Monday, December 19, 2011

महान कवि अदम गोंडवी की रचना -

काजू भुने पलेट में, विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत
इतना असर है ख़ादी के उजले लिबास में
आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह
जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में
पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में
जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

Friday, December 16, 2011

मै खुश हूँ -

मै खुश हूँ क़ि कचरे से दूर हूँ
क्योंकि मैं गाँव में हूँ अपनों की छाँव में हूँ ।
मै खुश हूँ क़ि मुझे सुबह-शाम कुत्ते नहीं टहलाने पड़ते
लूट हत्या वाली ख़बरें मेरे घर नहीं आतीं क्योंकि मेरे घर चैनल और अखबार नहीं आते ।
मै खुश हूँ क़ि मुझे शेयर बाज़ार का कीड़ा नहीं काटता
ट्रान्सफर पोस्टिंग का लफड़ा अपने जेहन में नहीं आता
घोटाले और घूस की अंकगणित मुझे नहीं आती
मैं विद्वान् भी नहीं जिस पर मैं घमंड करूँ सर पर लाद कर घूमता फिरूँ ...
फिर भी मै खुश हूँ क़ि उतना मैं भी खाता हूँ जितना वो नेता और प्रोफेसर
वो खाकर बीमार पड़ जाता है और मैं खाकर जी जाता हूँ
वो डर-डर खुदा खरीदने की कोशिश करता है
मैं दर-दर खुदा पा जाता हूँ
वो अपनी दुनिया में ही हार जाता है मैं खुद को हार कर सब जीत जाता हूँ
और इस तरह मैं खुश से खुश-नशीब होता जाता हूँ .-ललित

Friday, November 25, 2011

इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है --चुप क्यों है इंसान ?

आदमी का वहशीपन रह-रह कर जागता है और हम फिर यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की हम सभ्य हुए भी कि नहीं ? उत्तराखंड के पौड़ी जिले में बून्खाल कालिका देवी मंदिर पर आज भैंसे और बकरों की बलि चढाने के लिए मनौती कर्ता उन्मादित हैं । जिस जानवर की बलि चढ़ाई जाती है उसे पहले खूब शराब पिलाई जाती है फिर उसे डंडे मारमार कर पूरे खेत में दौड़ाया जाता है इतना दौड़ाया जाता है कि उसकी जीभ लटक कर बाहर निकल आती है । जब थक जाता है तो फिर डंडे पड़ते हैं फिर से दौड़ता है और फिर कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदार उसकी गर्दन तलवार से काट देते हैं । इस तरह सैकड़ों बेजुबान जानवरों को तडपा-तडपा कर मार दिया जाता है और मान लिया जाता है कि देवी खुश हो गयी । पता नहीं देवी अपने बेजुबान बच्चों की हत्या पर कितना खुश होती होगी लेकिन इतना जरूर है कि हम कितना भी मोडर्न हो जाएँ वहशीपन का कीड़ा हमें रह-रह कर न जाने कब तक काटता रहेगा।-Lalit

Thursday, November 24, 2011

फिर से-

सुना है कुछ बँट रहा है अरे यह तो यू.पी.है । घर-आंगन का बंटवारा , जमीन जायदाद का बंटवारा .......दिलों का बंटवारा ......कुछ दिनों बाद हर जिले में एक सी.ऍम और एक सचिवालय की मांग हम भी करेंगें।

Monday, November 21, 2011

अजीज आज़ाद की रचना-

अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगेये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे...ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या हैजो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगेसिर्फ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना साराकौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगेजुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सूज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगेये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़रलोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगेकितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ‘अज़ीज़’ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे- अज़ीज़ आज़ाद

