Saturday, June 19, 2021

किसुली

 किसुली-


     गौहन्ना और अवध में आम के बीज को किसुली कहते हैं । किसुली नाम इसलिए अब तक याद है कि जब आम छोटा और कच्चा होता था तो उसकी किसुली बहुत छोटी सफेद और बिना जाली की होती थी कच्चे आम को फोड़ते ही वह हाथ में आ जाती थी । ये किसुली पकड़ते ही फिसलती थी इसलिए इसके साथ एक मजेदार वाकया जुड़ा हुआ था । किसकी शादी किस दिशा में होगी ये किसुली के उछलने की दिशा पर निर्भर था  किसुली को अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखकर उछाला जाता था या यूं कहें कि दबाया जाता था और  किसुली जिधर की तरह उछलती थी मान लिया जाता था कि उस तरफ उस बच्चे की शादी होगी । अब यह उछालने का क्रम हम बच्चों के लिए मनोरंजन  और खुशी दोनों का साधन था।


   अवध क्षेत्र में फलों का मतलब ज्यादातर आम से ही था वहां आम के न जाने कितने बाग होते थे। बागों के नाम भी अलग-अलग तरह के होते थे जैसे भवानी बगिया, दसवन तारा , बझरैया,  गौरैया बाबा,  कारे देव बाबा , घेरवा जैसे न जाने कितने तरह के नाम बाग- बगीचों के होते थे। इन बगीचों में  तरह-तरह के आम होते थे कोई भी दो पेड़ के आम एक टेस्ट के नहीं होते थे कुल मिलाकर हर बार हर बाग आम की जैव विविधता का भंडार था । अचार बनाने वाला आम मोटा होता था। रसीले आम केवल खाने के काम आते थे । खटाई का आम अलग होता था । जब आम की पूरी बहार आती थी तो उसका अमावट पड़ता था । अमावट के लिए आम का रस और गूदा निकाल कर किसी कपड़े के ऊपर धूप में सुखाया जाता था सूखने के बाद रोटी की तरह उसे लपेट दिया जाता था । इसे साल भर कभी भी खा सकते थे ।


     सिंधुरिया आम सिंदूर के रंग का होता था ।  मॉल दहवा आम मोटा होता था , खट्टहवा आम बहुत खट्टा होता था कहते थे कि अगर इसे मुर्दे को खिला दो तो वो भी उठ कर भाग जाएगा । इसी तरह बहेरी आम सबसे छोटा होता था और  एक ही बार में उसे पूरा मुंह में भर सकते थे  । तोतहवा आम की चोंच निकली होती थी। इनका वैज्ञानिक नाम भले न था पर इस तरह आम के न जाने कितने प्रकार और उनकी किस्में गांव में मौजूद थी। बताते हैं कि एक लाख देशी वेराइटी के आम के बाग भी राजाओं के पास थे जिसे लक्खी बाग कहते थे ।  एक खास बात हर आम के साथ थी कि उसकी चोपी निकालनी पड़ती थी।  यह चोपी डंठल के पास जमा हुआ एसिड होता था अगर यह मुंह में चला जाता था तो खांसते खांसते बुरा हाल होता था।हर बाग हर साल फलता था चाहे दो चार पेड़ों पर ही बौर आएं आते जरूर थे । बौर आने के समय आम के नीचे से अगर गुजर गए तो भुनगे यानि छोटे -छोटे कीड़े बहुत बुरा हाल करते थे । 


     आम बीनने के चक्कर में हम बच्चों के बीच अक्सर अधिकार को लेकर कहा सुनी और मार पीट हो जाती थी । कभी कभी बच्चों की यह लड़ाई खतरनाक रूप से बड़ों की लड़ाई बन जाती थी और एकाध बार लाठियां चलने की नौबत आ जाती थी । आम के सीजन के बाद फिर से पुराना मेल -भाव बहाल हो जाता था। हालांकि आम ही ऐसा फल था जो सबको मिल पाता था इसलिए उर्दू में सर्व सुलभ को आम कहा जाने लगा जैसे कि आम जनता, आम रास्ता । बताते चलें कि आम्र संस्कृत भाषा का शब्द है जिसे उर्दू ने शायद स्वीकार कर लिया होगा ।


   आम के ही सीजन में जामुन का भी फल आता था कहते थे कि भगवान ने एक तरह मीठा आम दिया तो दूसरी तरफ उसकी मिठास से शुगर न  बढ़ जाए इसलिए जामुन पैदा किया । अगर ज्यादा आम खा लिया तो दो चार जामुन खाना जरूरी होता था जिससे कि आम पच जाए। आम के ही सीजन में आम पकने के दौरान बारिश भी होने लगती थी जिससे बाग बगीचों मैं पानी  भर जाता था अक्सर आम बीनने के लिए घुटने घुटने पर पानी में मेहनत करनी पड़ती थी। इस दौरान सांप और बिच्छू जैसे खतरनाक जानवरों से भी सामना करना पड़ता था। अगर झापस लग गया तो समझो आम भदरा गया यानि आम को अब बीनना भी श्रम साध्य हो जाता था, उस समय इतना आम गिरता था कि बाग को बुहारना पड़ता था ।


 अस्सी के दशक बीतते -बीतते कलमी आम का दौर अवध क्षेत्र में शुरू हो गया था । देसी पेड़ धीरे धीरे खत्म होने लगे  । बाग बगीचों में लोगों ने कलमी पेड़ लगाने शुरू कर दिए  । कलमी आम के अच्छे दाम मिलते थे और किसानों को जमकर आमदनी होने लगी। रसायनिक  कीटनाशकों और फ़र्टिलाइज़र का खूब उपयोग होने लगा । देसी पेड़ों को तो कोई खाद पानी भी नहीं पूछता था । धीरे धीरे अवध क्षेत्र से देसी पेड़ लगभग लगभग लुप्त प्राय हो गए और नेचुरल जीन बैंक धीरे धीरे स्वयं ही समाप्त होने लगा । देसी पेड़ लंबे समय तक फल देते थे कुछ पहले शुरु हो जाते थे और कुछ बहुत बाद तक फल देते थे । आखिर तक फल देने वाला पेड़ हमारे बाग में सवनहा के नाम से जाना जाता था । गिलहरी और चिड़ियों के कटे आम खासकर तोते के अधखाए कच्चे आम से पकते हुए सावन तक के आम अब गौहन्ना में छोटे कद के कलमी आम की भेंट चढ़ चुके हैं । दो- चार देशी आम के बाग अब भी वहां  किसी बुजुर्ग की तरह गांव की बदलती आबो हवा को देख रहे हैं और अपने दिन गिन रहे हैं । देशी आमों का वैविध्य पूर्ण साम्राज्य पूंजीवादी कलमी आमों की भेंट चढ़ चुका है ।देशी आमों के दौर में पहले कोई किसी को आम खाने से मना नहीं करता था बाग चाहे जिसका हो, लेकिन अब तो कलमी आमों के बाग में मजाल है कि दूसरा कोई घुस जाय ।


    जब आम के बीज यानि किसुली इठला  कर पेड़ बनने लगती थी तो हम बच्चे उसकी सीपी बनाते थे जो कई तरह की  ध्वनि निकालती थी । अमोला यानि आम का पौधा जैसे ही बड़ा हो जाता था वो फिर किसी बाग का हिस्सा बना दिया जाता था। देशी आम और अमोलों की पीढ़ी रोजगार की तलाश में शहर को जा चुकी है ।  सुना है कुछ प्रकृति प्रेमी फिर से देशी आम के बीज इकठ्ठा कर लगवा रहे हैं । क्या पता आम की ये देशी किसुली किस दिशा में गिरेगी और लहलहा कर लंबे पेड़ के रूप में खड़ी हो जायेगी और रिसर्च पेपर छपेंगे " गांव में फिर मिला आम का जीन बैंक" । वैसे हम तो किसुली को ही श्रेय देंगे जो शादी कराती थी।


(गौहन्ना डॉट काम पुस्तक का अंश )

Monday, May 10, 2021

 #जंगहैतोढंगसेलड़िए-


भरोसा भारतीय ज्ञान का 


 आज के समय में जब बहुत सी दवाएं काम नहीं आ रही हैं तो समय आ गया है कि मुड़कर भारतीय पारंपरिक ज्ञान की तरफ देखा जाए। इसे विज्ञान की भाषा में इंडियन ट्रेडिशनल नॉलेज यानी आई टी के कहा गया है।


  सीएसआईआर ने लगभग 4000 फॉर्मूलेशंस अपने डिजिटल लाइब्रेरी में भारतीय पारंपरिक ज्ञान से रजिस्ट्रेशन किए हैं लेकिन समस्या यह है इसे बोले कौन?


