Thursday, December 22, 2016

किसान दिवस के बहाने -

23 दिसम्बर किसान दिवस है  इस  अवसर पर आइये कम से कम एक दिन किसान की बात कर ली जाय वही किसान  जो मीडिया और सोशल मीडिया दोनों में न जाने किस हाशिये पर पहुंच गया है।  किसान को  इस बात की चिंता भी नही है कि शासन या सत्ता उसके बारे में कितना  चिंतित हैं बस उसका संघर्ष ऐसा है जो रोज रोज का है चाहे वह बाढ़ हो या सूखा या फिर कीड़ों और रोगों का आक्रमण । फसल बच गई तो खुश न बची तो पेट भरने का संघर्ष तो  उसकी नियति है ही . ये पेट भरने का संघर्ष जीवन का संघर्ष भी कहा जा सकता है ।  हिंदुस्तान में लगभग 58 % लोग  खेती पर निर्भर हैं ये लोग  किसान हैं या उनके परिजन या खेतिहर श्रमिक जिनकी जिंदगी खेती के भरोसे ही चलती है। आज भी खेती एक बहुत बड़ी आबादी को  रोजगार देती है। खेती की कम उपज का बहुत बड़ा कारण सिंचाई के साधनों का आभाव है। खेती का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी असिंचित है आंकड़ों के अनुसार हिंदुस्तान में लगभग 36 % खेती ही सिंचित है विडम्बना यह है कि आज़ादी के बाद ये आंकड़ा बहुत ज्यादा बदला नही जा सका । देश में खेती योग्य जमीन की उपलब्धता लगातार घट रही है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति  जमीन की उपलब्धता 2013 में मात्र  0.12  है. ही रह गयी है जो 1961 में 0.34 है. हुआ करती थी ।  कहने का मतलब यह है कि जनसंख्या बढ़ी किन्तु खेती योग्य जमीन कम होती गयी यदि यही गति रही तो इसका दुष्परिणाम ये होगा कि भविष्य में  खाद्यान्न सहित दलहन व् तिलहन आदि के लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर हो जाना पड़ेगा।  अब प्रश्न यह है कि क्या भारत का किसान इससे निजात दिलवा सकता है तो उत्तर हाँ में है बशर्ते उसे देश की नीति में प्राथमिकता पर लेना होगा जिसे हमने हाशिये पर छोड़ रखा है  उसे सिंचाई के साधन देने होंगे अच्छे बीज, उन्नत तकनीक देने होंगे ,जंगली जानवरों  से सुरक्षा प्रदान करनी होगी और उसके उत्पादों को उपभोक्ता द्वारा दिए जा रहे मूल्य के आस -पास पहुंचा देना होगा। हम इस बात पे खुश हो सकते हैं कि हिंदुस्तान की जीडीपी में उद्योग का और सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ रहा है और हम विकसित देश की तरफ बढ़ रहे हैं लेकिन क्या ये सब खेती की कीमत पर हमें  मंजूर है ? खेती का हिंदुस्तान की जीडीपी में हिस्सा पिछले छह दशक में लगभग 80 % घटा है और वर्तमान में कुल जीडीपी का  13 .9% ही रह गया है।  एक महत्वपूर्ण पहलू और है कि हिंदुस्तान का किसान जितना उगाता  है उसका लगभग 40 % नष्ट हो जाता है यू एन डी पी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में उतना गेहूँ नष्ट हो जाता है जितना ऑस्ट्रेलिया में पैदा होता है कुल मिलाकर खेती की उपज का एक लाख करोड़ रूपये का नुकसान प्रति वर्ष इस देश में हो जाता है जो बहुत आसानी से गोदाम ,प्रसंस्करण केंद्र आदि बना कर रोका जा सकता है . इक्कीसवीं सदी में हिंदुस्तान की खेती ऐसे दौर से  गुजर रही है जहां एक तरफ दाल बाहर से आयात की जा रही है तो वहीं मोटे अनाजों की किस्में लुप्त होती जा रही हैं , उपभोक्ताओं को अपने खाद्य तेल में मिलावट  का सन्देह है वहीं किसान का तिलहन देश में कोई नही पूछ रहा ।  किसानों को अपनी उपज औने पौने दामों पर बेचनी पड़ रही है आज भी  उपभोक्ता जो मूल्य दे कर अनाज सब्जी फल आदि खरीद रहा है उसका लगभग आधे से भी कम किसान को मिल पा रहा है बाकी बिचौलियों की और मोटे सेठों की जेब में जा रहा है।  उदाहरण के लिए जो चावल 50 रूपये प्रति किलो  में उपभोक्ताओं को बेचा जा रहा है वह लगभग 18-20 रूपये प्रति किलो में लोकल आढ़तिये द्वारा किसान से खरीदा गया होता है यही हाल दाल तिलहन ,सब्जी और फलों का भी है।  उपभोक्ता और किसान का सीधा लिंक जब तक नही होगा ये समस्या बनी रहेगी। खेती के लिए  बड़े बड़े कर्ज और उन्हें खेती से न चुका पाना ये किसान की नियति हो गयी है।  सूखा ,बाढ़ ,रोग, कीड़े और जंगली जानवर सब किसान को ही झेलने हैं यही कारण है कि किसान आत्महत्या के लिए विवश हो रहा है।  किसानों की बीमा की प्रक्रिया और उनमें की जाने वाली औपचारिकताएं इतनी ज्यादा है कि बहुत से किसान इससे दूर भागते हैं । आज जरूरत इस बात की है कि खेती और किसानों के लिए सहज और सुगम नीति बनाई जाय । खेती से जुड़े उद्योग उन्ही निकट वर्ती क्षेत्रों में लगाए जांय जहां जो फसल पैदा हो रही है।  जब तक खेती और किसान देश की शीर्ष प्राथमिकता में नही आते न  देश का उद्धार सम्भव है न ही किसान का ।  -डॉ ललित नारायण मिश्र 

