Tuesday, October 13, 2020

फरा-

 फरा :


(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से )


   कुछ नया नाम लग रहा है न? लेकिन गौहन्ना में ये नाम न जाने कब से चल रहा होगा । अवध क्षेत्र में इस व्यंजन को फ़रा नाम से ही जानते हैं । आपकी सुविधा के लिए बता दें कि इसकी तुलना आप मोमोज से कर सकते हैं । लेकिन दोनों में थोड़ा अंतर भी जानना जरूरी होगा नहीं तो इस अवधी व्यंजन के आंनद को महसूस नहीं कर पाएंगे ।


    जिस तरह हर क्षेत्र का कुछ खास व्यंजन होता है उसी तरह अवध क्षेत्र का फरा बहुत खास होता है । इसे चावल के आटे से बनाते हैं और चावल के आटे की छोटी छोटी पतली रोटियों के ऊपर उड़द की पिसी भीगी हुई मसाले वाली दाल इसमें भर दी जाती है । किसी छोटी कागज की नाव की तरह इसका आकार होता है लेकिन इसका मुंह खुला रहता है । फरा को बटुली या पतीली के ऊपर भाप में लगभग बीस से पच्चीस मिनट पकाना पड़ता है ।

मोमोज और फरा में मूल अंतर मुंह के खुले और बन्द होने का होता है। मोमोज पूरी तरह बन्द होता है जबकि फरा का मुंह खुला रहता है और इसका अंदर का सामान बिल्कुल नायाब होता है ।


    कहते हैं कि किसी पर्यटक स्थल पर जब लोग जाते है तो वहां के स्थानीय व्यंजन ढूंढ़ते हैं । लेकिन अवध के ढाबे और होटल अवध के कम पंजाब के नकल में ज्यादा फंस गए, इसलिए वहां आप फरा नहीं ढूंढ़ पाएंगे । करते भी क्या ट्रक का हाईवे, ड्राइवर, खलासी सब पंजाब के तो खाना भी उसी तरह का चल निकला किसी का ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि अयोध्या भ्रमण पर आने वाले पाहुन को लोकल डिश की भी तलाश होगी ठीक उसी तरह जिस तरह आपको दक्षिण भारत में सांभर- डोसा की तलाश रहती है । ठीक उसी तरह जब आप गुजरात में ढोकला और खांख्रा ढूंढ़ते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप पंजाब में मक्के की रोटी और सरसों का साग ढूंढ़ते हैं जो आपको वहां के हर ढाबे पर मिल जाता है ।


   गौहन्ना और आस पास के क्षेत्र में फरा बनाने के लिए चलनी या जालीदार सिकहुला का प्रयोग किया जाता है । इसको बनाने का चलन कार्तिक मास से फाल्गुन तक ज्यादा होता है । तैयार फरे को घी के साथ खाने का आंनद ही कुछ और होता है । आम या इमली की मीठी चटनी के साथ इसे परोसा जाता है । इसको गरमा गरम खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन अगर ये बच जाए तो घी और जीरे के छौंक के साथ इसे नए अंदाज में आप खा सकते हैं । इस डिश के साथ गांव में गन्ने के रस से चावल का रसियाव भी खाया जाता है । जो किसी खीर की तरह बनता है । गांव के इन व्यंजनों में जन्मों जन्मों की तृप्ति एक साथ मिल जाती है । 


    फरा के सीजन में ही दलभरी पूड़ी का चलन भी रहता है । चने की दाल को पीस कर रोटी के अंदर भर कर बनाने की कला गांव - गांव में प्रचलित है । ये दलभरी पूड़ी तवे पर बड़े इत्मीनान से सरसों के तेल में सेकीं जाती है और मक्खन , गुड या अचार खासकर भरवा मिर्चे के साथ परोसी जाती है ।जिस के मुंह ये एक बार लग गई तो लग गई फिर आदमी आलू का पराठा खाना भूल जाता है ।

   इस तरह के न जाने कितने व्यंजन अवध की स्थानीय ग्रामीण संस्कृति में घर - घर बनाए जाते हैं । इनमे से कुछ की चर्चा करते रहेंगे । फिलहाल जब तक होटल और ढाबे में ये डिश नहीं बनने लगती तब तक जब भी अवध क्षेत्र के ग्रामीण अंचल में जाएं तो इन व्यंजनों को खाना न भूलें ।संकोच मत करिएगा कि कोई खिलाएगा नहीं । जम के लोग खिलाएंगे , खुश होकर खिलाएंगे ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक से साभार )

1 comment:

  1. फरा एक विशिष्ट पहचान है अवध क्षेत्र की। आपने बड़ी खूबसूरती से इसे लेख/ब्लॉग का रूप दिया है। इसे जल्द ही मैं अपने फ़ेसबुक वॉल और कई व्हाट्सएप ग्रुप में प्रचारित प्रसारित करूँगा। ~ सादर 🙏

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