Tuesday, October 13, 2020

फरा-

 फरा :


(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से )


   कुछ नया नाम लग रहा है न? लेकिन गौहन्ना में ये नाम न जाने कब से चल रहा होगा । अवध क्षेत्र में इस व्यंजन को फ़रा नाम से ही जानते हैं । आपकी सुविधा के लिए बता दें कि इसकी तुलना आप मोमोज से कर सकते हैं । लेकिन दोनों में थोड़ा अंतर भी जानना जरूरी होगा नहीं तो इस अवधी व्यंजन के आंनद को महसूस नहीं कर पाएंगे ।


    जिस तरह हर क्षेत्र का कुछ खास व्यंजन होता है उसी तरह अवध क्षेत्र का फरा बहुत खास होता है । इसे चावल के आटे से बनाते हैं और चावल के आटे की छोटी छोटी पतली रोटियों के ऊपर उड़द की पिसी भीगी हुई मसाले वाली दाल इसमें भर दी जाती है । किसी छोटी कागज की नाव की तरह इसका आकार होता है लेकिन इसका मुंह खुला रहता है । फरा को बटुली या पतीली के ऊपर भाप में लगभग बीस से पच्चीस मिनट पकाना पड़ता है ।

मोमोज और फरा में मूल अंतर मुंह के खुले और बन्द होने का होता है। मोमोज पूरी तरह बन्द होता है जबकि फरा का मुंह खुला रहता है और इसका अंदर का सामान बिल्कुल नायाब होता है ।


    कहते हैं कि किसी पर्यटक स्थल पर जब लोग जाते है तो वहां के स्थानीय व्यंजन ढूंढ़ते हैं । लेकिन अवध के ढाबे और होटल अवध के कम पंजाब के नकल में ज्यादा फंस गए, इसलिए वहां आप फरा नहीं ढूंढ़ पाएंगे । करते भी क्या ट्रक का हाईवे, ड्राइवर, खलासी सब पंजाब के तो खाना भी उसी तरह का चल निकला किसी का ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि अयोध्या भ्रमण पर आने वाले पाहुन को लोकल डिश की भी तलाश होगी ठीक उसी तरह जिस तरह आपको दक्षिण भारत में सांभर- डोसा की तलाश रहती है । ठीक उसी तरह जब आप गुजरात में ढोकला और खांख्रा ढूंढ़ते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप पंजाब में मक्के की रोटी और सरसों का साग ढूंढ़ते हैं जो आपको वहां के हर ढाबे पर मिल जाता है ।


   गौहन्ना और आस पास के क्षेत्र में फरा बनाने के लिए चलनी या जालीदार सिकहुला का प्रयोग किया जाता है । इसको बनाने का चलन कार्तिक मास से फाल्गुन तक ज्यादा होता है । तैयार फरे को घी के साथ खाने का आंनद ही कुछ और होता है । आम या इमली की मीठी चटनी के साथ इसे परोसा जाता है । इसको गरमा गरम खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन अगर ये बच जाए तो घी और जीरे के छौंक के साथ इसे नए अंदाज में आप खा सकते हैं । इस डिश के साथ गांव में गन्ने के रस से चावल का रसियाव भी खाया जाता है । जो किसी खीर की तरह बनता है । गांव के इन व्यंजनों में जन्मों जन्मों की तृप्ति एक साथ मिल जाती है । 


    फरा के सीजन में ही दलभरी पूड़ी का चलन भी रहता है । चने की दाल को पीस कर रोटी के अंदर भर कर बनाने की कला गांव - गांव में प्रचलित है । ये दलभरी पूड़ी तवे पर बड़े इत्मीनान से सरसों के तेल में सेकीं जाती है और मक्खन , गुड या अचार खासकर भरवा मिर्चे के साथ परोसी जाती है ।जिस के मुंह ये एक बार लग गई तो लग गई फिर आदमी आलू का पराठा खाना भूल जाता है ।

   इस तरह के न जाने कितने व्यंजन अवध की स्थानीय ग्रामीण संस्कृति में घर - घर बनाए जाते हैं । इनमे से कुछ की चर्चा करते रहेंगे । फिलहाल जब तक होटल और ढाबे में ये डिश नहीं बनने लगती तब तक जब भी अवध क्षेत्र के ग्रामीण अंचल में जाएं तो इन व्यंजनों को खाना न भूलें ।संकोच मत करिएगा कि कोई खिलाएगा नहीं । जम के लोग खिलाएंगे , खुश होकर खिलाएंगे ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक से साभार )

Wednesday, October 7, 2020

शुक्ला दरोगा-

 शुक्ला दरोगा -


    नाम तो उनका शंकर दत्त शुक्ला था । नए नए रौनाही थाने में आए थे । लेकिन इलाके के लोग उन्हें शुक्ला दरोगा के नाम से ही जानते थे । चलते बुलेट से थे। जिस तरफ उनकी बुलेट निकलती थी रास्ता साफ हो जाता है । तब के जमाने में दबंग जैसी फिल्में नहीं बनी थीं न ही सिंघम का किरदार। बल्कि  पुलिस तो तब पहुंचती थी जब हीरो अपना काम कर चुका होता था । लेकिन फैजाबाद जिले के रौनाही इलाके के हीरो तो शुक्ला दरोगा ही थे । लंबा चौड़ा शरीर और ऊपर से पहलवान और जब बुलेट पर बैठते थे अकेले ही पूरा थाना लगते थे । 