Wednesday, December 21, 2016

Online Voting-

# Online Voting कैशलेस इंडिया और डिजिटल इंडिया के साथ ऑनलाइन वोटिंग की बात होनी चाहिए परिवर्तन चाहने वाली युवा पीढ़ी का मतदान प्रतिशत अपने आप बढ़ जाएगा ।  नोट पे रिस्क ले सकते हैं तो वोट पे क्यों नहीं ?

Monday, November 14, 2016

#Currencyfree Living

 (ललित)
हिंदुस्तान में विमुद्रीकरण की बहस के बीच एक और चर्चा जो हो जानी चाहिये वो ये है कि जो अविष्कार मानव का है यानि मुद्रा क्या मानव उसके बिना नही जी सकता । सृष्टि में बहुत से जीव जन्तु हैं वो भी अपनी पूरी जिन्दगी बिना रूपये पैसों के ,तनाव रहित जीते हैं आप कहेंगे उनको रहने के लिए घर नही बनाना होता पर चिड़िया घोसला बनाती है ।आप कहेंगे उन्हें खाना इकट्ठा नही करना पड़ता पर चींटियां सन्ग्रह करती हैं । कहने का मतलब ये नहीं कि आदिम युग में लौट चला जाय लेकिन मानव का अविष्कार मानव को मजबूर कर दे उसके पहले विकल्प तलाश लिया जाय तो बेहतर । मेरा बचपन अपने गाँव में गुजरा मुझे याद है कि पैसा चिंता का विषय नही होता था जेब में एक रूपये भी न हो तो भी कोई परवाह नही होती थी। सब आत्मनिर्भर थे रोटी कपड़ा और मकान तीनों मूलभूत जरूरतें एक ही जगह या आसपास से पूरी हो जाती थीं।
शहर में एक दिन भी बिना पैसों के जीना मुश्किल था कही जाना हो तो पैसा खाना हो तो पैसा कुछ चाहिये तो पैसा । कभी कभी पैदल चल के पैसा बचा लिया तो भविष्य सुरक्षित होने की ख़ुशी रहती थी लेकिन ये पैदल से बचाया हुआ पैसा किसी न किसी टैक्स या सेवा जैसे गृह कर ,पथ कर आदि के हवाले चढ़ जाता था जिससे गांव में हम मुक्त थे वहाँ हवा पानी सड़क सब मुफ्त था ।
अब मूल प्रश्न पे आते हैं कि क्या जीवन बिना पैसों के चल सकता है  तो उत्तर हाँ में है ।पैसा हमने बनाया न कि पैसे ने हमे । प्रकृति ने हमे बनाया तो जीवन जीने के लिए पर्याप्त उपाय भी किये । भारत में सन्त परम्परा से प्रेरणा ले कर पश्चिम के देशों में moneyless society आंदोलन चल रहा है । Live with 100 things आंदोलन वाले गैर जरूरी चीजों को अपने घर से हटा रहे हैं और केवल 100 आवश्यक वस्तुओं के साथ जीवन यापन कर रहे हैं राम और गाँधी का दर्शन फिर लोग अपना रहे हैं गाँव और सरल जीवन वालों के लिए ये प्रयोग आसान होगा किन्तु शहर के लिए यह प्रयोग एक मुश्किल ।यदि टैक्स फ्री या minimum tax सोसाइटी की अवधारणा सम्भव हो सके तो हर समाज इस राह पे चिंता मुक्त जीवन यापन कर सकता है ।काम कठिन तो है पर असंभव नही चुनाव हमारा और आपका है कि पैसा हम पर हावी होगा या हम उसे अपने ऊपर हावी नही होने देंगे। (ललित)

