Wednesday, September 23, 2020

राम जी की घोड़ी -

 *राम जी की घोड़ी -* 


   बरसात के दिनों में अक्सर जिस छोटे लाल रंग के जीव को हम लोग देखते थे उसे अवध क्षेत्र में राम जी की घोड़ी कहते थे  । जैसे जैसे बरसात होती थी खेत और बगीचों की मेड़ पर इनकी झुंड की झुंड दिख जाया करती थी ।

डर तो लगता था लेकिन ये बात सभी बड़े बुजुर्गो ने बता दी थी कि राम जी की घोड़ी है तो राम जी की घोड़ी से डर कैसा । अपने राम जी के इलाके में तो राम जी की जय जय कार थी ऊपर से जब सुनसान जगह या रात में निकलना हो तो हनुमान जी थे ही


जै हनुमान ज्ञान गुण सागर

जै कपीस तिंहुं लोक उजागर ..


..भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महावीर जब नाम सुनावै।। 


जब डर ज्यादा लगता था तो हनुमान चालीसा थोड़ा जोर जोर से पढ़ना पड़ता था लेकिन काम हो जाता था।


  एक बार रात में खेत सींचने ट्यूबवेल पर जाना पड़ा 

ट्यूबवेल गांव से लगभग एक किलोमीटर दूर थी लेकिन इस कम दूरी वाले रास्ते में तालाब का पानी चढ़ जाता था तो दूर के रास्ते से घूम कर जाना पड़ता था । रात में इसलिए जाना पड़ा कि उस समय गांव में दिन में बिजली मिलना किसी साहब के दर्शन करने जैसा था । दिन की बिजली एलीट शहरातियों के खाते में थी । गांव में तो बिजली थी ही नहीं लेकिन चूंकि एक किलोमीटर दूर सरकारी ट्यूब वेल में बिजली थी इसलिए गांव को विद्युतीकृत मान लिया गया था। अब मान लिया गया तो मान लिया गया। किसको फुर्सत थी कि गांव जा के तफ़्तीश करे ?वैसे भी हाकिम ने जो कह दिया सो कह दिया


...'न खाता न बही,

 जो हाकिम कहे वो सही'


    तो उस अंधेरी रात में बिजली के इंतजार में लालटेन के उजाले में काशी काका के साथ हम भी चले जा रहे थे । 

उमस भरी झींगुर की झन्नाटे दार रात में हवाई चप्पल में अंदाजे अंदाजे से हम लोग ट्यूबवेल पर जा पहुंचे । पहुंचते ही बड़े जोर से पेड़ से भर भराने की आवाज आई। ऑटोमेटिकली हम लोगों का हनुमान चालीसा चालू हो गया । बाद में पता चला पेड़ से बिल्ली कूदी थी ।


  ट्यूबवेल में उस समय बिजली नहीं आ रही थी पहली पंच वर्षीय योजना की बुलंद निशानी उस ट्यूबवेल  के बगल में एक आवास जैसा कुछ था । आवास जैसा इसलिए कि फिलहाल खंडहर हो रहा था सुना था किसी जमाने में ऑपरेटर साहब वहां रहते थे । वैसे तो गांव में पानी किसके खेत में जाएगा ये तय करने का काम ऑपरेटर साहब का ही था लेकिन जब से ऑपरेटर साहब ने शहर में ठिकाना ढूंढा था तब से 'लठ्ठ के जोर से' पानी आगे बढ़ता था ।


 उसी इमारत के उपर छत पर दिन में चरवाहे सुरबग्घी और लच्छी खेला करते थे । सुरबग्घी शतरंज की बिसात की तरह थी उसके खेलने का मजा कहीं भी कुछ कंकण इकठ्ठा कर लिया जा सकता था तो लच्छी बिना उछले कूदे नहीं खेली जा सकती थी । इसे खेलने का मज़ा तो हमको भी खूब आता था लेकिन शाम होने के पहले ही भाग कर घर में इस तरह पहुंच जाते थे जैसे लगता था कि बच्चा खेतों की रखवाली करके आया हो ।


   ट्यूबवेल के बगल की खंडहर इमारत के इर्द गिर्द राम जी की घोड़ी यानि लाल रंग की लिल्ली घोड़ी का साम्राज्य हुआ करता था । लिल्ली घोड़ी नाम हो सकता है लाल रंग से पड़ गया होगा लेकिन मुकम्मल तौर पर यह बता पाना मुश्किल था कि उसका नामकरण कैसे हुआ ? बस इतना पता था कि राम जी की घोड़ी है तो इसे मारना नहीं है नहीं तो पाप लगेगा ।


  हां! तो उस रात बिजली का इंतजार करते करते रात के लगभग दो बज गए जैसे ही बिजली आई तो 'बिजुली माई की जय' के नारे के साथ मोटर स्टार्ट कर दी गई । पानी हर -हर -हर -हर ईटो की नाली से होकर खेत की तरफ चल निकला । बताते चलें कि ये नाली भी उसी पंचवर्षीय योजना की थी जब की ट्यूबवेल थी आधा से ज्यादा पानी वो अपने 'टैक्स' के रूप में निगल जाती थी बचा खुचा पानी जब खेत में पहुंचता था तो लगता था जैसे सूखे मन में हरियाली आ गई हो ।  चूंकि किसान इस तरह के 'टैक्स' देने का आदी होता था इसलिए नाली से उसे कोई शिकवा नहीं था । खेत तक पानी पहुंचाना और खेत का पूरा भर जाना किसी जंग जीतने से कम नहीं था । रात के अंधेरे में सांप बिच्छू के खतरे राम भरोसे निपट जाया करते थे काशी काका को गेहूं के बोझ में बैठा बिच्छू सिर ने भी डंक मार चुका था वो अपनी बहादुरी के किस्से रात भर सुनात  रहे हम डरे डरे से थे लेकिन किसी को महसूस नहीं होने देते थे । जहां-जहां राम जी की घोड़ी दिख जाती थी तो लगता था कि रास्ता  निरापद ही होगा । जूलॉजी के पन्नों का यह प्यारा मिलीपीड बचपन के दिनों का एक ऐसा अजूबा होता था जिस को रास्ते में देख के लोग पैरों को इस कदर संभाल के रखते थे कि कहीं राम जी की घोड़ी दब न जाए ।

  आज भी यदा- कदा जब ये प्यारा सा बचपन का जीव दिख जाता है तो सबसे पहले पैरों को संदेश मिल जाता है कि संभल के आगे 'राम जी की घोड़ी' है ।

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