Saturday, April 8, 2017

Rebooting education-

  www.jhallarmallarduniya.blogspot.com  -(डॉ ललित नारायण मिश्र )
       मेरे पिछले लेख स्कूल और हम पर कई लोगों ने अपने सुझाव और मंतव्य दिए। कई लोगों ने इस प्रवृत्ति से निपटने का उपाय लिखने को कहा।  सरकारी स्कूल कैसे अपनी खोयी हुई गरिमा को पाएं और किस तरह शिक्षा के बाजार में अपनी रफ़्तार और प्रतिस्पर्धा बनाये रखें इस बात पर चर्चा से पहले कुछ उदाहरण की चर्चा कर ली जाय तो  बात आसानी से समझ में आ जाएगी। दरअसल समस्या इतनी बड़ी नहीं है समस्या शुरुआत यानि पहल करने की है
        मेरे प्रिय मित्र आशुतोष ने एक बहुत ही प्रेरक अनुभव साझा किया।  परसा पटना बिहार के पास स्थित एक क़स्बा है  जहाँ एक सरकारी स्कूल नब्बे के दशक में नक्सलवाद की चपेट में आ गया स्कूल में मास्टर थे लेकिन बच्चे पढ़ने नहीं आते थे स्थानीय लोग स्कूल के मास्टरों से नक्सल टैक्स वसूल करते थे। यह सिलसिला एक नए नए ट्रांसफर होकर आये एक प्रिंसिपल ने तोड़ा। उन्होंने गांव के लोगों से कहा कि हम नक्सल टैक्स तब देंगे जब आप अपने बच्चों को स्कूल में पढ़ने के लिए भेजें पहले विरोध हुआ धीरे धीरे शुरुआत हुई और बच्चे पढ़ने आने लगे. स्थितियों को बदलने में लगभग 3-4 वर्ष लग गए और ये सिलसिला चल निकला लेकिन जो सुधार हुआ वो आशातीत था कई बच्चे अपने माँ बाप के मार्गदर्शक बने। नक्सल टैक्स तो समाप्त हुआ ही वहीं कुछ बच्चे प्रशासनिक सेवाओं में भी चयनित हुए।
             देहरादून के देहरा मिडल स्कूल को एक जुनूनी सरकारी मास्टर द्वारा जिस ऊंचाई तक पहुंचा दिया गया वह दास्तान किसी आश्चर्य से कम नहीं है। एच एस उनियाल ने जब इस स्कूल को संभाला तो स्कूल बंदी के कगार पर था प्राइवेट बिल्डिंग में चल रहे इस सरकारी स्कूल पर मुकदमों की भी एक लम्बी लाइन थी कि किस तरह यह स्कूल अलग भाग जाय।  धीरे धीरे उनियाल ने स्लम बस्ती के बच्चों और अनाथ बच्चों को पढ़ाना शुरू किया तो आम जनता भी धीरे धीरे जुड़ने लगी किसी ने कम्प्यूटर भेंट किया किसी ने किचेन के बर्तन।  धीरे धीरे यह स्कूल रात में भी चलने लगा और अनौपचारिक रूप से रेजीडेंसियल स्कूल बन गया। लगभग दो सौ बच्चों में 70 बच्चे अनाथ या भटके हुए बच्चे हैं शहर के कई लोग अपने बच्चों का जन्मदिन या अपनी सालगिरह किसी होटल के बजाय इन बच्चों के साथ मनाना पसंद करते हैं इन बच्चों की दुनिया उनियाल हैं जो कि एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल हैं।
      फैज़ाबाद उ प्र के सोहावल ब्लॉक के गौरा बभनान स्कूल की हालत किसी और सरकारी  स्कूल से बेहतर नहीं थी  बच्चे खेती और घरेलू व्यवसाय  के कामों में माँ बाप का हाथ बंटाते थे स्कूल कम ही आते थे, आते थे तो मिड डे मील खाकर चले जाते थे ठीक से बैठने की व्यवस्था नहीं, वही घिसा पिटा  ब्लैकबोर्ड वगैरह वगैरह। इसे बदला डॉ आशुतोष सिंह और रुपाली अग्रवाल की इच्छाशक्ति ने।  रुपाली प्राइवेट स्कूल में पढ़ा चुकी थीं उनके अनुभव को प्रिंसिपल डॉ आशुतोष सिंह ने सही दिशा दी  और वही प्रयोग सरकारी स्कूल में लागू कर दिए गए नए तरीके से पढाई , क्राफ्ट कला इत्यादि।  पेरेंट्स से मिलकर उन्हें मोटिवेट किया मिड डे मील को घर के खाने से बेहतर बना दिया प्राइवेट स्कूल की तरह आई कार्ड दिए गए धीरे धीरे विद्यालय के अन्य अध्यापक भी इस मिशन के सहभागी बन गए और स्कूल की छात्र संख्या दो गुना बढ़ गई. प्राइवेट स्कूल से बच्चे सरकारी स्कूल में दाखिला लेने लगे।  स्थितियां वही थीं संसाधन भी वही थे बस  काम करने का तरीका अलग था आज स्कूल में रौनक है और हर अध्यापक को मानसिक संतोष। हर शनिवार आशुतोष अपने बच्चों को लैपटॉप पर कोई मोटिवेशनल वीडियो दिखाना नहीं भूलते और यही तरीका उन्हें अपने में अलग बनाता है।
       ये उदाहरण मात्र बानगी भर हैं ऐसे न जाने कितने उदाहरण हमारे आस पास मौजूद हैं जहाँ उम्मीद की किरणें बरकरार हैं।  लेकिन इन सबके बावजूद एक कड़वा सच यह भी है कि बाजार की दौड़ में अधिकांश सरकारी स्कूल पीछे छूटते जा रहे हैं और यदि इन्होने अपनी गति नहीं बढ़ाई तो इन स्कूलों को बंद होने से रोका नहीं जा सकता।  जब छात्र ही नहीं होंगे तो स्कूल, मास्टर इन सब पर जनता का पैसा सरकार क्यों लगाएगी ?
