Tuesday, September 29, 2020

सधई बाबा -

 सधई बाबा :

       

         ( ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया  से)

"अरे हरी राम के सधई बाबा आए हैं पीपल के पेड़ पर चढ़े हैं "।


    हरी राम वैसे तो दुबले- पतले थे और कद- काठी में भी सामान्य थे, लेकिन जब उनके ऊपर सधई बाबा सवार होते थे तो असामान्य कार्य उनके बांए हाथ का खेल होता था । दस दस आदमी उनको पकड़ने की कोशिश करते थे और वो उन्हें झटक देते थे । 


    आज हरी राम पर फिर से  सधई बाबा की सवारी आई थी और वो पेड़ पर चढ़े हुए थे । वैसे तो हरी राम को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था लेकिन जब सवारी आती थी तो दौड़ते हुए पेड़ पर चढ़ जाते थे । 


"बाबा आपकी हाई स्कूल कै इम्तिहान है पास होब कि नाही" । किसी विद्यार्थी ने पूछा ।


 "पास होय जाबो बच्चा" - उत्तर मिलता था और विद्यार्थी के हौसले बुलंद हो जाते थे ।


   ये आत्माओं की सवारी गौहन्ना गांव में कुछ लोगों को ही आती थी। लोगों के लिए वे आशा के केंद्र थे उम्मीद ये कि हर समस्या का समाधान ऐसी जगह मिलेगा । उनका सम्मान उनके डर की वजह से ज्यादा होता था । रास्ते में ढरकौना चौराहे पर मिल जाय तो अनिष्ट की आशंका बनी रहती थी । गलती से भी उसे कोई पार नहीं करता था । 


   कोई बच्चा खो गया , भैंस दूध नहीं दे रही , औरत विदा होकर नहीं अा रही, पति परदेस से कब लौटेंगे, लड़के को नौकरी कब मिलेगी , बीमारी कैसे ठीक होगी इन सभी समस्यायों का समाधान ग्रामीण जनता को इन लोगों के पास मिल जाता था । कहने का मतलब इनके ठिकाने 'सिंगल विंडो सिस्टम' होते थे जो हर समस्या को हल कर सकते थे । तीर कहें या तुक्का, अक्सर लोगों को फायदा हो भी जाता था । 


   गांव में हठीले बाबा कोई मुस्लिम आत्मा थीं तो किसी पे  बरम बाबा का साया था कोई किसी से ठीक होता था तो किसी को किसी दूसरे से फायदा होता था । मिठाई के बप्पा राम परसाद पाड़े कलमा पढ़ के झाड़ते थे तो बेचन बाबा लोहबान सुलगा के भूत उतारते थे । लल्लू पाड़े का इलाका दूर दूर तक फैला था  । बड़ी दूर दूर से लोग उनके यहां हाजिरी लगाने आते थे । खेत पात नाम मात्र ही था शादी हुई नहीं थी यही उनकी जीविका थी और यही उनका धंधा भी ।


      नजर उतारने वालों में बूढ़ी दादी का जवाब नहीं था जम्हाई लेते हुए चुटकी में नजर उतार देती थीं लेकिन हां मंगल और बीफै (बृहस्पति वार) को ही नजर झाड़ी जाती थी किसी और दिन नहीं । भैंस , गाय , नई बहू तो नजराती ही थीं कभी कभी बड़े बूढ़े भी नजरा जाते थे । अब नजर उतारने का कोर्स डॉक्टर को तो पढ़ाया नहीं जाता सो इस विद्या की डॉक्टर तो बुढ़ेई दादी ही थीं ।

घिर्राऊ के मेहरारू को ज्वाला माई की सवारी आती थी तो मस्टराइन को शीतला माई का वरदान था ।


   अगरबत्ती , लोह बान , कपूर , मिर्च, डली वाला नमक, झाड़ू या डंडा  ये सब इन सिंगल विंडो सिस्टम के उपकरण हुआ करते थे । विज्ञान के दौर में जब गांव में डॉक्टर न मिले तो बीमार को कपूर और लोबान का धुंआ डिस इन्फेक्टेंट का थोड़ा बहुत काम कर ही देता था ये उसका साइको इफेक्ट होता था कि उसका मनोबल ऊंचा हो जाता था और वो जल्दी ठीक होने लगता था । गाय के गोबर की भभूत आयुर्वेद में वैसे भी औषधि के समतुल्य मानी गई है ।


    कहते हैं आदमी का मन ब्रह्माण्ड की शक्तियों का केंद्र है इससे जो चाहो करवा लो । पल भर में कहीं घूम लो तो पल भर में कहां क्या हो रहा ये पता कर लो ।  परा विद्या पूरी दुनिया में रहस्य, रोमांच और संशय का केंद्र रही है जिसे विज्ञान ने कभी मान्यता नहीं दी । लाख विज्ञान पढ़ने के बाद भी आज भी जब निम्मल बाबा जैसे लोगों के पीछे  डॉक्टर इजीनियर और शहरी समाज की भीड़ उमड़ती हो तो उन बेचारे गरीब ग्रामीणों का क्या दोष जिनको न विज्ञान का ककहरा पता है और न ही समस्या का वैज्ञानिक समाधान ।


   फिर भी ओझा देवा, सोखा , की ये परंपराएं मानव शास्त्र में विस्तार से पढ़ी लिखी और समझी जाती हैं । शोधकर्ताओं के लिए आज भी ये संस्कृतियों को समझने के साथ साथ कौतूहल का केंद्र भी हैं । 


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

Monday, September 28, 2020

चना चबैना-

 चना चबैना -

     (ललित मिश्र के ब्लॉग 'झल्लर मल्लर दुनिया' से)

चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार 

काशी कबहुं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार


   चना -चबैना  अवध के ग्रामीण क्षेत्र का अभिन्न हिस्सा रहा है । सुबह सुबह अगर चबैना न मिले तो दिन की शरूआत अधूरी सी लगती है ।

हल लेकर खेतों को  जाते हुए किसान से लेकर बस्ता टांगे  स्कूल जा रहे विद्यार्थियों तक चबैना का साथ न जाने कितनों की यादों में रचा बसा होगा ।


  संस्कृतियां जीवंत किताबें है 'गौहन्ना' में उन दिनों चाय की बजाय सुबह सुबह दिशा -फराकत के बाद जब भूख लगती थी तो चबैना  ही जल्दी से सुलभ होने वाला स्नैक्स था । एक बार भुजा लिया तो महीने भर चलता था ।

मेहमानों का स्वागत अक्सर चबैना  से ही होता था । एक नोइया या मवनी जो सरपत और सींक की बनी होती थी, में चबैना भर कर गुड के साथ ही पाहुन को पानी पिलाने की परम्परा थी मजाल था कि सादा पानी परोस दिया जाए । साथ में नमक- मिर्च, लहसुन, धनिया की सिल बट्टा पर पीसी चटनी का मज़ा ही कुछ और होता था ।


   चबैना कुकरी शास्त्र यानि पाक कला का अर्वाचीन आविष्कार कहा जा सकता है जब लोग ऐसा भोजन चाहते थे जो बिना सड़े गले कई दिन तक वैसा ही बना रहे । दूर सफर का साथी भी ऐसे ही भोजन हो सकते थे । कैसे भी बांध लिया, कहीं भी खा लिया अलग से किसी चीज की जरूरत नहीं । इसलिए चबैना  या भूजा संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बन गया । गांव में इसे बनाने के लिए पहले धान को उबाल कर धूप में सुखा कर भुजिया बना लिया जाता है फिर भूसी हटाकर भाड़ में बालू पर रोस्टिंग की जाती है ।


चबैना इतनी सुलभ वस्तु थी कि  कैकेई ने वरदान मांगने के बाद किंकर्तव्य विमूढ़ राजा दशरथ को ताना मारते हुए कहा था ..


