Saturday, August 21, 2010

ardaas

गीता कुरान बांचें कैसे मजहब ही लड़ते जाते हैं
मंदिर मस्जिद की बात नहीं मुल्ला पंडित भिड़ जाते हैं
दस्तूर अजब इस महफ़िल का फनकार यहाँ लुट जाते हैं
ईंटों क़ि सिर्फ हवेली है भुतहे बंगले कहलाते हैं
हम दर्द सहेजे हैं जिनका हमदर्द वही बन जाते हैं
पोथी की चन्द लकीरों में भगवन सिमटते जाते हैं
खुदगर्ज यहाँ कुछ ऐसे हैं नीलाम वतन कर जाते हैं
हाथों पर हाथ धरे बैठे जिन्दा मुर्दे मिल जाते हैं
दिलकश आवाज परिंदों की गुलजार चमन कर जाते हैं
मंदिर मस्जिद दोनों रब के अरदास यही फरमाते हैं
-ललित

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