Saturday, November 12, 2011

मीडिया का सच-

पत्रकारिता उर्फ़ जर्नलिज्म बहुत से लोगों की चाहत है ,तमन्ना है. कुछ शौकिया करते हैं तो कुछ पत्रकारिता के लबादे में बड़े-बड़े खेल करते हैं । चाहे न्यूज़ पेपर/ चैनल के शिखर पर बैठे मालिक हों या हाकर से पत्रकार बन बैठे लेफ्ट -राईट पत्रकार । इस पत्रकारिता की दुनिया में कुछ ऐसे हैं जो लाखों का पॅकेज लेकर काम करते हैं हर महीने ५० हज़ार या ज्यादा वेतन पाते हैं तो वहीं कुछ या यूँ कहें तमाम सर्वहारा वर्ग वाले पत्रकार हैं जो दिन भर खबर जुटाने के बावजूद रोटी का जुगाड़ भी नहीं कर पाते । फिर कुछ मुड़ते हैं दर-दर विज्ञापन ढूँढने के लिए तो कुछ ख़बरों के खुलासे का भय दिखाकर नेताओं, अधिकारियों को ब्लैक मेल करने के इरादे से धमकाने की राह पर । इस सर्वहारा वर्ग के पत्रकारों पर न तो उस अखबार का आई कार्ड होता है जिसके लिए वे काम करते हैं और न ही उनकी लाइफ का बीमा । उनकी भेजी ख़बरें छपती तो जरूर हैं पर उनकी अपनी पहचान .......?? पता नहीं । जिसको अपनी ख़बरें छपवानी होती है वो उन्हें कुछ नजराना देता है और अगले दिन अखबार या टी वी पर उसकी खबर लग जाती है मीडिया की चकाचौंध में अँधेरे की एक लम्बी फेहरिस्त है । कभी किसी सर्वहारा पत्रकार से मिलकर देखिये इस सबके बावजूद उसकी ऐंठ बरक़रार मिलेगी बातें ऐसी क़ि जर्नलिज्म में पीएचडी कर रखी है. सबकी लड़ाई लड़ने वाले इन पत्रकारों के हक में खड़ा होने वाला कोई नहीं । दूसरों को हक दिलाने वाला खुद हक मांगे तो किससे और फिर देगा कौन ?

Friday, November 11, 2011

बाकी सब ठीक है

कहने के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव लड़ सकता है जो भारत का नागरिक है और पागल या दिवालिया नहीं है और निर्धारित उम्र पूरी कर चुका होहोरी ने चुनाव लड़ने की सोची है उसको नहीं पता की परधानी में खर्चा लाख,विधायकी में ३० लाख और सांसदी में ९० लाख आता हैपढ़े लिखे मतदाता जो भारत की तस्वीर बदलना चाहते हैं धूप में वोट देने नहीं जा सकते और जो वोट देने के लिए दिहाड़ी छोड़ कर जाते हैं वे वोट का सौदा करना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें पता है क़ि ये मौका साल में सिर्फ एक बार ही मिल सकता हैदेश में लगभग . करोड़ मतदाता जो सरकारी कर्मचारी हैं अपने वोट का इस्तेमाल नहीं कर पाते विशेषकर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में ड्यूटी के टेंशन में वोट देने का कर्त्तव्य निभाना मुश्किल हो जाता हैये . करोड़ ऐसे हैं जो चुनाव लड़ भी नहीं सकतेबाकी सब ठीक है

Wednesday, October 5, 2011

नेम सिंह रमन उर्फ़ रमन दा -


नेम सिंह रमन उर्फ़ रमन दा -
समय से आगे चलने वालों को कभी-कभी पागल समझ लिया जाता है । दुनियादारी के अनुकूल न होने की कभी-कभी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है । मनोवैज्ञानिक रामायण के रचयिता रमन दा (5/1/1932) के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ जब उनके क्रांतिकारी विचारों और कार्यों से परेशान उनके कांस्टेबल पिताजी ने उन्हें ताजमहल दिखाने के बहाने आगरा के पागलखाने में भरती करा दिया

जहाँ उन्होंने कागज कलम के अभाव में अपने कुरते की सफ़ेद बटन तोड़ कर फर्श पर ये कविता लिखी -

पागल समझा देश दिवाना,
दुग्ध पत्र लखि कलार के ढिंग मदिरा सब ने जाना
लोभी लोग मिली नहि माया छोड़ दिया अपनाना
साले ससुर पिता सब बोले भेजो पागलखाना
मां ने कहा मृत्यु दे भगवन लुट गया लाल खजाना
बेच रहा गुंजों में मुक्ता भील नहीं पहचाना
झूठा कह कर देश दीवाना पागल सबने माना
रमन हुआ तब झूठे जग में झूठा पागलखाना