  बहुत से फार्मूले भारतीय संस्कृति में पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं । लोग प्रयोग कर रहे हैं और ठीक भी हो रहे हैं ऐसा नहीं है कि अब तक रोग और  व्याधियां नहीं होती थीं । होती थी और इनको इलाज करने के पारंपरिक तरीके हुआ करते थे एलोपैथी के आने के पहले भी बहुत सी  इलाज की पद्धतियां थी जिससे सदियों से लोग ठीक होते आए हैं । योग और आयुर्वेद वात- पित्त -कफ को ही केंद्र मानकर इलाज करताहै । आयुर्वेद तो एक तिहाई रोगों का कारण कफ को ही मानता है और आयुर्वेद में कफ उपचार पर जम के शोध हुए हैं और न जाने कितनी औषधियां बनाई गई हैं । योग और आयुर्वेद को कफ निकालना भी आता है और जड़ से बीमारी खत्म करना भी आता है । ये भरोसा जरूरी है । लेकिन आपको भी भरोसा है क्या ?


  अगर हम सिर्फ आयुर्वेद की बात करें तो सबसे ज्यादा कार्य आयुर्वेद में हुआ है तो कफ और कब्ज पर हुआ है भारतीय योग की पद्धति में प्राणायाम पद्धति फेंफड़े  की क्षमता बढ़ाने पर आधारित है । कपालभाति, अनुलोम-विलोम यह सब फेफड़े की क्षमता बढ़ाने के पारंपरिक तरीके रहे हैं रोज आधे घंटे प्राणायाम फेफड़े की क्षमता को कई गुना बढ़ा देते हैं ।इसके अलावा भुजंगासन ताड़ासन आदि इस क्षमता को बढ़ाने के लिए जरूरी माने गए हैं ।


 आयुर्वेद में ही इस बात का प्रावधान है कि योगिक क्रिया जैसे शंख प्रक्षालन, कुंजल क्रिया जिसे वमन क्रिया भी कहते हैं इसके द्वारा कफ को घटाया जा सकता है । इन क्रियाओं से शरीर का अम्ल भी घटता है ।  यह बात विज्ञान भी मानता है कि सूक्ष्म जीव जैसे बैक्टीरिया, फंगस, वायरस हर जगह मौजूद है इन जीवों की संख्या जब ज्यादा होती है तो बीमारी का कारण बनते हैं । होते यह हर जगह हैं  इनकी संख्या नियंत्रित करना जरूरी होता है जब ये ज्यादा होते हैं तो शरीर पर हावी हो जाते हैं । जिस तरह एक दो चींटी घायल सांप का कुछ नही बिगाड़ पातीं लेकिन सैकड़ों की संख्या में वो उसे मार डालती हैं इसी तरह माइक्रो आर्गेनिज्म की कम संख्या होने पर आपका शरीर स्वयं उससे लड़ लेता है । सदियों से कफ को नियंत्रित करने के लिए लोग पान लौंग और इलायची जैसी चीजें खाते रहें हैं। कफ से बचने के लिए प्रसिद्ध वैद्य डॉक्टर एम आर शर्मा  दावे के साथ पान का सादा पत्ता रोज खाने की सलाह दे रहे हैं । अब यह सोचिए कि जब एंटीबायोटिक नहीं थी तब कफ और जुखाम की समस्या से हमारे पूर्वज इन्हीं छोटे-छोटे उपाय से अपनी सुरक्षा करते थे। ये उपाय आज भी कारगर है अब समस्या यह है कि इन्हें प्रमाणित कौन करे ? बगैर प्रमाण के आप मानेंगे भी नहीं । आप मानते तब हैं जब हल्दी का पेटेंट कोई देश करा लेता है  । आप मानते तब हैं जब नीम का पेटेंट कोई करा लेता है। मेरे एक मित्र हैं डॉक्टर उदय पांडे जो हरिद्वार में रहते हैं मैंने उनसे पूछा कि क्या आप लोग पैंडेमिक के मरीज ठीक कर ले रहे हैं तो उनका जवाब था जी भैया हम लोग अब तक शत प्रतिशत मरीज ठीक कर चुके हैं। लेकिन एलोपैथी के सामने हमारी सुनता कौन है ? कहने का मतलब आयुर्वेद से मरीज ठीक तो हो ही रहे हैं लेकिन हमारा भरोसा कब कायम होगा ? पारंपरिक ज्ञान जिनको है भी वह भी बोलने से डरते हैं कि कहीं एलोपैथ वाले प्रमाण न मांग ले । ज्यादा बोलोगे तो नीम हकीम ठहरा दिए जाओगे । 


  आयुर्वेद में एक चिकित्सा पद्धति बहुत लोकप्रिय है जिसे क्षार चिकित्सा पद्धति कहते हैं यह क्षार चिकित्सा पद्धति इस सिद्धांत पर आधारित है कि शरीर में अम्ल बनता रहता है अम्ल के ज्यादा बनने से कई तरह के रोग होते हैं जैसे कब्ज , गैस, रक्तचाप, लिवर और किडनी के रोग ।  अतः शरीर को क्षारीय रखा जाए जिससे कई बीमारी अपने आप शरीर से दूर रहती हैं । शरीर को क्षारीय रखने के लिए फल इत्यादि खाने की सलाह दी जाती है देहरादून के प्राकृतिक चिकित्सक बीपी पांडेय कहते हैं कि जहां फल की उपलब्धता न हो वहां सहजन यानि मुनगा, नीम, पपीते, अमरूद , बेल आदि के पत्ते खाए जा सकते हैं । त्रिफला भी कारगर है । चूने के उपयोग की सलाह भी दी जाती है अक्सर लोग पान में चूना खाते हैं। फिटकरी का उपयोग घर घर इसीलिए होता था ।


 विज्ञान भी इस बात को प्रमाणित करता है कि तेल और घी में कोई भी सूक्ष्म जीव बहुत देर जिंदा नहीं रह सकता इसलिए गाय का घी सूंघने की सलाह आयुर्वेद सदियों से देता रहा है लेकिन अब इसको प्रमाणित कौन करे कि गाय का घी क्या फायदा करता है । यज्ञोपैथी यानि हवन से जीवाणु मरते हैं  ये बात सिद्ध हो चुकी है लेकिन अब इसको हिम्मत करके बोले कौन ? भाप थेरेपी प्राकृतिक चिकित्सा का ही हिस्सा है जिसे एलोपैथी वाले भी उतना ही स्वीकार करते हैं जितना इसे आयुर्वेद ने अपनाया है ।


  कुल मिलाकर कहने का आशय यह है कि भारतीय पारंपरिक ज्ञान तब भी उपयोगी था, आज भी उपयोगी है । कम से कम अगर आप स्वस्थ हैं तो स्वस्थ बने रहिए ये भी इस समय एक बहुत बड़ा योगदान होगा । स्वस्थ रहने का तरीका अपने पूर्वजों से सीख लीजिए आयुर्वेद और योग को जीवन पद्धति जितनी जल्दी बना लेंगे उतने ही फायदे में रहेंगे । क्योंकि फिलहाल तो एंटीबायोटिक के होश उड़े हुए हैं । वो ऑक्सीजन तलाश रही है । 


-ललित


(सत्यमेव जयते)