सरकारी स्कूल की छवि के बारे में मेरे अत्यंत मृदुभाषी प्रिंसिपल मित्र उमेश तिवारी मजाकिया  लहजे में कहते हैं कि ट्रेन  या बस में जैसे ही लोगों को पता चलता है कि ये सरकारी टीचर हैं लोग सरकारी स्कूल और उनके मास्टरों को कोसने लगते हैं वो हँसते हुए कहते हैं कि मुझे  पहचान छुपा के चलना पड़ता है कि कहीं गुस्से में लोग मारने न लगें।
        मेरी समझ से मोटे तौर पर सरकारी स्कूलों को शिक्षा जगत में अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए दो तरह के बदलाव की जरूरत होगी पहली भौतिक संसाधनों की जिसमे बच्चों के बैठने के लिए कुर्सी, मेज, छत से लेकर पढाई के लिए चमकते ब्लैकबोर्ड , बल्ब, पंखा  लैपटॉप, टीवी सब शामिल है  वहीं दूसरी तरफ पढाई की गुणवत्ता और तौर तरीके भी हमे बदलने होंगे यदि पेरेंट्स अपने बच्चे को अंग्रेजी पढ़ाना चाहता है मॉडर्न बना देना चाहता है तो हमे उसकी मांग पर ध्यान देना होगा यदि टाई लगाने से बच्चे का लुक मॉडर्न होता है तो सरकारी स्कूल में टाई क्यों नहीं ? हाँ ये बात जरूर है कि सिर्फ टाई से ही सब कुछ नहीं बदलेगा।  बहुत से लोग इस बात का इंतज़ार करेंगे कि पहले भौतिक संसाधन बढ़ जांय तब हम कुछ करें लेकिन भौतिक संसाधन उस  तेजी से नहीं बदलते जिस तेजी से शिक्षा की  गुणवत्ता को बदला जा सकता है सरकारी स्कूलों में ऐसे स्कूल जहाँ हर क्लास के लिए एक मास्टर हो उनकी संख्या हर ब्लॉक  में इतनी कम है कि उन्हें उँगलियों पर गिना जा सकता है हमे ये भी पता है कि ये कमी फ़िलहाल इतनी जल्दी पूरी नहीं होगी इसी तरह कुर्सी ,मेज भी धीरे धीरे ही होगी हाँ ब्लैकबोर्ड को आज ही चमकदार बनाया जा सकता है।
       इटावा के एक कान्वेंट स्कूल के प्रिंसिपल और मेरे मित्र  डॉ आनन्द का मानना है कि बहुत से नए टीचर जो प्राइवेट स्कूल से सरकारी टीचर के रूप में भर्ती हुए उनके अनुभव को लेकर सरकारी स्कूल फिर आगे बढ़ सकते हैं अच्छे अनुभव वाले ऐसे टीचर्स को मास्टर ट्रेनर के रूप में लगाया जा सकता है बहुत से पुराने टीचर्स आज भी उदाहरण व् प्रेरणा स्रोत हैं।  डॉ आनंद प्राइवेट और सरकारी स्कूलों के इंटरैक्शन पर भी जोर देते हैं लेकिन समस्या ये है कि दोनों की अकड़ एक दुसरे से मिलने नहीं देती।यदि कान्वेंट स्कूल किसी एक दो ग्रामीण सरकारी स्कूल को गोद ले लें तो नज़ारा ही बदल सकता है लेकिन ये हिम्मत सबमें नहीं होगी  .मीडिया हाउस भी आलोचना के बजाय कुछ सरकारी स्कूलों को गोद ले सकते हैं इससे भी उनकी टी आर पी बढ़ेगी।
       बहुत से युवा शिक्षकों ने स्कूल की कई जरूरतों को समाज से लेकर पूरा किया।  समाज का विश्वास यदि जीत लिया जाय तो समाज मदद भी करता है लेकिन इसके लिए कुछ कर गुजरने की ललक भी वो देखना चाहेगा। मै उन अध्यापकों की बात नहीं करता जो जिंदगी जी चुके हैं और जिन्हे सिस्टम और समाज से ढेर सारी शिकायतें हैं और जिन्हे सिस्टम ढो रहा है , लेकिन मेरा मानना है कि आज का सरकारी शिक्षक जो कान्वेंट शिक्षकों से कहीं ज्यादा योग्य है इस बदलाव का सूत्रधार जरूर बन सकता है ।  बहुत से लोग ताने मारेंगे -टांग खीचेंगे लेकिन शायद उनका ये पागलपन वेंटिलेटर पर चल रहे सरकारी स्कूलों में नई जान फूंक दे।