Monday, September 28, 2020

चना चबैना-

 चना चबैना -

     (ललित मिश्र के ब्लॉग 'झल्लर मल्लर दुनिया' से)

चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार 

काशी कबहुं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार


   चना -चबैना  अवध के ग्रामीण क्षेत्र का अभिन्न हिस्सा रहा है । सुबह सुबह अगर चबैना न मिले तो दिन की शरूआत अधूरी सी लगती है ।

हल लेकर खेतों को  जाते हुए किसान से लेकर बस्ता टांगे  स्कूल जा रहे विद्यार्थियों तक चबैना का साथ न जाने कितनों की यादों में रचा बसा होगा ।


  संस्कृतियां जीवंत किताबें है 'गौहन्ना' में उन दिनों चाय की बजाय सुबह सुबह दिशा -फराकत के बाद जब भूख लगती थी तो चबैना  ही जल्दी से सुलभ होने वाला स्नैक्स था । एक बार भुजा लिया तो महीने भर चलता था ।

मेहमानों का स्वागत अक्सर चबैना  से ही होता था । एक नोइया या मवनी जो सरपत और सींक की बनी होती थी, में चबैना भर कर गुड के साथ ही पाहुन को पानी पिलाने की परम्परा थी मजाल था कि सादा पानी परोस दिया जाए । साथ में नमक- मिर्च, लहसुन, धनिया की सिल बट्टा पर पीसी चटनी का मज़ा ही कुछ और होता था ।


   चबैना कुकरी शास्त्र यानि पाक कला का अर्वाचीन आविष्कार कहा जा सकता है जब लोग ऐसा भोजन चाहते थे जो बिना सड़े गले कई दिन तक वैसा ही बना रहे । दूर सफर का साथी भी ऐसे ही भोजन हो सकते थे । कैसे भी बांध लिया, कहीं भी खा लिया अलग से किसी चीज की जरूरत नहीं । इसलिए चबैना  या भूजा संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बन गया । गांव में इसे बनाने के लिए पहले धान को उबाल कर धूप में सुखा कर भुजिया बना लिया जाता है फिर भूसी हटाकर भाड़ में बालू पर रोस्टिंग की जाती है ।


चबैना इतनी सुलभ वस्तु थी कि  कैकेई ने वरदान मांगने के बाद किंकर्तव्य विमूढ़ राजा दशरथ को ताना मारते हुए कहा था ..


..जानेहु लेइहि मागि चबेना  


(राम चरित मानस, अयोध्या काण्ड)


  सामूहिक रूप से  सभी चबैना सभी भूजे हुए अन्न का प्रतिनिधित्व करता है । गेंहू के रूप में गुड़ धानी बन जाता है तो मक्के के रूप में मुरमुरा । ज्वार के रूप में लावा बन जाता है तो कच्चे बाजरे के रूप में परमल। बड़े बड़े शहरों में भेल पूरी के नाम से जाना जाता है और बड़ी अकड़ के साथ बिकता है ।


    गांव में इनको भूजने वाले तीन परिवार हुआ करते थे जहां सुबह शाम लाइन लगा करती थी । 

'भुजइन अम्मा' का ये पैतृक पेशा था जिनके पास दो भाड़ थे एक मटकी वाला तो दूसरा लोहे की कड़ाही वाला ।

दिन भर की मेहनत के बाद बाग के पत्तों को इकट्ठा कर मैता, सुभागा और कबूतरा दीदी मुश्किल से दो दिन भाड़ चलाते थे उस पर भी भुजाने वालों का ये आरोप रहता ही था कि ज्यादा भुजौनी निकाल लिया । भगत भुजवा और उनकी पत्नी रेलवे लाइन के पार अपना काम करते थे बाद में उनके घर के उपर से सड़क निकल जाने से उन्होंने अपना भाड़ गांव किनारे मुरावन टोला में खोल लिया था ।

महरिन काकी के कोई संतान न थी लेकिन उन्हें चबैना भूनने का हुनर जबरदस्त था । लेकिन उनका भाड़ रोज नहीं जलता था ।

 

  जब हम लोग स्कूल जाते थे तो दोपहर में भूख मिटाने के लिए घर से गुड चबैना ही मिलता था । कपड़े में बांध कर झोले में रख के चबैना लेे जाते थे और साथियों के साथ खाते थे । खेतों में काम कर रहे किसान और मजदूरों के लिए भी सुबह का पन पियाव अक्सर चना 

चबैना ही होता था । 


 गांव में धीरे धीरे चबैना का स्थान बड़े बड़े दाने वाली लईया ने लेे लिया और दुकानों पर बिकने वाले बड़े भुने चनों ने भाड़ और भुजाने की परम्परा को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया । भुजिया करने की फुरसत किसी को नहीं थी । उधर नमकीन और दालमोट चबैना से ज्यादा स्वादिष्ट लगने लगी थी । बाद में पता चला कि कुछ जलदीराम टाइप कम्पनियों ने उसे ढ़ंग से पैक कर चबैना से नमकीन बना कर बेच दिया । अपना मुरमुरा यानि पॉप कोर्न तो सिनेमा हाल की पहचान ही बन गया ।

 

..."मिश्रा जी आपको विटामिन बी 12 चेक करवा लेना चाहिए "। डाक्टर ने कहा 


मैंने पूछा क्यों?


"एक तो आप वेजेटेरियन हो और दूसरे आपका काम दिन भर दिमाग से जुड़ा हुआ है । बी ट्वेल्व आपके लिए जरूरी है "। - डॉक्टर ने कहा ।


  घर आकर मैंने सोचना शुरू किया कि देखा जाय कि किस शाकाहारी आहार में ये ज्यादा मिलेगा । तो पता चला कि पफड राइस , मक्के आदि में ये ज्यादा मिलेगा ।

सोचा ये तो मैं बचपन से ही खा रहा था। छोड़ने का घाटा ये हुआ कि बी- ट्वेल्व की टेबलेट खरीदनी पड़ी ।

उसी दिन बाज़ार से ढूंढ कर चबैना फिर से टेबल पर सजा लिया । शाम को ऑफिस से लौटने के बाद 

चबैना के साथ आज भी उन्हीं यादों में खो जाता हूं जिसे बचपन में जिया था । सबसे अच्छा तो तब लगा जब ट्रेन के एसी डब्बे में भी बंगाल का एक परिवार थाली भर कर भूज़ा लिए बैठा था । अपनी जड़ों से जुड़े रहने का यह एक सुखद अहसास था । अवध के साथ साथ बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, बुंदेलखंड आदि का ये आज भी पौष्टिक आहार है ।


    वैसे युवा पीढ़ी चाहे तो एक अच्छा स्टार्ट अप इससे शुरू हो सकता है बेचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्म तो हैं ही और हमारे जैसे खरीद दार भी मिल ही जायेंगे ।

(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश)

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