भी खा सकते थे ।
सिंधुरिया आम सिंदूर के रंग का होता था । मॉल दहवा आम मोटा होता था , खट्टहवा आम बहुत खट्टा होता था। कहते थे कि अगर इसे मुर्दे को खिला दो तो वो भी उठ कर भाग जाएगा । इसी तरह बहेरी आम सबसे छोटा होता था और एक ही बार में उसे पूरा मुँह में भर सकते थे । तोतहवा आम की चोंच निकली होती थी। इनका वैज्ञानिक नाम भले न था पर इस तरह आम के न जाने कितने प्रकार और उनकी किस्में गाँव में मौजूद थी। बताते हैं कि एक लाख देशी वेराइटी के आम के बाग भी राजाओं के पास थे, जिसे लक्खी बाग या लखपेड़ा बाग कहते थे । एक खास बात हर आम के साथ थी कि उसकी चोपी निकालनी पड़ती थी। यह चोपी डंठल के पास जमा हुआ एसिड होता था। अगर यह मुँह में चला जाता था तो खाँसते-खाँसते बुरा हाल होता था।हर बाग हर साल फलता था। चाहे दो-चार पेड़ों पर ही बौर आएँ , आते जरूर थे । बौर आने के समय आम के नीचे से अगर गुजर गए तो भुनगे यानि छोटे -छोटे कीड़े बहुत बुरा हाल करते थे ।
आम बीनने के चक्कर में हम बच्चों के बीच अक्सर अधिकार को लेकर कहा सुनी और मार-पीट हो जाती थी । कभी कभी बच्चों की यह लड़ाई खतरनाक रूप से बड़ों की लड़ाई बन जाती थी और एकाध बार लाठियाँ चलने की नौबत आ जाती थी । आम के सीजन के बाद फिर से पुराना मेल-भाव बहाल हो जाता था। हालाँकि आम ही ऐसा फल था जो सबको मिल पाता था। इसलिए उर्दू में सर्व सुलभ को आम कहा जाने लगा जैसे कि आम-जनता, आम-रास्ता । बताते चलें कि आम्र संस्कृत भाषा का शब्द है जिसे उर्दू ने शायद स्वीकार कर लिया होगा ।
आम के ही सीजन में जामुन का भी फल आता है। कहते हैं कि भगवान ने एक तरफ मीठा आम दिया तो दूसरी तरफ उसकी मिठास से शुगर न बढ़ जाए इसलिए जामुन पैदा किया । अगर ज्यादा आम खा लिया तो दो चार जामुन खाना जरूरी होता था, जिससे कि आम पच जाए। आम के ही सीजन में आम पकने के दौरान बारिश भी होने लगती थी जिससे बाग-बगीचों में पानी भर जाता था। अक्सर आम बीनने के लिए घुटने-घुटने भर पानी में मेहनत करनी पड़ती थी। इस दौरान साँप और बिच्छू जैसे खतरनाक जानवरों से भी सामना करना पड़ता था। अगर झापस लग गया तो समझो आम भदरा गया यानि आम को अब बीनना भी श्रम साध्य हो जाता था। उस समय इतना आम गिरता था कि बाग को बुहारना पड़ता था ।
अस्सी के दशक बीतते -बीतते कलमी आम का दौर अवध क्षेत्र में शुरू हो गया था । देसी पेड़ धीरे धीरे खत्म होने लगे । बाग बगीचों में लोगों ने कलमी पेड़ लगाने शुरू कर दिए । कलमी आम के अच्छे दाम मिलते थे और किसानों को जमकर आमदनी होने लगी। रसायनिक कीटनाशकों और फ़र्टिलाइज़र का खूब उपयोग होने लगा । देसी पेड़ों को तो कोई खाद-पानी भी नहीं पूछता था । धीरे-धीरे अवध क्षेत्र से देसी पेड़ लगभग लगभग लुप्तप्राय हो गए और 'नेचुरल जीन बैंक' धीरे-धीरे