..जानेहु लेइहि मागि चबेना  


(राम चरित मानस, अयोध्या काण्ड)


  सामूहिक रूप से  सभी चबैना सभी भूजे हुए अन्न का प्रतिनिधित्व करता है । गेंहू के रूप में गुड़ धानी बन जाता है तो मक्के के रूप में मुरमुरा । ज्वार के रूप में लावा बन जाता है तो कच्चे बाजरे के रूप में परमल। बड़े बड़े शहरों में भेल पूरी के नाम से जाना जाता है और बड़ी अकड़ के साथ बिकता है ।


    गांव में इनको भूजने वाले तीन परिवार हुआ करते थे जहां सुबह शाम लाइन लगा करती थी । 

'भुजइन अम्मा' का ये पैतृक पेशा था जिनके पास दो भाड़ थे एक मटकी वाला तो दूसरा लोहे की कड़ाही वाला ।

दिन भर की मेहनत के बाद बाग के पत्तों को इकट्ठा कर मैता, सुभागा और कबूतरा दीदी मुश्किल से दो दिन भाड़ चलाते थे उस पर भी भुजाने वालों का ये आरोप रहता ही था कि ज्यादा भुजौनी निकाल लिया । भगत भुजवा और उनकी पत्नी रेलवे लाइन के पार अपना काम करते थे बाद में उनके घर के उपर से सड़क निकल जाने से उन्होंने अपना भाड़ गांव किनारे मुरावन टोला में खोल लिया था ।

महरिन काकी के कोई संतान न थी लेकिन उन्हें चबैना भूनने का हुनर जबरदस्त था । लेकिन उनका भाड़ रोज नहीं जलता था ।

 

  जब हम लोग स्कूल जाते थे तो दोपहर में भूख मिटाने के लिए घर से गुड चबैना ही मिलता था । कपड़े में बांध कर झोले में रख के चबैना लेे जाते थे और साथियों के साथ खाते थे । खेतों में काम कर रहे किसान और मजदूरों के लिए भी सुबह का पन पियाव अक्सर चना 

चबैना ही होता था । 


 गांव में धीरे धीरे चबैना का स्थान बड़े बड़े दाने वाली लईया ने लेे लिया और दुकानों पर बिकने वाले बड़े भुने चनों ने भाड़ और भुजाने की परम्परा को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया । भुजिया करने की फुरसत किसी को नहीं थी । उधर नमकीन और दालमोट चबैना से ज्यादा स्वादिष्ट लगने लगी थी । बाद में पता चला कि कुछ जलदीराम टाइप कम्पनियों ने उसे ढ़ंग से पैक कर चबैना से नमकीन बना कर बेच दिया । अपना मुरमुरा यानि पॉप कोर्न तो सिनेमा हाल की पहचान ही बन गया ।

 

..."मिश्रा जी आपको विटामिन बी 12 चेक करवा लेना चाहिए "। डाक्टर ने कहा 


मैंने पूछा क्यों?


"एक तो आप वेजेटेरियन हो और दूसरे आपका काम दिन भर दिमाग से जुड़ा हुआ है । बी ट्वेल्व आपके लिए जरूरी है "। - डॉक्टर ने कहा ।


  घर आकर मैंने सोचना शुरू किया कि देखा जाय कि किस शाकाहारी आहार में ये ज्यादा मिलेगा । तो पता चला कि पफड राइस , मक्के आदि में ये ज्यादा मिलेगा ।

सोचा ये तो मैं बचपन से ही खा रहा था। छोड़ने का घाटा ये हुआ कि बी- ट्वेल्व की टेबलेट खरीदनी पड़ी ।

उसी दिन बाज़ार से ढूंढ कर चबैना फिर से टेबल पर सजा लिया । शाम को ऑफिस से लौटने के बाद 

चबैना के साथ आज भी उन्हीं यादों में खो जाता हूं जिसे बचपन में जिया था । सबसे अच्छा तो तब लगा जब ट्रेन के एसी डब्बे में भी बंगाल का एक परिवार थाली भर कर भूज़ा लिए बैठा था । अपनी जड़ों से जुड़े रहने का यह एक सुखद अहसास था । अवध के साथ साथ बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, बुंदेलखंड आदि का ये आज भी पौष्टिक आहार है ।


    वैसे युवा पीढ़ी चाहे तो एक अच्छा स्टार्ट अप इससे शुरू हो सकता है बेचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्म तो हैं ही और हमारे जैसे खरीद दार भी मिल ही जायेंगे ।

(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश)

Sunday, September 27, 2020

परत दर परत एक गांव -



   कहते हैं हर जगह इतिहास के पन्नों जैसी होती है और हर जगह का एक इतिहास होता है । सो 'गौहन्ना' उससे अलग कैसे ? न जाने कितनी सदियों के थपेड़े खा के भी ये गांव जिंदा है . जिंदा इसलिए कि आधा से अधिक गांव जिस डेहवा मोहल्ला पर बसता है वो गांव के दूसरे कोने की दुमंजिली छत के समानांतर होता है कहने का मतलब उस कोने की दुमंजिल आज भी डेहवा की नींव के बराबर होती है ।


    बताते हैं कि कई बार डेहवा की खुदाई के दौरान बड़े बड़े असामान्य प्रकार के ईंट मिलते रहे हैं । लोगों का कहना है कि कुछ गहने और तांबे के सिक्के भी मिले लेकिन लोगों ने छिपा लिए । इन तांबे के सिक्के का एक नमूना देखने को तब मिला जब खेल खेल में ही अपनी दोस्ती 'मिठाई भाई' से गहरा गई थी -


"केहू से बतायो न भाय 

बप्पा हमका बहुत मरिहैं "


    मिठाई के भरोसे से दिखाया गया वो सिक्का अनगढ़ और मोटा था मोटाई कुछ यूं जितना आज का तीन या चार सिक्का समा जाय । कुछ ऐसा याद आता है कि किसी आदमी की आकृति भी थी । 


   जब तक इतिहास और पुरातत्व की जानकारी होती तब तक बहुत से साक्ष्य बिखर गए और बिना साक्ष्य के इतिहास कैसा ? और फिर अदने से गांव के पुरातत्व को मानेगा कौन? फिर भी इतनी जल्दी इस गांव का इतिहास समाप्त हो जाय तो गांव का नाम गौहन्ना कैसा ?


  लगता है वैदिक कालीन आर्य यही रहते रहे होंगे गौ पालन इतना रहा होगा कि गांव का नाम ही गौ से पड़ गया । परत दर परत न जाने कितनी बार ये गांव बसा और उजड़ा होगा ? उन्नीसवीं सदी में जब गांव के बीच से रेलवे लाइन गुजरी तो न जाने क्या क्या मिला लेकिन कहीं रिकॉर्ड न हो सका । बस लोगो की चर्चा का विषय ही बना रहा । गांव का हज़ार साल से अधिक पुराना बरगद का पेड़ यानि 'चक्का बाबा' लोक परम्परा में सदियों से पूजित है वो भी अपने आप में स्वयं जीता जागता इतिहास है ।


   जो रिकॉर्ड हो सका उसमे आज भी सिर रहित चार हाथ वाले विष्णु भगवान की मूर्ति है जो काले पत्थर की है नक्काशी इतनी अद्भुत है कि लगता है सुई से तराशी गई हो । मूर्ति के पैरों के पास यक्षिणी की नृत्य मुद्रा की मूर्ति , विष्णु जी के पैरों तक मेहराब दार वस्त्र कम से कम इसे सेन काल या गुप्त काल तक लेे जाते हैं । यह मूर्ति गांव के पास डोभी तालाब की खुदाई के समय मिली थी जिसे मुस्लिम आक्रमण कारियों ने तोड़ कर तालाब में फेंक दिया था, ऐसा कहते हैं । फिलहाल उस पर गांव वालों ने अनगढ़ सिर की स्थापना कर के लाल पीले रंग से पेंट भी कर दिया है ।