   ये वो दौर था जब गांव के इलाकों में चोरी, डकैती, लूट आम घटनाएं हुआ करती थीं । गौहन्ना भी इससे अछूता न था । उस समय गौहन्ना बाराबंकी जिले का हिस्सा हुआ करता था लेकिन था वर्तमान अयोध्या जिले का बॉर्डर । थाना भी रुदौली हुआ करता था लेकिन शुक्ला दरोगा के आने से आस पास के थानों से भी अपराधी नदारद होने लगे थे । खौफ उनका इतना था कि गांव के किनारे अगर बुलेट की आवाज आ जाय तो  पुराने डकैतों के उस्ताद के भी पैजामे गीले हो जाते थे । वकील साहब से दोस्ती के नाते उनका हलके से बाहर गौहन्ना गांव आना लगा रहता था । गांव वाले भी उन्हें अपना ही दरोगा समझते थे ।


    प्रशासन के फॉर्मूलों में एक अघोषित पर मशहूर फॉर्मूला 'कौआ टांगना' होता है । जिस तरह किसान फसल बचाने के लिए  खेत में एक कौआ मार कर टांग देता है तो अगले दिन से उस खेत में कोई भी कौआ नजर नहीं आता उसी तरह शुक्ला जी भी करते थे । शुक्ला दरोगा इस फार्मूले के माहिर थे । फैशन के चक्कर में न जाने कितने हिप्पी लौंडे उनकी भेंट चढ़ चुके थे मजनुओं के लंबे -लंबे बाल को नाई से उस तरह उतरवाते थे जैसे खुरपे से घास छीली जाती है. उसके बाद तो लंबे बालों का शौक एक लंबे समय तक मजनू लोग पूरा नहीं कर पाए ।ये घटना भले रौनाही चौराहे पर हुई हो लेकिन खबर गांव गांव में चटकारे लेकर सुनी और सुनाई जाती थी ।


"अरे आज एक जने आधी बांह मोड़ के रौनाही गे रहे 

शुक्ला दरोगवा पकर के उनके कपड़ा आधी बांह से कटवाय दिहिस ।" ....

  ....    शाम को अलाव के पास इस तरह की चर्चाएं गांव गांव में आम थीं । संभ्रांत लोग और सभ्य समाज में इस तरह की चर्चाएं एक तरह से लोगों में कानून के प्रति और अधिकारी के प्रति भरोसे का प्रतीक थीं और उसका असर ये था कि चोर उचक्के लफंगे और मजनुओं ने भूमिगत होने में ही भलाई समझी । इस दौर में मीडिया के नाम पर रेडियो व अखबार ही हुआ करते थे ,आज का दौर होता तो सोशल मीडिया पर तानाशाह होने का आरोप लगा के वीडियो वायरल कर दिया जाता । हालांकि शुक्ला दरोगा जितना करते थे उससे ज्यादा उनकी कहानियां उस दौर में वायरल हुआ करती थीं । अब कौन तस्दीक करने जाय कि ये सब हुआ भी या नहीं। उन्हीं कहानियों में एक कहानी ये भी थी कि कोई एक हाथ से सायकिल चला रहा था तो शुक्ला जी ने उसका आधा हैंडल कटवा दिया था । कोई अपनी पत्नी को धूप में पैदल बिदा करा कर ला रहा था तो उसको कंधे पर लाद कर लेे जाने का फरमान सुना दिया आदि आदि । ये सब कहानियां बड़े नए नए अंदाज में लोग एक दूसरे को सुना के खुश हुआ करते थे ।


   मुगदर भांजने और कसरत के शौकीन शुक्ला जी दस दस लीटर दूध पीने के लिए मशहूर थे । कटोरा भर के घी पीने वाले शुक्ला दरोगा इलाके की जनता के हीरो थे और जनता के रहनुमा । जिनके नाम से ही पूरा इलाका चैन की नींद सोता था। इस दौर में  सिपाही सायकिल से ही अपनी बीट का दौरा करते थे । थ्री नॉट थ्री टांगे और बेंत सायकिल में फंसाए ये सिपाही जिस गांव में रात हो जाती थी वहीं रुक जाते थे खाने पीने का इंतजाम किसी संभ्रांत परिवार से हो ही जाता था । गांव का चौकीदार साहब के पैर दबाने से लेकर नहलाने तक पूरा खयाल रखता था । 

सुबह सुबह गांव से निकलने के पहले सिपाही दसियों सूचना लेकर निकलता था । हफ़्ते भर की मुखबिरी गांव में इकठ्ठा हुई रहती थी जो मुखबिर न भी हो वो अपने नम्बर बढ़ाने के चक्कर में कुछ न कुछ बता ही देता था ।


'अरे पाड़े कहां जात हो ?

सुना है शुक्ला दरोगा आवा हैं।उनही का देखै जाइत है ।'

   प्रेम चन्द के नमक का दारोगा का ह्रदय परिवर्तन तो बाद में होता है लेकिन शुक्ला दरोगा जन्मजात जनता के सेवक थे सो बने ही रहे ।जनता ने भी  इस अफसर को सर आंखों पर बिठा के रखा।    इस दौरान उन्होंने सख्ती व  इमानदारी भी बना कर रखी ।

    आम जनता अपने हीरो शुक्ला दरोगा को देखने के लिए उमड़ पड़ती थी जिस तरफ से उनकी बुलेट गुजरती थी उस तरफ उनकी चर्चा हफ़्ते भर रहती थी । साहब का इकबाल जिस तरह बुलंद होना चाहिए उस तरह बुलंद था । बताते हैं कि एक बार रेलवे की पटरी पर भी बुलेट दौड़ा दिए थे । उनके तबादले के बाद भी कई सालों तक शुक्ला दरोगा के लिए इलाका तरसता रहा। संभवतः पुलिस उपाधीक्षक पद से सेवा निवृत्ति के बाद भी ये सिंघम आज भी उस दौर के लोगों के दिलों दिमाग में बसा हुआ है ।