Saturday, February 13, 2021

नेवता हंकारी -

 नेवता हंकारी -

"मिसिर दादा तोहार नेवता है" । नाई ने आवाज लगाई ।
कहां ? मिसिर दादा ने पूछा।
हाजीपुर पराग पाड़े के भागवत बैठी है ।
अच्छा अच्छा । अरे लल्ला घर से नेवतौनी लै आओ ।
नेवतऊनी लेकर नाई अगले घर में निमंत्रण देने चला गया । अवध क्षेत्र में निमंत्रण को नेवता संबोधन के साथ जाना जाता है । निमंत्रण भी जेंवार के सभी लोगों को भेजने की परम्परा है । जेंवार उस इलाके को कहते हैं जिनके साथ खान पान का सम्बन्ध होता है इसका दायरा प्रायः दस किलोमीटर के आस पास हुआ करता था । अस्सी के दशक के नेवता खाने वालों के अनुभव कुछ अलग ही होते थे । क्या बड़े क्या बुजुर्ग सभी को कुर्ता बनियान निकाल के भोजन की पंगत में बैठना पड़ता था यहां तक कि घनघोर जाड़े में भी उपरि वस्त्र के साथ कोई भी पंगत में नहीं घुस सकता था । पंगत उठने के पहले गांव देश में क्या हो रहा क्या होना चाहिए इसकी चर्चा के लिए पर्याप्त समय होता था । एक दूसरे के गांव का कुशल क्षेम वहीं पूछा और पता किया जाता था । रिश्ते नाते भी इन्हीं आयोजनों और बैठकों में तलाश किए जाते थे ।
जब पंगत यानि पंक्ति या पांत बैठ जाती थी तो किसी नए आदमी को उनके उठने तक इंतजार करना पड़ता था और पंगत तभी उठती थी जब समूह में सभी भोजन कर तृप्त हो जाते ।
'पूड़ी भाई पूड़ी ' परोसने वाले खिलाने में चूक नहीं करते थे । कोई सूखी सब्जी जैसे कद्दू या घुईया आदि बनवाता था तो कोई सूखी के साथ रसेदार सब्जी जैसे कटहल या परवल आदि बनवाता था । सक्षम लोग दोनों की व्यवस्था करते थे । गलका एक विशेष तरह का व्यंजन था जो अचार की तरह चटखारे के लिए अनिवार्य रूप से होता था । खाने के साथ साथ बूंदी या गोरस और शक्कर का चलन था । गोरस यानि मठठा या छाछ आस पास के गांव से लोग उसके घर फ्री में सहयोग की भावना से पहुंचा जाते थे । खाने वाले भी मोछा बोर धकेलते जाते थे। गोरस और बुरा शक्कर पूरे खाने को आसानी से पचा देती थी फिर चाहे गाड़ी ओवरलोड ही क्यों न हो गई हो। और हां एक राज की बात ये भी होती थी कि कितनी भी जनता भंडारे में अा जाय गोरस कभी कम नहीं पड़ता था आखिर तक आते आते एक बाल्टी असली मठ्ठे में पांच बाल्टी पानी भी मिलाना पड़ जाय तो भी लोग बुरा नहीं मानते थे । सरयू किनारे की छोटी पूड़ी से लेकर गोमती किनारे की अंगौछा छाप पूड़ी को पचाने में
गोरस की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी ।
नेवता खाने के बाद सबको सबूत कपड़े जब मिल जाते थे तो दक्षिणा और पान की बारी आती थी पहले ये गांव वार किसी मुखिया को दी जाती थी जो उस गांव के सभी निमंत्रित को बांटता था बाद में सुविधा के लिए खाने के आखिरी दौर में पान और दक्षिणा पत्तल पर ही दे दी जाने लगी ।
गौहन्ना गांव और आस पास के इलाके में दो तरह के निमंत्रण और भी प्रचलित थे जिन्हें चुलिहा नेवार और लंगोट बन्द नेवता कहा जाता था । चुलिहा नेवार नेवता में घर के सभी लोगो चाहे वो पुरुष हो या स्त्री , बुजुर्ग हो या बच्चे सब का निमंत्रण रहता था यानि उस दिन चूल्हा नहीं जलाना बस आयोजक के घर धमकना और जम के खाना होता था । वहीं लंगोट बन्द नेवता में घर के पुरुष वर्ग को ही जाना होता था । बताते हैं कि पहले के जमाने में भोजन की उच्च तम शुद्धता बनाने के लिए हल्दी और नमक भोजन बनाते समय न डालकर अलग से पत्तल पर परोसा जाता था । नमक को राम रस कहते थे और नमक का बड़ा सम्मान था मजाल था कि नमक जमीन पर गिर जाए । बड़ी हिदायते नमक को लेकर थीं कि अगर जमीन पर गिर जाएगा तो आंख की बरौनी से उठाना पड़ेगा । ये डर ऐसा था कि नमक ही रसोई का राजा बन गया ।
एक बार मिसिर दादा के साथ उनका हमराह साहब दीन भी भंडारे में बैठा । परोसने वाले में नमक यानि राम रस वाले ने चिल्ला कर पूछना शुरू किया
रामरस भाई रामरस
साहब दीन बोले दे दो
उसने थोड़ा सा नमक पत्तल में रख दिया । साहब दीन को गुस्सा अा गई ये क्या थोड़ा ही रखा । परसने वाला ताड़ गया कि अजनबी है पहली बार पंगत में बैठा है बस उसने ज्यादा रख दिया।
साहबदीन खुशी में पूड़ी का पहला टुकड़ा रामरस के साथ खा बैठे और फिर उसके बाद उनने किसी भी भंडारे में रामरस नहीं मांगा ।
पूड़ी कद्दू का संयोग बहुधा हर गांव में प्रचलित था बाद में एनडी यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय प्रोफेसर एसबी सिंह ने जो रहस्योद्घाटन किया उसे सुनकर आंचलिक विज्ञान के सामने नत मस्तक होना पड़ा । बकौल प्रोफेसर साहब पूड़ी में वसा होता है और कद्दू में विटामिन ए । विटामिन ए वसा में घुलन शील है इसलिए दोनों की जोड़ी फेमस है । कद्दू पूड़ी खाइए कभी अपच नहीं होगा ।
इन आयोजनों प्रयोजनों में जिसके घर भंडारा होता था उस को पूरा गांव ,समाज मदद करता था । कोई बरतन उपलब्ध करवाता था तो कोई हलवाई का काम करता था । मिल जुल कर बड़े से बड़ा भंडारा जिसमें हजारों लोग खाते थे आसानी से निपटा लिया जाता था । बड़े परोजनो यानि प्रयोजनों में कमान प्रायः गांव के पुरुष समाज के पास ही होती थी । एक कि इज्जत पूरे गांव की इज्जत होती थी । इसलिए गांव के लोग सबसे आखिरी में भोजन करते थे जब दूर दराज के लोग छक कर चले जाते थे ।
आज के दौर में सामूहिकता के इस सामाजिक ताने बाने की परम्परा धीरे धीरे कैटरर के हाथ में चली गई । पत्तल दोने बनाने वाले बन मानुष बेरोजगार हो गए । कुल्हड़ बीते जमाने की बातें हों गईं उनकी जगह प्लास्टिक के गिलास ने लेे ली । कुम्हार का चाक आहिस्ता आहिस्ता धीमा होता गया और उनको भी रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया । पुराने लोग यह भी कहते मिल जाते हैं कि न अब उस तरह नेवता खाने वाले रहे न खिलाने वाले । बफे सिस्टम जिन ने हज़म किया वो आज भी खड़े होकर खाना खा ले रहे हैं । बस वो महज औपचारिकता भर है रिश्तों और भाई चारे की गरमाहट अब ढूंढने से भी नहीं मिलती ।