स्वयं ही समाप्त होने लगा । देसी पेड़ लंबे समय तक फल देते थे। कुछ पहले शुरु हो जाते थे और कुछ बहुत बाद तक फल देते थे । आखिर तक फल देने वाला पेड़ हमारे बाग में सवनहा के नाम से जाना जाता था । गिलहरी और चिड़ियों के कटे आम खासकर तोते के अधखाए कच्चे आम से पकते हुए सावन तक के आम अब गौहन्ना में छोटे कद के कलमी आम की भेंट चढ़ चुके हैं । दो- चार देशी आम के बाग अब भी वहाँ किसी बुजुर्ग की तरह गाँव की बदलती आबो-हवा को देख रहे हैं और अपने दिन गिन रहे हैं । देशी आमों का वैविध्य पूर्ण साम्राज्य पूंजीवादी कलमी आमों की भेंट चढ़ चुका है ।देशी आमों के दौर में पहले कोई किसी को आम खाने से मना नहीं करता था। बाग चाहे जिसका हो, लेकिन अब तो कलमी आमों के बाग में मजाल है कि दूसरा कोई घुस जाय ।
जब आम के बीज यानि किसुली इठला कर पेड़ बनने लगती थी तो हम बच्चे उसकी 'सीपी' बनाते थे जो कई तरह की ध्वनि निकालती थी । अमोला यानि आम का पौधा जैसे ही बड़ा हो जाता था वो फिर किसी बाग का हिस्सा बना दिया जाता था। देशी आम और अमोलों की पीढ़ी रोजगार की तलाश में शहर को जा चुकी है । सुना है कुछ प्रकृति प्रेमी फिर से देशी आम के बीज इकठ्ठा कर लगवा रहे हैं । क्या पता आम की ये देशी बिजुली -किसुली किस दिशा में गिरेगी और लहलहा कर लंबे पेड़ के रूप में खड़ी हो जायेगी और रिसर्च पेपर छपेंगे " इस गाँव में फिर मिला आम का जीन बैंक" । वैसे हम तो श्रेय बिजुली यानि किसुली को ही देंगे जो इस दौर के तीर्थ यानि ससुराल की दिशा बताती थी।
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गौहन्ना में महुए के पेड़ बहुतायत से पाए जाते हैं। वैसे तो महुए को वैज्ञानिक माइनर फल ही मानते रहे, लेकिन जो इसके गुणधर्म से परिचित रहे उन्होंने इसे कमतर आँकने की जुर्रत कभी नहीं की। उसका कारण यह भी था कि जिसने इसका जलवा देख या सुन लिया, फिर उसको किसी प्रमाण और गवाह की जरूरत न पड़ी । अवध तो अवध पूरे भारत में महुए का दबदबा सनातन काल से रहा है । किसी जमाने में उत्तर और मध्य भारत की आर्थिकी का आधार भी यह पेड़ रहा है । आदमी तो आदमी , कहते हैं इसकी खुशबू से जानवर भी मदमस्त हो खिंचे चले आते हैं। जिस गाँव में महुए के बाग होते हैं वहां हाथियों की चहल-पहल भी कायम हो जाती है। अब ये बात अलग है कि पशु पक्षी इसका सेवन प्राकृतिक तरीके से करते हैं लेकिन आदमी तो ठहरा आदमी। हर चीज को बिगाड़ के खाता है। बिना उबाले हजम ही नहीं कर पाता सो महुए के अदभुत प्रयोग वो सीख गया ।
सभ्य लोगों ने इसका ठोकवा , चिल्ला और गुलगुला बना डाला तो देशी रसायन शास्त्रियों ने इसका आसवन कर डाला । इसके गुण धर्म से राजा महाराजा के साथ वैद्य और हकीम भी प्रभावित रहे । गांवों में आज भी लोग ये कहते हुए मिल जाते हैं ..