- डॉ ललित नारायण मिश्र


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

चाचा चौधरी-

 चाचा चौधरी -


     बच्चे और कॉमिक्स का रिश्ता वही जानता है जिसने कॉमिक्स बचपन में पढ़ी हो । प्राइमरी स्कूल बड़ागांव से लौटते समय रेलवे फाटक के पास बाज़ार में जिस नई दुकान से भेंट हुई वह थी कॉमिक्स की दुकान । तब तक किताब  पढ़ना आने लगा था और कहानियों का चस्का भी लग चुका था । घर में एक दो कॉमिक्स की किताबें अा चुकी थीं तो इतना पता था कि इसमें कहानियां होंगी ।


"हां घर लेे जा सकते हो  एक कॉमिक्स का किराया 25 पैसे प्रति दिन लगेगा " दुकान वाले ने कहा।


    सोच में पड़ गया कि रात भर में पढ़ पाऊंगा कि नहीं 

फिर हिम्मत कर के ले लिया और अगले दिन पढ़ के लौटा भी दिया । इस तरह चाचा चौधरी और साबू के ज्यादातर कथानक बचपन में ही पढ़ डाले । दुकान पर चंदा मामा , नन्दन , पराग, लोट पोट जैसी बच्चो के लायक कई किताबें रहती थीं । कॉमिक्स की इस लत को परवान चढ़ने का समय तब आया जब गर्मी की छुट्टियों में मामा जी के पास गया। 


     मामा जी की पोस्टिंग उस समय रायपुर हुआ करती थी । 1984 में रायपुर मध्य प्रदेश का ही शहर हुआ करता था । शांत , मनभावन रायपुर का तालाब  बड़ा और बहुत खूबसूरत लगता था । रायपुर में जिस किराए के कमरे में मामा जी रहा करते थे उसके नीचे के परिवार में एक बड़े भैया रहते थे जो कॉमिक्स के सुपर शौकीन थे नाम था राम चन्द्र कामत । उनके पास कॉमिक्स का खजाना था जिसमें चाचा चौधरी, पिंकी, बबलू, अमर चित्र कथा , नन्दन, न जाने कितने संग्रह उनके संदूक में मौजूद थे मैंने भी उनसे धीरे धीरे दोस्ती गांठ ली और रोज एक कॉमिक्स पढ़ने लगा  । इन कॉमिक्स को पढ़ते पढ़ते जाने अनजाने  संस्कृति , विज्ञान, देश दुनिया , प्रकृति की समझ अपने आप जेहन में गहराई से उतरने लगी ।

डांट भी खूब पड़ती थी कि हर समय कॉमिक्स में लगे रहते हो पढ़ाई कब होगी । परीक्षा में कैसे पास होगे ?


     खैर कॉमिक्स का ये चस्का जो लगा तो लगा ही रहा । जब थोड़ा और बड़े हुए तो सुमन सौरभ और चंपक माता जी ने डाक से ही मंगवाना शुरू कर दिया । किसी किसी महीने पत्रिका घर तक नहीं पहुंचती थी तो उलझन बनी रहती थी । वैसे तो बड़े भाई साहब बड़े संस्कारित और जेंटल मैन की तरह वाले थे । लेकिन इस मामले में कभी कभी मुझको भी पीछे छोड़ देते थे ।


     इस बीच  गांव यानि गौहन्ना में ही पुस्तकालय का पता चल गया था ये था 'पांडेय पुस्तकालय' . इसके सर्वे सर्वा थे फूल चन्द्र पाण्डेय जिन्हे सब लोग पी सी पांडेय के नाम से ज्यादा जानते थे । पेशे से वो कचहरी में मुंशी थे और पापा के तख्ते पर उनके रोज के सहकर्मी थे इसलिए उनके पुस्तकालय पर धीरे धीरे अपनी पहुंच आसान हो गई । लगभग सौ डेढ़ सौ पुस्तकों का उनका संग्रहालय उनकी एक कोठरी का हिस्सा हुआ करता था । अपने पुस्तकालय के लिए उन्होंने बकायदे मुहर बनवा रखी थी और हर किताब पर ठप्पा लगा रहता था 


' पांडेय पुस्तकालय

गौहन्ना '


   पुस्तकालय का यह नशा कॉमिक्स से गुजरते हुए हम दोनों भाइयों के मन में भी समा गया सोचा कि पुस्तकालय खोला जाए । यही कोई चौथी- पांचवीं कक्षा के छात्र के रूप में हम लोगों ने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की योजना बनाई । नाम रखा गया ' मिश्रा पुस्तकालय '.

खलंगा वाले घर में बकायदे पोस्टर चिपका कर बीस- तीस किताबें जमा की गईं । बड़े भाई साहब ठहरे बड़े सो उन्होंने पुस्तकालयाध्यक्ष मुझे बना के बैठा दिया । दिन भर पुस्तकालय में भूखा प्यासा बैठा रहा बोहनी भी नहीं हुई ।

अगले दिन से मिश्रा पुस्तकालय बन्द कर दिया गया घर वालों की डांट पड़ी सो अलग ।


   पुस्तकालय भले बन्द हो गया लेकिन बिक्रम बेताल , सिंहासन बत्तीसी , पंच तंत्र, हितोपदेश, प्रेरक प्रसंग, बाल महाभारत जैसे न जाने कितनी किताबों के पन्ने गर्मी की छुट्टियों में हम लोगों ने पलट डाले । 75 पैसे की विज्ञान प्रगति घर में अनिवार्यतः आती रहती थी उसका असर ये रहा कि विज्ञान जेहन में घुस गया जो आज भी जिंदा है ।