पागलखाने के डाक्टरों ने जब यह सुना तो अवाक् रह गए रमन जी से पूछा की तुम पागल तो नहीं लगते आखिर बात क्या है रमन दा ने जवाब दिया की डाक्टर साहब दुनिया से एक इंच ऊपर उठ जाओ या एक इंच नीचे हो जाओ तो पागल ही कहे जाओगे ,दुनिया के साथ न चलना पागलपन है उस दिन के बाद रमन दा को पुअर क्लास से बदलकर सेकंड क्लास खाना मिलने लगा ।
दुनिया के साथ न चलने की जिद नौकरी में भी रमन दा के साथ रही इमानदारी कोई इनसे सीखे । एक महिला नक़ल की फीस के २ रुपये की बजाय 5 देकर चली गयी छः महीने तक उसे ढूंढते रहे और बाकी के तीन रुपये लौटा के ही चैन लिया ।
लेखपाल की नौकरी में गणित की ढेरों गुथ्थियाँ सुलझाईं, नए सूत्र बनाये जो अभी तक अप्रकाशित हैं । रमन दा की कालजयी कृति "मनोवैज्ञानिक रामायण" है .जिन्दगी के 79 बसंत देख चुके रमन दा आज भी साहित्य जगत में सक्रिय हैं उन्हें लोग इन्द्रधनुषी कवि के नाम से जानते हैं क्योंकि व्यंग्य से लेकर गंभीर आध्यात्म तक उन्होंने बहुत कुछ लिखा है ।
कुछ झलक-

दर्शन :-जिसकी फसल उगाना चाहो बीज वही बोना पड़ता है
अपना जिसे बनाना चाहो उसका खुद होना पड़ता है .

सबसे पहले अपने घर में देखिये बाद में पूरे शहर में देखिये
मां के बेटे साथ रहते हों जहाँ आप जा के दुनिया भर में देखिये ।
हास्य :-
सबसे अच्छा माँ का दूध
मीठा नहीं मिलाना पड़ता
गरम नहीं करवाना पड़ता
बिकने वाला माल नहीं
बिल्ली पिए मजाल नहीं ।

एक डाक्टर साहब थे फ़ौज में छुट्टी बिताई मौज में
जब घर से वापस जाने लगे पत्नी से यूँ फरमाने लगे
हम तुम रोजाना पत्र डालते रहें इस तरह परस्पर प्रेम पालते रहें
एक दिन पत्नी का पत्र नहीं आया डाक्टर बहुत घबराया
पड़ोसियों ने बताया आपकी गृहस्थी की बर्बादी हो गयी
डाक्टरनी और डाकिया की शादी हो गयी ।

रमन दा का लिखा बारहमासा उस दौर में ग्रामोफोन में बजता था जिसे ट्रेन में गा कर बहुत से खानाबदोश व गरीब अपनी जीविका चलाते थे । ये रेकॉर्डिंग हिंदुस्तान रेकर्स बनारस ने बनाई थी । रमन दा (इटावा ) का मोबाइल नंबर है 09219031545

Friday, September 30, 2011

Vedant -Free style

हम हैं ताना हम हैं बाना।
हमीं चदरिया¸ हमीं जुलाहा¸ हमीं गजी¸ हम थाना।

नाद हमीं¸ अनुनाद हमीं¸ निश्शब्द हमीं¸ गंभीरा
अंधकार हम¸ चांद–सूरज हम¸ हम कान्हां¸ हम मीरा।
हमीं अकेले¸ हमीं दुकेले¸ हम चुग्गा¸ हम दाना।

मंदिर–मस्जिद¸ हम गुरुद्वारा¸ हम मठ¸ हम बैरागी
हमीं पुजारी¸ हमीं देवता¸ हम कीर्तन¸ हम रागी।
आखत–रोली¸ अलख–भभूती¸ रूप घरें हम नाना।

मूल–फूल हम¸ रुत बादल हम¸ हम माटी¸ हम पानी
हमीं यहूदी–शेख–बरहमन¸ हरिजन हम ख्रिस्तानी।
पीर–अघोरी¸ सिद्ध औलिया¸ हमीं पेट¸ हम खाना।

नाम–पता ना ठौर–ठिकाना¸ जात–धरम ना कोई
मुलक–खलक¸ राजा–परजा हम¸ हम बेलन¸ हम लोई।
हम ही दुलहा¸ हमीं बराती¸ हम फूंका¸ हम छाना।