   गांव के उत्तर में काली माई का चौतऱा दासियों खंडित मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों के साथ बहुत कुछ कहता है । शीतला माई के स्थान पर सबसे ज्यादा बलुआ पत्थर की मूर्तियां हैं किसी का सिर तो किसी का धड किसी को देखकर पुरुष व किसी में स्त्री का अंदाजा लगता है । सिर के चारों तरफ मुकुट जैसा चक्र या मण्डल भी मिलता है । उसमें देवी देवता की पहचान करना थोड़ा मुश्किल होता है बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है । गहने भी मूर्तियों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।

मिट्टी की पकी मूर्तियां खासकर सिर का भाग बहुतायत से गांव के  हर देव स्थान पर हैं ।


    शीतला माता रोगों से बचने की देवी हैं तो पूरब में भवानी बगिया में ज्वाला माई ,बूढ़ी माई और भैरों बाबा के डीह इन्हीं  मृण मूर्तियों व प्रस्तर मूर्तियों से भरे पड़े थे जो समय के साथ इधर उधर भी हो गए । 


    कारे देव बाबा की मूर्तियों पर नाग पंचमी को दूध और लावा भीगे बदन, मौन रहकर चढ़ाने जाना पड़ता था । दक्षिण में मेंहदी महरा और पश्चिम में बाबा हरदेव पर भी इसी तरह की मूर्तियों के अवशेष आज भी मिल जाएंगे । ये सब भले ही पाषाण काल की निशानी न हो फिर भी कांस्य या ताम्र युग तक की संभावना से जरूर जुड़े होंगे ।

गौरैया बाबा की बगिया के पास तालाब में मूर्तियों के साथ साथ एक दस फीट से बड़ा आदमी का जीवाष्म मिलने के बाद गांव वाले डर गए थे  । बकौल स्वामी दयाल श्रीवास्तव चाचा व अन्य कईयों के अनुभव में डेहवा में आज भी खुदाई करते समय ऐसा लगता है कि नीचे कोई  कमरा या घर  हो । 


   लोक कथा के अनुसार बुजुर्ग लोगो का मानना ये भी है कि कभी यहां भर नामक यायावर पशुपालक प्रजाति यहां रहती थी जो अपने पूर्वजों के नक्शे लेकर गांव में बीजक लगा कर खजाने की खोज में डेहवा आते रहते थे ।उनका बीजक सूर्य की रोशनी या परछाईं किस माह में कहां पड़ेगी उस सिद्धांत पर आधारित होता था ।


   आज भी शादी विवाह के समय या किसी शुभ आयोजन के लिए इन सभी डीह -डयोहार को पूजने जाना पड़ता है  । जो इस बात की पुष्टि करता है कि पुरातन इतिहास और संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए रखना है कभी तो कोई ऐसा आएगा जो बताएगा कि इस गांव में मानव सभ्यता कितनी पुरानी रही होगी ?


(gauhanna.com से )

दुरदुरिया-

 *दुरदुरिया*-


(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से)


    ये नाम कैसे और कब पड़ा होगा? कहना मुश्किल है. लोक मान्यताएं कब विकसित हुईं कब उनका स्वरूप कैसा रहा होगा? इसे लोगों से सुनकर ही जाना जा सकता है . इसका लिखित इतिहास बहुत कम ही होता है और हां इतिहास सबूत मांगता है इसलिए दुरदुरिया भले ही कितनी पुरानी हो लोक मान्यता के पैमाने पर अवध क्षेत्र की पवित्र प्रथाओं में से एक है जिसे सुहागिनें मनौती के रूप में या मनौती पूरी होने के रूप में आयोजित करती हैं । इतिहास का पन्ना इसे समेट नहीं सकता, समझ नहीं सकता ।


"मम्मी आज संतोष के घर दुरदुरिया है 

आपके बलौवा है "।


.."कितने बजे "?


"दस बजे" ।


     कह कर अम्बरीष नाऊ की पत्नी आगे बढ़ गई । उधर भड़ भूजा के यहां दुरदुरिया का भुजिया चावल भुनाने के लिए संतोष का बेटा जा पहुंचा। गांव में तीन जगह भाड़ जलता था एक भुजइन अम्मा के यहां , दूसरा भगत भुजवा के यहां और तीसरा महरिन अम्मा के यहां । भुजाने वालों की अपनी पसंद अलग- अलग थी किसी को भगत की भुजाई पसंद थी तो किसी को महरिन अम्मा की । लेकिन इनके भाड़ हमेशा नहीं जलते थे सिर्फ एक भुजइन अम्मा का भाड़ दो चार दिन छोड़ दें तो हमेशा जलता था ।


"मैता ई दुरदुरिया कै चाउर है 

यका पहले भूज देव "


..भुजइन अम्मा बोलीं 


"अच्छा अम्मा " मैता दीदी की आवाज आई 


"लाओ भैया 

केकरे घर के होव"?


उत्तर - 

"संतोष के, आज दुरदुरिया है"


  दुरदुरिया की पूजा में सात सुहागिनें बुलाई जाती हैं और उनको यही भुने चावल अर्थात चबैना या यूं कहें कि धान की लाई सभी स्त्रियों को दिया जाता है। सभी स्त्रियां स्नान आदि के बाद भूखे पेट दुरदुरिया की पूजा में शामिल होती हैं । सभी सातों को आयोजक स्त्री जिसने मनौती मानी होती है उसके कोंछ में थोड़े- थोड़े हिस्से भरने पड़ते हैं। इस प्रकार सबके सहयोग से उसका काेंछ भर जाता है और माना जाता है कि इस आशीर्वाद से मनौती पूरी हो जाएगी । फिर औसाना या अवसाना माई की कथा होती है । सिंदूर माई को चढ़ाकर प्रसाद के रूप में खुद भी लगाया जाता है । मिल बांट कर एक दूसरे को सहयोग और आशीर्वाद का यह आयोजन अवध और आस पास के इलाके में हर गांव में मिल जाएगा । संतोष और उम्मीद की यह मान्यता किसी को निराश नहीं होने देती । 


    वैसे तो उनका नाम अलका है लेकिन गांव में सारे बच्चे उनको 'मम्मी' ही कहते हैं जो अपने समय की सबसे पढ़ी लिखी महिला रहीं । बकौल मम्मी आैसाना माई अवसाना का अपभ्रंश है । दुरदुरिया गौरी यानि पार्वती जी की ही पूजा है । जब सीता जी भगवान राम को देखने के बाद गौरी जी की पूजन को गईं तो प्रार्थना की ..


नहि तव आदि मध्य अवसाना 

अमित प्रभाव बेदु नहि जाना 


भव भव विभव पराभव कारिनि 

बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि


.. (राम चरित मानस बाल कांड)


राम के इलाके में उनके आराध्य आदि देव भगवान शिव की पत्नी गौरी जी की पूजा तो होगी ही वो चाहे जिस रूप में क्यों न प्रचलित हो । गौरी गणेश के बिना आज तक कोई पूजा हुई है क्या?