    नंदन पत्रिका की पहेली में जीता गया पहला पुरस्कार जो उस समय पचास रुपए का था उसने मेरा पहला बैंक एकाउंट खुलवा दिया । बैंक था क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा बड़ागांव । उस पचास रुपए की खुशी अद्भुत थी । उसके बाद आकाश वाणी लखनऊ ने भी इनाम में टॉर्च भेज दी । 


    चंदा मामा पत्रिका का चस्का इतना था कि घर की चोरी चोरी वार्षिक शुल्क उसके पते पर भेज दिया बड़े भाई हमेशा की तरह योजना कार का काम करते थे परदे के सामने नहीं आते थे । इस बार पत्रिका नहीं आई बड़ा दुख हुआ बाद में समझ में आया कि मनी ऑर्डर में पूरी कहानी हम लोगो ने हिंदी में लिख मारी थी और चंदा मामा का मुख्यालय तमिल नाडु में था । आज जब बच्चों के लिए चाचा चौधरी की कॉमिक्स खरीद के लाता हूं तो बच्चों के पहले खुद ही उसे पढ़ने बैठ जाता हूं । पत्रिका नहीं होती तो टी वी पर ही बच्चों बजे साथ कार्टून का मजा लेता हूं । मोटू पतलू डॉ झटका और घसीटा का जमाना अभी बीता नहीं है । कभी मन हो तो आप भी देख लेना कसम से  बचपना लौट आएगा । 


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

बड़ेगांव -बड़गईंया :

 बड़ेगांव- बड़गईंया -


    ग्रामीण जीवन की एक विशेषता होती है कि वो कठिन से कठिन बातों को भी बड़ी आसानी से कह देती है और बहुत सी बातों को हंसी मजाक में उड़ा देती है । अगर आपस में झगड़ा या मन मुटाव भी हो जाय तो कुछ दिन बाद ख़तम हो ही जाता है । 


गौहन्ना के आस पास के लगते हुए गांवों में एक दूसरे पर तंज कसने के लिए कुछ स्थानीय भाषा के मुहावरे प्रचलित थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले अा रहे थे । हो सकता है आज भी कुछ लोगों को याद हों लेकिन ये परम्परा अब लुप्त प्राय हो रही है । वैसे ये अध्ययन और शोध का विषय है कि ऐसा किन कारणों से रहा होगा ? फिर भी एक दूसरे गांव के बीच ये चुहल बाजी बड़ी रोचक थी । 


गौहन्ना और मीसा दोनों गांव आपस में आधा किलोमीटर की दूरी पर है इन दोनों गांव के लोग अक्सर जुमला दोहराते हैं -


जब गौहन्ना वाले बोलते हैं तो -


'मीसे मांगे भीख

गौहन्ना काढ़े खीस '


जब मीसा वाले अपनी तारीफ करेंगे तो कहेंगे-


'मीसा काढ़े खीस  

गौहन्ना मांगे भीख '


बताते हैं मीसा और गौहन दो सगे भाई थे जिन्होंने ये दोनों गांव बसाए । श्रेष्ठता दिखाने के लिए दोनों गांव एक दूसरे से इसी जुमले के सहारे मजे लेते हैं । हालांकि दोनों गांव के रिश्ते बड़े मधुर और सबसे पुराने हैं ।


ठीक इसी तरह बड़ागांव जो आस पास के दस किलोमीटर की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है के लिए इजाद किया गया जुमला है 


'बड़ेगांव बड़गईंया

मुर्गी चले बकइंया '


  अब बड़ागांव में मुर्गी ही ज्यादा पाली जाती थीं क्योंकि इस्लाम बहुल इलाका था तो उसके लिए आसान जुमला यही ईजाद हो गया और सबकी जुबान पे भी चढ़ गया ।


   गौहन्ना गांव से एक कोस दक्षिण की दूरी पर स्थित है मुंशी का पुरवा गांव और उसी के बगल है बलैया गांव । अब दोनों के रिश्ते जब से बने बिगड़े हों लेकिन उनका मुजरा सुबह सुबह ही होगा ये कहावत आम है -


'मुंशी कै पुरवा बलैया के डाड़ें 

मोर तोर मुजरा होय भिंसारे '


अवधी भाषा के लोक कवियों में किसने इस तरह की सूक्तियां विकसित की इसका कोई उल्लेख किताबों में नहीं मिलता । बस परम्परा ही इतिहास है और इतिहास ही परम्परा ।


     बताते हैं कि कभी कभी कई गांवों की पंचायतें एक साथ बैठ कर आपसी मुद्दे सुलझा लिया करती थीं । लोगो में संवाद था विवाद नहीं । विवाद हल करने के लिए सोलह गांवों की पंचायतों के साथ बैठने की लोक श्रुति हमने भी सुनी है । आपस में खान पान का रिश्ता कई गांवों तक था । इस खान पान के भौगोलिक दायरे को जेंवार कहा जाता था और जेंवार बाहर होने का मतलब था किसी व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार । इस प्रकार समाज का अनुशासन सब पर भारी था इसलिए जुर्म भी कम या न के बराबर थे । अगर कोई घटना हो भी गई तो सालों साल मुकदमे नहीं चलते थे दंड देकर या जुर्माना भर कर मामला निपटा दिया जाता था । दंड को इस इलाके में डांड़ नाम से भरवाया जाता था । जिसे पंचायत लेती थी ।


गौहन्ना से एक कोस पूरब में सनगापुर गांव है और उसी के बगल में पिरखौली गांव भी है । दोनों की जनसंख्या में 

ठाकुर लोगों का बाहुल्य है । अब ठाकुर हैं तो मूंछ की लड़ाई लगी ही रहती है । इन लड़ाइयों के चक्कर में दोनों गांव के लिए जो जुमला बना वो था-


' सनगापुर पिरखौली

चले दना -दन गोली '