छपरा

 छपरा

छपरा भले ही बिहार का एक नामी जिला हो लेकिन गौहन्ना में छपरा का मतलब घास फूस के छप्पर से ही रहा है जिसे सरपत और मूंज से बनाया जाता था । साथ में बीच बीच में तिलेठी और झखरा भी घुसाया जाता था तब जा कर छप्पर मजबूत बनता था ।
अब ये शब्दावलियां गांव गिरांव के ही शोध का परिणाम थीं किसी शब्द कोष में मिलना मुश्किल है अतः समझने के लिए बताना जरूरी है झखरा अरहर के सूखे पौधे को कहते हैं तो तिलेठी सरसों या राई का सूखा पौधा होता था । मेड़ और खाईं पर मिलने वाला मुंजा या सरपत गन्ने के परिवार का छोटा भाई कह सकते हैं जिसके ऊपर पानी नहीं रुकता था । इस तरह छप्पर मजबूत बन जाता था ।
छप्पर उठाने के लिए आवाज लगानी पड़ती थी । जहां ज्यादा लोग एक साथ खड़े मिलते तो लोग मुहावरा बोलते कि
"का छपरा उठावै जात हौ" ?
छपरा सामूहिक सहयोग और मेलजोल की भावना का आसमान हुआ करता था ।
गांव में ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने होते थे जिनकी दीवारें मोटी मोटी हुआ करती थीं । रद्दे पर रददे रख कर दीवार छत की ऊंचाई तक लाई जाती थी । दीवार के लिए चिकनी मिट्टी जिस तालाब की अच्छी होती थी वहीं के लिए मारा मारी रहती थी बेतला ताल से लेकर नकसरा डोभी और झिलिया के ताल काम में आते थे । इसी बहाने हर साल ये तालाब बिना मनरेगा स्कीम खुदते रहते थे और गांव की वाटर बॉडी रिचार्ज होती रहती थी । पक्के घरों के बनने से तालाब भी उथले होते चले गए और जल स्तर रसातल में चला गया । खपड़े और नरिया के घर संभ्रांत लोग ही बनवा पाते थे ।
छत ढालने के लिए मूठ और करी का प्रयोग होता था जिस पर मिट्टी की पटाई होती थी । किसी का घर बनाने में कोई सहयोग कर देता था तो दूसरे को बदले में श्रमदान जिसे हूंण कहते थे देना पड़ता था ।
छपरा को हर जगह छपरा नहीं कहा जा सकता था उसके नाम अलग अलग थे जब वो शहन दरवाजे पर होता था तो ओसारा कहलाता था , बाहर मड़हा कहलाता था और छत के ऊपर पूरी तरह छत को ढकता था तो रावटी कहा जाता था जिसमें बीज को कई मटके व मटकी में रखा जाता था एक प्रकार से ये तब का जीन बैंक होता था ।
मड़हा दोनों तरफ ढाल दार होता था उसके चारों तरफ रोकने के लिए लकड़ी की थूनी लगाई जाती थी जो Y आकार की होती थी मध्य भाग बड़ेर को बड़ी बड़ी लकड़ियों यानि थमरा पर टिकाया जाता था ।
छप्पर का छोटा रूप परछती कहलाता था और छप्पर के जिस हिस्से से बरसात का पानी जमीन पर गिरता था उसे बरौनी कहते थे ठीक आंख की बरौनी की तरह ।
इन छप्परों में खेती किसानी के बीज से लेकर सिकहर पर रोटी और खाना भी टंगा होता था । अक्सर छप्परों पर तोरी, लौकी, कद्दू , सेम के पौधे मिल ही जाते थे । किचन गार्डन का यह फार्मूला गांव की हर घर में दादी आजी को पता होता था । गांव खुद में ही स्वावलंबी होते थे । जब इनमें फल आते थे तो किसी छोटे बच्चे को छप्पर पर चढ़ा कर फल तुड़वाए जाते थे जिससे छप्पर को नुक्सान न पहुंचे और सब्जी भी मिल जाय ।
छप्पर किसानों के खेत में रखवाली के लिए जब रखा जाता था तो इस मचान को अटाना के नाम से जाना जाता था । ये अटाना जमीन से पांच छह फीट की ऊंचाई पर होता था जिससे पूरा खेत देखा जा सके । उस अटाना पर चढ़ने के लिए थूनी में ही खड्डे बना दिए जाते थे । ये अटाना कुछ समय के लिए हवा महल की अनुभूति जरूर करा दिया करता था ।
जानवरों के रहने के लिए बनाए जाने वाले स्थान को सरिया कहा जाता था जिसका छपरा ज्यादातर एक तरफ ढाल वाला होता था । छप्पर को कस कर बांधने के लिए अरहर की कईनी का प्रयोग होता था । बांस के डंडे छप्पर की मजबूती के लिए बीच बीच में जरूर लगाएं जाते थे । प्रायः ये डंडे डेढ़ से दो फीट की समान दूरी पर दोनों तरफ रहते थे ।
छप्पर का गर्मियों में अलग ही आनंद होता था तापमान कितना भी बढ़ जाय लेकिन बिना एसी के अंदर का मौसम मजेदार रहता था । जाड़े के दिनों में मड़हा के चारों ओर टटिया लगानी पड़ती थी जो जाड़ों से सुरक्षा देती थी। अरहर की टट्टी और गुजराती ताला के कहावत वाली ये टटिया ठंडी हवा से बचाव करती थी ।
जब कभी गांव में आग लग जाती थी तो मंजर खतरनाक होता था कभी कभी एक दो घर के बाद आग बुझा ली जाती थी तो कभी कभी गांव के गांव साफ हो जाते थे । फायर ब्रिगेड होते जरूर थे लेकिन जब तक सूचना जाती थी और वो दो चार घंटे बाद आते थे तब तक सर्व नाश हो चुका होता था । लेखपाल या तहसीलदार मातम पुर्सी के लिए अा जाय तो एहसान जैसा होता था । आज की तरह न तो जनता जागरूक थी न ही उसे इन सब चीजों से बहुत उम्मीद थी। गौहन्ना गांव में बिजली लगने के बाद सबसे ज्यादा घर इसलिए जल गए थे कि चलती बिजली लाइन में पानी डालने से करंट लग रहा था । दिया और तपता यानि अलाव और कभी कभी हुक्का और बीड़ी पीने वालों की असावधानी छप्पर के छप्पर निपटा जाती थी ।
अब गौहन्ना में भी पक्के घरों का चलन हो गया है । हां आज भी छप्पर मौजूद हैं पर छपरा के छवैया यानि आर्किटेक्ट अब ख़तम होते जा रहे हैं । कुछेक आर्किटेक्ट बड़े बड़े होटलों ने बुला लिए हैं जहां छपरा में लोग बैठ कर लग्ज़री महसूस करते हैं । ग्रामीण जीवन के इस मौलिक आर्किटेक्ट को आज जब होटल में देखता हूं तो सोचता हूं कि जो ग्रामीण जीवन की मज़बूरी में विकसित कला कृति अब कमाई का जरिया भी बन गई है

अंगना दलान-

 अंगना दलान-

'झिलमिल सितारों का आंगन होगा
रिमझिम बरसता सावन होगा '
सितारों का आंगन गौहन्ना के गांव में भी हुआ करता था । जहां कुछ पल के लिए पूरा घर सुस्ताता था । गौरैया दाना चुगने आती थी और तुलसी का पौधा सीधे आसमान से आती किरणों से नहाता था । गांव गांव आंगन बनाने की परंपरा सदियों से रही है आज भले ही घर पक्के हो गए हों लेकिन आंगन नहीं तो घर की रौनक नहीं हां शहरों ने आंगन अलबत्ता लगभग लगभग खो दिए हैं ।
गांव में पूरा घर केवल घर नहीं था उसके कई भाग और अनुभाग हुआ करते थे । घर के बाहर का हिस्सा दुआर मुहार कहलाता था । किसी के घर के संस्कार उसके दुआर मुहार की रौनक और साफ सफाई से समझे जा सकते थे । घर में घुसने का पहला दरवाजा शहन दरवाजा कहलाता था । चौखट दरवाजे का अनिवार्य हिस्सा हुआ करता था । चौखट पर मत्था टेकने की कहावत तो सुनी ही होगी । चौखट और दरवाजे से झुक कर प्रवेश की परम्परा घर को मन्दिर की संज्ञा तक स्थापित करते थे ।
घर का सम्मान सबको करना होता था । दरवाजे पर गोबर और गेरू से लिपाई घर घर में होती थी । कुंडा, सांकल या जंजीर आदि दरवाजे के सुरक्षा सरदार होते थे ।बहुत कम ऐसा होता था कि बाहर ताला लगाना पड़े क्योंकि संयुक्त परिवार इतना बड़ा होता था कि उसका कोई न कोई सदस्य घर में रहता ही था ।
चौखट से आगे कदम रखते ही जो कमरा मिलता था उसे दालान कहते थे । प्रायः उसी के बगल एक कमरा चौपार का होता था जहां पुरुष वर्ग सामूहिक चर्चा के लिए इकठ्ठा होते थे । मेहमानों की आवभगत भी उसी कमरे में होती थी ।
दालान में ही अनाज की कोठरी और डेहरी भी हुआ करती थी जिसमे साल भर के अनाज की व्यवस्था पूरी तरह दुरुस्त रहती थी । डेहरी मिट्टी की बनी होती थी ऊपर से भरते थे नीचे के छेद से निकासी की जाती थी।
यही कहीं आस पास एक कमरा बखार का होता था जहां खेत से आया अनाज खासकर गेहूं चना मटर बोरे में भरकर भूसे के अंदर रख दिया जाता था । इस तरह ये अनाज कम ऑक्सीजन के केंद्र में कीड़े मकोड़े से बहुत दिनों तक सुरक्षित रहता था।
चौखट दालान पार करने के बाद घर का सबसे महत्वपूर्ण भाग आंगन होता था जिसे गौहन्ना में अंगना कहते थे।
नरायन दादा सबेरे सबेरे गाते थे
'बहारो गोरी अंगना
होय गवा सबेर ..'
अंगना के तीन तरफ तीन कोठरियों के अलग अलग नाम थे
एक तरफ रसोई होती थी और ज्यादातर उस में ही कुल देवता स्थापित होते थे हर घर का कुल देवता विशिष्ट होता था जिसे आज भी देवतन के नाम से जानते हैं। शादी विवाह, मुंडन , जनेऊ, किसी भी संस्कार या प्रयोजन की सफलता कुल देवता की प्रसन्नता पर निर्भर होती है । रसोई के पकवान , नई फसल आदि सबसे पहले वहीं अर्पित की जाती है । विवाह के समय कोहबर इसी कमरे में बनता है । कोहबर चित्रकला अवध की बेहतरीन लोक कला है जिसे अगर संरक्षण न मिला तो लुप्त हो जाएगी । मधुबनी पेंटिंग से ये कला रत्ती भर कम नहीं है।
रसोई में हर किसी को पैर धुल कर नंगे पैर ही जाना होता था । बिना नहाए कोई खाना नहीं बना सकता था । चूल्हा चौका घर के पवित्र स्थान के रूप में स्थापित होता था ।
जिस संस्कृति में अन्न को ब्रह्म का दर्जा मिला हो वहां चूल्हा चौंका यज्ञ स्थल तो होगा ही । कहते हैं कि दुनिया की सबसे पहली प्रयोग शालाएं रसोई घर ही रहीं होंगी और दुनिया की सबसे पहली वैज्ञानिक महिलाएं ही रही होंगी । पोषण और स्वास्थ्य के जितने प्रयोग यहां हुए वे पीढ़ी दर पीढ़ी चलते रहे।
नई नवेली दुल्हन की कोठरी अलग ही होती थी जिसमे उसका अपना राज्य होता था । पूरब की कोठरी, पछू की कोठरी , दखिन की कोठरी आदि नामों से इन्हे जाना जाता था । दूध गरम करने की जगह को दुध गड़ा कहते थे । अनाज पीसने के लिए बड़े बड़े पत्थर के जांत होते थे । सुबह सुबह उठकर महिलाओं को ये जांत या छोटी चकिया पकड़नी पड़ती थी तब जाकर घर में रोटी की व्यवस्था होती थी। अलग से योग या कसरत करने के लिए कहीं जाना नहीं पड़ता था । आंगन के सिल बट्टे में पिसे मसाले गारंटी के साथ शुद्ध हुआ करते थे। । धान कूटने के लिए पहरुए और ओखली कोने में मौजूद रहते थे ।
पूजा का घर देवतन का स्थान ही हुआ करता था अब तो अलग से भी पूजा का कमरा बनने लगा । किसी किसी घर में दुमहला भी होता था लेकिन होता मिट्टी का ही था । मिट्टी के घर में छत के ऊपर अटारी होती थी ।ये गाना तो सुना ही होगा
'आया आया अटरिया पे कोई चोर'
खैर अब अटारी होती नहीं सो चोर का क्या करना ।
फिर भी उस दौर में दिया यानि दीपक या चिराग रखने के लिए ताखे या डूठी हुआ करती थी । कपड़े टांगने के लिए बांस की अरगनी या लकड़ी की खूंटी पर्याप्त हुआ करती थी । कूड़े , मटके के अनाज छत के ऊपर बनी रावटी में रखे जाते थे । तहखाने या भुइं नशा बड़े बड़े घरों में ही होते थे ।
अवध क्षेत्र के ये घर घर से ज्यादा मन्दिर थे । तब के घर मिट्टी के होने के बावजूद एक अनोखी दुनिया थे जिसमें संपूर्णता थी और अपने पराए सब के लिए दिल खोल के जगह ही जगह थी । चाहे दुआर मुहार हो या अंगना दलान सब की अपनी पहचान और गरिमा थी ।