हम हैं ताना¸ हम हैं बाना।
हमीं चदरिया¸ हमीं जुलाहा¸ हमीं गजी¸ हम थाना।

Thursday, September 29, 2011

कैलाश गौतम इलाहबाद की रचना -

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ-सौ नीम हक़ीम देखकर
गिरवी राम-रहीम देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
जला हुआ खलिहान देखकर
नेता का दालान देखकर
मुस्काता शैतान देखकर
घिघियाता इंसान देखकर
कहीं नहीं ईमान देखकर
बोझ हुआ मेहमान देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए धनी का रंग देखकर
रंग हुआ बदरंग देखकर
बातचीत का ढंग देखकर
कुएँ-कुएँ में भंग देखकर
झूठी शान उमंग देखकर
पुलिस चोर के संग देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
बिना टिकट बारात देखकर
टाट देखकर भात देखकर
वही ढाक के पात देखकर
पोखर में नवजात देखकर
पड़ी पेट पर लात देखकर
मैं अपनी औकात देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
नए नए हथियार देखकर
लहू-लहू त्योहार देखकर
झूठ की जै-जैकार देखकर
सच पर पड़ती मार देखकर
भगतिन का शृंगार देखकर
गिरी व्यास की लार देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।

गाँव गया था
गाँव से भागा ।
मुठ्ठी में कानून देखकर
किचकिच दोनों जून देखकर
सिर पर चढ़ा ज़ुनून देखकर
गंजे को नाख़ून देखकर
उज़बक अफ़लातून देखकर
पंडित का सैलून देखकर
गाँव गया था
गाँव से भागा ।
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Sunday, September 11, 2011

वरिष्ठ साहित्यकार प्रेमबाबू 'प्रेम' का लोकप्रिय गीत-

हम ऐसे करम कर रहे हैं ,धरम की झुक रही ध्वजा।
फिर कोई भरत लेके आओ, टूट रही दाहिनी भुजा ।
आँखों में कैसा ये मोतिया ,कबिरा की चुनर खो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥

ऊषा ने जाने क्या पी लिया, भटक रही भोर की किरण।
साँसों की साधना थकी थकी , भूल गए चौकड़ी हिरन।
राम जाने कौन सी घड़ी है , सुधियों की साध खो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥१॥

रिश्तों की पगडंडी छोड़कर, नवल किरण दौड़ने लगी।
आँचल के बचपन की सिहरने,ममता से जा रहीं ठगी ।
उन्मादी अर्थ के नगर में व्यर्थ की नजीर बो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥२॥

विधि ने जो सर्जना नहीं की,हमने वो काम कर लिया ।
मेले में सोनजुही बो कर , संयम नीलाम कर दिया ।
सर्जनाओं की असीम वृद्धि से वर्जना ही आम हो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥३॥

निर्णायक आसन पे बैठ के भ्रमित हुई कलम की मती ।
जाने वह कौन सा प्रभाव है हेम हिरन चाहते जती ।
'प्रेम' ने तो जागरण किये मगर मेधा चुपचाप सो गयी।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥४॥

अंधियारी की काली चूनर उजियारी ओढने लगी।
मौसम के मन मिजाज़ फीके बदरी घर छोड़ने लगी।
पारिजात इस क़दर गिरे हैं धरती बदनाम हो गयी ।
सीता शमशान पे खडी है ,गीता गुमनाम हो गयी ॥५॥ 09412880006

Friday, September 9, 2011

कवि मनोज की कलम से

मुसीबत में भी जीने का बहाना ढूंढ लेते हैं
कड़कती बिजलियों में आशियाना ढूंढ लेते हैं
तजुर्बा जिन्दगी का सीखना है उन परिंदों से
जो कूड़े में पड़ा गेहूं का दाना ढूंढ लेते हैं । -कुमार मनोज 9410058570

Wednesday, September 7, 2011

फिर सोचो

इन बूढ़े और थके हुए नेताओं व नौकरशाहों से अब और ज्यादा उम्मीद करना शायद बेईमानी होगी । राजनीति में अच्छे लोगों का आना बहुत जरूरी है साथ ही नौकरशाही में भी ऐसे लोगों की जरूरत है जो तेजी से कुछ बेहतर कर सकें । देश की दिशा और दशा तो यही निर्धारित करते हैं । युवा पीढी से निवेदन है क़ि विदेश भागने और मल्टी नेशनल कम्पनी में जाने के पहले एक बार फिर से सोंचें । परेशानियाँ तो आयेंगी ही लेकिन कब तक उनसे डरते रहेंगें ?