Saturday, August 20, 2016

जाति ,वर्ण और जेनेटिक्स -

       अक्सर हम हिन्दू धर्म पर चर्चा करते हुए जाति के मुद्दे पर बगले झाँकने लगते हैं वर्ण को सही बताने लगते हैं और जाति को बाद में पैदा हुई विकृति बताने लग जाते है ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमे आज तक यही पढ़ाया गया कि जातियाँ कुरीतियों की तरह है इन्हें मिटाया जाय । क्या हमने कभी ये सोचा कि इतने विरोध के बाद जातियाँ आज तक  ख़त्म नही हुईं वरन और मजबूत क्यों होती गयीं ? इसके पीछे एक बहुत बड़ा कारण है और वो कारण इसकी वैज्ञानिकता और समाजिक व् आर्थिक उपादेयता है जिसने जाति को हज़ारों बरस से कायम  रखा है । वर्ण परम्परा की अपेक्षा जातियाँ ज्यादा वैज्ञानिक हैं जाति जन्म आधारित होती हैं अर्थात जातियाँ जीन पर निर्भर तथ्य है जो ताउम्र नही बदल सकती जबकि वर्ण कर्म के आधार पर कभी भी बदले जा सकते हैं अर्थात वर्ण कर्म के आधार पर सामाजिक गतिशीलता की परम्परा है 
       विज्ञान की भाषा में जातियाँ एक आनुवंशिक तथ्य है हिन्दुस्तान में अधिकांश जातियाँ रोटी और बेटी के सम्बन्ध दूसरी जातियों में नही करती और इसीलिए हर जाति के जीन पूल यूनिक हैँ ।जेनेटिक स्टडी के लिए ये जातियाँ एक अनोखी प्रयोगशाला बन रही हैं।जहाँ बीमारियों से निपटने के जीन खोजे जा रहे है ,गुणों की उत्पत्ति ढूंढी जा रही है.गोत्र और जातियाँ दोनों का आधार जीन है किन्तु दोनों में अंतर है गोत्र किसी व्यक्ति की उत्पत्ति से जुड़ा है वहीँ जाति वर्तमान में हुए विकास की सूचक है यानि गोत्र सीधी खड़ी रेखा (vertical ) है वहीं   जाति क्षैतिज (Horizontal ) रेखा है। इतना ही नहीँ जितने रोजगार जातियों ने दिए उतने राजे महाराजे व् सरकारें भी न दे सकीं ।जितने मुकदमे मुफ़्त में जातीय पंचायतों ने निपटाए उतने करोडो अरबो खर्च कर न्यायपालिका हज़ारों साल में निपटायेगी । जातीय बन्धन इतना मजबूत है कि आज भी चुनाव के समय पार्टियां जातीय समीकरण देख टिकट देती हैं और सारे आधुनिक सिद्धान्तों को धता बता वोट भी ले लेतीं हैं । 
      एक बात लिखना महत्वपूर्ण है और  वह यह कि मानव बायोडायवर्सिटी को सबसे ज्यादा बचाया है जातियों ने , नही तो एक महामारी में सब साफ़ हो जाते । उस जमाने में जब इलाज़ के इतने तरीके नही थे इस बायोडायवर्सिटी से मानव बचता रहा और भविष्य में भी बचेगा कम से कम हिन्दुस्तान में मानव का अंश सदैव बचा रहेगा चाहे जितनी बड़ा घातक वायरस पैदा क्यों न हो जाय ।
 जाति के मुद्दे पर हम हमेशा बचाव की मुद्रा में रहते थे जबकि ये विज्ञान कही अधिक एडवांस है
         जातियों को कई विचारकों ने सिर्फ और सिर्फ शोषण के माध्यम के रूप में  देखा जबकि सत्यता यह है कि जातियाँ शोषण नही करती शोषण हमेशा शोषक करते हैं  छल और बल से यहाँ तक तथाकथित विकसित देशों में जहाँ जातियाँ नही हैं वहाँ भी किसी न किसी का शोषण होता रहता  है ।किस परम्परा में समय के साथ कमियां नही आतीं सो जातियाँ भी इससे अछूती नही रहीं ।लेकिन हर धर्म में इसकी मौजूदगी इसकी स्वीकृति की सूचक रही भले ही वो धर्म बाहर से आया हो । जाति एक शोध है व्यवस्था व् समाज को चलाने के लिये । जो वर्तमान व्यवस्था के पहले से ही लागू है और यह  इतनी मजबूत है कि अभी इसकी उपयोगिता हज़ारों  साल चलेगी  ।जातियों में आई कमियों को छोड़ दें तो मजबूत समाजार्थिक व्यवस्था का ऐसा फॉर्मूला दुनिया में कही नही मिलता । वर्ण व्यवस्था से भी ज्यादा विज्ञान और तथ्य छुपे है जाति में ।
           गोत्र जीन की सीधी रेखा है जो मानव का उद्भव बताती है वहीं  जाति जीन पूल यानि क्षैतिज रेखा ( horizontal) जो मानव विकास की व्याख्या करती है .(Both are  based on ancient genetics).तो एक बार फिर से सोचिए कि जातियाँ कुरीति हुई या एक सोचा समझा विज्ञान।
 मजेदार बात यह है कि लोग भारतीय ऋषियों के बजाय कुछ दिन पहले पैदा हुए मेंडल को genetics का जनक मानते हैं ।😄🙏

