Saturday, October 30, 2010

itihas mera

जब जीता खुद से ही जीता जब हारा खुद से हार गया
जंगों को जीता कभी- कभी मैं जीती बाजी हार गया
संकल्पों से ही नाता है हमने न चुने विकल्प कभी
जिसने जैसा चाहा उसने बस वैसा अर्थ निकाल गया.
औरों में दम था कहाँ डुबा देते जो मेरी कश्ती को
डूबे हम वहीं जहाँ अपनी मेहनत का पानी सूख गया
गिनती थी कभी शरीफों में चर्चा में हम ही रहते थे
अब खुद में ही आवारा हैं जब से घर-आँगन छूट गया.
इतिहास अनोखा है अपना कागज में कैद नहीं होता
अम्बर के पन्नों में कोई मेरी तस्वीर उतार गया.-ललित

Friday, October 8, 2010

vatan kee aawaj

खामोश वतन कुछ कहता है कुछ प्रश्न सभी से करता है
जिस दीपक से दुनिया रौशन वो शमां ढूंढता रहता है
किसने सूरज का रथ रोका क्यों घोर अँधेरा कायम है ?
घर में ही कुछ गद्दार छिपे उस ओर इशारा करता है
कुछ काट रहे उस बरगद को जिस से वो छाया पाते थे
सौगात भरे इतिवृत्तों का सन्दर्भ सुनाता रहता है
सब के सब मगन महोत्सव में बुनियादों का दुःख कौन सुने
सूनी आँखों के सपने में उम्मीद जगाता रहता है
सिसकन क्यों उठी कंगूरे से मीनारों का दम सिहर गया
कुछ सडन भरे अखबारों का सन्देश सुनाता रहता है
अर्जुन संग कृष्ण नहीं रथ पर गीता का सबक सुनें किस से
कौरव संग खड़े पितामह हैं ये व्यथा बताता रहता है -ललित