फरा -

 फरा :

(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से )
कुछ नया नाम लग रहा है न? लेकिन गौहन्ना में ये नाम न जाने कब से चल रहा होगा । अवध क्षेत्र में इस व्यंजन को फ़रा नाम से ही जानते हैं । आपकी सुविधा के लिए बता दें कि इसकी तुलना आप मोमोज से कर सकते हैं । लेकिन दोनों में थोड़ा अंतर भी जानना जरूरी होगा नहीं तो इस अवधी व्यंजन के आंनद को महसूस नहीं कर पाएंगे ।
जिस तरह हर क्षेत्र का कुछ खास व्यंजन होता है उसी तरह अवध क्षेत्र का फरा बहुत खास होता है । इसे चावल के आटे से बनाते हैं और चावल के आटे की छोटी छोटी पतली रोटियों के ऊपर उड़द की पिसी भीगी हुई मसाले वाली दाल इसमें भर दी जाती है । किसी छोटी कागज की नाव की तरह इसका आकार होता है लेकिन इसका मुंह खुला रहता है । फरा को बटुली या पतीली के ऊपर भाप में लगभग बीस से पच्चीस मिनट पकाना पड़ता है ।
मोमोज और फरा में मूल अंतर मुंह के खुले और बन्द होने का होता है। मोमोज पूरी तरह बन्द होता है जबकि फरा का मुंह खुला रहता है और इसका अंदर का सामान बिल्कुल नायाब होता है ।
कहते हैं कि किसी पर्यटक स्थल पर जब लोग जाते है तो वहां के स्थानीय व्यंजन ढूंढ़ते हैं । लेकिन अवध के ढाबे और होटल अवध के कम पंजाब के नकल में ज्यादा फंस गए, इसलिए वहां आप फरा नहीं ढूंढ़ पाएंगे । करते भी क्या ट्रक का हाईवे, ड्राइवर, खलासी सब पंजाब के तो खाना भी उसी तरह का चल निकला किसी का ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि अयोध्या भ्रमण पर आने वाले पाहुन को लोकल डिश की भी तलाश होगी ठीक उसी तरह जिस तरह आपको दक्षिण भारत में सांभर- डोसा की तलाश रहती है । ठीक उसी तरह जब आप गुजरात में ढोकला और खांख्रा ढूंढ़ते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप पंजाब में मक्के की रोटी और सरसों का साग ढूंढ़ते हैं जो आपको वहां के हर ढाबे पर मिल जाता है ।
गौहन्ना और आस पास के क्षेत्र में फरा बनाने के लिए छलनी या जालीदार सिकहुला का प्रयोग किया जाता है । इसको बनाने का चलन कार्तिक मास से फाल्गुन तक ज्यादा होता है । तैयार फरे को घी के साथ खाने का आंनद ही कुछ और होता है । आम या इमली की मीठी चटनी के साथ इसे परोसा जाता है । इसको गरमा गरम खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन अगर ये बच जाए तो घी और जीरे के छौंक के साथ इसे नए अंदाज में आप खा सकते हैं । इस डिश के साथ गांव में गन्ने के रस से चावल का रसियाव भी खाया जाता है । जो किसी खीर की तरह बनता है । गांव के इन व्यंजनों में जन्मों जन्मों की तृप्ति एक साथ मिल जाती है ।
फरा के सीजन में ही दलभरी पूड़ी का चलन भी रहता है । चने की दाल को पीस कर रोटी के अंदर भर कर बनाने की कला गांव - गांव में प्रचलित है । ये दलभरी पूड़ी तवे पर बड़े इत्मीनान से सरसों के तेल में सेकीं जाती है और मक्खन , गुड या अचार खासकर भरवा मिर्चे के साथ परोसी जाती है ।जिस के मुंह ये एक बार लग गई तो लग गई फिर आदमी आलू का पराठा खाना भूल जाता है ।
इस तरह के न जाने कितने व्यंजन अवध की स्थानीय ग्रामीण संस्कृति में घर - घर बनाए जाते हैं । इनमे से कुछ की चर्चा करते रहेंगे । फिलहाल जब तक होटल और ढाबे में ये डिश नहीं बनने लगती तब तक जब भी अवध क्षेत्र के ग्रामीण अंचल में जाएं तो इन व्यंजनों को खाना न भूलें ।संकोच मत करिएगा कि कोई खिलाएगा नहीं । जम के लोग खिलाएंगे , खुश होकर खिलाएंगे ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक से साभार )

संहिड़ा-

 संहिड़ा-

अलग अलग क्षेत्रों में इसके नाम अलग अलग हैं लेकिन इसका स्वाद जब बोलता है तो सर चढ़कर बोलता है । एक बार जिसने खा लिया तो ता उम्र इसको ढूंढ़ता फिरता है । हां ये हर जगह नहीं बनता इसीलिए तो ढूंढ़ना ही पड़ता है । गौहन्ना में इसे संहिड़ा कहते हैं अवध क्षेत्र में कहीं कहीं इसे पतोड़ भी कहते हैं क्योंकि ये घुइया यानि अरवी के पत्तों से बनाया जाता है ।
घुइया के नरम पत्तों को एक के ऊपर एक किसी सीरीज की तरह जमाया जाता है इन पत्तों के बीच में रात भर की भीगी हुई उड़द की सफेद दाल का पेस्ट लगा कर उन्हें चिपकाया जाता है । इस दाल के पेस्ट में नमक , मसाला, हींग आदि डाल कर स्वादिष्ट बना दिया जाता है । इन पत्तों को अब रोल कर चार चार अंगुल दूर से काट दिया जाता है । अब ये किसी गोल परतदार प्याज की तरह हो जाता है । ऊपर से भी उड़द की दाल का वहीं पेस्ट लगाकर राई या सरसों के तेल में तल लिया जाता है । तलने के बाद आखिरी प्रक्रिया में खाली कड़ाही में हल्की आंच पर भाप से पकाया जाता है ये भाप उसी तले हुए संहिड़ा की ही होती है अलग से पानी नहीं डालना होता ।
सोंधा पन लिए हुए संहिड़ा को ताजा ताजा इमली या आम की चटनी के साथ खाने का मजा ही कुछ और है ।
इस व्यंजन को कई दिनों तक रखा जा सकता है बासी संहिड़ा को तवे पर गरम कर खाने का भी रिवाज है ।
अवध के इन व्यंजनों में संहिड़ा के साथ बनने वाले रिकवछ को भी उड़द की भीगी दाल से बनाते हैं । दाल की अंगूठे के आकार की पिठी को तेल में तल कर उड़द की ही भुनी और छौंकी कढ़ी में डाल दिया जाता है ।
बेसन के आटे से बनने वाली फुलौरी का नाम तो सुना ही होगा । पकौड़ी से मिलते जुलते इस व्यंजन में केवल बेसन के आटे को राई या सरसों के तेल में मात्र नमक जीरा मिला कर तल लिया जाता है फिर इसे कढ़ी ने डालकर या पना बना कर खाया जाता है ।
पना चावल के आटे को भूनकर गुड़ का रस या घोल मिलाकर धीमी आंच पर घोटकर बनाया जाता है जब घोल गाढ़ा हो जाता है तो इसमें नमक व इमली की या आम की खटाई मिला दी जाती है । पना में रात भर फुलौरी को डाल कर और भी स्वादिष्ट बना दिया जाता है । पना का ये खट्टा मीठा स्वाद आपको किसी कुकरी बुक या वेबसाइट पर शायद ही नसीब हो किन्तु अवध के गांव में ये जरूर मिलेगा । फुलौरी की लोकप्रियता इतनी थी कि इस पर एक लोकगीत बहुत दिनों तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा -
'कैसे बनी हो रामा
कैसे बनी ?
फुलौरी बिना चटनी
कैसे बनी ?'
व्यंजन जब ज़बान से आगे आनंद की अभिव्यक्ति बन जाएं तो ये समझ लेना चाहिए कि वह लोक सुख का आधार भी है । जिसे गौहन्ना वाले आज भी खाकर अपने हर ग़म को भूल जाते हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

