Saturday, January 28, 2012

वसंत

वसंत पंचमी की शुभकामनाएं -

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार-बार
प्राची पशचिम भू नभ अपार
सब पूंछ रहे हैं दिग -दिगंत
वीरों का कैसा हो बसंत
वीरों का कैसा हो बसंत?- "सुभद्रा कुमारी चौहान"

Friday, January 27, 2012

आवाहन

घिरने लगीं घटायें छाने लगा कुहासा, कुचली हुई शिखा से आने लगा धुंवा सा
कोई मुझे बता दे क्या आज हो रहा है, मुख को छिपा तिमिर में क्यों तेज रो रहा है
निस्तेज है हिमालय गंगा डरी हुई है, निस्तब्धता निशा की दिल में भरी हुई है
उन्माद बेकली का उत्थान मांगता हूँ,विस्फोट मांगता हूँ तूफ़ान मांगता हूँ -रामधारी सिंह "दिनकर जी"

Sunday, January 15, 2012

नेति-नेति

मै क्या हूँ -मै क्या करूँ?
मै प्रोफ़ेसर नहीं क़ि गुटबाजी करूँ
मै ब्रोकर भी नहीं क़ि सट्टे बाज़ी करूँ
मै पत्रकार भी नहीं क़ि ब्रेकिंग न्यूज़ प्रसारित करूँ
मै इंजीनियर भी नहीं क़ि किसी बिल्डिंग के नीचे तुम्हे दफ़न कर दूँ
मै क्या हूँ -मै क्या करूँ?

मै डाक्टर नहीं क़ि तुम्हारी किडनी बेच डालूं
मै मास्टर नहीं क़ि टयूसन न करने वालों को फेल कर डालूं
मै एम बी ऐ भी नहीं क़ि टाई लगा कर साबुन बेच डालूं
और मै बिल्डर भी नहीं जो तुम्हारी खेती उजाड़ डालूं
मै क्या हूँ -मै क्या करूँ?

मै नेता नहीं जो तुमसे कमीशन वसूलूं
मै अभिनेता नहीं जो तुम्हारे जज्बातों से खेलूं
मै गुंडा भी नहीं जो तुमसे हफ्ता वसूलूं
मै व्यापारी भी नहीं जो तुम्हे मिलावटी ढंग से तौलूं
मै क्या हूँ -मै क्या करूँ?

मै वकील नहीं जो तुम्हे कचेहरी में यमलोक दिखा सकूँ
मै अधिकारी भी नहीं जो तुम्हारी चमड़ी नोच सकूँ
मै कर्मचारी भी नहीं जो घूस के लिए तुम्हारी फाइल दबा सकूँ
मै कथा वाचक भी नहीं जो चैनलों पर तुम्हे बरगला सकूँ
मै विद्वान् भी नहीं क़ि हर बात पर अकड़ सकूँ
मै क्या हूँ -मै क्या करूँ?

सुना है मुझे तुम आम आदमी कहते हो
जिसे न अपना फेस पता है न अपनी बुक
तुम्हारी फेसबुकिया बेचैनी को जानकर तसल्ली हुई
सोचता हूँ उसे सत्तू में डालकर चटनी के साथ खाऊंगा
सदियों की भूख मिटाऊंगा -
और धन्य हो जाऊंगा -"ललित "

Sunday, January 8, 2012

कैलाश गौतम की रचना -कचहरी -

भले डांट घर में तू बीबी की खाना
भले जैसे -तैसे गिरस्ती चलाना
भले जा के जंगल में धूनी रमाना
मगर मेरे बेटे कचहरी न जाना
कचहरी न जाना
कचहरी न जाना

कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
अहलमद से भी कोरी यारी नहीं है
तिवारी था पहले तिवारी नहीं है

कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
पुलिस के लिए छोटी साली है बेटे
यहाँ पैरवी अब दलाली है बेटे

कचहरी ही गुंडों की खेती है बेटे
यही जिन्दगी उनको देती है बेटे
खुले आम कातिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चुमतें है

कचहरी में सच की बड़ी दुर्दशा है
भला आदमी किस तरह से फंसा है
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे

कचहरी का मारा कचहरी में भागे
कचहरी में सोये कचहरी में जागे
मर जी रहा है गवाही में ऐसे
है तांबे का हंडा सुराही में जैसे

लगाते-बुझाते सिखाते मिलेंगे
हथेली पे सरसों उगाते मिलेंगे
कचहरी तो बेवा का तन देखती है
कहाँ से खुलेगा बटन देखती है

कचहरी शरीफों की खातिर नहीं है
उसी की कसम लो जो हाज़िर नहीं है
है बासी मुहं घर से बुलाती कचहरी
बुलाकर के दिन भर रुलाती कचहरी

मुकदमें की फाइल दबाती कचहरी
हमेशा नया गुल खिलाती कचहरी
कचहरी का पानी जहर से भरा है
कचहरी के नल पर मुवक्किल मरा है

मुकदमा बहुत पैसा खाता है बेटे
मेरे जैसा कैसे निभाता है बेटे
दलालों नें घेरा सुझाया -बुझाया
वकीलों नें हाकिम से सटकर दिखाया

धनुष हो गया हूँ मैं टूटा नहीं हूँ
मैं मुट्ठी हूँ केवल अंगूंठा नहीं हूँ
नहीं कर सका मैं मुकदमें का सौदा
जहाँ था करौदा वहीं है करौदा

कचहरी का पानी कचहरी का दाना
तुम्हे लग न जाये तू बचना बचाना
भले और कोई मुसीबत बुलाना
कचहरी की नौबत कभी घर न लाना

कभी भूल कर भी न आँखें उठाना
न आँखें उठाना न गर्दन फसाना
जहाँ पांडवों को नरक है कचहरी
वहीं कौरवों को सरग है कचहरी ||
"कैलाश गौतम"