   शास्त्र के दृष्टकोण से भले ही इसका वर्णन न मिलता हो और अवसाना का दूसरा अर्थ हो लेकिन समाज शास्त्रीय दृष्टि कोण से गौरी पूजा का स्थानीय करण होकर अवसाना माई की पूजा के रूप में ये आज भी प्रचलित है । इसे दुरदुरिया नाम कैसे मिला होगा ये शोध का विषय है फिलहाल इतना ही मान लेना पर्याप्त है कि दाने चबाने के समय आने वाली दरर -दरर की आवाज से इसका सम्बन्ध हो सकता है ।


  जब भी कभी अवध क्षेत्र का समाज शास्त्रीय अध्ययन होगा लोक मान्यता का ये त्योहार बहुत गूढार्थ भरा मिलेगा ।


(गौहन्ना.कॉम से )

Saturday, September 26, 2020

इस तन का इंजन समझ लिया

 इस तन का इंजन समझ लिया -


   "अरे गैस जलाओ हो , कीर्तनिहा आवत होईहैं" ।

आवै दियो अबहीं मिंटर नहीं आवा ।

थोड़ी देर में पेट्रो मैक्स का मिंटर उजाला ही उजाला फैला देता था । पेड़ पर चढ़ कर कोई लाउड स्पीकर का भोंपू सेट कर आता था ।


   गौहन्ना  की कीर्तन मण्डली आस-पास के इलाके में शानदार कीर्तन मण्डली हो चली थी । इस कीर्तन मण्डली की शुरुआत सन अस्सी के लगभग हुई थी और थोड़े बहुत पैसे जोड़-जाड़ कर एक हारमोनियम , एक ढोलक और एक जोड़ी मंजीरे की व्यवस्था बन गई थी । गांव में जिसको कीर्तन करवाने का मन होता था बस उसे पेट्रोमेक्स यानि घासलेट वाली गैस लाइट की और हो सके तो माइक की व्यवस्था करनी होती थी । माइक न हो तो भी चलेगा । सब कुछ फ्री था । बस भजन कीर्तन की मस्ती पे सब कुछ न्यौछावर था ।


   शाम आठ बजे के लगभग राम नेवाज दादा की ढोल कसने लगती थी और पन्द्रह बीस मिनट में मण्डली अपना आलाप लेे लेती थी ..


.. गाइए गणपति जग बंदन 

शंकर सुवन भवानी के नन्दन ..


  "अरे चलौ हो मिसिर दादा के दुवारे कीर्तन होय लाग" मतलब मास्टर साहब का कीर्तन शुरू हो गया । 

मोहल्ले की एक आवाज ने सबके कदम मिसिर दादा की घर की ओर मोड़ दिए । मास्टर साहब यानि श्री संतराम त्रिपाठी जो उन सबके सर्वमान्य मुखिया थे जिनके घर सारा साजो-सामान जमा रहता था अक्सर शुरुआत वही किया करते थे ।


   अगला नंबर राम मिलन मौर्या का हुआ करता था 

बड़ी मधुर आवाज में मंजीरे की ताल के साथ वो गाना शुरू करते ..


सीता राम से, राधे श्याम से 

लागी मेरो लगन, चारों धाम से ..


   अरे वाह मौर्या जी एक और ...

राम मिलन मौर्या और भगवान बख्श मौर्या जिन्हें लोग डाक्टर साहब भी कहते हैं, दोनों सगे भाई हैं 'मिलन' बड़े तो डाक्टर मौर्या छोटे । डाक्टर मौर्या भजन लिखने का भी शौक रखते हैं और अपने भजन में नए-नए प्रयोग अभी भी करते रहते हैं। अलंकार विधा के साथ साथ फिल्मी अंदाज में भी गानों को नए अंदाज में पेश करने का उनका अभी भी इलाके में कोई सानी नहीं है । मौर्या जी को सुनने के लिए भीड़ दूर -दूर से आती थी। क्या सहजौरा, क्या मीसा, क्या बड़ागांव - सब डाक्टर मौर्या के फैन थे। डाक्टर मौर्या के पहले अगर श्री राम तेली दादा को मौका न मिले तो वो नाराज़ हो जाते थे इसलिए उन्हें अक्सर मौर्या से पहले ही मौका दे दिया जाता था । जिस तरह नामी वक्ता के बोलने के बाद भीड़ खिसक जाती है उसी तरह मौर्या जी को सुनने के बाद भीड़ इक्का दुक्का ही मिलती थी।


   नेवाज़ दादा यानि ढोलकिहा को कितनी भी झपकी आ जाय मगर मजाल था कि कीर्तन पर ढोलक की लय बिगड़ जाय । बताते थे कि उनके सामने अच्छे अच्छे तबला वादक भी पानी भरते थे । उनके बुढ़ापे के समय में राम नरेश उर्फ मस्ताना अलबत्ता ढोल को समझ चुके थे । मस्ताना के आने के बाद  अब ढोल नए अंदाज में मटकने लगी थी लंबू बढ़ई की हारमोनियम अब ढोल की आवाज में दब जा रही थी । इसलिए धीरे धीरे मस्ताना ने पेशेवर अंदाज में हारमोनियम पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया था ।


 श्री राम तेली दादा शरीर से दुबले पतले जरूर थे लेकिन जब गाना शुरू करते थे तो पंडाल हिला के रख देते थे..


.. चोरी माखन की दे छोड़ 

कन्हैया मैं समझाऊं तोय 


बड़े घरों की राधा रानी 

नहीं बरेगी तोय 

..और फिर उमंग में जो नाचना शुरू करते थे तो पुरवइया ही भजन पूरा करते थे श्री राम तेली दादा की मस्ती बहुत देर बाद ही टूटती थी ।


   पुरवईयों में बृजराज पाड़े के साथ जय कुमार , बीरे, सुमिरन , नोहर दादा , कल्लू पाड़े , बलवंत के पापा की टीम हुआ करती थी और अच्छे श्रोताओं में वकील साहब , नेगपाल , भूखल और मुल्ला पाड़े का जवाब नहीं था कहो तो रात-रात भर कीर्तन चलता रहे। भोर की पुरवाई के पहले झोंके की ठंडक से ही पता चलता था कि अब सुबह हो रही है और खेत में भी जाना है ।


"आओ हो वकील साहब एक तोहरौ भजन होय जाय"

दूसरी आवाज ..


"हां हां बलाओ काहे न गैहैं "


..क्या भरोसा है इस जिंदगी का 

साथ देती नहीं है किसी का


.. दुश्मन मिलें भोरहिएं मिलें 

मतलबी यार न मिलें ..


वाह वकील साहब वाह।

 

    अब मनीराम काका की बारी । मनीराम काका डेहवा पर रहते थे और जवाबी कीर्तन में मौर्या , मस्ताना और मनीराम की जोड़ी से इलाका घबराता था। दुर्गा पूजा , दशहरा के मौकों पर क्या बड़ागांव, क्या रुदौली, क्या पटरंगा हर जगह ये तिकड़ी झंडा गाड़ चुकी थी । कीर्तन कीर्तन न होकर सुपर संग्राम होता था । कभी कभी तो बड़े बड़े इनाम भी मिल जाते थे नाम होता था सो अलग । तो गौहन्ना की तिकड़ी चौहद्दी में मशहूर हो चली थी ।


कुंवर लोहार दादा के मजीरे पर मनीराम ने अपने भजन की शुरुआत की ..


आ जाओ मातु मेरी ..

पूजा करूंगा  तेरी ..।


"का मौरया कै नींद होय गै"?

वकील साहब बोले


"पंद्रह बीस भै अबहीं "


"अच्छा दुई चार भजन तो होय जाय "


   और डाक्टर मौर्या का आलाप शुरू हुआ नहीं कि चारपाई से उठ के सोते हुए लोग भागते चले आते थे


अा ... अा ...


इस तन का इंजन समझ लिया 

हर बार प्यारे ज्ञानी ..


दशा इस दीन की भगवन बना दोगे क्या होगा?


एक और मौर्या  जी एक और । 

ऐसे करते करते न जाने कितने भजन होते थे .


..बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी 

दुख़ हरो द्वारिका नाथ शरण मै तेरी 


सच पूछो तो मुझको नहीं कुछ ज्ञान तुम्हारा 

पर दिल में रहा करता है कुछ ध्यान तुम्हारा


फ़रियाद इश्क आह की गर चाह है तुमको 

इस दिल में ही मौजूद है समान तुम्हारा ..


कभी कभी मीसा के ननकऊ बढ़ई के बाप निरगुन भजन से आनंद ला दिया करते थे.