निर्झर जी की कलम से

निर्झर जी की कलम से -
नारायण दास निर्झर जी {शिकोहाबाद (09758945957) }
की कुछ अनमोल पंक्तियाँ -

कुटी में संत की महलों सा परकोटा नहीं होता
यहाँ पर शाह सूफी में बड़ा छोटा नहीं होता
ये कैसे संत हैं जिनसे न माया छूट पाती है
जो सच्चे संत हैं उन पर तवा लोटा नहीं होता .

Friday, September 2, 2011

रंग जी का सन्देश

जैसा मोबाइल पर सन्देश मिला -

या तो कह दो क़ि आशिक़ी कम है
या चले आओ जिन्दगी कम है ।
- दीना नाथ द्विवेदी "रंग"
प्रसार प्रशिक्षण अधिकारी गोंडा उप्र
09935094830

Saturday, August 27, 2011

परिणाम कुछ है है ,चाहे जो हो अन्ना के अनशन से एक बार फिर जनता की जीत जरूर हुईhai । यह क्या कम बड़ी बात है क़ि भ्रस्टाचार में आकंठ डूबे रहने वाले लोग स्वयं इसके खिलाफ कानून बनाने जा रहे हैंइसका असर बाकी भ्रष्ट राष्ट्रों पर भी जरूर पड़ेगा वहां क़ि जनता भी जाग गयी है .जय हो .

Friday, August 26, 2011

दीनानाथ रंग जी का सन्देश

दुश्मनों से प्यार होता जायेगा ...
दोस्तों को आजमाते रहिये
-दीनानाथ रंग
प्रसार प्रशिक्षण अधिकारी गोंडा
09935094830
जल रहा है देश ये बहला रही है कौम को
किस तरह अश्लील है संसद की भाषा देखिये

Tuesday, August 23, 2011

मित्रों पता चला है क़ि कुटिल सिब्बल ने आईटी एक्सपर्ट्स इस बात के लिए लगाये हैं क़ि अन्ना के आन्दोलन को facebook etc.पर बदनाम करो इसके लिए उन्हें कुछ मेहनताना भी मिल रहा है । मै उन गद्दारों से माफ़ी मांगते हुए कहना चाहता हूँ -
श्वान के सिर हों चरण तो चाटता है
भौंक ले क्या सिंह को वह डांट ता है
रोटियां खायीं क़ि साहस खा चुका है
प्राणी है पर प्राण से वह जा चूका है - -(माखन लाल चतुर्वेदी )

Saturday, August 20, 2011


endangered bald neck vultures seen in a river near chiriyapur Haridwar on 17/08/2011 .Dr.Rajeev chauhan naturalist saying that they are reviving again .They were endangered due to use of Diclofenac medicine in veterinary science.

endangered bald neck vultures seen in a river near chiriyapur Haridwar on 17/08/2011 .Dr.Rajeev chauhan naturalist saying that they are reviving again .They were endangered due to use of Diclofenac medicine in veterinary science.

Saturday, July 23, 2011

जागो फिर एक बार

एक बात मैं भी कहना चाहता हूँ कि लोगों को इस बात से परेशानी क्यों होती है कि क्रांति का बिगुल कौन फूंक रहा है ? परेशान तो सभी हैं भ्रष्टाचार और काले धन से . यदि किसी का नेतृत्व पसंद नहीं तो आपको भी आन्दोलन करने से किसी ने रोका नहीं है आप भी करिए लफ्फाजी से क्या होगा ? लेकिन इतना जरूर है कि हमारा मकसद एक ही है कि भ्रष्टाचार पर करारा हमला हो चाहे अन्ना करें ,रामदेव करें या कोई और ये आप भी हो सकते हैं .हमेशा मध्यवर्ग ही क्रांति में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेता है जिसको पेट भरने के लिए दिन भर संघर्ष करना पड़ रहा है वो अपनी दिहाड़ी छोड़ कर धरना देने नहीं आएगा लेकिन उसका भी समर्थन आपको मिल रहा है वो भी चाहता है कि देश महान बने भ्रष्टाचार मुक्त बने .आखिर हम भी तो संकल्प ले सकते हैं कि हमारा काम हो चाहे न हो हम रिश्वत नहीं देंगे . ये एक लम्बी लड़ाई है आपसी मतभेद से हम कमजोर हो सकते हैं .