गुड़, बरगद , महुआ कै गादा
कहने का मतलब यह कि इन तीनों चीजों के लिए ब्रश करने की भी जरूरत नहीं । सुबह -सुबह महुए को खा लिया तो समझो विटामिन खा लिया । वैसे इस भारतीय कल्प वृक्ष की महत्ता की यूरोप के अंगूर से तुलना की जा सकती है। वैसे तो अंगूर इस पेड़ के सामने कहीं नहीं टिकता लेकिन यूरोप का था तो बड़े फलों में गिनती होने लगी। अब उनके लिए वही अमृत था। सीधे खाओ या सड़ा कर, सभ्य देश की निशानी थी । अब महुए को उसी के घर में कद्र नहीं मिली तो वो माइनर फल की श्रेणी में आ गया लेकिन अंगूर से कमजोर कहीं भी नहीं था । अब ये बात अलग रही कि वैद्य हकीम से ज्यादा नीम हकीम उसका रसायन निकालने लगे सो महुआ बिचारा बदनाम ज्यादा हो गया । इस बीच बदले जमाने में लोगों ने उसके नाम से बिजनेस भी कर डाले । झमाझम डांस और मधु साहित्य का आधार भी महुआ को बनना पड़ा ।
लोक कवि श्री लल्लूमल चौरसिया की चौकड़िया में इसकी महिमा बताते हुए कहा गया है-
महुवा खा के पेट भरत तें ,अपनी गुजर करत ते ।
कैसउ परे अकाल कबहुँ कोऊ,भुखन नई मरत ते ।
मुरका , लटा और डूबरी के लाले नई परत ते ।
उनकी खुद मिटा दई जिनसे , दीन अधीन पलत ते ।।
मेरे एक मित्र ठाकुर आनंद सिंह को इससे इतना लगाव हुआ कि उनके गुरु प्रोफेसर आई एस सिंह को महुए पर रिसर्च करानी पड़ गई । अब सर भी समझ गए कि बच्चा होशियार है सो उनने टॉपिक भी ऐसा खोजा कि रात तीन बजे महुआ की रीडिंग लेने आनंद बाबू को आठ किलोमीटर जाना पड़ता था और महुआ भी इनको सबक सिखाने पर आमादा था गिरता ही था रात के अंधेरे में । अब बाबू साहब रात में महुआ ढूंढते थे और महुआ इनको । बकौल आनंद जो आजकल बाँदा में बड़े साइंटिस्ट हैं महुए को भारतीय जन जीवन का अमृत मानते हैं। वे कहते हैं फूल विटामिन , मिनरल में अंगूर से कम नहीं और कोलैया यानी इसका फल।,चाहे सब्जी बना के खाओ या तेल निकाल लो हर तरह से मल्टी परपज । यानि आम के आम ..न न महुआ का महुआ और तेल घलुआ में । फिलहाल रिसर्च करने के बाद वो इसे माइनर फल मानने को बिल्कुल तैयार नहीं कहते हैं अंगूर फेल है खा के तो देखो । लिवर, फेफड़ा, पेट और जवानी सब इसके खाने से सुरक्षित रहते हैं । पेट के कीड़े भी मार देता है और पेट में विटामिन-ए और 'सी' भी पहुँचा देता है ।
खैर महुआ ग्रामीण जन जीवन की आर्थिकी का सदियों से आधार रहा है । फिलहाल अवध के इलाक़े से धीरे धीरे इसके बाग गायब हो रहे हैं । मध्य प्रदेश, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और झारखण्ड के कुछ इलाकों में इसकी भीनी खुशबू आज भी कायम है । जिस दिन बाबू साहब वाली महुए की रिसर्च किसी गोरे साहब के हाथ लगेगी, यूरोप क्या अमेरिका तक से अमेजन और फ्लिप कार्ट पर लोग इसे सर्च करेंगे । ताजा भी खायेंगे और सुखा कर भी रखेंगे । घर आने वाले मेहमान को किशमिश और मुनक्के की जगह महुआ मिलेगा ।
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कबाड़ी तो वैसे हर जगह पाए जाते हैं लेकिन गौहन्ना गाँव में इनके इंतजार में हम बच्चे भी रहते थे । उसका एक खास कारण था जो भी कबाड़ की वस्तुएँ होती थीं , उनसे जो पैसा मिलता था उस पर हमारा हक होता था। सो कबाड़ के लिए हम लोग भी काँच की शीशी, लोहे के टुकड़े, कांच के टुकड़े , बैटरी वगैरह-वगैरह इकट्ठा किए रहते थे। वैसे तो कबाड़ी वाले रोज ही चक्कर मारते थे लेकिन इतवार के दिन हम लोगों को उनका इंतजार रहता था ।
"कबाड़ी वाला, कबाड़ी वाला
लोहा बेच डालो , लक्कड़ बेच डालो
कबाड़ी वाला, कबाड़ी वाला...."