Friday, May 20, 2016

#Voting Right

हिंदुस्तान में अठारह साल से कम उम्र की जनसँख्या लगभग 41 % है (Source : C2 and C14 Table, India, Census of India 2001.)  इसका मतलब 59 % लोग लोकतंत्र में भागीदारी कर सकते  हैं।एक युवा देश में मतदान की उम्र घटाने का ये उचित समय है जिस से नई और ऊर्जावान पीढ़ी की भागीदारी बढ़ सके।  ये वो पीढ़ी है जो हिंदुस्तान को विकसित देखना चाहती है और विकसित बनाने का नजरिया इनके पास है।  मतदान की उम्र 13 या 15 वर्ष हो जानी चाहिए। 

Friday, May 13, 2016

रहिमन पानी राखिये -


पृथ्वी पर सबसे पहले जीव की उत्पत्ति जल में हुई।  धीरे धीरे जीवों का विस्तार जमीन पर होता गया लेकिन जो जीव पानी के बाहर रहने में सक्षम हुए उनके लिए भी पानी उतना ही महत्वपूर्ण था क्योंकि शरीर के अंदर की सारी रासायनिक क्रियाओं के लिए मूल माध्यम पानी था। मानव शरीर का लगभग 60 % पानी है जो तापमान नियंत्रण के साथ साथ उत्तकों की रक्षा  करता है और रासायनिक क्रियाओं को संचालित कराता है।पानी  की महिमा हर युग और संस्कृति में पहचानी गई।रहीमदास जी ने यहाँ तक कहा कि "रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून " . आधुनिक युग में पानी बाजार तक आ पहुंचा और बाजार की अर्थव्यवस्था का बहुत बड़ा भाग पानी के इर्द गिर्द घूमने लगा। इस बाजार के पानी ने मिनरल वाटर और RO  प्यूरीफायर को बहुत तेज़ी से घरों तक पहुंचा दिया जो पानी धरती हमें मुफ्त में देती थी उस के प्रति भय  उत्पन्न कर अरबों का कारोबार चल निकला। बात यही समाप्त नहीं हुई इस बाज़ारू  पानी की महिमा का बखान करने के लिए कई तर्क दिए गए कि इस पानी से बीमारी नहीं होगी इसमें से हानिकारक तत्व और सूक्ष्म जीव हटा दिए गए हैं आदि -आदि. कहा तो  यह भी गया कि शरीर इनऑर्गेनिक मिनरल नहीं ले सकता अतः  RO  प्यूरीफायर  वरदान है। आइये कुछ तथ्यों पर नज़र डालते हैं  RO  प्यूरीफायर  पानी में पाये जाने वाले सभी solutes  को 85 -95 % तक हटा देता है जिससे पानी का मूल गुण बदल जाता है सामान्य भाषा में जो पानी  जिन्दा था वो लगभग लगभग मृत हो जाता है। इसके अतिरिक्त 1 लीटर पानी निकालने में ये लगभग 3-4 लीटर पानी बर्बाद करता है।  