 ..नौ मन लकड़ी मा जारा गए 

वही मजवा मा बालम मारा गए ..


सुंदर  चाचा अपनी मस्ती में गा उठते ..


भजन करो भगवान शंकर दानी का

क्याभरोसा दो दिन की जिंदगानी का..


     फिलहाल अब वहां भी लोगों के पास समय नहीं है । गांव की गुटबंदी में किसी को कीर्तन की फुर्सत कहां फिर भी थोड़ा बहुत कीर्तन का दौर आज भी गौहन्ना में  मिल जाएगा ।  लेकिन वो एक दौर था जहां जाति धर्म से ऊपर दिन भर खेत में काम करने के बावजूद  निश्छल भाव से ईश्वर की आराधना होती थी ।


    एक पूरी की पूरी पीढ़ी जिन कीर्तन की धुनों पर नौजवान हुई उस को क्या पता कि अनजाने में ही गौहन्ना और उस दौर के संस्कार अपने आप उसमे घुल मिल गए । यादों के झरोखे में जब भी उस दौर में जाता हूं तो लगता है आज भी सुबह-सुबह  कोई गुनगुना रहा है ..


उठ जाग मुसाफिर भोर भई।

अब रैन कहां जो सोवत है ।।

जो सोवत है सो खोवत है

जो जागत है सो पावत है।।


(gauhanna.com से शेष अगले अंक में )

Thursday, September 24, 2020

मिसिराइन आजी

 *मिसिराइन आजी* 


(ललित मिश्र के ब्लॉग *झल्लर मल्लर दुनिया* से )


   "ये तीन खुराक दवा है तीन दिन सुबह सुबह खाली पेट खाना है ठीक हो जाओगे" । 


"फिर कब आना है आजी "


"भगवान चाहे तो इतने में ही ठीक हो जाओगे छत्तीस रोग की मारंग है ये जड़ी "

"अच्छा आजी पांय लागी "

 

    दूर दूर इलाके में सफेद बालों वाली बुढ़िया आजी का बड़ा नाम था उनके ठीक होने वाले मरीजों में कोसों दूर दूर तक के लोग थे । गांव में सब लोग उन्हें मिसिराइन आजी के नाम से जानते थे । वैसे उनका असली नाम बृज रानी था ।


   जबसे हमने उन्हें देखा तो  कमर से झुक कर चलते ही देखा। लेकिन जीवटता इतनी थी कि एक बार पेड़ से गिरते बच्चे को  गोद में ही लपक लिया था और एक बार 'पनिहा सांप' को अपनी कुबरी से जमलोक का रास्ता दिखा दिया था । सौ साल की उमर में भी अपने बेटे यानि मिसिर  दादा से दुगुनी-तिगुनी मेहनत वो करती थीं  ।बगिया और बरिया के सैकड़ों पेड़-पौधों की वो मां भी थीं । 

       झक सफेद बाल के साथ उनके चेहरे की चमक सारी झुर्रियों पर भारी थी । 


"मिसिराइन आजी तोहार इमलिया केहू बीने लेत है "

.. किसी की आवाज आती 


प्रति उत्तर में ..


"आइत है दहि जरऊ मोंछ उखार लेब "



"अरे दहिजरा क नाती खेत खवाय लिहिस केकै बकरी आय रे"

 

    ये आवाज़ पांच सौ मीटर तक गूंज जाती थी जब मिसिराइन आजी की दहाड़ सुनाई देती थी ।


    वो जिस गांव से पली बढ़ी थीं वहां उनका घर अकेला ही था। अकेले घर का गांव, आस-पास कोई डॉक्टर नहीं तो अगर जिंदा रहना है तो जड़ी-बूटियों का ज्ञान न हो तो जीवन चलना मुश्किल हो जाय । ज्ञान विज्ञान के गंवई रिसर्च को सूट-बूट टाई वाले डॉक्टर साहब को हज़म होना भी नहीं था सो आज तक नहीं हुआ उनको कौन बताए कि जब एंटीबायोटिक की चिड़िया पैदा भी नहीं हुई थी तब से लोग ऐसे ही ठीक होते आए थे।मिसराइन आजी जड़ी बूटियों का चलता-फिरता एनसाइक्लोपडिया थीं ।


   गांव में इस तरह के लोग अक्सर मिल जाया करते थे।  गांव के ही शिवराम मुराव किसी भी तरह की टूटी हड्डी को बिना प्लास्टर खींच -खांच के सेट कर देते थे और हां मजाल कि कोई उन्हें पैसा दे दे । न बाबा न । गुरूजी सिखा गए थे कि किसी से पैसा मत लेना सो गरीबी में गुजर-बसर कर लिया लेकिन पैसा नहीं लिया ।

 

     मिसिराइन आजी के सामने गांव की चौथी और पांचवीं पीढ़ी धीरे धीरे बड़ी हो रही थी लेकिन क्या छोटा, क्या बड़ा सब उन्हें 'मिसिराइन आजी' ही कहते थे । याददाश्त इतनी तगड़ी कि किसकी शादी कब कहां से हुई क्या- क्या हुआ सब ज़बान पर रटा पड़ा था. किसकी रिश्तेदारी कहां है? कौन खानदानी है  कौन बहेल्ला ? सब पता था । 

सैकड़ों सोहर और भजन मुंह जबानी  याद थे । पढ़ी लिखी तो थी नहीं लेकिन कढ़ी जरूर थीं ।


    मांगलिक कार्यक्रमों में पुरवाने वाले थक जाते थे लेकिन मजाल था कि मिसिराइन आजी थक जाएं । 

उनकी चार बेटियों की शादी चारों दिशाओं के हिसाब से हुई थी 

ब्रह्मा देई उत्तर तो सावित्री दक्षिण में थीं , मोहर कली पूरब तो सुबरन पश्चिम में थीं लेकिन उनकी कला तक कोई भी नहीं पहुंच पाया था ।


  शाम को ओसार के नीचे बैठ के नन्ही लाल चुन्नी व भेड़िया की कहानी ,राजा शिवि, ऋषि दधीचि और हरिचंद नरेश की कहानी , राजा भगीरथ, विक्रमाजीत की कहानी सुन के न जाने कितनी पीढ़ी बड़ी हुई थी।


 पति और बड़े बेटे के जाने के बाद 

गया-जगन्नाथ-बदरीनाथ सब कर आई थीं . उनका चारों धाम का यात्रा वृतांत सांकृत्यायन जी को भी फेल करता था ।

  

     मिसिराइन आजी की कई पीढ़ियाँ कृतज्ञ रहीं । मजाल कि आस-पास का कोई बिना खाए सो जाय । बकौल बृजराज पांड़े "आजी ने ही उन्हे जिंदा बचा के रखा था  । घर में कभी -कभी ऐसी भी नौबत आती थी कि चूल्हा नहीं जलता था लेकिन आजी ने भूखे नहीं सोने दिया" । 

   बीरे और जय कुमार के लिए मिसराइन आजी मां -बाप सब कुछ थीं ।


    मिसिराइन आजी की रावटी में दसियों मटकी- कूड़ों में अलग अलग तरह के न जाने कितने बीज होते थे आज के जमाने के अच्छे अच्छे जीन बैंक उसके आगे फेल थे । 

 

'हे लल्ला ई बिया बोवै का है '

कद्दू का बीज और लौकी का बीज छोटे छोटे बच्चों से बुवाई करवा कर गृह वाटिका की मानो ट्रेनिंग दे देती थी उनकी लौकी और कद्दू कुछ ही दिनों में झखरा से चढ़ कर छप्पर पर छा जाती थी और फिर बड़े बड़े फल , क्या कहने..