अब जिस दिन उसकी आवाज दूर से सुनाई दे जाती थी, हम लोग भी पुराने लोहे-लक्कड़ इकट्ठा करके उसकी तरफ लपक लेते थे । कुछ कबाड़ी कबाड़ के बदले सामान दिया करते थे। इसमें प्लास्टिक के मग और बाल्टी वगैरह होती थी। कुछ कबाड़ी सीजनल फल जैसे आम अमरूद, अंगूर , केले के बदले कबाड़ खरीदते थे। कुछ कबाड़ी इससे भी आगे की सोच रखते थे और वह महिलाओं के साज-सज्जा के सामान रखते थे जैसे बिंदी सिंदूर, चूड़ियाँ वगैरह। यहाँ पर हम लोगों की दाल नहीं गलती थी क्योंकि हमारे मतलब का कोई भी सामान वह कबाड़ी नहीं रखता था।
इन कबाड़ियों के चक्कर में हम बच्चे कभी-कभी चलते फिरते और अच्छे सामान का भी कबाड़ा बना देते थे। बाद में जब घरवालों को पता चलता था तो हमारी अच्छी खासी क्लास लगती थी। इसी तरह गाँव में जो रेलवे लाइन गुजरती थी उसमें कोई न कोई लोहा निकलता ही रहता था। पहले तो कबाड़ वाले इसे आसानी से खरीद लेते थे। बाद में जब पुलिस वाले कबाड़ियों की तलाशी लेने लगे तो उन्होंने रेलवे के सामान खरीदने बंद कर दिए।
अखबार से लेकर रद्दी पेपर और पुराने कपड़े भी यह कबाड़ी खरीद लेते थे । गांव में कपड़े खरीदने के लिए एक विशेष तरह का कबाड़ी आता था जो सिर्फ पुराने कपड़े खरीदता था और उसके बदले चीनी मिट्टी के कुछ बर्तन बेचने वाले को मिलता था । लोग बताते थे कि पुराने कपड़ों से कागज बना दिया जाता है । फिलहाल गांव में लोहा, लक्कड़ , काँच आदि इनमें से कुछ भी कूड़े या घूरे में नहीं जाता था और न ही कोई पालतू जानवर इन से घायल होता था इस तरह कबाड़ और कचरा प्रबंधन की यह व्यवस्था जो आज गीला और सूखा कचरा के रूप में शहरों में अपनाई जा रही है गाँव में बहुत पहले से सफल रही है।
यह भी कहा जाता था कि गाँव में कुछ कबाड़ी लूटपाट की रेकी भी करने आते थे। यह बात कहाँ तक सही है ? यह कहना मुश्किल है, लेकिन गाँव वालों की सजग और चौकन्ना निगाहें ऐसे लोगों को भी नजर में रखती थीं । ऐसा नहीं कि उनका अनुमान बिल्कुल गलत होता था क्योंकि इस तरह की घटनाएँ आस-पास के गाँव में हो भी चुकी थीं। इसलिए यह सावधानी जायज थी।
बहुत दिनों के बाद अपनी पोस्टिंग के दौरान जब मैं इटावा पहुँचा तो वहाँ के एक नामी कवि की एक कविता कबाड़ी पर ही थी जो मानस पटल पर हमेशा के लिए अंकित हो गई । कवि ने आधुनिकता के साथ विलुप्त होते संस्कारों पर चिंता जाहिर करते हुए अपनी लाइनें कुछ यूँ कहीं थीं-
इज्जत, ईमान, शरम बेच डालो ..