बहुत से विकसित देशों में इस तकनीक को प्रतिबंधित किया जा चुका  है लेकिन ये एक दुर्भाग्य है कि जो तकनीक विकसित देशों में बैन कर दी जाती है वह प्रयोग और मुनाफे के लिए विकासशील देशों में उतार दी जाती है सदियों से गरीब देशों की यही नियति है ये देश अमीरों की प्रयोगशालाएं बन कर रह गए हैं।  विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट  ये साबित करती  है कि शरीर 6-30 % मिनरल टैप वाटर से लेता है.  चेक और स्लोवाक देश में  RO  प्यूरीफायर  के प्रयोग के बाद ह्रदय रोग ,थकान, कमजोरी के रोगी बढ़ गए थे . RO  प्यूरीफायर  से निकला पानी शरीर के मिनरल को वापस  खींचता है ओसमोसिस के नियम के तहत मिनरल पानी में ज्यादा घनत्व से कम घनत्व की ओर चलता है और RO  वाटर में मिनरल शरीर से कम होता है इस प्रकार कोशिका का आयन और मिनरल संतुलन बिगड़ जाता है जो भविष्य में कई बीमारियों को जन्म देता है जैसे दिमाग और दिल की बीमारी के साथ साथ थकान ,अनिद्रा ,सरदर्द ,ऑस्टियोपोरोसिस आदि -आदि। यही हाल मिनरल वाटर का है जिस प्लास्टिक की बोतल में उसे पैक किया जाता है उसमे से BPA यानी बिस्फेनोल ए होता है जो लीच कर पानी में मिल जाता है  BPA से जनन हॉर्मोन में असंतुलन होता है और प्रतिरोधक  क्षमता में गिरावट के साथ साथ डायबिटीज़ मोटापा और कई तरह के कैंसर भी होते हैं।  कई जागरूक देशों ने कचरा फ़ैलाने वाले मिनरल वाटर को बैन  कर दिया है। बताते चलें कि मिनरल वाटर की बोतल प्लास्टिक क्वालिटी के आधार पर 10 रूपये से लेकर 900 रूपये तक बिकती है जिसमे 10-15  रूपये के ग्राहक हम आप लोग हैं।  अब आप समझ गए होंगे कि पानी के बाजार ने आपको किस तरह  बीमारी के बाजार में उतार दिया है।  अभी भी वक्त है सम्भलने का।  वैसे हिंदुस्तान का बहुत सा पानी प्राकृतिक रूप से शुद्ध है कहने का मतलब यह  नहीं कि RO को फेंक दिया जाय लेकिन उस पानी को रेमिनरलाइज किया जाना जरूरी होगा घड़े में कुछ देर रखने से  थोड़ी राहत मिल सकती है लेकिन फ़िल्टर RO से ज्यादा बेहतर है।  हाँ मिनरल वाटर की प्लास्टिक बोतल को जितनी जल्दी अलविदा कह दें उतना अच्छा ।  बाकी पुराने तौर तरीके उबालने छानने और घड़े के साथ जो आप तबसे प्रयोग कर रहें हैं जब मिनरल वाटर और RO तकनीक पैदा भी नहीं हुई थी ।   -डॉ ललित  मिश्र (साथ में डॉ अमित शुक्ल 9412957166  व् डॉ राधा कांत पांडेय 9760534523 )