ठोकवा -

 ठोकवा -

पूड़ी , पराठे , कचौड़ी , छोले तो उत्तर भारत में हर जगह मिल जाते हैं लेकिन कुछ व्यंजन तो अवध की शान हैं । ठोकवा भी उन्हीं में से एक है जो सूखे महुवे के फूल को भिगो कर और कूंच कर यानि लुगदी बना कर पराठे की तरह सेंक कर या तल कर बनाया जाता है । ये कूंचने वाला शब्द गौहन्ना और आसपास जिस अंदाज से बोला जाता है उसी अंदाज से उस शब्द का अर्थ समझना पड़ता है । अगर गुस्से से बोला गया तो मतलब पिटने से होता है अगर प्यार से बोला गया तो मतलब सचेत करने से भी होता है । ठोकवा ठोक ठोक के बनता है इसलिए नाम ही ठोकवा पड़ गया । महुवे के पेड़ गौहन्ना व पूरे अवध क्षेत्र में जगह जगह मिलते हैं । महुवे के बारे में एक कहावत मशहूर है
गुड़ , बरगद महुआ कै गादा
याहू की ताई दतुइन करी दादा
मतलब इनको खाने के लिए दातून यानि ब्रश करने की जरूरत नहीं बस मिले तो खा जाओ ।
ताजे महुआ के फूलों से रस निकाल कर गरम कर उसमें आटा मिला कर तवे पर चिल्ला और बरिया बनाने का रिवाज है । ठोकवा और बरिया महीनों तक खराब नहीं होता । वैसे कुछ लोग ठोकवा, बरिया और चिल्ला से आगे प्रयोग के माहिर भी गौहन्ना में थे । बाकी आप समझ गए होंगे ।
लंबे समय तक चलने वाले खाद्य पदार्थ उन जगहों पर ज्यादा प्रयोग कर के खोजे और बनाए गए जहां या तो यात्राएं लंबी करनी होती थीं या फिर खाद्य संरक्षण एक मज़बूरी रही हो । धार्मिक यात्राओं , रोजगार की तलाश में जाने वाले लोग एक एक महीने का खाद्य बांध कर चलते थे । जहां रात हुई वहीं इस तरह की चीजें खा कर सो गए सुबह फिर से सफ़र पर निकल लिए ।
इस तरह के सूखे राशन में सतुआ का महत्वपूर्ण योगदान रहा है सतुआ गोजई यानि जौ को चने के साथ पीस कर बनाया जाता है पीसने के पहले इसे भून लेते हैं । पूर्वांचल और बिहार का प्रसिद्ध बाटी चोखा जिसने भी खाया होगा उसे पता होगा की असली टेस्ट सतुआ से ही आता है । सतुआ सीधे पानी में घोलकर पेस्ट के रूप में चटनी या सिरके या फिर गुड़ के साथ खाया जाता है । सतुआ खाने का त्योहार भी होता है जिसे सतुआ संक्रांति कहते हैं ।
सूखे खाने की परंपरा में आटे की पंजीडी भी होती है जिसे अक्सर सत्य नारायण भगवान की कथा में बनाया जाता है । गेंहू के आटे को हल्का भूनकर गुड़ मिला कर पंजीड़ी बनाई जाती है । इसी तरह चावल के आटे को भूनकर गुड़ के शीरे में घोंटकर जो लड्डू बनाया जाता है उसे गौहन्ना में ढूंड़ी कहते हैं इसमें अगर तिल और सोंठ मिला दी जाय तो मज़ा दुगना हो जाता है । लाई की ढूंड़ी तो बच्चे बूढ़े सब बड़े मज़े से निपटा जाते हैं । गुलगुले गुड़ के घोल में गेहूं के आटे को फेट कर सरसों के तेल में तल कर बनाया जाता है । अपने लल्ला भैया को गुलगुला इतना पसंद था कि उनका बस चलता तो खाने की जगह गलामू यानि गुलगुले ही रोज बनते । लेकिन क्या करें दांतों ने मीठे की गवाही प्राइमरी स्कूल में भी देनी शुरू कर दी थी सो मास्टर साहब ने ज्यादा मीठा खाने से उन्हें रोक दिया था । इसी डर से उनके कुछ दांत सलामत बचे रहे ।
दाल और सब्जी के विकल्प के रूप में प्रचलित मेथौरी की बात ही अलग है । खबहा कोहड़ा यानि पेठे वाले कद्दू को घिस कर उड़द की पिसी दाल में मसाले के साथ मिला कर बनने वाली मेथौरी को कहीं कहीं कोंहड़ौंर या बड़ी के नाम से भी जानते हैं । सुनने में आया है कि आजकल अमेजन और कई नामी ऑनलाइन प्लेटफार्म पर भी ये बिक रही है । आने वाले समय में छोटा मोटा ऑनलाइन गृह उद्योग इन सबसे तो चलेगा ही । खाना ही ऐसा क्षेत्र है जहां मंदी की दाल नहीं गलती ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

सिखरन-

 सिखरन-

बात गन्ने और गांव की हो तो सिखरन का जिक्र आना स्वाभाविक है । अवध क्षेत्र में गन्ने के कोल्हू गांव गांव पाए जाते हैं । खेत में खड़े गन्ने को चूसने का जो मज़ा है वो दांत वाले ही जानते हैं । लेकिन सिखरन गन्ने के रस में दही मिला कर बनाया जाता है । जब गन्ने का सीजन ख़तम हो जाता है तो राब को घोल कर दही मिला कर सिखरन बनता है । दही की जगह मठ्ठा मिल जाय तो पूछना ही क्या ? कैसी भी गर्मी में चल कर कोई आया हो । एक लोटा सिखरन सारी थकान उतार देता है ।
गौहन्ना गांव में एक दो खेत गन्ने के हर किसान के पास होते थे । सरौती गन्ने की उस समय धूम हुआ करती थी बाद में उन्नत किस्म के गन्ने आने लगे थे । गांव में एक कोल्हू हुआ करता था जो मिसिर दादा के खलंगा में चलता था जिसे कोल्हार कहते थे । इस सीजन का इंतजार पूरे गांव को रहता था जब कोल्हू का चलना शुरू होता था । सहकारिता के सिद्धांत के तहत सबको अपने बैल बारी बारी से फांदी के हिसाब से कोल्हू में हांकने पड़ते थे। हांकने वाले को नांद भरने तक बैल हांकना होता था ।
गन्ने के रस को बड़े कड़ाह में उबाल कर गुड़ बनाया जाता था । कड़ाह के नीचे लकड़ी , सूखे पत्ते , फसल के अवशेष व खोई आदि झोंक कर लगातार आग जलाई जाती थी । एक निश्चित गाढ़ा पन आने पर मिट्टी के बड़े चाक में उसे निकाल कर ठंडा किया जाता था फिर पूरा ठंडा होने के पहले ही उसे गोल गोल भेेली बना कर रख लिया जाता था गुड़ बनाने वाले विशेषज्ञ बड़े सम्मान से देखे जाते थे सबको गुड़ बनाना नहीं आता था ।ये भेेली अगले साल तक घर की शान हुआ करती थी । रस को अगर थोड़ा पतला उतार लिया जाए तो राब बन जाती थी । गन्ने से बनने वाली शहद जैसा उत्पाद - राब को कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है जिसे रोटी से खाने के साथ साथ घोल कर भी पिया जाता था ।
जिस जगह गुड़ बनता था यानि कोल्हार ग्रामीण सामाजिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र हुआ करता था जहां पूरे गांव मोहल्ले में क्या चल रहा है सबकी चर्चा होती थी ।जगने के लिए रात रात भर कहानियों और किस्सों का दौर चलता था । भूत प्रेत के किस्से भी रोमांच पैदा करते थे । गांव के बच्चे गुड़ और उससे भी ज्यादा छेंवटा की लालच में वहां जमे रहते थे । छेंवटा कड़े गुड़ का अवशेष होता था जो कड़ाह में तले में जम जाता था । कुछ आलू , गंजी प्रेमी भार की गरम आग में आलू ,गंजी यानि शकरकंदी भूजा करते थे । गुड़ बनाते समय निकलने वाली मेल को लदोई कहते थे । पहले तो भिंडी की जड़ डाल के उसे साफ किया जाता था बाद में खाने वाले सोडे का प्रयोग होने लगा ।इससे गुड़ लाल से थोड़ा गोरा होने लगा । लेकिन आयरन की मात्रा घटने लगी ।
सिखरन के साथ सबसे ज्यादा बढ़िया संयोग जिस व्यंजन का बनता था वो घुघुरी कहलाती थी जो ताजी मटर के दानों के साथ आलू को मिलाकर जीरे के छौंक के साथ बनाई जाती थी। सुबह का नाश्ता घुघरी और सिखरन ही होता था । गन्ने के सीजन में गांव का पूरा कूड़ा कबाड़ जल कर राख बन जाता था जो खेतों में वापस डाल दिया जाता था । गन्ने की खोई चूल्हे में बायो ईंधन के रूप में जलाई जाती थी ।
मिसिर दादा ने धीरे धीरे कोल्हू से हाथ खींच लिया क्योंकि तब तक इंजन और बिजली से चलने वाले क्रेशर अा गए थे गांव से बैल भी नदारद होने लगे थे उनकी जगह ट्रैक्टर ने लेे ली थी ।धीरे धीरे चीनी मिल गांव के पास ही खुल गई । रौजा गांव की चीनी मिल आने के बाद कोल्हू पूरी तरह बन्द हो गए । किसानों के गन्ने नकद के चक्कर में चीनी मिल जाने लगे । गन्ने का एरिया बढ़ने लगा और घरों से गुड़ गायब होकर चीनी बन के लौट आया साथ ही अपने साथ कुछ बीमारियों को भी साथ लाया । क्योंकि न तो चीनी में आयरन था न ही कैल्शियम सो इन सबकी आपूर्ति गांव में भी मेडिकल स्टोर से ही होने लगी है जो किसी ज़माने में फ्री में गुड़ और भेली से मिल जाता था ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