कबाड़ी वाला, कबाड़ी वाला....
पहले कबाड़ में लोहा -लक्कड़ बिकता था। अब न जाने क्या-क्या लोग बेच रहे हैं ?
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सतुआ संक्रांति -
जिस तरह मकर संक्रांति पूरे भारत में धूम-धाम से मनाई जाती है,उसी तरह जब सूर्य देव मेष राशि में प्रवेश करते हैं तो सतुआ संक्रांति मनाई जाती है। माना जाता है कि इस दिन से शुभ कार्य प्रारम्भ हो सकते हैं। भारतीय जन जीवन में फसलें त्यौहार और त्यौहार फसलों के पकने से जुड़े हुए हैं। फसलें मौसम आधारित हैं और मौसम सूर्य और उससे उत्पन्न ताप से प्रभावित होता है इस तरह सूर्य देव प्रकृति और जीवन की शैली को नियंत्रित करते रहते हैं.
सतुआ संक्रांति उत्तर भारत का प्रसिद्ध त्यौहार रहा है। गौहन्ना और पूरे अवध में यह त्यौहार खूब प्रचलित रहा है। फ़िलहाल आधुनिक जीवन शैली में यह गाँव और लोक मान्यताओं में अब भी धूम-धाम से मनाया जाता है। सतुआ या सत्तू खासकर जौ और चने को भूनकर और पीसने के बाद मिलाकर बनाया जाता है। कुछ जगह दोनों को अलग -अलग ही रखते हैं। सत्तू के व्यञ्जन सदियों से लोकप्रिय रहे हैं जिनमें से बाटी या लिट्टी सर्व सुलभ है। कहते हैं कि लम्बी दूरी की यात्रा के लिए एक ऐसे भोजन की तलाश थी जो धूप ,गर्मी ,बरसात की नमी से ख़राब न हो और कई दिनों तक चले। सत्तू इस प्रयोग की तलाश का आविष्कार कहा जा सकता है जिसको जैसे चाहो वैसे प्रयोग में लाओ। प्यास लगे ,लू लग जाय तो घोल के पी लो इससे बढ़िया कोल्ड ड्रिंक नहीं , भूख लगे तो पानी में मिक्स कर खा लो। नूडल्स से भी कम समय में तैयार है और अगर समय हो तो लिट्टी बनाकर या पूड़ी में भरकर खाया जा सकता है गारंटी के साथ घंटों आपको भूख नहीं लगने देगा।
इस देशी खाद्य पर हुए रिसर्च ने इसको बेहतरीन फ़ास्ट फ़ूड माना है कुछ न्यूट्रिशनिस्ट इसे सुपर फ़ूड कहने से नहीं चूकते। इंस्टैंट एनर्जी के साथ-साथ प्रोटीन , कैल्शियम, मैग्नीशियम , आयरन और फाइबर का एक बेहतरीन स्रोत इसे माना गया है। पेय पदार्थ के रूप में इसकी तासीर ठंडी होती है इसलिए लू से बचाता है। वजन घटाने ,कोलेस्ट्रॉल घटाने में इसका प्रयोग बढ़ चला है , डाइबिटीज में भी कारगर है। ऐसे ही गुणों के चलते आजकल ये अमेज़न जैसे प्लेटफॉर्म पर विदेशों तक जा पहुँचा है।वैसे कोई स्टार्ट अप मास्टर देर सबेर गन्ने के जूस और लस्सी की तरह इसे भी कोल्ड ड्रिंक वाली मार्किट तक पहुँचा देगा। फ़िलहाल सतुआ संक्रांति और उसके बाद पूरी गर्मी प्याज-गुड़ ,आम की चटनी और सिरके के साथ सत्तू को लपेट कर खाने का मजा लेते रहिये ।
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अवध क्षेत्र में सुमिरनी का मतलब जाप की माला से है। बार-बार स्मरण करने का माध्यम होने के कारण ये स्मरणी सुमिरनी बन गई ।
अवध क्षेत्र में यह चौपाई अक्सर बोली जाती है