Tuesday, April 26, 2016

नमक खाने से पहले -

दुनिया की सबसे पहली प्रयोगशालाएं रसोईघर मानी गई हैं जहाँ मानव की अमरता के लिए नए नए प्रयोग हुए और नए नए सिद्धांत बने। इन्ही प्रयोगों में एक खोज नमक की भी हुई। शरीर को अपना द्रव संतुलन बनाए रखने के लिए नमक जरूरी था इसलिए रोज़मर्रा के भोजन में नमक का समावेश किया गया। नमक का सीधा असर तंत्रिका तंत्र (नर्वस सिस्टम), किडनी और हार्ट व् अन्य सभी कोशिकाओं पर होता है। शरीर में इलेक्ट्रोलाइट का संतुलन बनाए रखने के लिए धन और ऋण आयन का संतुलन जरूरी है । बताते चलें कि शरीर का लगभग 60 % भाग पानी है जो कोशिका ,खून और कोशिका के बाहर मौजूद रहता है कोशिका के अंदर पोटैशियम और फॉस्फेट ज्यादा होता है और कोशिका के बाहर सोडियम और क्लोराइड ज्यादा होता है इन दोनों का संतुलन यानि कोशिका के अंदर और बाहर एक निर्धारित अनुपात में बना रहता है। आपने यह तो जरूर सुना होगा कि ज्यादा नमक खाने से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है क्योंकि नमक जो केवल सोडियम और क्लोराइड से बना है वह उत्तकों के अंदर से पानी खींच लेता है और किडनी में बनने वाली पेशाब से पानी वापस खून में मिला देता है जिससे खून में पानी बढ़ जाने से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है। प्रश्न ये है कि नमक तो हम सदियों से खाते आ रहे हैं ये नमक से समस्या पहले इतनी ज्यादा नहीं थी तो अचानक कैसे बढ़ गई ? इसका उत्तर जानने के लिए थोड़ा इतिहास में चलते हैं संसार में एक समय ऐसा भी था जब नमक सोने से भी ज्यादा मंहगा था लोग चट्टान के नमक जैसे सेंधा या काला नमक प्रयोग करते थे। धीरे धीरे समुद्र से नमक बनाने की खोज हुई और नमक की उपलब्धता बढ़ गई बात यहाँ तक तो ठीक थी लेकिन धीरे धीरे नमक को रिफाइन किया जाने लगा रिफाइन करने के दौरान समुद्री नमक में पाये जाने वाले लगभग 92 मिनरल को हटा कर 4 तक सीमित कर दिया गया जिसमे 98% सोडियम और क्लोराइड था इस नमक को सीलन से बचाने के लिए एल्युमीनियम सिलिकेट जैसे तत्व मिलाये गए जिनसे अल्जीमर रोग होता है। आयोडीन का डर दिखा कर व्यापारिक कंपनियों ने भारत में इसे खूब बेचा और रसोई में इस नमक का कब्ज़ा हो गया जबकि आयोडीन कई स्रोतों से मिल रहा था । रिफाइन करने के दौरान जो मिनरल निकाले गए उन्हें इन कंपनियों ने मिनरल कैप्सूल बना कर बेचना शुरू कर दिया अब जब भी मिनरल डेफिशियेंसी होती है तो डॉक्टर की सलाह पर आपको वो मल्टी विटामिन कैप्सूल नाम से खाना पड़ता है जो मुफ्त में समुद्री नमक आपको देता था यानि नमक भी बेच दिया और उसका मिनरल भी . देखा कमाल "आम के आम गुठलियों के दाम" । अब आप काफी कुछ समझ गए होंगे कि गलती कहाँ हुई और रोग कैसे बढे। जो नमक समुद्र से मिलता था (क्रिस्र्टल वाला/डली वाला )उसमे 86-92 तत्व पाये जाते थे जिसमे पोटैशियम सल्फर सोडियम आदि सब मिनरल था और एक दुसरे को संतुलित भी करता था इसलिए बीमारियां कम थी खास तौर पे ह्रदय संबंधी बीमारियां। जबसे रिफाइंड नमक ने रसोई में कब्ज़ा जमाया है गड़बड़ी वहीं से शुरू हो गई। प्रयोगों से ये साबित हुआ है कि रिफाइंड नमक शरीर के सामान्य pH 7.2 को घटा देता है और शरीर का pH अम्लीय बना देता है जो शरीर के लिए ज्यादा हानिकारक होता है।जबकि मूल समुद्री नमक या सेंधा /काला नमक से ऐसा नहीं होता वरन pH संतुलित रहता है। अब तो पूरा मसला समझ मे आ गया होगा इन नमक कंपनियों के खेल को आप समझ गए होंगे। तो एक बार फिर से रसोई में जाइये और सोचिये कौन सा नमक आप प्रयोग करेंगे ? हाँ नमक की ज्यादा मात्रा से जरूर बचें चाहे वो जो भी नमक हो।-Dr.Lalit Narayan Mishra
(सहयोग डॉ RK पाण्डेय 9760534523 डॉ अमित शुक्ल 9412957166 ) 

