*दुरदुरिया*-
(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से)
ये नाम कैसे और कब पड़ा होगा? कहना मुश्किल है. लोक मान्यताएं कब विकसित हुईं कब उनका स्वरूप कैसा रहा होगा? इसे लोगों से सुनकर ही जाना जा सकता है . इसका लिखित इतिहास बहुत कम ही होता है और हां इतिहास सबूत मांगता है इसलिए दुरदुरिया भले ही कितनी पुरानी हो लोक मान्यता के पैमाने पर अवध क्षेत्र की पवित्र प्रथाओं में से एक है जिसे सुहागिनें मनौती के रूप में या मनौती पूरी होने के रूप में आयोजित करती हैं । इतिहास का पन्ना इसे समेट नहीं सकता, समझ नहीं सकता ।
"मम्मी आज संतोष के घर दुरदुरिया है
आपके बलौवा है "।
.."कितने बजे "?
"दस बजे" ।
कह कर अम्बरीष नाऊ की पत्नी आगे बढ़ गई । उधर भड़ भूजा के यहां दुरदुरिया का भुजिया चावल भुनाने के लिए संतोष का बेटा जा पहुंचा। गांव में तीन जगह भाड़ जलता था एक भुजइन अम्मा के यहां , दूसरा भगत भुजवा के यहां और तीसरा महरिन अम्मा के यहां । भुजाने वालों की अपनी पसंद अलग- अलग थी किसी को भगत की भुजाई पसंद थी तो किसी को महरिन अम्मा की । लेकिन इनके भाड़ हमेशा नहीं जलते थे सिर्फ एक भुजइन अम्मा का भाड़ दो चार दिन छोड़ दें तो हमेशा जलता था ।
"मैता ई दुरदुरिया कै चाउर है
यका पहले भूज देव "
..भुजइन अम्मा बोलीं
"अच्छा अम्मा " मैता दीदी की आवाज आई
"लाओ भैया
केकरे घर के होव"?
उत्तर -
"संतोष के, आज दुरदुरिया है"
दुरदुरिया की पूजा में सात सुहागिनें बुलाई जाती हैं और उनको यही भुने चावल अर्थात चबैना या यूं कहें कि धान की लाई सभी स्त्रियों को दिया जाता है। सभी स्त्रियां स्नान आदि के बाद भूखे पेट दुरदुरिया की पूजा में शामिल होती हैं । सभी सातों को आयोजक स्त्री जिसने मनौती मानी होती है उसके कोंछ में थोड़े- थोड़े हिस्से भरने पड़ते हैं। इस प्रकार सबके सहयोग से उसका काेंछ भर जाता है और माना जाता है कि इस आशीर्वाद से मनौती पूरी हो जाएगी । फिर औसाना या अवसाना माई की कथा होती है । सिंदूर माई को चढ़ाकर प्रसाद के रूप में खुद भी लगाया जाता है । मिल बांट कर एक दूसरे को सहयोग और आशीर्वाद का यह आयोजन अवध और आस पास के इलाके में हर गांव में मिल जाएगा । संतोष और उम्मीद की यह मान्यता किसी को निराश नहीं होने देती ।
वैसे तो उनका नाम अलका है लेकिन गांव में सारे बच्चे उनको 'मम्मी' ही कहते हैं जो अपने समय की सबसे पढ़ी लिखी महिला रहीं । बकौल मम्मी आैसाना माई अवसाना का अपभ्रंश है । दुरदुरिया गौरी यानि पार्वती जी की ही पूजा है । जब सीता जी भगवान राम को देखने के बाद गौरी जी की पूजन को गईं तो प्रार्थना की ..
नहि तव आदि मध्य अवसाना
अमित प्रभाव बेदु नहि जाना
भव भव विभव पराभव कारिनि
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि
.. (राम चरित मानस बाल कांड)
राम के इलाके में उनके आराध्य आदि देव भगवान शिव की पत्नी गौरी जी की पूजा तो होगी ही वो चाहे जिस रूप में क्यों न प्रचलित हो । गौरी गणेश के बिना आज तक कोई पूजा हुई है क्या?
शास्त्र के दृष्टकोण से भले ही इसका वर्णन न मिलता हो और अवसाना का दूसरा अर्थ हो लेकिन समाज शास्त्रीय दृष्टि कोण से गौरी पूजा का स्थानीय करण होकर अवसाना माई की पूजा के रूप में ये आज भी प्रचलित है । इसे दुरदुरिया नाम कैसे मिला होगा ये शोध का विषय है फिलहाल इतना ही मान लेना पर्याप्त है कि दाने चबाने के समय आने वाली दरर -दरर की आवाज से इसका सम्बन्ध हो सकता है ।
जब भी कभी अवध क्षेत्र का समाज शास्त्रीय अध्ययन होगा लोक मान्यता का ये त्योहार बहुत गूढार्थ भरा मिलेगा ।
(गौहन्ना.कॉम से )
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