उतरहिं नर भव सिंधु अपारा'
यानी जिसका नाम एक बार स्मरण करने से प्राणी भव सिंधु को पार कर जाता है यदि उसका नाम बार-बार स्मरण किया जाए तो बात ही क्या है।
सुमिरनी प्रायः तुलसी की माला के रूप में होती हैं जिसमें 108 गुरिया होती है। माला के आखरी छोर पर सुमेरु होता है जिसे पार नहीं करना चाहिए । अक्सर लोगों के पास माला जपने के लिए एक सुमिरनी झोली होती है।
गौहन्ना गाँव और आसपास के गाँव में बुजुर्ग लोग जो शुद्ध सात्विक होते हैं उनके पास यह सुमरनी अक्सर मिल जाती है । जिन लोगों ने गुरु मंत्र ले रखा होता है वह न तो लहसुन प्याज खा सकते हैं न ही मांस मदिरा । प्रायः उम्र के आखिरी पड़ाव पर ज्यादातर लोग गुरु मंत्र ले ही लेते हैं । गुरु मंत्र किसी भी जाति , समुदाय का व्यक्ति ले सकता है । अयोध्या पास में होने के कारण प्रायः लोग वैष्णव संप्रदाय में दीक्षित होते हैं। गाँव में इन्हें भगत कहते हैं । इन लोगों के गले में कंठी होती है और इन्हें बड़े सम्मान के साथ देखा जाता है।
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गौहन्ना में पेड़ लगाने के लिए जिस ऊँचे टीले को बनाया जाता था,उसे थाला कहते थे । वैसे तो पेड़ लगाना पुण्य का कार्य था, लेकिन ठाकुर साहब ने रास्ते में कई थाले खुदवा दिए थे उसकी कहानी कुछ अलग ही थी ।
हुआ यूँ कि परधानी का चुनाव गौहन्ना में होने वाला था। पिछले चुनाव में लाइन पार के लोहार जगदेव चुनाव जीत गए थे। यह बात पिछले परधान ठाकुर साहब को नागवार गुजरी थी। लेकिन कर भी क्या सकते थे। लोकतंत्र में कुछ भी संभव था । जगदेव की परधानी के पाँच साल किसी तरह पूरे हो रहे थे। ठाकुर बाबा को अपनी परधानी की उम्मीद फिर से जग गई थी । उनकी हवेली वैसे तो कच्ची ही थी लेकिन लोगों के लिए आशा का केंद्र थी । कहते हैं ऐंठन और अकड़ पुश्तैनी होती है। सो दोनों उन्हें विरासत में मिली थी । इस बार वो आश्वस्त थे कि प्रधान पद उन्हें वापस लौट के मिलना ही है । उनके शहन दरवाजे पर लोगों का जमघट और देर रात तक महुए के पानी के साथ ठाकुर साहब की जय जयकार उनकी जीत का डंका बजा रही थी । उधर ठाकुर साहब के पुराने मित्र मिसिर जो कोसों दूर तक उनके साथ आल्हा गाने जाते थे। इस बार अपने लड़के को परधानी के चुनाव में उतार दिए । इस बात से मिसिर और ठाकुर में ठन गई थी ।
मिसिर को लोग गांव में 'मिसिर दादा' के नाम से जानते थे। खेतिहर किसान के रूप में उनके खेत में गांव के मजदूर खुशी-खुशी काम करते थे। किसी को अनाज ,राशन कम पड़ जाय तो मिसिर दादा दे दिया करते थे । उसे कुछ अगली फसल में लौटा देते थे तो कुछ नहीं भी लौटाते थे । लकड़ी फाटा की जरूरतें भी लोग मिसिर दादा की बगिया से पूरा कर लेते थे । ठाकुर साहब की झिड़क से मिसिर दादा का प्यार लोगों को अंदर तक छू गया था । मिसिर दादा का बेटा लखनऊ यूनिवर्सिटी से लॉ ग्रेजुएट होकर फैजाबाद कचहरी में वकालत करने लगा था । घर से ही रोज फैजाबाद जाना और आना । लोगों के मुकदमे और फरियादें दोनों का समाधान वकील साहब यानी 'वकील भैया' करने लगे थे । युवा पीढ़ी जिसमें बीरे, सुमिरन, भूखल, सुफल, डॉक्टर मौर्या , लेखपाल, कृष्णा बढ़ई, नगेसर कोरी आदि थे वकील भैया के निकटतम सिपहसालार थे । इनमें से कई को वकील भैया ने मेम्बर का पर्चा भरवा दिया था और खुद प्रधानी के लिए पर्चा भर आए थे । चुनाव चिन्ह था कार ।
वकील भैया के लिए चुनाव प्रचार के लिए रिक्शे का जुगाड जुड़ई कोरी ने किया । लालजी भैया ने नारा बुलंद किया
अब जिस गाँव ने सपने में भी सड़क और बिजली की बात नहीं सोची थी , जिस गाँव में छः महीने पानी से होकर दूसरे गाँव जाना पड़ता था, वहाँ नए नारे ने बाजी पलट दी । अपनी जीत के प्रति आश्वस्त ठाकुर साहब बुरी तरह हार गए थे । कल के लड़के ने उन्हें परधानी में हरा दिया था । रात को मौज उड़ाने वाली भीड़ के इक्के-दुक्के लोग मातम पुरसी में आए, तो विचार ये बना कि जिन लोगों ने वोट नहीं दिया, उनको सबक सिखाना है । निशाने पर पहले नंबर में उनके बगल वाला महाबाभन टोला था जिसका लगभग पूरा वोट वकील साहब को गया था । ये महाबाभन रोज ठाकुर साहब के तालाब और बाग से गुजरते थे । सलाहकारों और चाटुकारों ने ठाकुर बाबा को भड़का दिया ।
अल सुबह तालाब से होकर जाने वाले रास्ते में दसियों मजदूर तालाब को गहरा कर बीच बीच में थाले बना रहे थे । मकसद था कि महाबाभन की औरतें और बच्चे पानी में घुस कर जायेंगे तो अपनी गलती याद रखेंगे । बारिश में वास्तव में घुटने और कभी-कभी कमर भर पानी में घुसकर गांव वाले उस थाले की सड़क को पार करते रहे । पढ़ने वाले बच्चे , खेत जाने वाले मजदूर , किसान चरवाहे सब इसी पानी में घुस कर जाते रहे और ठाकुर साहब को इस तरह अजीब आनंद का अहसास होता रहा । यह सिलसिला कई सालों तक चलता रहा, जब तक वकील साहब ने उस सड़क को ऊँचा कर पक्का नहीं बनवा दिया । मजेदार बात यह थी कि तालाब सरकारी था और जब पक्की सड़क बनी तो ठाकुर साहब के खेत के भाव भी बढ़ गए । लेकिन दसियों साल तक सड़क का नाम 'थाले वाली सड़क' ही रही ।
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गहने हर संस्कृति की पहचान रहे हैं । गहने लोकगीतों से लेकर आधुनिक गीतों में भी समाहित हैं । धातुओं के मूल्य के आधार पर समृद्ध संस्कृति का आकलन होता रहा है । हिन्दुस्तान को सोने की चिड़िया कहे जाने के पीछे एक राज यह भी था कि हर घर में सोने के आभूषण पहनने का रिवाज था । काली मिर्च के बदले सोना यूरोप,अरब आदि हर जगहों से आता था । सोने के चक्कर में आक्रमणकारियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी हिन्दुस्तान ही रहा । उसमें भी अवध का क्षेत्र व गंगा-जमुना का दोआब का आकर्षण यह था कि जिसने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया उसने पूरे देश पर राज कर लिया ।