Tuesday, July 5, 2011

सफ़र में धूप तो होगी

निदा फाजली की एक बेहतरीन रचना -

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आपको खुद ही बदल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम संभल सको तो चलो

कहीं नहीं कोई सूरज धुवां धुंवा है फिजा
खुद अपने आपसे बाहर निकल सको तो चलो

यही है जिन्दगी कुछ ख्वाब चंद उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो। - निदा फाजली

Wednesday, June 15, 2011

इस तेज़ धुप में-

संजय मालवीय की एक रचना गर्मी और भ्रष्टाचार पर-
कुल शहर बदहवास है इस तेज़ धूप में
हर शख्स जिन्दा लाश है इस तेज़ धूप में ..
हारे थके मुसाफिरों आवाज़ उन्हें दो
जल की जिन्हें तलाश है इस तेज़ धूप में ..
दुनिया के अमनो-चैन के दुश्मन हैं वही तो
सब छाँव जिनके पास है इस तेज़ धूप में ..
नंगी हर एक शाख हर एक फूल है यतीम
फिर भी सुखी पलाश है इस तेज़ धूप में ..
वो सिर्फ तेरा ध्यान बंटाने के लिए है
जितना भी जो प्रकाश है इस तेज़ धूप में ..
पानी सब अपना पी गयी खुद हर कोई नदी
कैसी अजीब प्यास है इस तेज़ धूप में ..
बीतेगी हाँ बीतेगी ये दुःख की घड़ी जरूर
संजय तू क्यों निराश है इस तेज़ धूप में ..।-
-संजय मालवीय ( पिछड़ा वर्ग कल्याण अधिकारी सीतापुरउत्तर प्रदेश ०९८३८५३६६५१)

बिखरा हुआ सा कुछ

अपना गम ले के कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीजों को सजाया जाये
घर से बहुत दूर है मस्जिद तो चलो यूँ कर लें
किसी रोते हुए बच्चों को हंसाया जाये - निदा फाजली

Sunday, June 12, 2011

देवल आशीष की एक रचना

देवल आशीष की एक रचना-
(bhrashtachar के खिलाफ़ बड़ी लड़ाई के लिए तैयार होना होगा )
मोहब्बत के शहर का आबोदाना छोड़ देंगे क्या
जुदा होने के डर से दिल लगाना छोड़ देंगें क्या ?
जरा सा वक्त क्या बदला क़ि चेहरों पर उदासी है
ग़मों से खौफ खाकर मुस्कराना छोड़ देंगें क्या?
बला से इनके तूफां हो के बारिश हो सुनामी हो
घरौंदे रेत पर बच्चे बनाना छोड़ देंगें क्या ?

Saturday, June 4, 2011

छोटे- छोटे देवता

छोटे - छोटे देवता -
हम यह तो आरोप लगते हैं क़ि इस देश में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा किन्तु हम क्या कर रहे हैं देश और समाज के लिए ये हम कभी देखना नहीं चाहते । हम सिर्फ बोलते हैं बोलते हैं और बोलते हैं । आइये एक नवयुवक के बारे में आपको बताते हैं -