अब इस तरह के लोक मुहावरे कुछ ही शब्दों में गांव के मूल चरित्र का भी चित्रण कर दिया करते थे । अगर कोई नया आदमी किसी गांव को जा रहा हो तो दूसरे गांव वाला संकेतों में ही गांव के बारे में बहुत कुछ इन्हीं कविताओं से समझा देता था ।


ये लोकोक्ति सिर्फ इन्हीं गांवों तक सीमित नहीं थीं हर इलाके के अपने जुमले और मुहावरे थे जो अब केवल बुजुर्गों की यादों में ही जिंदा हैं ।  अब ये परम्परा धीरे धीरे विस्मृत हो रही है इससे पहले कि ये लुप्त हो जाय , लेख बद्ध तो हो ही जानी चाहिए । क्या पता किसी सामाजिक शोध के लिए उपयोगी हो जाय ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश )

Friday, October 2, 2020

लौकल-

 लौकल -


(ललित मिश्र के ब्लॉग jhallarmallarduniya.blogspot.com से)


  जेम्स वाट ने जिस भाप की ताकत देखी थी उसी भाप को इस्तेमाल कर जार्ज स्टीफेंसन ने भाप वाला रेलवे इंजन सन 1830 में बना डाला।  जब अंग्रेजों को  भारत में माल ढोने और सिपाहियों की बटालियन को ढोने की जरूरत पड़ी तो रेलवे लाइन हिन्दुस्तान में भी बिछ गयी ।

 

   'गौहन्ना' गांव बसा ही कुछ ऐसा था कि आस पास के गांव के बगल से रेलवे लाइन निकली लेकिन इस गांव के बीचोबीच से रेलवे लाइन को लेे जाना पड़ा । उस रास्ते में जितने भी घर पड़े उनको टूटना ही था सो किसी ने लाइन के उत्तर घर बनाया तो किसी ने दक्षिण । अपना पुश्तैनी घर भी उसी चपेट में निपट गया और मिसिर दादा के दादा के दादा ने लाइन के दक्षिण फिर से घर खड़ा कर दिया । इस तरह गौहन्ना गांव दो भाग में बंट गया एक लाइन इस पार दूजा  उस पार । एक दूसरे के लिए दोनों लोग पार के हो गए।  रेलवे लाइन ने भले ही गांव को भौगोलिक विभाजन दिया हो लेकिन दिल के विभाजन वो न कर सकी । बस एक दूसरे से मिलने को ये देख कर लाइन पार करनी पड़ती थी कि कहीं किसी ओर से कोई गाड़ी तो नहीं आ रही क्योंकि क्रॉसिंग पे रेलवे फाटक तब तक नहीं लगा था ।


   बताते हैं कि जब अंग्रेजो ने रेलवे लाइन बिछाई थी तो दोनों किनारों से कोई जानवर न घुस सके इसलिए पत्थर के खंभों से होकर कंटीले तार लगाए गए थे । प्रचलित कथा अनुसार एक बार किसी राजा का हाथी तार के अंदर तो घुस गया लेकिन बाहर न निकल सका और रेल गाड़ी की चपेट में आ गया । तब से वो तार अंग्रेजों को हटाने पड़े और केवल रेलवे फाटक को छोड़ कर अपनी सुरक्षा खुद करें की तर्ज पर रेल गाड़ी बेधड़क पटरियों पर दौड़ रही है । अक्सर गांव के जानवर इन पटरियों पर अनजाने में अपनी जिंदगी गंवा बैठते हैं । गांव के लोग कभी गुहार लगाने रेल विभाग के पास भी नहीं गए अगर जाते भी तो कौन सा वो सुन ही लेते।  कभी कभी बच्चे और बूढ़े भी इसकी चपेट में आ चुके थे सिर्फ सुरेमन दीदी सौभाग्य से जिंदा बच गईं थीं ।


सुबह 7 बजे का समय , वकील साहब को लोकल ट्रेन पकड़नी थी आज पूजा करते करते लेट हो चुके थे । 


"निहोरे देखि आओ सिंगल डाउन भवा कि नाही"


"निहोरे रेलवे क्रॉसिंग से ही आवाज लगाते दादा सिंगल होय गवा "


इतना सुनते ही वकील साहब को भेजने के लिए सायकिल निकल जाती । 

सायकिल वाले को इस स्पीड से सायकिल दौड़ानी पड़ती कि ट्रेन मिल जाय । अक्सर ट्रेन मिल ही जाती थी ।


स्थानीय कार्यों के लिए फैजाबाद और रुदौली जाने के लिए ट्रेन ही सुलभ साधन थी । कभी कभी मात्र दस किलोमीटर रुदौली जाने के लिए दिन दिन भर ट्रेन का इंतजार करना पड़ता था । वैसे ट्रेन की आदत 

गौहन्ना वालों को इतनी पड़ गई थी कि कब कौन सी गाड़ी आई बिना देखे बता देते थे । चरवाहों को लाैकल के साथ ही निकलना होता था और जब लौकल फैजाबाद से वापस आती थी उस समय जानवर हांक के घर लाने का समय फिक्स रहता था ।


लौकल तो लौकल ही थी जैसा नाम वैसा गुण भी । कोयला उड़ाते हुए जब चलती थी उसका ही रौला होता था।  मर्जी उसकी चलती थी कभी बिफोर आती थी तो कभी दस दस घंटे लेट । लेकिन मजाल जो कोई उसपे उंगली उठा दे । कभी कभी जब गुस्सा होती थी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से आगे जाने को मना कर देती थी अब झोंकते रहो उसमे कोयला । जब मन आयेगा तब ही चलेगी यात्री भी उसके नखरे जानते थे सो चना चबैना और पूड़ी पराठा बांध कर ही चलते थे । कोयले के इंजन के धुएं का असर इतना था कि फैजाबाद के लाल मुंह वाले बन्दर भी काले मुंह के किसी गैराज के मेकेनिक लगते थे ।