नखत वितान  भोरहरी उठ कर जांता में कई सेर आटा पीसने के बाद मिसराइन आजी का भजन जब गूंजता था तो ऐसा लगता था कि भोर की किरण राग भैरवी सुना रही हो 

जब तक हम लोग नित्य क्रिया से निवृत होकर आते थे तब तक आजी *बासी* गरम कर हम लोगो के लिए तैयार रखती थीं ।

 दिन भर की थकान के बाद रात में मिसिराइन आजी का भजन गूंजता था ..


अबकी राख लेव भगवान

तरे पारधी बान साधे

ऊपर उड़त सचान 

अबकी राख लेव भगवान ...


   तो पूरा टोला उस भजन में लीन हो जाता था। उनके भजन में वो मधुरता थी कि इतने दिनों बाद भी कभी- कभी ऐसा लगता है कि कहीं  दूsssर  से


मिसिराइन आजी कोई भजन गा रही हों..


...जतन बताए जायो कैसे दिन बितिहैं?

   यहि पार गंगा वहि पार जमुना 

बिचवा मा मड़ैया छवाए जायो 


कैसे दिन बितिहैं ?

जतन बताए जायो ! ...


माया महा ठगिनी हम जानी 

निरगुन फांस लिए कर बैठी 

बोले मधुरी बानी 

ये सब अकथ कहानी

माया महा ...


(Gauhanna.com से, शेष अगले अंक में .. )

Wednesday, September 23, 2020

राम जी की घोड़ी -

 *राम जी की घोड़ी -* 


   बरसात के दिनों में अक्सर जिस छोटे लाल रंग के जीव को हम लोग देखते थे उसे अवध क्षेत्र में राम जी की घोड़ी कहते थे  । जैसे जैसे बरसात होती थी खेत और बगीचों की मेड़ पर इनकी झुंड की झुंड दिख जाया करती थी ।

डर तो लगता था लेकिन ये बात सभी बड़े बुजुर्गो ने बता दी थी कि राम जी की घोड़ी है तो राम जी की घोड़ी से डर कैसा । अपने राम जी के इलाके में तो राम जी की जय जय कार थी ऊपर से जब सुनसान जगह या रात में निकलना हो तो हनुमान जी थे ही


जै हनुमान ज्ञान गुण सागर

जै कपीस तिंहुं लोक उजागर ..


..भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महावीर जब नाम सुनावै।। 


जब डर ज्यादा लगता था तो हनुमान चालीसा थोड़ा जोर जोर से पढ़ना पड़ता था लेकिन काम हो जाता था।


  एक बार रात में खेत सींचने ट्यूबवेल पर जाना पड़ा 

ट्यूबवेल गांव से लगभग एक किलोमीटर दूर थी लेकिन इस कम दूरी वाले रास्ते में तालाब का पानी चढ़ जाता था तो दूर के रास्ते से घूम कर जाना पड़ता था । रात में इसलिए जाना पड़ा कि उस समय गांव में दिन में बिजली मिलना किसी साहब के दर्शन करने जैसा था । दिन की बिजली एलीट शहरातियों के खाते में थी । गांव में तो बिजली थी ही नहीं लेकिन चूंकि एक किलोमीटर दूर सरकारी ट्यूब वेल में बिजली थी इसलिए गांव को विद्युतीकृत मान लिया गया था। अब मान लिया गया तो मान लिया गया। किसको फुर्सत थी कि गांव जा के तफ़्तीश करे ?वैसे भी हाकिम ने जो कह दिया सो कह दिया


...'न खाता न बही,

 जो हाकिम कहे वो सही'


    तो उस अंधेरी रात में बिजली के इंतजार में लालटेन के उजाले में काशी काका के साथ हम भी चले जा रहे थे । 

उमस भरी झींगुर की झन्नाटे दार रात में हवाई चप्पल में अंदाजे अंदाजे से हम लोग ट्यूबवेल पर जा पहुंचे । पहुंचते ही बड़े जोर से पेड़ से भर भराने की आवाज आई। ऑटोमेटिकली हम लोगों का हनुमान चालीसा चालू हो गया । बाद में पता चला पेड़ से बिल्ली कूदी थी ।


  ट्यूबवेल में उस समय बिजली नहीं आ रही थी पहली पंच वर्षीय योजना की बुलंद निशानी उस ट्यूबवेल  के बगल में एक आवास जैसा कुछ था । आवास जैसा इसलिए कि फिलहाल खंडहर हो रहा था सुना था किसी जमाने में ऑपरेटर साहब वहां रहते थे । वैसे तो गांव में पानी किसके खेत में जाएगा ये तय करने का काम ऑपरेटर साहब का ही था लेकिन जब से ऑपरेटर साहब ने शहर में ठिकाना ढूंढा था तब से 'लठ्ठ के जोर से' पानी आगे बढ़ता था ।


 उसी इमारत के उपर छत पर दिन में चरवाहे सुरबग्घी और लच्छी खेला करते थे । सुरबग्घी शतरंज की बिसात की तरह थी उसके खेलने का मजा कहीं भी कुछ कंकण इकठ्ठा कर लिया जा सकता था तो लच्छी बिना उछले कूदे नहीं खेली जा सकती थी । इसे खेलने का मज़ा तो हमको भी खूब आता था लेकिन शाम होने के पहले ही भाग कर घर में इस तरह पहुंच जाते थे जैसे लगता था कि बच्चा खेतों की रखवाली करके आया हो ।


   ट्यूबवेल के बगल की खंडहर इमारत के इर्द गिर्द राम जी की घोड़ी यानि लाल रंग की लिल्ली घोड़ी का साम्राज्य हुआ करता था । लिल्ली घोड़ी नाम हो सकता है लाल रंग से पड़ गया होगा लेकिन मुकम्मल तौर पर यह बता पाना मुश्किल था कि उसका नामकरण कैसे हुआ ? बस इतना पता था कि राम जी की घोड़ी है तो इसे मारना नहीं है नहीं तो पाप लगेगा ।


  हां! तो उस रात बिजली का इंतजार करते करते रात के लगभग दो बज गए जैसे ही बिजली आई तो 'बिजुली माई की जय' के नारे के साथ मोटर स्टार्ट कर दी गई । पानी हर -हर -हर -हर ईटो की नाली से होकर खेत की तरफ चल निकला । बताते चलें कि ये नाली भी उसी पंचवर्षीय योजना की थी जब की ट्यूबवेल थी आधा से ज्यादा पानी वो अपने 'टैक्स' के रूप में निगल जाती थी बचा खुचा पानी जब खेत में पहुंचता था तो लगता था जैसे सूखे मन में हरियाली आ गई हो ।  चूंकि किसान इस तरह के 'टैक्स' देने का आदी होता था इसलिए नाली से उसे कोई शिकवा नहीं था । खेत तक पानी पहुंचाना और खेत का पूरा भर जाना किसी जंग जीतने से कम नहीं था । रात के अंधेरे में सांप बिच्छू के खतरे राम भरोसे निपट जाया करते थे काशी काका को गेहूं के बोझ में बैठा बिच्छू सिर ने भी डंक मार चुका था वो अपनी बहादुरी के किस्से रात भर सुनात  रहे हम डरे डरे से थे लेकिन किसी को महसूस नहीं होने देते थे । जहां-जहां राम जी की घोड़ी दिख जाती थी तो लगता था कि रास्ता  निरापद ही होगा । जूलॉजी के पन्नों का यह प्यारा मिलीपीड बचपन के दिनों का एक ऐसा अजूबा होता था जिस को रास्ते में देख के लोग पैरों को इस कदर संभाल के रखते थे कि कहीं राम जी की घोड़ी दब न जाए ।

  आज भी यदा- कदा जब ये प्यारा सा बचपन का जीव दिख जाता है तो सबसे पहले पैरों को संदेश मिल जाता है कि संभल के आगे 'राम जी की घोड़ी' है ।