एक २०-२२ साल का नवयुवक अनिल मुझे हिन्दू हॉस्टल इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मिला। मैंने पूछा तुम आगे क्या करना चाहोगे? उसने जवाब दिया "इस देश और समाज के लिए कुछ नया करना चाहता हूँ । जैसे ही मैं अपने रोज़गार क़ि तलाश पूरी कर लूँगा मैं अपने मिशन में जुट जाऊँगा ।" उसने अपनी लिखी कहानियां और अन्य रचनाएँ भी मुझे दिखाईं । बीच बीच में कभी- कभी उसका फोन आता रहता । अनिल ने विपस्याना की साधना भी की है. एक दिन अनिल ने बताया क़ि भैया मैंने इलाहाबाद इंजिनीयरिंग कॉलेज के निकट संपेरों की बस्ती में जाकर उनके बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया है । इस मलिन बस्ती में रहने वाले संपेरों की एक अपनी दुनिया है । सांप दिखाना उस से पैसा कमाना परिवार पालना यही उनका धंधा है इस मलिन बस्ती में सुविधाओं का आभाव है .ये अपने बच्चों को धनाभाव तथा जागरूकता की कमी से स्कूल नहीं भेजते । बच्चे साँपों के साथ खिलौनों की तरह खेलते हैं । अनिल ने जब यहाँ पढ़ाना शुरू किया तो लोगों ने रूचि नहीं ली अनिल और उनके साथियों के लगातार समझाने से कुछ बच्चे उनकी पाठशाला में आने लगे जो उसी बस्ती में चलायी गयी। कभी- कभी ये बच्चे अपने बस्तों में साँपों को भरकर ले आते थे पहले तो अनिल घबरा जाते थे धीरे-धीरे उनकी आदत पढ़ गयी । संपेरों को विश्वास नहीं था क़ि उनके बच्चे पढ़ लिख कर किसी लायक बन सकेंगे ।धीरे-धीरे पूरी bastee के बच्चे वहां aane लगे . अनिल नाम का यह फ़रिश्ता उन मासूम आँखों में एक चमक जगाने का काम कर रहा है। धन की कमी जज्बे के आगे हार रही है। अनिल और उनके साथियों का कारवां लगातार आगे बढ़ रहा है । यद्यपि अनिल आज भी रोज़गार के लिए संघर्ष कर रहे हैं फिर भी संपेरों की इस बस्ती में सैकड़ों हाथ उनके लिए रोज़ दुआ में उठ जाते हैं । (अनिल का नम्बर है -09452158703)।

Wednesday, June 1, 2011

हालात काबू में हैं

हुए जख्मी मरे कुछ और हैं हालात काबू में
क़ि लोगों ये है कैसा शोर हैं हालात काबू में
सियासत का करिश्मा है हवा जहरीली चलती है
है दंगों का ये चौथा दौर हैं हालात काबू में । - अज्ञात

Saturday, May 28, 2011

फ़रिश्ता

पोंछ कर आँखों से आंसू मुस्कराहट दे गया
गमजदा सूनी गली को एक आहट दे गया
वो फ़रिश्ते की तरह पूजा गया संसार में
जो अंधेरी बस्तियों को जगमगाहट दे गया ।- मनीष 'मन' इटावा 07599283569

Wednesday, May 25, 2011

एक अवधी रचना रफीक सादानी फैजाबाद की -
"बरखा मा विद्यालय ढहि गा वही के नीचे टीचर रहि गा
नहर के खुलते दुई पुल बहि गा तोहरेन पूत कै ठेकेदारी जियो बहादुर खद्दर धारी ।"
(during rain school collapsed, teacher died below that and while start of canal two bridges washed away due to flow of canal ,Dear politician live long these all were made under contractorship of your son)

Monday, May 23, 2011

बच्चा बोला देख कर मस्जिद आलीशान
अल्ला तेरे एक को इतना बड़ा मकान
अंदर मूरत पर चढ़े घी पूड़ी पकवान
मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर मांगे दान -निदा फाजली

Monday, May 16, 2011

मेरा बचपन

कुछ किस्से और कहानी थे उनमे राजा और रानी थे


वो प्यारा मौसम बीत गया जिसके आंगन में पानी थे


अंदाज़ जुदा अंदाजों का बचपन धूलों में लिपटा था


घर से भी बड़े घरौंदे थे छुटपन की अमिट निशानी थे


सेंठे की कलम सलोनी सी तख्ती पर सरपट चलती थी


दावातें टूटा करती थीं करतब अपने तूफानी थे


कुछ उल्टा सीधा करते थे बुनते थे कई विचार नए


कुछ जोड़ा तोडा करते थे वो नुस्खे क्या नादानी थे


बाबा के कन्धों पर चढ़कर अहसास निराला होता था


दादी के पीछे छुपते थे जब भी करते मनमानी थे


चिड़िया के पंखों को रंगते तितली को पकड़ा करते थे


चंदा संग खाते दूध भात वो जज्बे क्या अरमानी थे


मांगे अपनी मनवा लेते जब अपने पर आ जाते थे


पापा से थोडा डरते थे मम्मी के संग शैतानी थे


वो किस्से हुए कहीं गुम से लगता है हम हो गए बड़े


उस किस्से और कहानी के कुछ हिस्से यही जुबानी थे ।


- डॉ0 ललित नारायण मिश्र

bal shram

काश जो करते कलम की नोक पैनी
उन करों में है हथोडा और छेनी
sheesh पर अपने गरीबी ढो रहे हैं
भोजनालय में पतीली धो रहे हैं
जो खिलौना चाँद सा मांगे कहाँ वो कृष्ण पाऊँ
रो रहा बचपन मै कैसे मुस्कराऊँ ?-dr rajeev raj 9412880006