एक बार लौकल की बड़ी बहन  साबरमती एक्सप्रेस गाड़ी से  बैठ कर हम और पिता जी कानपुर के लिए निकले । शाम को लगभग 6 बजे गाड़ी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से चल कर दस बजे लखनऊ जा पहुंची । पापा ने कहा कानपुर दो घंटे का रास्ता है अब रात लखनऊ रुक लेते हैं सुबह कानपुर चलेंगे । मेरे मन में डर था कि सुबह दस बजे एडमिशन के लिए पत्थर कॉलेज यानि चन्द्र शेखर आजाद कृषि विश्व विद्यालय में काउंसलिंग में देर न हो जाय , बड़ी मेहनत से एडमिशन मिला है । अतः रात में ही निकल चलो ये गाड़ी कानपुर तो जा ही रही है। पिता जी बोले चिंता न करो हमे पता है कैसे पहुंचना है । खैर रात में एक परिचित फार्मासिस्ट जो पिता जी के दोस्त थे उनके घर जा पहुंचे । सुबह सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ने लखनऊ जंक्शन जा पहुंचे । ट्रेन का पता किया तो पता चला रात की वही साबरमती अब तक खड़ी है और जल्दी ही चलने वाली है । हंसते हुए फिर से उसी ट्रेन में हम लोग सवार हुए । टिकट पहले से ही उसी का था ।


अक्सर खिड़की किनारे बैठने वालों की आंख में कोयले के कण पड़ ही जाते थे .लखनऊ के बाद जब बाराबंकी स्टेशन आता था समोसा वालों को ढूंढने की होड़ लग जाती थी । वहां के समोसे टेस्ट में कुछ खास हुआ करते थे और जिसको बाराबंकी के समोसे की लत लग जाती थी फिर उसकी जेब में अगर पैसे है तो उसे समोसे खरीदने से कोई रोक नहीं सकता था । जनरल डब्बे में प्रायः चना बेचने वाला घुस ही जाता था पुलिस वाला दिख भी जाय तो उसको कैसे मनाना है ये उसको पता होता था । 


"नींबू वाले चने - नींबू वाले चने

दो दो रुपए में खाइए

नींबू वाले चने "


और जैसे ही नींबू वाला चने में नींबू निचोड़ता था पूरा कूपा महक जाता था अच्छो अच्छों को अपनी जेब उस चने के लिए ढीली करनी पड़ जाती थी । 


रसौली स्टेशन तक आते आते मूंगफली वाला भी आ ही जाता था..


"मोंफ्ली मोंफ्ली

दो दो रुपए मोंफ्ली

टाइम पास मोंफ्ली

चिनिया बादाम मोंफ्ली

पैसा वसूल मोंफ्ली"


फिर उसके बाद गुलाब रेवड़ी वाले का नंबर..


"रेवड़ी लेे लीजिए रेवड़ी ,

दस के चार पैकेट "


दस के चार"


"..अरे दस के पांच दोगे "


"नहीं साहब "


"तब ले जाओ नहीं लेना मुझे"


"अच्छा चलो पांच ले लो और इस तरह रेवड़ी का सौदा पट जाता था" ।


 दरियाबाद में लौकल का इंजन कोयला और पानी लेकर ही आगे बढ़ता था ।


इधर गाड़ी पटरंगा और रौजागांव पार करती थी उधर सूरदास अपनी खंजडी के साथ लौकल के डिब्बों में घूम घूम कर भजन गाना शुरू करते थे 


"सीता सोचैं अपने मन मा मुंदरी कंहवा से गिरी "..


"शंकर तेरी जटा में बहती है गंग धारा" ..


और कोई न कोई उन सूरदास को चवन्नी अठन्नी दे ही देता था । कोई झिड़क भी देता था । लेकिन उनकी खंजड़ी के बिना उन दिनों लौकल भी उदास सी लगती थी । इसी बीच जादू दिखाने वाले कलाबाज नटों का कुनबा रुदौली में जिस डब्बे में घुसता था उस डब्बे को टी टी भी छोड़ कर भाग खड़ा होता था । गौरियामऊ और बड़ागांव आते आते ये डेरे उतरने लगते थे और डेली पैसेंजर ताश के पत्तों के साथ अपनी मंडली सजा लेते थे । टी टी अब आराम की मुद्रा में आ चुका होता था और डेरवा आते आते बिना स्टेशन के चेन पुलिंग कर गाड़ी खड़ी हो जाती थी उसके बाद जब तक कटे हौज पाईप को कोई जोड़ न दे तब तक उस अज्ञात गाड़ी रोकने वाले को गालियों का तोहफा मिलता रहता था ।


अब गाड़ी लौकल थी तो मज़ा भी लौकल ही था । बिजली के बल्ब गाड़ी से गायब होकर गांव भी पहुंच जाते थे   सीट फाड़ के बाज़ार के लिए झोरा बन जाता था । समय के साथ साथ लौक़ल पे लोगों ने रहम की और लौकल सकुशल फैजाबाद पहुंचने लगी । लेकिन आउटर पर खड़ी होने की उसकी पुरानी आदत आज भी नहीं छूटी ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

बिक्स और बाम -

 बिक्स और बाम 


    हां सही पढ़ा आपने बिक्स और बाम ' गौहन्ना,' के हर घर में थे ।  उस समय सर्दी जुकाम के लिए बिक्स और बाम ही असली दवा हुआ करती थी । किसी को खांसी जुकाम हुआ तो बिक्स ठीक कर देती थी । गांव की दुकान पे आसानी से मिल भी जाती थी । ज्यादा खांसी खुर्रा हुआ तो जोशांदा का काढ़ा बनाकर पीने से आराम मिल जाता था । बच्चों की बाल जीवन घुट्टी भी गांव की दुकानों पर आसानी से उपलब्ध थी।


