Sunday, June 18, 2017

Missing World -आ लौट के आ जा मेरे...

मेरे मित्र जो उत्तराखंड पुलिस सेवा के एक कर्मठ अधिकारी हैं श्री मनोज कत्याल जी  पिछले कुछ दिनों से एक गहरी पीड़ा से गुजर रहे थे हुआ यूँ कि उनके बुजुर्ग ससुर (बाबू जी )घर से कही जाने के लिए पैदल निकले और घर लौट के नहीं आये।  घर वाले खोज -खोज के परेशान हो गए।  शुगर और ब्लड प्रेशर की दवा घर पे छूटी हुई थी।  किसी अनहोनी की चिंता सबको घेरे हुई थी पुलिस विभाग होने के नाते हर जगह की पुलिस उन्हें मदद कर रही थी लेकिन बाबू जी का पता नहीं चल पा रहा था.  सोशल मीडिया से लेकर न जाने कितने तौर तरीके आजमाए गए सब असफल साबित हुए , सब निराश हो गए थे कि अचानक एक फोन ने उनके परिवार को जैसे जीवन दान दे दिया  हुआ यूँ कि बाबू जी ट्रेन  के पायदान से फिसल कर अनजान जगह में गिर गए , कई दिन अस्पताल में रहे, जेब में एक गैस बुकिंग  की रसीद पर घर का पता लिखा था बस इसी पते ने बाबू जी को फिर से उनके घर वालों से मिलवा दिया।  जब से मानव इस धरती पर संवेदनशील हुआ होगा परिवार तब से अस्तित्व में आया होगा।  माँ -बाप, भाई -बहन, दादा- दादी, नाना- नानी, बुआ, मामा जैसे रिश्ते  ईजाद हुए होंगे।  मन ने मन की भाषा पढ़ी होगी, दिल ने दिल के जज्बात समझे होंगे और परिवार के बंधन प्रगाढ़ हुए होंगे।  परिवार पालन -पोषण ,संस्कार ,शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा के आधार बने होंगे। परिवार से बाहर जीवन दुःखद न सही तो आसान आज भी नहीं है।  इस दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो जाने अनजाने अपने प्रियजन और परिजनों से बिछड़ जाते हैं. होते वो इसी धरती पर हैं पर उनका मिलना मुश्किल हो जाता है कुछ किस्मत वाले होते हैं जिनके अपने उन्हें मिल जाते हैं लेकिन सबकी किस्मत इतनी अच्छी नहीं होती। बहुत से भटके लोग दर -दर भटकते रहते हैं कभी खाना नहीं मिलता कभी पानी नहीं मिलता। कभी बारिश में भीगना पड़ता है कभी ठण्ड में काँपना ।बीमारी आती भी अपने मन से है और जाती भी अपने मन से है।   हिंदुस्तान में ऐसे लोग शहरों कस्बों और गाँव -देहात में कहीं भी देखे जा सकते हैं।  इन्हे देख कर आप के मन में भी विचार तो जरूर आता होगा कि ये कौन लोग हैं ?क्या इनका कोई घर नहीं ?क्या इनका कोई परिवार नहीं ? आंकड़े बताते हैं कि सिर्फ हिंदुस्तान  में 270 औरतें और 180 बच्चे प्रतिदिन खो जाते हैं जिनमे से लगभग एक चौथाई का पता नहीं चल पाता है।  पुलिस और मीडिया की भाषा में इन्हे मिसिंग परसन कहा जाता है।  अक्सर आप अख़बारों में खोये हुए लोगों के विज्ञापन देखते होंगे टीवी और रेडियो  पर उनके विवरण सुनते होंगे दीवारों, बसों  पर पोस्टर देखते होंगे लेकिन सोचते होंगे मुझे क्या लेना-देना इनसे और हाँ पता नहीं कहाँ होंगे ये ? कौन इस में दिमाग खपाये।  लेकिन इस दर्द को उस मां -बाप के पूछिए जिसका बच्चा खो गया है उनकी पूरी जिंदगी इस टीस के साथ गुजरती है जिसे वो बयाँ नहीं कर पाते, सिर्फ घुट -घुट के जीते हैं ।  यही हाल उन बच्चों का होता है जिनके मां या बाप कहीं खो जाते हैं। जो खो जाते हैं उनकी जिंदगी प्रायः बड़े बदतर हालातों से गुजरती है खासकर वे बच्चे जो छोटे होते हैं या वे बुजुर्ग जिनकी मानसिक अवस्था सही नहीं होती।  बहुत कम महिलाएं भाग्यशाली होती हैं जिन्हे किसी शरणालय में जगह मिलती है ज्यादातर औरते और बच्चे अपराध पेशा गिरोह के हत्थे चढ़ जाते हैं और ताउम्र उस गिरोह की कीमत चुकाते रहते हैं भीख मंगवाने,मजदूरी ,देह व्यापार से लेकर उनकी  किडनी और लिवर का धंधा भी ये गिरोह बड़े शातिराना अंदाज में करते हैं।कच्ची उम्र में बेहतर जिंदगी की चाहत बहुत से बच्चों को होती है जो घर से भाग जाते हैं लेकिन उन्हें क्या पता माँ बाप हर जगह नहीं मिलते।  उपेक्षा के शिकार बुजुर्ग या याददाश्त खो चुके बुजुर्ग अक्सर अनाथ से घूमते रहते हैं।