Saturday, May 14, 2011

सियासी लोग

नदी के घाट पर यदि कुछ सियासी लोग बस जाएँ
तो प्यासे होंठ एक - एक बूँद पानी को तरस जाएँ
गनीमत है क़ि मौसम पर हुकूमत चल नहीं सकती
नहीं तो सारे बादल इनके खेतों में बरस जाएँ .--जमुना प्रसाद उपाध्याय (फैजाबाद )

Thursday, May 12, 2011

खुशी भीतर मगर खुशियों का मंज़र ढूंढते हैं हम
किताबों में खुदा ईश्वर पैगम्बर ढूंढते हैं हम
हमारी बेयकीनी का नतीजा और क्या होगा
समंदर में खड़े होकर समंदर ढूंढते हैं हम.-कुमार मनोज 09410058570

Tuesday, May 10, 2011

हम जहाँ से चले थे वहीं आ गए -

आज के हालात पर -
ऐसा मौसम है हम बोल सकते नहीं
बन विरोधी भी मुंह खोल सकते नहीं
फ़ैल फिर से है शोषण का कोहरा रहा
जैसे इतिहास अपने को दोहरा रहा
प्रष्ट जो खुल रहे सनसनी खेज हैं
तब थे गोरे तो अब काले अंग्रेज हैं
यानी फिर से गुलामी के घन छा गए
हम जहाँ से चले थे वहीं आ गए

सोच कर हम चले थे सबेरा हुआ
किन्तु कुछ पग चले तम घनेरा हुआ
रौशनी झोपडी से बहुत दूर है
वह अंधेरों में जीने को मजबूर है
जिनके हाथों में सारे ही अधिकार हैं
सूर्य के क़त्ल के वे गुनहगार हैं
सच तो ये है वही रश्मिरथ पा गए
हम जहाँ से चले थे वहीं आ गए - कवि कमलेश शर्मा 9412660893
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।

फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।-dinkarji

Sunday, April 10, 2011

bhrashtachar babua dheere-dheere jayee

भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई .
रोई कै जाई गाय कै जाई.
बड़े बड़े सहिबन कै निंदिया उडाई.
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई.
लाठी से जाई डंडा से जाई
अन्ना के धरना से जाई.
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई .
संसद से जाई मनसद से जाई
बबुवन कै चैन उड़ाई
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई.
घरवा से जाई दुवरवा से जाई
घूरे मा जा के समाई .
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई .
मनुवा से जाई जेहन्वा से जाई
जरि से उछिंद होई जाई
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई
देसवा से जाई परदेसवा से जाई,
जा के जहन्नुम समाई.
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई .
तंत्र से जाई मंत्र से जाई सँचवा कै बाजी दुहाई .
भ्रष्टाचार बबुआ धीरे धीरे जाई .
-सत्यमेव जयते . -Lalit and ratnesh

Wednesday, March 2, 2011

Indian rail and consumer right

Let us talk about general coach of Indian rail-
you pay full money for travelling but often you will not get seat and u may experience too much pain Why?
Is it not your right to get seat and comfortable journey after full payment of fare?
Is indian railway not comes under service provider?
Will you tolerate if a hotel do not provide u a room after full payment?
or
a shopkeeper provide you a bad quality product or service?

If no Then why we tolerate voilation of our consumer right in railway? Bharteey Railway ne Paisa liya hai to seat kaun dega ....America wale?
Raise hands for ur right of service whether in railway or elsewhere where u pay for service.-Satyamevjayate

Sunday, January 23, 2011

join hands against corruption

Dear sir/Madam,

Satyamevjayate

Our first aim was RTI(Right to information) to make corruption free India .Our next target is to get Right to implementation(RTI) because Right To Information do not ensure remedy.In right to Implementation our target is to get right of public to get good quality work/action and lawful implementation within a time framework from government agencies and politicians.In this way public will get remedy if neded.This will be next battle to make corruption free India after right to information.
( mishralnm@yahoo.com)

yours'

Dr.Lalit Narayan Mishra

First national RTI award winner(best PIO)2009
Deputy Collector (SDM)Uttarakhand