Saturday, February 13, 2021

गोरईयन कै मेला

 गोरईयन कै मेला -

गोरैया बाबा का स्थान मिसिर बाबा की बगिया में ही था । टेराकोटा मूर्तियों का एक बड़ा समूह मिट्टी के टीले के ऊपर पूजित होता था । जब धान की फसल कटती थी तो पिटाई गोरईयन बगिया में होती थी । धान के पौधे के बंडल किसी लकड़ी के पटरे या खैंची पर पटक पटक के मंडाई पारम्परिक तरीके से की जाती थी । तैयार धान के ढेर को राशि कहते थे और पहली राशि का शुभ गोरईयन बाबा को धान चढ़ा कर होता था । पीटने वाले को मजदूरी लवनी के रूप में मिलती थी नापने के लिए छोटी छोटी डलिया जो गोबर से लिपी होती थी काम में आती थी । यही हाल गेंहू की दंवाई में भी होता था ये दंवाई शब्द दाबने से बना होगा जिसमें बैल गेंहू के पौधों पर तब तक चलते थे जब तक उनके खुरों से दब कर गेंहू नीचे न निकल जाए । जब से थ्रैशर अा गया तो गेंहू की दंवाई आसान हो गई लेकिन धान की दंवाई में कोई खास परिवर्तन नहीं आया ।
गोरईयन बाबा का मेला गौहन्ना में दशहरा के दिन होता था । मेला गांव का इकलौता मेला था जिसका बड़ी शिद्दत से इंतजार होता था । दूर दूर से हलवाई आकर दुकान लगाते थे और मिठाई , जलेबी, चाट पकौड़ी, टिकिया का मजा ही कुछ और होता था । गांव में उस दिन बहू बेटियां कोशिश कर के मायके आकर अपने गांव का मेला देखती थीं ।
बड़े गांव के बड़कऊ की टिकिया जिसने न खाई उसने टिकिया का असली मजा नहीं लिया । मेले में दंगल और कुश्ती बगल के खेत में होती थी । जिसे देखने के लिए बहुत बड़ी भीड़ उमड़ती थी । एक छोटे से गांव की साल भर की यह रौनक तब और बढ़ जाती थी जब रात में मीठे गांव वालों की नौटंकी का मंचन होता था । कभी सुल्ताना डाकू तो कभी आल्हा ऊदल का खेला । नौटंकी पंडाल खचाखच भरा होता था । रामलीला का अलग ही मजा था । गांव के दो किशोर गांव के लोगों के कंधे पर राम लक्ष्मण के रूप में रावण के पुतले पर तीर मारते थे और धुन बजती थीं
मंगल भवन अमंगल हारी
द्रवहु सो दशरथ अजिर बिहारी ।
राम सियाराम सियाराम जय जय राम...
रात की नौटंकी में माइक से आवाज आई
भूखल लोध ने सुल्ताना डाकू के रोल से खुश होकर दस रुपए का इनाम दिया ।
गामा पहलवान भला क्यों पीछे रहते ।
चमेली की नाच से खुश होकर गामा तेली ने बीस रुपए इनाम दिए । कम्पनी उनका तहेदिल से शुक्रिया अदा करती है ।
कड़ कड़ कड़ कड़ घम नगाड़े ने आवाज निकाली तो रात के सन्नाटे को चीरती हुई कुर्मी के पुर वा से आगे बराई तक जा पहुंची ।
किसी ने कहा
कहूं नाच होत है हो
गौहन्ना मा लागत है हो
चलो देख आवा जाय
और लाठी कांधे पर रखे चार लोग बरई से नाच देखने तीन किलोमीटर दूर गौहन्ना अा जाते थे ।
इस तरह गोरईयन कै मेला में लोक जीवन में खुशियों की बरसात हो जाती थी ।
फिलहाल अब मेला मात्र परम्परा में रह गया है । टेलीविजन, सिनेमा और समय के अभाव ने लोक कलाओं को लगभग लगभग खो दिया है । फेसबुक और यू ट्यूब पर गांव के मेले ठेले और लोक कला के कुछ अवशेष जरूर मिल जाते हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

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