Sunday, September 20, 2020

 सफेद दूब-


   वैसे तो सफेद दूब दुर्लभ मानी जाती है लेकिन हमारे जमाने में विद्यार्थियों के लिए यह इसका महत्व किसी रत्न से कम नहीं था । जिस तरह एकमुखी रुद्राक्ष को योगी ढूंढ़ते हैं और दक्षिणा वर्ती शंख को संसारी ढूंढ़ते हैं उसी तरह श्वेत दूर्वा यानि सफेद दूब को बचपन में हम विद्यार्थी ढूंढा करते थे । बॉटनी के लिहाज़ से 'म्यूटेंट घास' उस जमाने में हम बच्चों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होती थी।


    घर से विद्यालय लगभग दो किलोमीटर दूर था । कहने को वो प्राइमरी स्कूल था लेकिन इलाके में वही एक स्कूल था जहां से कई पीढ़ी पढ़ के निकली थी। बड़ागांव का यह प्राइमरी स्कूल बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने का था  । दीवारें इतनी मोटी थी जैसे किले की दीवार और छत खपड़ैल थी जिसकी ऊंचाई किसी मल्टीस्टोरी के तिमंजिले तक रही होगी । मेरे बाबा जी जो अपने हलके के नामी आल्हा गायक थे वो भी उसी प्राइमरी के पढ़े थे जहां हम पढ़ रहे थे । कोस- कोस की दूरी से झोला टांगे और तख्ती- बुचका लिए लल्लन, बब्बन,मुन्नन जैसों की न जाने कितनी टोली कई गांव से वहां पढ़ने आती थी।


   जब ये टोली पढ़ने निकलती थी तो खेतों और खलिहानों के रास्ते स्कूल पहुंचती थी रास्ते में अगर सफेद दूब दिख जाती थी तो टोली उस पर टूट पड़ती थी जिस किसी के हाथ सफेद दूब की एक भी पत्ती लग जाती थी उसको लगता था जैसे कोई निधि मिल गई हो । जिसको नहीं मिलती थी वो इस उम्मीद से आगे बढ़ चलता था कि कहीं आगे उसे भी सफेद दूब मिल जाएगी । 


  छुटपन में हम लोग जिस रास्ते से जाते थे वह रेलवे लाइन का किनारा होता था । उसके किनारे अक्सर सफेद दूब मिल ही जाती थी । मेरे गांव गौहन्ना से बड़ागांव प्राइमरी स्कूल तक पहुंचने में नन्हे क़दमों से लगभग आधा घंटा लग ही जाता था फिर रास्ते में मस्ती भी तो होती थी इसलिए कभी कभी उससे ज्यादा समय भी लग जाता था । स्कूल में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का अपना मज़ा होता था मज़ा इसलिए कि जब प्रभात फेरी निकलती थी तो पूरा बड़ागांव घूमना पड़ता था ..


झंडा ऊंचा रहे हमारा 

विजई विश्व तिरंगा प्यारा..


   प्रभात फेरी का ये लंबा रास्ता कभी खलता नहीं था। बड़ागांव के कई व्यापारी थाली में बताशे और लड्डू लिए हम बच्चों का इंतजार करते थे । जैसे ही प्रभात फेरी की अगुवाई करते दखिनपारा वाले गुरु जी यानि हेड मास्टर साहब  उस दुकान के सामने पहुंचते फूलों से उनका स्वागत होता और बताशे, लड्डू हम लोगों को मिलते थे। लड्डू और बताशे के चक्कर में प्रभात फेरी बिल्कुल भी नहीं छूटती थी । प्रभात फेरी की लाइन बिगड़ने न पाए इसका विशेष ध्यान 'गौहन्ना वाले मास् साब' को रखना पड़ता था । उनके हाथ की छड़ी को हम लोगों ने कभी जुदा होते नहीं देखा था उनका खौफ इतना था कि बेमन से पढ़ने वाले गोलू भोलू भी रीढ़ की हड्डी सीधी करके 'दो का दो , दो दुन्नी चार' रटते नजर आते थे ।


  स्कूल में जूट की टाट- पट्टी किसी गद्दे से कम नहीं होती थी और मास साब की कुर्सी किसी सिंहासन से कम नजर नहीं आती थी । कौन कितना फर्राटे दार पाठ पढ़ के सुना देता था उस बच्चे की धमक पूरी क्लास में रहती थी वही क्लास का मॉनिटर बना दिया जाता था जिसका जलवा ही जलवा होता था । 


   पाठ पढ़ते समय जिसकी किताब के बीच सफेद दूब होती थी उसके चेहरे पर थोड़ी कम शिकन होती थी कि या तो उसका नंबर नहीं आयेगा या तो वो पाठ पूरा कर लेगा।  वैसे तो 'करेरु वाले मास साब' हमेशा मुस्कराते रहते थे लेकिन जिस बच्चे की कॉपी मंगा ली उसके प्राण सूख जाते थे । कॉपी अच्छी निकल गई तो ये नसीहत जरूर मिलती थी कि नाखून काट के आया करो और आंख में काजल जरुर होना चाहिए । सब बच्चे अगले दिन कजरौटा लगा के चमा चम चमकते हुए आते थे उस दिन पूरी क्लास ही मासूमियत भरी फुलवारी लगती थी ।


  एक दिन कॉपी पलटते हुए 'डेलवाभारी के मास साब' ने एक बच्चे की किताब से दसियों सफेद दूब निकाली 

पूछा 

" ये क्या है " ?


" मास साब सफेद दूब है "


"कॉपी में क्यों रखी" ?


"इससे विद्या माई खूब आतीं हैं "

बच्चे ने असलियत बता दी ।


सुन के गुरु जी हंसने लगे और अपने जमाने की यादों में खो गए । हां हम लोग भी तो यही करते थे।

ये सफेद दूब ही तो सरस्वती साधना का बीज मंत्र रूपी जड़ी थी ।

-ललित

Monday, September 7, 2020

"पेंशन"-


"पैसों की कमी है तो आप बच्चों से कहते क्यों नहीं ?अब तो पढ़ लिख के दो पैसे कमाने भी लगे हैं" । निर्मला ने पंखा झलते हुए पति से कहा तो रमेश ने चेहरा उठा के पत्नी की तरफ देखा । लंबी गहरी सांस लेकर कहने लगे "अरे काम तो चल ही रहा है बच्चों पर वैसे जी इतनी बड़ी जिम्मेदारी पहले से ही है जितना वेतन मिलता होगा वो बच्चों को पढ़ाने में ही चला जाता है स्कूल की फीस, ऑटो का खर्चा , ट्यू शन की फीस , मकान का किराया कैसे खर्च चलता होगा निखिल का ये तो सोचो । फिर अपना क्या है रूखा सूखा खा के काम चल ही जाता है "। कह के रमेश यादों में खो गए ।
अप्रैल के पहले मंगलवार को छोटे बेटे का रिज़ल्ट आ गया था उस दिन घर में बड़ी धूम धाम थी शुभम अपने पहले ही प्रयास में जजी की परीक्षा पास कर चुका था घर में रिश्ते के लिए फोन घनघनाने लगे थे रमेश अपने नोकिया मोबाइल पर सबको तसल्ली दे रहे थे कि ट्रेनिंग पूरी होने दो उसके बाद शादी कर देंगे ।
ट्रेनिंग के बाद रमेश ने शुभम की शादी एक जज साहब की बेटी से कर दी उनको लगा था कि जज साहब का व्यवहार जब इतना अच्छा है तो उनके बच्चों का भी अच्छा ही होगा ।
उम्र के साथ रमेश को शुगर और ब्लड प्रेशर की दिक्कत आने लगी थी लेकिन बच्चों को पढ़ाने में उनने कोई कोर कसर न छोड़ी ।सोचा बच्चे कहीं लग जाएंगे तो इलाज के लिए पैसे अपने आप ही मिल जाएंगे । लेकिन ऐसा हुआ नहीं । बड़े बेटे निखिल को दिल्ली में मिली नौकरी ने ऐसा उलझाया कि घर कभी कभार आता था उसकी पत्नी को गांव के साथ साथ सास से भी चिढ़ सी लगती थी । अपने बच्चों को भी उसने दादा दादी से दूर ही रखा था ।
शुभम की बहू कुछ दिन ही संस्कार की ओढ़नी बचा पाई धीरे धीरे बड़ी बहू से गुरु मंत्र लेकर उसने भी रमेश और निर्मला से किनारा कस लिया ।
"आप ही संभालो इस नकचढ़ी बुढ़िया को मेरे बस का नहीं " शुभम की बहू दिव्यांश को स्कूल ड्रेस पह नाते हुए बोली । "जब जब शहर आतीं हैं घर में अपनी हुकूमत चलाने लगती हैं अब मैं उन्हें यहां नहीं बुलाऊंगी आपकी मम्मी हैं आप ही उनको संभालो ।"
.. " भैया क्या इसी दिन के लिए मम्मी पापा ने हम लोगों को पढ़ाया था" शुभम ने रुआसे होकर ऑफिस से लौटते समय बड़े भाई को फोन किया ।" हां छोटू मुझे भी यह बात हरदम कचोटती है कि मम्मी पापा कैसे अपना खर्च चलाते होंगे । दिन रात मेहनत कर के हमें पढ़ाया । ऐसा कोई भी महीना नहीं गया जब समय से पापा का मनी ऑर्डर न आया हो । लेकिन इन लोगों के चलते मां बाप से हम लोग दूर होते जा रहे हैं क्या उपाय किया जाय छोटू तू ही बता तेरी भाभी को बात पता चलेगी तो मेरी जान खा जाएगी " ।
.. शुभम तुझे याद है न कि मम्मी पापा अपने लिए एक साल के बजाय दो साल में नए कपड़े लाते थे कि हम लोगों की पढ़ाई ठीक से चल सके अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया कि हम लोग बड़ी पोस्ट पर पहुंच जाय । कहते कहते निखिल यादों में खो गए जब मम्मी ने मामा से राखी में मिले पैसों से उसे इलाहाबाद कोचिंग के लिए भेजा था । हर महीने राशन गांव से भिजवा देती थीं । फिर शुभम भी वहीं तैयारी के लिए साथ आ गया था किराए के कमरे में दोनों भाई रहते थे । आखिर एक दिन निखिल स्टाफ सेलेक्शन कमीशन में सफल हो ही गए थे । उनकी खुशी तब दोगुनी हो गई जब शुभम भी जज बन कर निकला था ।
.."कुछ तो उपाय करना पड़ेगा भैया क्या हम उस दौर में पहुंच गए हैं जहां मदर्स डे और फादर्स डे पर ही फेसबुक में मां बाप के गीत गाएंगे । भैया हमने भी लॉ और फिलोसॉफी से तैयारी की है । अब मम्मी पापा को क्या इनके कहने से दूर कर देंगे" ?
.."तो क्या सोचा छोटू "? निखिल ने कहा.
"बस देखते जाओ भैया" शुभम बोला । हमने भी संस्कार अपने गांव से सीखे हैं । केवल नौकरी के लिए पढ़ाई हमने भी नहीं की है भैया".
" हैलो मै जज साहब का स्टेनो बोल रहा हूं आप बैंक मैनेजर साहब बोल रहे हैं न"?
"जी बोल रहा हूं".
..साहब आपसे बात करना चाहते हैं कह कर स्टेनो ने काल जज साहब को ट्रांसफर कर दी ।
... मैनेजर साहब ...
"जी साहब ..
समझ गया साहब" ..
"जी साहब हो जाएगा" ...
.. "अजी सुनती हो खाते में दो हज़ार रुपए आएं हैं समझ में नहीं आ रहा किसने भेजे "।
.."अरे हां मेरे खाते में भी आज कुछ पैसे आए है कौन भेज रहा होगा " निर्मला बोली।
" हो सकता है बुजुर्ग समझ कर सरकार दे रही होगी ? लेकिन हम तो सरकारी सीमा से अधिक आय वाले हैं सेक्रेट्री तो यही कह रहे थे । अच्छा चलो छोड़ो गलती से आ गए होंगे " कहते हुए रमेश ने गहरी सांस ली ।
अगले महीने..
"अरे फिर से मेरे खाते में पैसे आए" ।
"अरे हां मेरे खाते में भी आए ।और एक मोबाइल भी डाकिया दे गया है उसमे वीडियो काल भी होती है" - पत्नी बोली ।
ट्रिंग ट्रिंग ...
ट्रिंग ट्रिंग..
"अरे किसका फोन है निर्मला "?
"वीडियो काल है किसी की ।
...अरे ये तो छोटू है" हां मम्मी भैया भी कॉन्फ्रेंसिंग पे हैं "। "छोटू पैसा तुम भेज रहे हो क्या"?
"हां मम्मी लेकिन ये बात बहू को मत बताना । सीधे खाते से लिंक है आपका अकाउंट हर महीने मिलते रहेंगे
पापा क्या कर रहे हैं मम्मी" ?
"बैंक से पैसा निकाल कर अभी अभी लौटे हैं उनके खाते में भी हर महीने कोई *पेंशन* भेज रहा है" ।
मां नम आंखों से दोनों बेटों और उनके बच्चों की कुशल क्षेम पूछ रही थी और
दोनों भाई सुकून से मुस्करा रहे थे ।
-Lalit

Tuesday, September 1, 2020

बेजुबानों के मसीहा -

बेजुबानों के मसीहा - कहते हैं कि देवत्व एक गुण है उतर आए तो दुनिया स्वर्ग बन जाए । ऐसा ही कुछ किया है हरिद्वार के युवाओं ने वैसे तो ये पढ़ाई भी करते हैं , अपना बिजनेस भी करते हैं लेकिन जानवरों के प्रति इनका लगाव अनूठा है । फीड स्ट्रे एनिमल संस्था से जुड़े ये युवा रोज जानवरों को खाना खिलाते हैं लेकिन जो अभिनव प्रयोग ये कर रहे हैं उसकी तारीफ जरूर होनी चाहिए । इनकी टीम को ये लगा कि रात्रि में जानवर दिखाई न देने से गाड़ी वाले अक्सर इन्हे टक्कर मार देते थे जिससे ये बेजुबान या तो अपना जीवन खो देते थे या हमेशा के लिए अपंग हो जाते थे फिर इनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं । नवदीप अरोड़ा और रुचि की टीम ने इस पीड़ा को महसूस ही नहीं किया बल्कि 40-50 युवाओं की टीम के साथ रिफ्लेक्टर वाला कालर इन जानवरों को पहनाना शुरू किया । ये काम इतना आसान नहीं था बहुत से जानवर रिएक्ट भी करते थे लेकिन इन युवाओं ने बहुत से जानवरों जैसे गाय और कुत्तों को रिफ्लेक्टर युक्त कॉलर पहनाए जिससे बहुत सी दुर्घटनाएं अपने आप थम गईं । शुरू- शुरू में इस टीम को रिफ्लेक्टर ऑटो गैराज की दुकान से मांग कर लेना पड़ा, जब इनका अभियान सफल हुआ तो बड़े स्केल पर मंगाना पड़ रहा है। टीम के इस अभियान को जनता और अधिकारियों का भी समर्थन मिलने लगा । फिलहाल टीम आवारा पशुओं और सायकिल मजदूर पर फोकस कर रही है जहां ये कॉलर और स्टिकर अभियान चला रहे हैं । टीम रोज अपने अभियान को नए आयाम देने में लगी है । ऐसी अनोखी पहल हर जगह हो जाय तो दुर्घटनाएं अपने आप कम हो जाय । ये युवा भारत है जो किसी के भरोसे नहीं अपने दम पर बदलाव की उड़ान भर रहा है ।>