गौहन्ना में भी गहनों का चलन सदियों से रहा है। कुछ तो खुदाई में भी मिलते रहे लेकिन जिनको मिले वो छुपा गए । फिर भी संस्कृति अनवरत चलती रहती है ।
स्त्रियों में गहने का चलन पैरों से लेकर सिर तक रहा है । कड़ा , छड़ा , पावजेब, लच्छा, पायल , बिछुआ ये सब पैरों में पहने जाते हैं । कहते हैं कमर के नीचे सोना नहीं पहनना चाहिए। इसलिए ये सब आभूषण चांदी के ही होते रहे । बिछिया सौभाग्यवती स्त्रियों को ही अनुमन्य थी ।
कमर में करधनी और पेटी पहनना समृद्ध घर की निशानी होती थी ।गौहन्ना में जिनको सोने का आभूषण बनवाना मुश्किल होता था वो चांदी के पहनते थे । 'भगतिन आजी' मोटे-मोटे चांदी के कड़े पहनती थीं । दुरपदा बुआ कान में बड़े बड़े चांदी के छल्ले पहनती थीं यहां तक कि उनके कान के छेद उन छल्लों से बड़े होकर अंगूठे जितने मोटे हो गए थे लेकिन कभी भी उनको मोटा छल्ला उतारे नहीं देखा । कान में झुमका , कुंडल , बाली का पहनावा आम था । झुमका कुछ वैसा ही जैसा गानों में सुना होगा
पंडिताईन आजी की नाक में लटकने वाली सुराही धीरे धीरे चलन से बाहर हो गई। स्मार्ट गहने ज्यादा चलने लगे सो नथुनी कील फैशन में आ गई और नाक के बीच में झूलने वाली झुलनी इतिहास बनने लगी । झुलनी तो कबीर के पदों में भी उतर आई थी-
सिर के श्रृंगार में बिंदी टिकुली के साथ माथ-बिंदिया नारी के सौंदर्य की साथी रही है ।
इन सबको जिन हाथों से सजाया जाता था, उन हाथों के आभूषण में अंगूठी से लेकर कंगन, चूड़ी , बाजूबंद , दस्ताना पहने जाते थे । बाजूबंद कुहनी के ऊपर पहना जाता था जो अब नई पीढ़ी में चलन से बाहर है ।
सारे गहने होने के बावजूद अगर गला सूना है तो सारे आभूषण पहनने का कोई मतलब नहीं होता था । गले का मंगल सूत्र सौभाग्य की निशानी होती है । चेन, हार , कंठा, गुलू बन्द , मोहर माला ये सब गले के श्रृंगार थे, जो ज्यादातर सोने के होते थे । नौलखा हार जिसके घर होते थे वो बड़े खानदान के माने जाते थे ।
ये गहने स्त्री सशक्तीकरण के प्रतीक थे । गाढ़े समय पर बहुत काम आते थे । पीढ़ी दर पीढ़ी बेटी , बहू को किसी संस्कार की तरह हस्तांतरित होते रहते थे ।
कहते हैं भारतीय संस्कृति में गहनों का प्रचलन आयुर्वेद से भी जुड़ा हुआ है एक्यू पंचर से इलाज की पद्धति का ये भी एक तरीका था । हमारे शरीर में खनिज की आवश्यकता वनस्पतियों के साथ साथ धातुओं से भी पूरी होती रही है। कुछ खनिज गहनों से भी त्वचा के माध्यम से शरीर को मिलते रहते हैं । सोना-चांदी च्यवनप्राश तो सुना ही होगा। आयुर्वेद की ये औषधियाँ गहनों से मिल जाती थीं और लोग सौ-सौ साल आराम से जिंदगी जीते थे । अब दवाओं की भरमार के बावजूद सौ तक बिरले लोग ही पहुँच पाते हैं । काश इन गहनों के विज्ञान को समय से समझ लिया जाता ।