   वैसे तो गांव में दो दुकानें थीं जहां सुई से लेकर दवाई तक सब कुछ मिल जाता था । एक दुकान साव चाचा की थी दूसरी कुंवारे बढ़ई की । साव चाचा बचपन में ही मा बाप का साया खो चुके थे लेकिन उनकी मेहनत देख कर ये लगता था कि ये दुकान वो ही खड़ी कर सकते थे । सायकिल से अनाज की बोरी लाद कर पैदल रुदौली तक दस किलोमीटर चले जाते थे ।उनकी दुकान में बिस्किट , साबुन के साथ साथ रोजमर्रा की दवाएं भी होती थीं बाम और बिक्स आसानी से मिल जाते थे । कुंवारे बढ़ई की दुकान भी हंड्रेड इन वन थी जो चाहो वो हाज़िर । पैसे  तो होते नहीं थे अनाज से बदल कर चाहे पैसे ले लो या सामान । दोनों सुविधा थी ।


    अब रात में बुखार आ जाय तो डॉक्टर को दिखाने दो किलोमीटर कौन जाय ? पन्द्रह पैसे की आंनदकर टेबलेट

दोनों दुकानों पर आसानी से मिल जाती थी और नब्बे परसेंट केस में आंनदकर आंनद दे ही जाती थी । ऐनलजेसिक दवाएं एनालजिन और नोवलजीन के नाम से सबको पता थीं ।  उस समय एंटी बायोटिक का नाम आना शुरू ही हुआ था । लेकिन गांव तक इनका चलन कम ही था । सो लोग बगैर एंटी बायोटिक ठीक हो जाते थे या यूं कहे ठीक होना ही उनकी नियति थी । पेचिश के लिए हरा पुदीना और अमृत धारा की दो बूंद वास्तव में दो बूंद जिंदगी की हुआ करती थी । सल्फा ड्रग्स और ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया से बनी दवाएं बहुतों को चंगा कर देती थीं ।   ये सब दवाई गांव के दुकान के एक कोने के मेडिकल रेक में उपलब्ध रहती थी। कोने की दराज ग्रामीण जीवन का मेडिकल स्टोर ही हुआ करती थी । 


   बरसात के सीजन में आंख तो उठ ही जाती थी उठने का मतलब इंफेक्शन से समझें तो बेहतर होगा । अब गांव में आंख उठने पर कोई डॉक्टर ढूंढने नहीं जाता था । नई नई खुली इंदर पाल की दुकान में आंख वाली कुचुन्नी चवन्नी  यानि पच्चीस पैसे में मिल जाती थी । वास्तव में तो ये पेनिसिलिन आधारित थी लेकिन मजाल क्या कि सुबह तक आंख ठीक न कर दे । जितनी डॉक्टर की फीस उससे कम में अगर ठीक हो जाय तो कोई क्यों डॉक्टर को ढूंढे ।


    दाद खाज खुजली वाला जालिम लोशन तब भी बिकता था आज भी बिकता है । थोड़ा बहुत समझ दार लोग बी टेक्स मलहम पर भरोसा करते थे । लेकिन खुजली अक्सर जाती नहीं थी । मान्यता ये भी थी कि गंदे तालाब में नहाने या अमुक मिट्टी लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं कुछ गांव इसीलिए प्रसिद्ध भी थे । होता हुआता कुछ नहीं था बस मन का एक संतोष हुआ करता था । कभी कभी लोग ठीक भी हो जाते थे । 


"अरे केहू दौर के आईडेक्स लाओ हो जन्नू पेडे से गिर   गए "


  आयोडेक्स ही उस समय सब चोट का इलाज हुआ करती थी । अच्छी से अच्छी चोट गायब । अगर हड्डी उखड़ जाय तो शिव राम मुराव शाम को एक बली रोटी यानि एक तरफ सिकी मोटी रोटी बंधवा देते थे रात भर रोटी बंधी रहती थी सुबह शिव राम मुराव के  एक हलके झटके में वो हड्डी ठीक हो जाती थी  । कई बार हमने भी टेढ़ी गरदन उनसे ही ठीक करवाई । आज का जमाना होता तो फोर्थ जेनरेशन के डॉक्टर बिना ऑपरेशन ठीक ही न होने देते ।


कहते हैं दांत का दर्द होता है तो दिन में तारे नज़र आने लगते हैं लेकिन गौहन्ना में एक निश्चिंतता रहती थी । गांव में पसियन टोला में दांत झाड़ने के एक्सपर्ट यानि बिना डिग्री के डेंटिस्ट दांत ठीक कर देते थे । बुध और शनिवार छोड़कर दवा देते थे । कोई पत्ती दांत के नीचे रखते थे और कान में सरसों का तेल डाल के मंत्र मारते थे फिर तो कान के रास्ते भर भरा के कीड़ा गिरता था । दांत का कीड़ा कान से कैसे गिरता था ये तो डेंटिस्ट ढूंढे लेकिन दर्द गारंटी के साथ ठीक हो जाता था । दांत ही नहीं बिच्छू और फेटारा झाड़ने वाले भी गांव में मौजूद थे ठीक प्रेमचंद की मंत्र कहानी के पात्रों की तरह ।


 सबसे ज्यादा आने वाली समस्या का होती थी सिर दर्द और सिर दर्द की परवाह जिनको होती थी वो ज्यादा से ज्यादा हिमसार तेल लगा के उसे ठीक कर लेते थे । ग्रामीण जीवन में बीमारी प्रायः अपने आप ही अपना रस्ता नाप लेती थी जो थोड़ी बहुत होती भी थी वो बिक्स और बाम के खौफ से ठीक हो जाती थी । 


