Saturday, August 21, 2010

bagawat

यही इलज़ाम है सर पर क़ि मै तकरार करता हूँ
तुम्हारे हक़ हुकूकों के लिए हर बार करता हूँ
सिलसिला इस तरह जारी रहे अपनी बगावत का
मै बागी हूँ बगावत धर्म को स्वीकार करता हूँ - ललित

ardaas

गीता कुरान बांचें कैसे मजहब ही लड़ते जाते हैं
मंदिर मस्जिद की बात नहीं मुल्ला पंडित भिड़ जाते हैं
दस्तूर अजब इस महफ़िल का फनकार यहाँ लुट जाते हैं
ईंटों क़ि सिर्फ हवेली है भुतहे बंगले कहलाते हैं
हम दर्द सहेजे हैं जिनका हमदर्द वही बन जाते हैं
पोथी की चन्द लकीरों में भगवन सिमटते जाते हैं
खुदगर्ज यहाँ कुछ ऐसे हैं नीलाम वतन कर जाते हैं
हाथों पर हाथ धरे बैठे जिन्दा मुर्दे मिल जाते हैं
दिलकश आवाज परिंदों की गुलजार चमन कर जाते हैं
मंदिर मस्जिद दोनों रब के अरदास यही फरमाते हैं
-ललित

Monday, August 16, 2010

ghar aur jeevan

अरमानों की धुप उतरती आँगन में
दालानों का दर्द कबीरा गाता है
पोथी फटी -फटी सी ढाई आखर की
कागा बैठ मुंडेरी पर इतराता है
इस देहरी की ये ही राम कहानी है
चौखट चौबारे से गहरा नाता है
बंधन का अनुपम सौंदर्य कंगूरे में
ओसारे का तन मन भीगा जाता है
चूती छत और टूटी छप्पर छानी में
दर्शन जीवन का गहराता जाता है
आना जाना यहाँ एक परिपाटी है
इस जग से जन्मों -जन्मों का नाता है
उजियारे की चूनर थामे हाथों में
बस्ती का इतिहास फकीरा गाता है-ललित

Monday, August 9, 2010

भला एहसास हो हम में चरागों को जलाने का
फ़साने इस हकीकत में बदल जाते तो अच्छाथा
सियासी नफरती बातें गिरातींआशियानों को
किसी मजलूम की खातिर मकाँ बनते तो अच्छा था -ललित