बरा -

 बरा -

उत्सवों के देश भारत में उल्लास के नए नए तौर तरीके और त्यौहार होते हैं । उत्सव और व्यंजन का हमेशा से चोली दामन का साथ रहा है । बरा उत्सवों का राजा रहा है । होली हो या ईद बरा अवध की शान रहा है । दक्षिण भारत में सांभर बड़ा तो अन्य जगह बड़ा या बरा नाम से इसे जाना जाता है । शादी विवाह, मुंडन, जनेऊ, हर संस्कार बरा के बिना अधूरा है । दही में पड़ जाय तो दही बड़ा भी बन जाता है । खट्टी या मीठी जिस तरह की चटनी के साथ खाना हो बरा तो बड़ा ही होता है । जीरा के बिना दही बड़ा अधूरा ही रहता है । उड़द की भीगी व पिसी हुई दाल से बड़ा सहित कई व्यंजन बनाए जाते हैं ।
गौहन्ना और आस पास के इलाके में अस्सी के दशक में शादियां तीन दिन की हुआ करती थीं। बताते है भगवान राम की बारात जनकपुर में महीनों रुकी थी तो अवध में तीन दिन भी न हो ये कैसे हो सकता है ? बारातियों को दूसरे दिन रसेदार कटहल की सब्जी मिलती थी और साथ में दही बड़ा भी मिलता था । अवध क्षेत्र की कटहल की रसेदार सब्जी जिसने खाई होगी उस का स्वाद वहीं जानता होगा । ढूंढे से भी वो स्वाद आजतक किसी होटल में नहीं मिला । इस तरह की शादियों में दही चूरा भी खूब चलता था । भगवान राम की शादी में जब दशरथ जी जनकपुर पहुंचे तो स्वागत में उपहार में दही चूरा भर भर के मिला था जिसे रास्ते भर बाराती खाते हुए आए थे।
दधि चिउरा उपहार अपारा
भरि भरि कांवरि चले कहारा ..
आज के दौर में तीन दिन की शादियां रात भर में निपट जाती हैं जो लगता है भविष्य में तीन घंटे की ही रह जाएंगी ।
गौहन्ना और आस पास के क्षेत्रों में गुड़िया और अनंता के त्योहार पर सिंवई भी बनती है । बगल के गांव बड़ा गांव में ईद पर सिंवई ही उत्सव की शान होती है । होली के मुख्य व्यंजन के रूप में गुझिया पूरे देश में प्रसिद्ध है । कहते है कि गुझिया अवध की ही खोज है । सोंठ से बनने वाले व्यंजन सोंठौरा बच्चे के जन्म के समय मां का अनिवार्य पौष्टिक आहार होता है । खिचड़ी के दिन उड़द की खिचड़ी जरूर बनती है । खिचड़ी के चार यार प्रसिद्ध हैं
खिचड़ी के चार यार
घी , पापड़,दही, अचार
और फिर थारिया यानि थाली भर भर खिचड़ी यारों के साथ स्वाद का खजाना बन जाती है । फिलहाल इन सब व्यंजनों में राजा साहब यानि बरा दही बड़े के रूप में आजकल शहरों में खूब बिक रहे हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)
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झुलनी -

 झुलनी -

गहने हर संस्कृति की पहचान रहे हैं । गहने लोक गीतों से लेकर आधुनिक गीतों में भी समाहित हैं । धातुओं के मूल्य के आधार पर समृद्ध संस्कृति का आकलन होता रहा है । हिन्दुस्तान को सीने की चिड़िया कहे जाने के पीछे एक राज यह भी था कि हर घर में सोने के आभूषण पहनने का रिवाज था । काली मिर्च के बदले सोना यूरोप, अरब हर जगह से आता था । सोने के चक्कर में आक्रमण कारियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी हिन्दुस्तान ही रहा । उसमें भी अवध का क्षेत्र व गंगा जमुना का दोआब का आकर्षण ये था कि जिसने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया उसने पूरे देश पर राज कर लिया ।
गौहन्ना में भी गहनों का चलन सदियों से रहा है कुछ तो खुदाई में भी मिलते रहे लेकिन जिनको मिले वो छुपा गए । फिर भी संस्कृति अनवरत चलती रहती है ।
स्त्रियों में गहने का चलन पैरों से लेकर सिर तक रहा है । कड़ा , छड़ा , पावजेब, लच्छा, पायल , बिछुआ ये सब पैरों में पहने जाते हैं । कहते हैं कमर के नीचे सोना नहीं पहनना चाहिए इसलिए ये सब आभूषण चांदी के है होते रहे । बिछिया सौभाग्य वती स्त्रियों को ही अनुमन्य थी ।
कमर में करधनी और पेटी पहनने वाले समृद्ध घर के माने जाते थे ।गौहन्ना में जिनको सोने का आभूषण बनवाना मुश्किल होता था वो चांदी के पहनते थे । भगतिन आजी
मोटे मोटे चांदी के कड़े पहनती थीं । दुरपदा बुआ कान में बड़े बड़े चांदी के छल्ले पहनती थीं यहां तक कि उनके कान के छेद उन छल्लों से बड़े होकर अंगूठे जितने मोटे हो गए थे लेकिन कभी भी उनको मोटा छल्ला उतारे नहीं देखा । कान में झुमका , कुंडल , बाली का पहनावा आम था । झुमका कुछ वैसा ही जैसा गानों में सुना होगा
झुमका गिरा रेे
बरेली के बाजार में
झुमका..
पंडि ताई न आजी की नाक में लटकने वाली सुराही धीरे धीरे चलन से बाहर हो गई स्मार्ट गहने ज्यादा चलने लगे सो नथुनी कील फैशन में अा गई और नाक के बीच में झूलने वाली झुलनी इतिहास बनने लगी । झुलनी तो कबीर के उपदेशों में भी उतर आई थी
झुलनी का रंग सांचा
हमार पिया..
सर के श्रृंगार में बिंदी टिकुली के साथ माथ बिंदिया नारी के सौंदर्य की साथी रही है ।
इन सबको जिन हाथों से सजाया जाता था उन हाथों के आभूषण में अंगूठी से लेकर कंगन, चूड़ी , बाजूबंद , दस्ताना पहने जाते थे । बाजूबंद कुहनी के ऊपर पहना जाता था जो अब नई पीढ़ी में चलन से बाहर है ।
सारे गहने होने के बावजूद अगर गला सूना है तो सारे आभूषण पहनने का कोई मतलब नहीं होता था । गले का मंगल सूत्र सौभाग्य की निशानी होती है । चेन, हार , कंठा, गुलू बन्द , मोहर माला ये सब गले के श्रृंगार थे जो ज्यादातर सोने के होते थे । नौलखा हार जिसके घर होते थे वो बड़े खानदान के माने जाते थे ।
ये गहने स्त्री सशक्तीकरण के प्रतीक थे । गाढ़े समय पर बहुत काम आते थे । पीढ़ी दर पीढ़ी बेटी , बहू को किसी संस्कार की तरह हस्तांतरित होते रहते थे ।
कहते हैं भारतीय संस्कृति में गहनों का प्रचलन आयुर्वेद से भी जुड़ा हुआ है एक्यू पंचर से इलाज की पद्धति का ये भी एक तरीका था । हमारे शरीर में खनिज की आवश्यकता वनस्पतियों के साथ साथ धातुओं से भी पूरी होती रही थी कुछ खनिज गहनों से भी त्वचा के माध्यम से शरीर को मिलते रहते थे । सोना चांदी च्यवन प्राश तो सुना ही होगा आयुर्वेद की ये औषधियां गहनों से मिल जाती थीं और लोग सौ सौ साल आराम से जिंदगी जीते थे । अब दवाओं की भरमार के बावजूद सौ तक बिरले लोग ही पहुंच पाते हैं । काश इन गहनों के विज्ञान को समय से समझ लिया जाता ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