(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश )

बासी

 बासी 


बासी शब्द से आप परिचित हो या न हों हिंदी की ये लोकोक्ति जरूर सुनी होगी 


'बासी बचे न कुत्ता खाय '


     मतलब जब बासी बचेगी ही नहीं तो कुत्ता क्या चोरी करेगा । रात के भोजन का बचा हुआ अंश अवध क्षेत्र में बासी के रूप में प्रसिद्ध है । सुबह का नाश्ता या यूं कहें कि कलेवा बासी से ही होता है । अक्सर घरों में इतना भोजन बनता है कि रात को बच ही जाता है वहां शहरी सभ्यता के अनुसार रोटियां गिन कर नहीं बनती कोई किसी से पूछता नहीं कितना खाओगे जितना मन हो उतना खाओ । रात के बचे भोजन को बड़े सलीके से छत से टंगे सिक हर पर इस तरह रखा जाता था जिससे चूहे और बिल्ली से बचा रहे । सुबह वह भोजन खाने योग्य रहा या नहीं रहा ये भी माताएं बहनें उसकी महक सूंघ कर बता दिया करती थीं उसके लिए तब तक कोई फूड सेफ्टी प्रोटोकॉल विकसित नहीं हुआ था ।


     सुबह -सुबह जब दाल भात सान कर चूल्हे पर गरम किया जाता था तो बच्चों के साथ साथ बड़ों बड़ों की लार टपक जाती थी और अगर उसमे घी पड़ जाय तो उसका आनंद कुछ और ही होता था । करोनी यानि खुरचन का झगड़ा बच्चों में आम होता था । वो सोंधा पन आजतक दुर्लभ ही रहा ।


    बताते हैं कि वाजिद अली शाह के राज में जिन तीतरों को लड़ाई के लिए तैयार किया जाता था उन्हें रात की घी लगी रोटी सुबह सुबह खिलाई जाती थी । जिसका तीतर जीतता था उस के बारे में ये चर्चा रहती थी कि इसने अपने तीतर को घी लगी बासी रोटी जम के खिलाई होगी । 


  "बच्चों ताज़ा भोजन ही खाना चाहिए बासी खाना हमें नहीं खाना चाहिए " ..मास्टर साहब ने कहा । 


बासी खाना खाने से बीमारियों का खतरा रहता है ।


"जी गुरु जी "... बच्चे समवेत स्वर में बोले ।


....अगले दिन बच्चे फिर वही बासी खा कर आते । 


"अरे जब खाना गरम कर दिया तो बीमारी कैसे फैलेगी"


  लाल जी भैया बोले ।


"मनसुख आज तुमने क्या खाया" ? नौमी लाल ने पूछा ।


"बासी रोटी बची थी भैया अम्मा खेत निरावै जात रहीं तौ वही रोटी मा सरसई कै तेल लगाय कै पियाजी के साथ खाय लिहन । का करी जाड़ा मा इतनी जल्दी खाब थोड़े खराब होत है।".. मनसुख ने जवाब दिया।


"खेल के बाद आज सभी बच्चों को कुछ खाने को मिलेगा" ..मास्टर साहब बोले


"गुरु जी ये तो ब्रेड है "..मनसुख ने कहा 


"आप तो बासी खाने को मना करते हो ये ब्रेड तो 

दो दिन पहले बनी है न विश्वास हो तो पैकेट पर लिखा है देख लो । हम तो रात की ही बासी रोटी सुबह खाते है ।

उसके बाद भी बचता है तो जानवर को खिला के ख़तम कर देते हैं" ।


"चुप रहो बहुत बोलते हो" मास्टर जी ने कहा 


मनसुख सहित पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया । सभी बच्चे चुपचाप ब्रेड खाने लगे ।


दिल्ली में पढ़ाई करते समय यमन के रहमान के घर जाना हुआ। वो परिवार के साथ पूसा में सरस्वती हॉस्टल में रहा करते थे । रहमान ने जब रोटी ला के रखी तो मैं दंग रह गया । इतनी लंबी चौड़ी रोटी पहली बार देख रहा था रहमान भांप गया, बोला ये अफगानी रोटी है बाज़ार से खरीद कर लाया हूं खासतौर से आपके लिए क्योंकि आप शाकाहारी हो ।


.....वो रोटी किसी तौलिए के बराबर बड़ी थी और इतनी सूखी हुई थी कि लगभग दस दिन पहले की बनी लग रही थी । बाद में पता चला कि कई देशों में ऐसी ही सूखी रोटी खाने का चलन है । हिन्दुस्तान की तरह ताजी रोटी सब मुल्क में नहीं चलती । ज्यादातर लोग दुकान दे ही रोटी खरीद कर लाते हैं । भारत में तवे की गरमा गरम रोटी का ही जलवा रहता है ।


    आयुर्वेद के अनुसार बासी रोटी के अलग ही गुण हैं कई रोगों को मिटाने के लिए बासी रोटी खाने की सलाह भी दी जाती है । आधुनिक विज्ञान दस दिन पुराने ब्रेड और महीनों पुराने बिस्किट को तो बर्दाश्त कर लेता है लेकिन रात की बासी पर आज भी नाक भौं सिकोड़ लेता है । खैर ये परम्परा धीरे धीरे गौहन्ना से भी गायब हो रही है 


    फिर भी सुबह सुबह काम पर जाने वाले किसान को जब बासी लेे के उसकी घरैतिन पहुंचती है तो उसके चेहरे की मुस्कान दुगुनी हो जाती है । थकान तो बासी खाते खाते अपने आप ही उतर जाती है ।


(गौहन्ना. कॉम पुस्तक का अंश)