इस तन का इंजन समझ लिया -
"अरे गैस जलाओ हो , कीर्तनिहा आवत होईहैं" ।
आवै दियो अबहीं मिंटर नहीं आवा ।
थोड़ी देर में पेट्रो मैक्स का मिंटर उजाला ही उजाला फैला देता था । पेड़ पर चढ़ कर कोई लाउड स्पीकर का भोंपू सेट कर आता था ।
गौहन्ना की कीर्तन मण्डली आस-पास के इलाके में शानदार कीर्तन मण्डली हो चली थी । इस कीर्तन मण्डली की शुरुआत सन अस्सी के लगभग हुई थी और थोड़े बहुत पैसे जोड़-जाड़ कर एक हारमोनियम , एक ढोलक और एक जोड़ी मंजीरे की व्यवस्था बन गई थी । गांव में जिसको कीर्तन करवाने का मन होता था बस उसे पेट्रोमेक्स यानि घासलेट वाली गैस लाइट की और हो सके तो माइक की व्यवस्था करनी होती थी । माइक न हो तो भी चलेगा । सब कुछ फ्री था । बस भजन कीर्तन की मस्ती पे सब कुछ न्यौछावर था ।
शाम आठ बजे के लगभग राम नेवाज दादा की ढोल कसने लगती थी और पन्द्रह बीस मिनट में मण्डली अपना आलाप लेे लेती थी ..
.. गाइए गणपति जग बंदन
शंकर सुवन भवानी के नन्दन ..
"अरे चलौ हो मिसिर दादा के दुवारे कीर्तन होय लाग" मतलब मास्टर साहब का कीर्तन शुरू हो गया ।
मोहल्ले की एक आवाज ने सबके कदम मिसिर दादा की घर की ओर मोड़ दिए । मास्टर साहब यानि श्री संतराम त्रिपाठी जो उन सबके सर्वमान्य मुखिया थे जिनके घर सारा साजो-सामान जमा रहता था अक्सर शुरुआत वही किया करते थे ।
अगला नंबर राम मिलन मौर्या का हुआ करता था
बड़ी मधुर आवाज में मंजीरे की ताल के साथ वो गाना शुरू करते ..
सीता राम से, राधे श्याम से
लागी मेरो लगन, चारों धाम से ..
अरे वाह मौर्या जी एक और ...
राम मिलन मौर्या और भगवान बख्श मौर्या जिन्हें लोग डाक्टर साहब भी कहते हैं, दोनों सगे भाई हैं 'मिलन' बड़े तो डाक्टर मौर्या छोटे । डाक्टर मौर्या भजन लिखने का भी शौक रखते हैं और अपने भजन में नए-नए प्रयोग अभी भी करते रहते हैं। अलंकार विधा के साथ साथ फिल्मी अंदाज में भी गानों को नए अंदाज में पेश करने का उनका अभी भी इलाके में कोई सानी नहीं है । मौर्या जी को सुनने के लिए भीड़ दूर -दूर से आती थी। क्या सहजौरा, क्या मीसा, क्या बड़ागांव - सब डाक्टर मौर्या के फैन थे। डाक्टर मौर्या के पहले अगर श्री राम तेली दादा को मौका न मिले तो वो नाराज़ हो जाते थे इसलिए उन्हें अक्सर मौर्या से पहले ही मौका दे दिया जाता था । जिस तरह नामी वक्ता के बोलने के बाद भीड़ खिसक जाती है उसी तरह मौर्या जी को सुनने के बाद भीड़ इक्का दुक्का ही मिलती थी।
नेवाज़ दादा यानि ढोलकिहा को कितनी भी झपकी आ जाय मगर मजाल था कि कीर्तन पर ढोलक की लय बिगड़ जाय । बताते थे कि उनके सामने अच्छे अच्छे तबला वादक भी पानी भरते थे । उनके बुढ़ापे के समय में राम नरेश उर्फ मस्ताना अलबत्ता ढोल को समझ चुके थे । मस्ताना के आने के बाद अब ढोल नए अंदाज में मटकने लगी थी लंबू बढ़ई की हारमोनियम अब ढोल की आवाज में दब जा रही थी । इसलिए धीरे धीरे मस्ताना ने पेशेवर अंदाज में हारमोनियम पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया था ।
श्री राम तेली दादा शरीर से दुबले पतले जरूर थे लेकिन जब गाना शुरू करते थे तो पंडाल हिला के रख देते थे..