Wednesday, April 6, 2016

तेल देखो तेल की धार देखो -

तेल देखो तेल की धार देखो -
             हम कभी कभी कुछ चीजों पर आँख मूँद के विश्वास कर लेते हैं क्योंकि हमारे पास उसको जांचने का कोई माध्यम नहीं होता। एक दौर था जब पश्चिम के वैज्ञानिकों ने कहा कि माँ का पहला दूध बच्चे के लिए नुकसानदेह है अब कहा  जा रहा है कि माँ का पहला दूध अमृत है। एक मशहूर टूथपेस्ट का विज्ञापन याद होगा जो टूथपेस्ट में नमक को हानिकारक कहता था आज वही टूथपेस्ट पूछता है कि क्या तुम्हारे  टूथपेस्ट में नमक नहीं है ? कुछ समझ में आया ? हाँ भारतीय विज्ञानं विधा और शोध जो हज़ारों साल पुराने  हैं उन्हें व्यापारिक कंपनियों ने मिटाने की भरपूर कोशिश की। दादी माँ के नुस्खों की हँसी उड़ाई गयी  जब तक हम इन व्यापारी कंपनियों के मकसद को समझ पाते तब तक 1-2 पीढ़ी उसका दुष्परिणाम झेल चुकी होती है और हर दशक -हर पीढ़ी एक नयी बीमारी से जूझती नज़र आती है फिर उस बीमारी  की दवा वही लोग बनाते हैं जो उस बीमारी के जनक थे  यानि आपका पैसा उन्ही की जेब में पीढ़ी दर पीढ़ी जाता रहता है।
            चलिए एक उदाहरण लेते  हैं तेल या घी हमारे शरीर की मौलिक  जरूरत है शरीर का लगभग  15-16 हिस्सा वसा है 60 % ब्रेन यानि दिमाग वसा पर आधारित है.वसा में घुलनशील  विटामिन विटामिन A D E K  बिना वसा के  अपना प्रभाव नहीं दिखा सकता । यही वजह है कि रोजमर्रा के भोजन में तेल और घी का समावेश हमारे पूर्वजों ने किया था।  जिस तरह के मौसम में लोग रह रहे थे उस तरह के तैलीय पौधे उस जगह प्रकृति ने अपने आप उगाए जैसे सरसों -राई  , मूंगफली ,तिल ,नारियल ,अलसी इत्यादि जिसका प्रयोग सदियों से हम करते आ रहे थे. अचानक पश्चिम के साइंसदानों ने ये शोध पेश किया गया कि ब्लड प्रेशर का कारण यही तेल और घी हैं जिनमे कोलेस्ट्रॉल होता है और जो धमनियों में जम कर ह्रदय गति को बढ़ा देता है. देखते देखते बाजार में कोलेस्ट्रॉल फ्री , रिफाइंड तेल , सिंथेटिक घी की भरमार हो गयी और सदियों से प्रयोग होने वाले प्राकृतिक तेल उनके सामने बौने हो गए। जबकि सच्चाई ये थी कि कोलेस्ट्रॉल पौधे में पैदा ही नहीं होता वो तो लिवर से मांसपेशी में और वहां से लिवर में rotate होता है । कोलेस्ट्रॉल को दुश्मन मान लिया गया जबकि कोलेस्ट्रॉल कई हॉर्मोन (स्टेरॉयड व् जनन प्रक्रिया से जुड़े हॉर्मोन )बनाने के लिए जिम्मेदार था जिसमें डिप्रेशन से बचने का हार्मोन भी शामिल था।  जितना शरीर में वसा की मात्रा घटी दिमाग ने अपनी क्षमता खोई फलस्वरूप तनाव चिंता अनिद्रा रोग बढ़ते गए और नई पीढ़ी को बहुत तेजी से डिप्रेशन ने अपनी गिरफ्त में लिया।  डिप्रेशन और कोलेस्ट्रॉल कम करने की दवा कम्पनियाँ रातो रात मालामाल हो गयीं। कारण साफ़ था कोलेस्ट्रॉल के नाम पे  कोलेस्ट्रॉल फ्री तेल बेचे गए पारम्परिक तेल हटाए गए , घी खाने से मना किया गया परिणाम -न तो ब्लड प्रेशर से मुक्ति मिली न ही तनाव से उल्टा हॉर्मोन व् विटामिन की कमी से होने वाले रोग भी बढ़ गए । एसेंशियल फैटी एसिड शरीर को बाहर से देना अनिवार्य होता है चाहे वो ओमेगा 3 हो या ओमेगा 6 . जितना unsaturated फैटी एसिड जरूरी है उतना ही सैचुरेटेड दोनों का संतुलन भी और हाँ रिसर्च तो यहाँ तक कह रही है कि कोलेस्ट्रॉल ह्रदय रोग का कारण नहीं है (रिफरेन्स -mercola .com ). यानि घूम फिर के दादी नानी के भारतीय फार्मूले सही सिद्ध हुए और भारतीय रसोई का विज्ञानं महासत्य साबित हुआ।अब तो समझ में आ गया होगा कि बाप दादा घी खाने और बच्चों की तेल  मालिश के लिए क्यों कहते थे।  इन सबके बावजूद हमें यह समझना होगा कि जितना शरीर की मांग है उतना ही घी या तेल खाया जाय और जितना हम खा रहे हैं उसको पचाने के लिए उसी मात्रा में शारीरिक  श्रम अनिवार्य है। एक बात और तेल या घी को बार बार उबालने से उसके गुण  नष्ट हो जाते हैं और हानिकारक प्रभाव बढ़ जाते हैं। अगली बार एक और महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करेंगे।  आपका -डॉ ललित  (विशेष सहयोग डॉ अमित शुक्ल 9412957166  एवं डॉ RK पांडेय 9760534532  ). 

