Wednesday, October 7, 2020

बड़ेगांव -बड़गईंया :

 बड़ेगांव- बड़गईंया -


    ग्रामीण जीवन की एक विशेषता होती है कि वो कठिन से कठिन बातों को भी बड़ी आसानी से कह देती है और बहुत सी बातों को हंसी मजाक में उड़ा देती है । अगर आपस में झगड़ा या मन मुटाव भी हो जाय तो कुछ दिन बाद ख़तम हो ही जाता है । 


गौहन्ना के आस पास के लगते हुए गांवों में एक दूसरे पर तंज कसने के लिए कुछ स्थानीय भाषा के मुहावरे प्रचलित थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले अा रहे थे । हो सकता है आज भी कुछ लोगों को याद हों लेकिन ये परम्परा अब लुप्त प्राय हो रही है । वैसे ये अध्ययन और शोध का विषय है कि ऐसा किन कारणों से रहा होगा ? फिर भी एक दूसरे गांव के बीच ये चुहल बाजी बड़ी रोचक थी । 


गौहन्ना और मीसा दोनों गांव आपस में आधा किलोमीटर की दूरी पर है इन दोनों गांव के लोग अक्सर जुमला दोहराते हैं -


जब गौहन्ना वाले बोलते हैं तो -


'मीसे मांगे भीख

गौहन्ना काढ़े खीस '


जब मीसा वाले अपनी तारीफ करेंगे तो कहेंगे-


'मीसा काढ़े खीस  

गौहन्ना मांगे भीख '


बताते हैं मीसा और गौहन दो सगे भाई थे जिन्होंने ये दोनों गांव बसाए । श्रेष्ठता दिखाने के लिए दोनों गांव एक दूसरे से इसी जुमले के सहारे मजे लेते हैं । हालांकि दोनों गांव के रिश्ते बड़े मधुर और सबसे पुराने हैं ।


ठीक इसी तरह बड़ागांव जो आस पास के दस किलोमीटर की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है के लिए इजाद किया गया जुमला है 


'बड़ेगांव बड़गईंया

मुर्गी चले बकइंया '


  अब बड़ागांव में मुर्गी ही ज्यादा पाली जाती थीं क्योंकि इस्लाम बहुल इलाका था तो उसके लिए आसान जुमला यही ईजाद हो गया और सबकी जुबान पे भी चढ़ गया ।


   गौहन्ना गांव से एक कोस दक्षिण की दूरी पर स्थित है मुंशी का पुरवा गांव और उसी के बगल है बलैया गांव । अब दोनों के रिश्ते जब से बने बिगड़े हों लेकिन उनका मुजरा सुबह सुबह ही होगा ये कहावत आम है -


'मुंशी कै पुरवा बलैया के डाड़ें 

मोर तोर मुजरा होय भिंसारे '


अवधी भाषा के लोक कवियों में किसने इस तरह की सूक्तियां विकसित की इसका कोई उल्लेख किताबों में नहीं मिलता । बस परम्परा ही इतिहास है और इतिहास ही परम्परा ।


     बताते हैं कि कभी कभी कई गांवों की पंचायतें एक साथ बैठ कर आपसी मुद्दे सुलझा लिया करती थीं । लोगो में संवाद था विवाद नहीं । विवाद हल करने के लिए सोलह गांवों की पंचायतों के साथ बैठने की लोक श्रुति हमने भी सुनी है । आपस में खान पान का रिश्ता कई गांवों तक था । इस खान पान के भौगोलिक दायरे को जेंवार कहा जाता था और जेंवार बाहर होने का मतलब था किसी व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार । इस प्रकार समाज का अनुशासन सब पर भारी था इसलिए जुर्म भी कम या न के बराबर थे । अगर कोई घटना हो भी गई तो सालों साल मुकदमे नहीं चलते थे दंड देकर या जुर्माना भर कर मामला निपटा दिया जाता था । दंड को इस इलाके में डांड़ नाम से भरवाया जाता था । जिसे पंचायत लेती थी ।


गौहन्ना से एक कोस पूरब में सनगापुर गांव है और उसी के बगल में पिरखौली गांव भी है । दोनों की जनसंख्या में 

ठाकुर लोगों का बाहुल्य है । अब ठाकुर हैं तो मूंछ की लड़ाई लगी ही रहती है । इन लड़ाइयों के चक्कर में दोनों गांव के लिए जो जुमला बना वो था-


' सनगापुर पिरखौली

चले दना -दन गोली '


अब इस तरह के लोक मुहावरे कुछ ही शब्दों में गांव के मूल चरित्र का भी चित्रण कर दिया करते थे । अगर कोई नया आदमी किसी गांव को जा रहा हो तो दूसरे गांव वाला संकेतों में ही गांव के बारे में बहुत कुछ इन्हीं कविताओं से समझा देता था ।


ये लोकोक्ति सिर्फ इन्हीं गांवों तक सीमित नहीं थीं हर इलाके के अपने जुमले और मुहावरे थे जो अब केवल बुजुर्गों की यादों में ही जिंदा हैं ।  अब ये परम्परा धीरे धीरे विस्मृत हो रही है इससे पहले कि ये लुप्त हो जाय , लेख बद्ध तो हो ही जानी चाहिए । क्या पता किसी सामाजिक शोध के लिए उपयोगी हो जाय ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश )

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