            देहरादून में ऐसे लोगों के लिए काम कर रहे "हेल्पिंग हैंड" संस्था के संचालक डॉ अंजुम बताते है कि घंटाघर चौराहे पर भीख मांगने वाले बच्चों की जेब नहीं होती। वो हर पांच दस मिनट बाद अपने बॉस ,जो किसी किनारे खड़े होकर उन्हें वाच करता है ,को पैसा दे आते हैं और फिर भीख मांगने में जुट जाते हैं शाम को ये बच्चे वहां नज़र नहीं आते और अगली सुबह फिर आ जाते हैं। बच्चों को ढूंढने में सबसे बड़ी समस्या ये होती है कि बच्चों का चेहरा उम्र बढ़ने के साथ-साथ बहुत तेजी से बदलता है पांच या छः साल बाद खुद माँ बाप को भी वो घूमते हुए अचानक मिल जाय तो शायद वे भी न पहचान पाएं।  हिंदुस्तान में संभवतः इसीलिये हाथ में नाम और पता गोदवाने की परम्परा खूब प्रचलित थी।  पागल और भिखारी के रूप में फुटपाथ पर रहने वाले बहुत से लोग दरअसल घर से भटके हुए लोग होते हैं जो अपना घर भूल जाते हैं और  जिन्हे उनके घर वाले तलाश रहे होते हैं।  शरणालयों में रह रहे बहुत से लोग अपने लोगों के पास जाना चाहते हैं लेकिन वो घर का पता नहीं बता पाते ऐसे लोगों के घर को पता करने के लिए बहुत सूझ -बूझ की जरूरत होती है जैसे भाषा ,बोली, पहनावा ,खान-पान की पसंद आदि।  संवासिनी गृह देहरादून में ऐसे लोगों पर जब यह प्रयास किया गया तो परिणाम आशातीत रहे।वन सेवा के एक संवेदनशील ईमानदार अधिकारी रामचंद्रन जी  ने न जाने कितने परिवारों की खुशियां वापस लौटा दी. तमिलनाडु ,उड़ीसा ,नेपाल के लोग जो अपनों को वापस पाने की आशा खो चुके थे उनके अपनों का वापस मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। फुटपाथ पर पड़े लोगों को घर तलाशने में डॉ अंजुम और उनकी युवा टीम जिसका सदस्य मै भी रहा ने मिशन घर वापसी की शुरुआत की उनकी टीम ने इस काम में  दिन रात एक कर दिए और बहुत से लोगों को उन्होंने उनके परिजनों से मिलवाने में  अहम भूमिका निभाई। डॉ अंजुम और उनकी टीम दिन में एक घंटा ऐसे लोगों के पास गुजारती है और उनको अपना बना कर उनके घर का पता लगाती है इस नेक काम के चलते आज कई घरों की दुवाएँ उनके खाते में हैं।  ये सिलसिला फेसबुक पर कुछ नेक लोगों ने नो मोर मिसिंग और मिसिंग पीपल इन इंडिया के नाम से भी जारी रखा है जिसमे जुड़ने वालों की तादात लाखों में है और उनके साथ है सफलता का अनकहा आनंद जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है । कई प्रदेशों की पुलिस मिसिंग पर्सन की सूचना अलग साइट पर डालती है उसे सीसीटीएनएस से जोड़ने की पहल हुई है।  इस सबके बावजूद ये प्रयास जन सहयोग के बिना  नाकाफी हैं। "आधार " इस दिशा में नई उम्मीद की किरण है जिससे भटके हुए आदमी के घर का पता लगाया जा सकता है।बच्चों के लिए यह आधार बहुत ही सहायक हो सकता है।  लेकिन इस सबके लिए समय और प्रयास की जरूरत होती है जो इस भागदौड़ भरी दुनिया में बहुत कम लोगों के पास है। फिर भी  आदमी को ट्रेक करने का सॉफ्टवेयर या बायो-चिप  जब तक ईज़ाद नहीं हो जाती ये प्रयास हम सबको जारी रखना होगा क्या पता किसी को उसकी खोयी हुई दुनिया वापस मिल जाय। -ललित