Thursday, March 17, 2016

दालों की दुनिया -


हमारे शरीर निर्माण में प्रोटीन का योगदान  16 % है। प्रोटीन का निर्माण एमिनो एसिड से होता  है  कुछ एमिनो एसिड शरीर में बनता है और कुछ बाहर से आहार के माध्यम से शरीर को देना पड़ता है।  जो प्रोटीन शरीर में नहीं बनता उसे essential एमिनो एसिड के नाम से जाना जाता है।ये एमिनो एसिड शरीर के महत्वपूर्ण रासायनिक क्रियाओं को संचालित करते हैं और डायबिटीज़ व् हृदय रोग तथा अन्य गंभीर बीमारियों से आप को बचाते हैं उदाहरण के लिए हिस्टिडीन एमिनो एसिड रक्त निर्माण में मदद एवं नर्वस सिस्टम को मजबूत करता है मेथिओनिन एमिनो एसिड DNA  निर्माण  में भूमिका निभाने के साथ साथ न्यूरोट्रांसमीटर  सिस्टम को मजबूत करता है  ।  दालें इन एमिनो एसिड का स्वच्छ एवं महत्वपूर्ण स्रोत हैं।  सारे एसेंशियल एमिनो एसिड सभी दालों  में नहीं पाये जाते इसलिए भोजन में अलग -अलग तरह की दालों  का प्रयोग किया जाना जरूरी है। संतुलित भोजन की परिभाषा में अलग -अलग तरह की दालों का प्रयोग कर आप कुछ जटिल बीमारियों से बच सकते हैं।  दालों की दुनिया में अरहर चना मटर उरद मूँग मसूर राजमा लोबिया सोयाबीन व् अन्य बीन प्रजातियाँ शामिल हैं। छिलके वाली दालें मिनरल की भी महत्वपूर्ण स्रोत हैं ।

Friday, February 5, 2016

# Brown rice v/s White rice-

Brown Rice V/S white Rice
भात की बात -
(Brown rice v/s white rice)
भारतीय भोजन को वैज्ञानिक दृष्टि से संतुलित माना गया है चावल इस भोजन का अनिवार्य अंग है चावल से कार्बोहायड्रेट के अलावा विटामिन बी 1 बी3 व् बी 6 के आलावा मैग्नीशियम फॉस्फोरस आयरन पोटासियम व् सेलेनियम आदि मिलते हैं जो अन्य अनाजों में कम या नहीं मिलते ।इनसे मानसिक विकास व अन्य मेटाबोलिक क्रियाएँ मजबूत रहती हैं और बीमारियों से रक्षा भी होती है पालिस किये हुए चावल में इन विटामिन और मिनरल में से 50 से 90 % हमे नही मिलते और हमारा भोजन असंतुलित हो जाता है जिस से कई बीमारी पनपती हैं न्यूरो संबंधी अधिकांश बीमारी तथा पेट और बीपी शुगर आदि बीमारी को बिना पॉलिश किये चावल Brown rice से रोका जा सकता है शाकाहारी लोगों के लिए यह सर्वोत्तम विकल्प हैै