Sunday, September 27, 2020

परत दर परत एक गांव -



   कहते हैं हर जगह इतिहास के पन्नों जैसी होती है और हर जगह का एक इतिहास होता है । सो 'गौहन्ना' उससे अलग कैसे ? न जाने कितनी सदियों के थपेड़े खा के भी ये गांव जिंदा है . जिंदा इसलिए कि आधा से अधिक गांव जिस डेहवा मोहल्ला पर बसता है वो गांव के दूसरे कोने की दुमंजिली छत के समानांतर होता है कहने का मतलब उस कोने की दुमंजिल आज भी डेहवा की नींव के बराबर होती है ।


    बताते हैं कि कई बार डेहवा की खुदाई के दौरान बड़े बड़े असामान्य प्रकार के ईंट मिलते रहे हैं । लोगों का कहना है कि कुछ गहने और तांबे के सिक्के भी मिले लेकिन लोगों ने छिपा लिए । इन तांबे के सिक्के का एक नमूना देखने को तब मिला जब खेल खेल में ही अपनी दोस्ती 'मिठाई भाई' से गहरा गई थी -


"केहू से बतायो न भाय 

बप्पा हमका बहुत मरिहैं "


    मिठाई के भरोसे से दिखाया गया वो सिक्का अनगढ़ और मोटा था मोटाई कुछ यूं जितना आज का तीन या चार सिक्का समा जाय । कुछ ऐसा याद आता है कि किसी आदमी की आकृति भी थी । 


   जब तक इतिहास और पुरातत्व की जानकारी होती तब तक बहुत से साक्ष्य बिखर गए और बिना साक्ष्य के इतिहास कैसा ? और फिर अदने से गांव के पुरातत्व को मानेगा कौन? फिर भी इतनी जल्दी इस गांव का इतिहास समाप्त हो जाय तो गांव का नाम गौहन्ना कैसा ?


  लगता है वैदिक कालीन आर्य यही रहते रहे होंगे गौ पालन इतना रहा होगा कि गांव का नाम ही गौ से पड़ गया । परत दर परत न जाने कितनी बार ये गांव बसा और उजड़ा होगा ? उन्नीसवीं सदी में जब गांव के बीच से रेलवे लाइन गुजरी तो न जाने क्या क्या मिला लेकिन कहीं रिकॉर्ड न हो सका । बस लोगो की चर्चा का विषय ही बना रहा । गांव का हज़ार साल से अधिक पुराना बरगद का पेड़ यानि 'चक्का बाबा' लोक परम्परा में सदियों से पूजित है वो भी अपने आप में स्वयं जीता जागता इतिहास है ।


   जो रिकॉर्ड हो सका उसमे आज भी सिर रहित चार हाथ वाले विष्णु भगवान की मूर्ति है जो काले पत्थर की है नक्काशी इतनी अद्भुत है कि लगता है सुई से तराशी गई हो । मूर्ति के पैरों के पास यक्षिणी की नृत्य मुद्रा की मूर्ति , विष्णु जी के पैरों तक मेहराब दार वस्त्र कम से कम इसे सेन काल या गुप्त काल तक लेे जाते हैं । यह मूर्ति गांव के पास डोभी तालाब की खुदाई के समय मिली थी जिसे मुस्लिम आक्रमण कारियों ने तोड़ कर तालाब में फेंक दिया था, ऐसा कहते हैं । फिलहाल उस पर गांव वालों ने अनगढ़ सिर की स्थापना कर के लाल पीले रंग से पेंट भी कर दिया है ।


   गांव के उत्तर में काली माई का चौतऱा दासियों खंडित मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों के साथ बहुत कुछ कहता है । शीतला माई के स्थान पर सबसे ज्यादा बलुआ पत्थर की मूर्तियां हैं किसी का सिर तो किसी का धड किसी को देखकर पुरुष व किसी में स्त्री का अंदाजा लगता है । सिर के चारों तरफ मुकुट जैसा चक्र या मण्डल भी मिलता है । उसमें देवी देवता की पहचान करना थोड़ा मुश्किल होता है बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है । गहने भी मूर्तियों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।

मिट्टी की पकी मूर्तियां खासकर सिर का भाग बहुतायत से गांव के  हर देव स्थान पर हैं ।


    शीतला माता रोगों से बचने की देवी हैं तो पूरब में भवानी बगिया में ज्वाला माई ,बूढ़ी माई और भैरों बाबा के डीह इन्हीं  मृण मूर्तियों व प्रस्तर मूर्तियों से भरे पड़े थे जो समय के साथ इधर उधर भी हो गए । 


    कारे देव बाबा की मूर्तियों पर नाग पंचमी को दूध और लावा भीगे बदन, मौन रहकर चढ़ाने जाना पड़ता था । दक्षिण में मेंहदी महरा और पश्चिम में बाबा हरदेव पर भी इसी तरह की मूर्तियों के अवशेष आज भी मिल जाएंगे । ये सब भले ही पाषाण काल की निशानी न हो फिर भी कांस्य या ताम्र युग तक की संभावना से जरूर जुड़े होंगे ।

गौरैया बाबा की बगिया के पास तालाब में मूर्तियों के साथ साथ एक दस फीट से बड़ा आदमी का जीवाष्म मिलने के बाद गांव वाले डर गए थे  । बकौल स्वामी दयाल श्रीवास्तव चाचा व अन्य कईयों के अनुभव में डेहवा में आज भी खुदाई करते समय ऐसा लगता है कि नीचे कोई  कमरा या घर  हो । 


   लोक कथा के अनुसार बुजुर्ग लोगो का मानना ये भी है कि कभी यहां भर नामक यायावर पशुपालक प्रजाति यहां रहती थी जो अपने पूर्वजों के नक्शे लेकर गांव में बीजक लगा कर खजाने की खोज में डेहवा आते रहते थे ।उनका बीजक सूर्य की रोशनी या परछाईं किस माह में कहां पड़ेगी उस सिद्धांत पर आधारित होता था ।


   आज भी शादी विवाह के समय या किसी शुभ आयोजन के लिए इन सभी डीह -डयोहार को पूजने जाना पड़ता है  । जो इस बात की पुष्टि करता है कि पुरातन इतिहास और संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए रखना है कभी तो कोई ऐसा आएगा जो बताएगा कि इस गांव में मानव सभ्यता कितनी पुरानी रही होगी ?


(gauhanna.com से )

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