Saturday, February 13, 2021

महरा दादा

 महरा दादा -

महरा दादा को जब से देखा तब से उनके स्वरूप में अंत तक ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ । छरहरा बदन , कद चार फीट , रंग काला और बाल काले ये थे महरा दादा जो हर एक के मददगार थे । बीड़ी पीना उनका एकमात्र शौक था । गौहन्ना में उनसे बड़े बूढ़े लोग उन्हें गंगा दीन कह कर बुलाते थे लेकिन एक पूरी पीढ़ी उन्हें महरा दादा ही कहती थी । महरा दादा कहार समुदाय के प्रतिनिधि के साथ साथ सम्पूर्ण कहार जाति और संस्कृति के चलते फिरते उदाहरण थे ।
चलो रे डोली उठाओ कहार
पिया मिलन की ऋतु आई
कहारों का समूह दुल्हन को डोली में बैठा कर पिया के घर तक पहुंचाते थे । दूल्हा जब विवाह करने जाता था तो पीनस में काहारों के कंधे पर ही जाता था । निर्गुण भक्ति धारा में आखिरी समय को भी विवाह उत्सव की उपमा दी जाती रही है और वहां भी चार कहार जीवन की डोली उठाते हैं और आत्मा रूपी जीव को परमात्मा रूपी पिया तक पहुंचाते हैं ।
ग्रामीण जीवन में चूल्हे चौके तक जिस जाति की पहुंच थी वो कहार होते थे । पहले के जमाने में हैंड पंप तो होते नहीं थे कुंए से पानी भर भर कर बड़े बड़े मिट्टी के कूड़े में घरों में रखा जाता था । ये पानी नहाने धोने के अलावा खाना बनाने व बर्तन मांजने के काम आता था । सुबह शाम पानी भरने का काम महरा दादा का परिवार ही करता था । जिसके बदले हर फसल में उन्हें तिहाई मिलती थी । तिहाई एक तरह का पारिश्रमिक होता था जो लगभग दस किलो अनाज प्रतिमाह जैसा होता था लेकिन मिलता एक साथ ही था वो भी फसल कटने पर । प्रायः दो चार घरों में जिनमें महरा दादा की जजमानी थी उन सबसे उनको साल भर खाने का पर्याप्त राशन मिल जाता था । सत्य नारायण बाबा की कथा और शादी विवाह में नेग चार भी मिल जाया करते थे । दूल्हे को स्नान कराने का हक सिर्फ इन्हीं को था । दूल्हा और दुल्हन को डोली या पीनस में ले जाने में इनके कंधे कट जाते थे लेकिन फिर भी हर एक की खुशी का हिस्सा बनने में महरा दादा का जवाब नहीं था ।
महरा दादा कहारों के नृत्य जिसे गांव में कंहरउवा नाच कहा जाता था के माहिर थे जब कंहरउवा नाच गांव में होता था तो पूरा गौहन्ना देखने जाता था । कंहरउवा गीत भी इसी समुदाय से जन्मा होगा जिसे बाद में कंहरवा के नाम से किताबों में स्थान मिला । उस गीत के बोल
धीमी लय में आगे बढ़ते है
सीता सोचे अपने मन मा मुंदरी कहवा से गिरी ...
इस तरह के न जाने कितने गीत
महरा दादा को मुंह जबानी याद थे । पढ़े लिखे वो थे नहीं लेकिन कढ़े जरूर थे। उनकी बिटिया मीरा जब छोटी थी तभी उनकी पत्नी को बीमारी हो गई और दुनिया छोड़ गईं लेकिन महरा दादा ने हिम्मत नहीं हारी । बिक्रम और मीरा को पाल पोस कर बड़ा किया । अपने हाथ से खाना बनाकर दोनों को खिलाना उनके रूटीन का हिस्सा था । इसी बीच मेहनत , मजदूरी से लेकर डोली उठाने की रस्म भी उन्होंने बदस्तूर जारी रखी । उनके बड़े भाई ने रोजगार के विकल्प के रूप में भड़भूजे का पेशा अपना लिया था ।
मिसिर दादा का तपता यानि अलाव महरा दादा के बिना नहीं जलता था । तपते के चारों ओर बैठी मंडली गांव और इलाके की चर्चा के साथ साथ कथा कहानी भी सुनती सुनाती थी । जब लोग रात में सोने जाते थे तो महरा दादा के गीत उन्हें मीठी नींद में ले जाते थे । भोर में महरा दादा का कहरा बड़ी दूर तक सुनाई देता था जो धुन और तरंग हवा में गूंजती थी वो अद्भुत होती थी ।
अपनी बेटी मीरा को खोने के बाद अपनी नातिन के सहारे एक बार फिर से उन्होंने जिंदगी को संभाला लेकिन अंत समय आते आते स्मृति लोप के शिकार हो गए । गौहन्ना में भी डोली और पीनस धीरे धीरे लुप्त हो गए और कारों ने उनकी जगह ले ली लेकिन रस्में निभाने के लिए कहार आज भी चाहिए ही ।
महरा दादा मिसिर दादा की अंत समय तक सेवा करते रहे लल्ला की शादी की हसरत उनके सामने पूरी हुई लेकिन लल्लन की शादी वो न देख सके । कहते थे
जल्दी बियाह कै लेव , हमरे सामने ।
खैर नियति को कुछ और ही मंजूर था । वकील साहब के जाने के बाद अंदर ही अंदर महरा दादा टूट गए थे । उसके एक साल बाद ही वो भी अनंत सफ़र की ओर प्रयाण कर गए इस बार वो दूल्हे थे और गांव वाले कंहार .
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

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