गोरईयन कै मेला

 गोरईयन कै मेला -

गोरैया बाबा का स्थान मिसिर बाबा की बगिया में ही था । टेराकोटा मूर्तियों का एक बड़ा समूह मिट्टी के टीले के ऊपर पूजित होता था । जब धान की फसल कटती थी तो पिटाई गोरईयन बगिया में होती थी । धान के पौधे के बंडल किसी लकड़ी के पटरे या खैंची पर पटक पटक के मंडाई पारम्परिक तरीके से की जाती थी । तैयार धान के ढेर को राशि कहते थे और पहली राशि का शुभ गोरईयन बाबा को धान चढ़ा कर होता था । पीटने वाले को मजदूरी लवनी के रूप में मिलती थी नापने के लिए छोटी छोटी डलिया जो गोबर से लिपी होती थी काम में आती थी । यही हाल गेंहू की दंवाई में भी होता था ये दंवाई शब्द दाबने से बना होगा जिसमें बैल गेंहू के पौधों पर तब तक चलते थे जब तक उनके खुरों से दब कर गेंहू नीचे न निकल जाए । जब से थ्रैशर अा गया तो गेंहू की दंवाई आसान हो गई लेकिन धान की दंवाई में कोई खास परिवर्तन नहीं आया ।
गोरईयन बाबा का मेला गौहन्ना में दशहरा के दिन होता था । मेला गांव का इकलौता मेला था जिसका बड़ी शिद्दत से इंतजार होता था । दूर दूर से हलवाई आकर दुकान लगाते थे और मिठाई , जलेबी, चाट पकौड़ी, टिकिया का मजा ही कुछ और होता था । गांव में उस दिन बहू बेटियां कोशिश कर के मायके आकर अपने गांव का मेला देखती थीं ।
बड़े गांव के बड़कऊ की टिकिया जिसने न खाई उसने टिकिया का असली मजा नहीं लिया । मेले में दंगल और कुश्ती बगल के खेत में होती थी । जिसे देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ उमड़ती थी । एक छोटे से गांव की साल भर की यह रौनक तब और बढ़ जाती थी जब रात में मीठे गांव वालों की नौटंकी का मंचन होता था । कभी सुल्ताना डाकू तो कभी आल्हा ऊदल का खेला । नौटंकी पंडाल खचाखच भरा होता था । रामलीला का अलग ही मजा था । गांव के दो किशोर गांव के लोगों के कंधे पर राम लक्ष्मण के रूप में रावण के पुतले पर तीर मारते थे और धुन बजती थीं
मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी ।
राम सियाराम सियाराम जय जय राम...
रात की नौटंकी में माइक से आवाज आई
भूखल लोध ने सुल्ताना डाकू के रोल से खुश होकर दस रुपए का इनाम दिया ।
गामा पहलवान भला क्यों पीछे रहते ।
चमेली की नाच से खुश होकर गामा तेली ने बीस रुपए इनाम दिए । कम्पनी उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती है ।
कड़ कड़ कड़ कड़ घम नगाड़े ने आवाज निकाली तो रात के सन्नाटे को चीरती हुई कुर्मी के पुर वा से आगे बराई तक जा पहुंची ।
किसी ने कहा
कहूं नाच होत है हो
गौहन्ना मा लागत है हो
चलो देख आवा जाय
और लाठी कांधे पर रखे चार लोग बरई से नाच देखने तीन किलोमीटर दूर गौहन्ना अा जाते थे ।
इस तरह गोरईयन कै मेला में लोक जीवन में खुशियों की बरसात हो जाती थी ।
फिलहाल अब मेला मात्र परम्परा में रह गया है । टेलीविजन, सिनेमा और समय के अभाव ने लोक कलाओं को लगभग लगभग खो दिया है । फेसबुक और यू ट्यूब पर गांव के मेले ठेले और लोक कला के कुछ अवशेष जरूर मिल जाते हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

गोंदरी

 गोंदरी -

कहते हैं नींद न जाने टूटी खाट
नींद कुछ को आती ही नहीं तो गौहन्ना के लोग गोंदरी बिछा के आराम से सो जाते हैं । गोंदरी स्थानीय बिस्तर बनाने की कला है जिसे धान के पैरा यानि पुवाल से बनाया जाता है रस्सी और पुवाल की मदद से बनी यह संरचना महलों के गद्दे को फेल करती है । जाड़े के दिनों में गरीब ग्रामीणों के लिए इससे बड़ा सहारा मिल जाता है । मुंशी प्रेमचन्द की पूस की रात कहानी अगर पढ़ी होगी तो गांव के जाड़े का अहसास थोड़ा बहुत जरूर हुआ होगा । खेत में पानी लगाने से लेकर जानवर से खेतों की रखवाली तक सब कुछ किसान उस कड़कती ठंड में कर लेता है । किसी बगीचे में अगर पैरा यानि पुवाल की खरही अर्थात ढेर लगा है तो रात आसानी से कट जाती थी ।
गांव में जाड़े से निपटने के लिए तपता यानि अलाव जलता था । खेत के फूस व छप्पर के कराइन को फूंक के जाड़ा निपट जाता है । तपता गौहन्ना गांव की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । मोहल्ले के लोग जिसके घर तपता जलता था वहां रात में भोजन के पहले या बाद में थोड़ी देर बैठ कर अपने सुख दुख साझा करते थे । किसके घर क्या हुआ ? किसके घर मेहमान आए किसके घर में आज क्या बना सब पता चल जाता था । बड़ों के बीच बच्चे भी घुस के इन चर्चाओं का रसास्वादन किया करते थे ।
तपते के चारों तरफ बैठने के लिए बीड़ा की व्यवस्था की जाती थी । बीड़ा पुवाल से ही बनता था जिसे आजकल के छोटे मोढ़े से समझा जा सकता है । बीड़ा केवल बुजुर्ग या सम्मानित व्यक्ति को ही मिलता था । बच्चे वगैरह जमीन पर बैठ कर आग सेंकते थे । मचिया संभ्रांत लोगों के बैठने की कुर्सी थी । मचिया छोटी खाट की तरह होती थी जिसे चार पायों पर रस्सी से बुनकर बनाया जाता था । खटिया या चारपाई पर बैठ कर कम ही लोग आग सेकते थे इसे अच्छा नहीं मानते थे हां तखत पर रोक नहीं थी। लेकिन अग्नि देवता का सम्मान जरूरी था इसलिए सब लोग नीचे बैठते थे । अगर किसी ने पैर के तलवे आग की तरफ कर दिए तो उसको बहुत डांट पड़ती थी कि आग देवता को पैर नहीं दिखाते । कहते हैं कि जब तक माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक कुछ घरों में आग संरक्षित की जाती थी । एक दूसरे को चूल्हा जलाने के लिए आग मांगनी पड़ती थी ।
इस तपते में शाम के समय आलू और गंजी भूजी जाती थी जो रात के भोजन में बड़े चाव से खाई जाती थी । आलू का भरता गौहन्ना का मजेदार व्यंजन हुआ करता था और अगर आटे की बाटी भी साथ में भूज ली गई है तो पूर्ण आहार बन जाता था । अक्सर गौहन्ना की बटियों सादी ही होती थीं उनमें सत्तू कभी कभार ही पड़ता था । सादी बाटी भी घी , भरता और चटनी के साथ मस्त लगती थी ।
तपते की आग से कभी कभी बड़े हादसे भी हो जाते थे छप्पर की आग दो चार घर हर साल निपटा देती थी । लेकिन जाड़े से बचने का ये सबसे अच्छा उपाय था ।सुना है आजकल घरों में हीटर ने तपता की जगह लेे ली है और गद्दे रजाई ने गोंदरी प्रथा की जगह लेे ली है । फिर भी कुछ पुराने लोग और रात में सरकारी ट्यूब वेल से खेत सींचने वाले किसान अभी भी इसे बनाना जानते हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)