.. चोरी माखन की दे छोड़
कन्हैया मैं समझाऊं तोय
बड़े घरों की राधा रानी
नहीं बरेगी तोय
..और फिर उमंग में जो नाचना शुरू करते थे तो पुरवइया ही भजन पूरा करते थे श्री राम तेली दादा की मस्ती बहुत देर बाद ही टूटती थी ।
पुरवईयों में बृजराज पाड़े के साथ जय कुमार , बीरे, सुमिरन , नोहर दादा , कल्लू पाड़े , बलवंत के पापा की टीम हुआ करती थी और अच्छे श्रोताओं में वकील साहब , नेगपाल , भूखल और मुल्ला पाड़े का जवाब नहीं था कहो तो रात-रात भर कीर्तन चलता रहे। भोर की पुरवाई के पहले झोंके की ठंडक से ही पता चलता था कि अब सुबह हो रही है और खेत में भी जाना है ।
"आओ हो वकील साहब एक तोहरौ भजन होय जाय"
दूसरी आवाज ..
"हां हां बलाओ काहे न गैहैं "
..क्या भरोसा है इस जिंदगी का
साथ देती नहीं है किसी का
.. दुश्मन मिलें भोरहिएं मिलें
मतलबी यार न मिलें ..
वाह वकील साहब वाह।
अब मनीराम काका की बारी । मनीराम काका डेहवा पर रहते थे और जवाबी कीर्तन में मौर्या , मस्ताना और मनीराम की जोड़ी से इलाका घबराता था। दुर्गा पूजा , दशहरा के मौकों पर क्या बड़ागांव, क्या रुदौली, क्या पटरंगा हर जगह ये तिकड़ी झंडा गाड़ चुकी थी । कीर्तन कीर्तन न होकर सुपर संग्राम होता था । कभी कभी तो बड़े बड़े इनाम भी मिल जाते थे नाम होता था सो अलग । तो गौहन्ना की तिकड़ी चौहद्दी में मशहूर हो चली थी ।
कुंवर लोहार दादा के मजीरे पर मनीराम ने अपने भजन की शुरुआत की ..
आ जाओ मातु मेरी ..
पूजा करूंगा तेरी ..।
"का मौरया कै नींद होय गै"?
वकील साहब बोले
"पंद्रह बीस भै अबहीं "
"अच्छा दुई चार भजन तो होय जाय "
और डाक्टर मौर्या का आलाप शुरू हुआ नहीं कि चारपाई से उठ के सोते हुए लोग भागते चले आते थे
अा ... अा ...
इस तन का इंजन समझ लिया
हर बार प्यारे ज्ञानी ..
दशा इस दीन की भगवन बना दोगे क्या होगा?
एक और मौर्या जी एक और ।
ऐसे करते करते न जाने कितने भजन होते थे .
..बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी
दुख़ हरो द्वारिका नाथ शरण मै तेरी
सच पूछो तो मुझको नहीं कुछ ज्ञान तुम्हारा
पर दिल में रहा करता है कुछ ध्यान तुम्हारा
फ़रियाद इश्क आह की गर चाह है तुमको
इस दिल में ही मौजूद है समान तुम्हारा ..
कभी कभी मीसा के ननकऊ बढ़ई के बाप निरगुन भजन से आनंद ला दिया करते थे.
..नौ मन लकड़ी मा जारा गए
वही मजवा मा बालम मारा गए ..
सुंदर चाचा अपनी मस्ती में गा उठते ..
भजन करो भगवान शंकर दानी का
क्याभरोसा दो दिन की जिंदगानी का..
फिलहाल अब वहां भी लोगों के पास समय नहीं है । गांव की गुटबंदी में किसी को कीर्तन की फुर्सत कहां फिर भी थोड़ा बहुत कीर्तन का दौर आज भी गौहन्ना में मिल जाएगा । लेकिन वो एक दौर था जहां जाति धर्म से ऊपर दिन भर खेत में काम करने के बावजूद निश्छल भाव से ईश्वर की आराधना होती थी ।
एक पूरी की पूरी पीढ़ी जिन कीर्तन की धुनों पर नौजवान हुई उस को क्या पता कि अनजाने में ही गौहन्ना और उस दौर के संस्कार अपने आप उसमे घुल मिल गए । यादों के झरोखे में जब भी उस दौर में जाता हूं तो लगता है आज भी सुबह-सुबह कोई गुनगुना रहा है ..
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
अब रैन कहां जो सोवत है ।।
जो सोवत है सो खोवत है
जो जागत है सो पावत है।।
(gauhanna.com से शेष अगले अंक में )
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