Saturday, February 13, 2021

छपरा

 छपरा

छपरा भले ही बिहार का एक नामी जिला हो लेकिन गौहन्ना में छपरा का मतलब घास फूस के छप्पर से ही रहा है जिसे सरपत और मूंज से बनाया जाता था । साथ में बीच बीच में तिलेठी और झखरा भी घुसाया जाता था तब जा कर छप्पर मजबूत बनता था ।
अब ये शब्दावलियां गांव गिरांव के ही शोध का परिणाम थीं किसी शब्द कोष में मिलना मुश्किल है अतः समझने के लिए बताना जरूरी है झखरा अरहर के सूखे पौधे को कहते हैं तो तिलेठी सरसों या राई का सूखा पौधा होता था । मेड़ और खाईं पर मिलने वाला मुंजा या सरपत गन्ने के परिवार का छोटा भाई कह सकते हैं जिसके ऊपर पानी नहीं रुकता था । इस तरह छप्पर मजबूत बन जाता था ।
छप्पर उठाने के लिए आवाज लगानी पड़ती थी । जहां ज्यादा लोग एक साथ खड़े मिलते तो लोग मुहावरा बोलते कि
"का छपरा उठावै जात हौ" ?
छपरा सामूहिक सहयोग और मेलजोल की भावना का आसमान हुआ करता था ।
गांव में ज्यादातर घर मिट्टी के ही बने होते थे जिनकी दीवारें मोटी मोटी हुआ करती थीं । रद्दे पर रददे रख कर दीवार छत की ऊंचाई तक लाई जाती थी । दीवार के लिए चिकनी मिट्टी जिस तालाब की अच्छी होती थी वहीं के लिए मारा मारी रहती थी बेतला ताल से लेकर नकसरा डोभी और झिलिया के ताल काम में आते थे । इसी बहाने हर साल ये तालाब बिना मनरेगा स्कीम खुदते रहते थे और गांव की वाटर बॉडी रिचार्ज होती रहती थी । पक्के घरों के बनने से तालाब भी उथले होते चले गए और जल स्तर रसातल में चला गया । खपड़े और नरिया के घर संभ्रांत लोग ही बनवा पाते थे ।
छत ढालने के लिए मूठ और करी का प्रयोग होता था जिस पर मिट्टी की पटाई होती थी । किसी का घर बनाने में कोई सहयोग कर देता था तो दूसरे को बदले में श्रमदान जिसे हूंण कहते थे देना पड़ता था ।
छपरा को हर जगह छपरा नहीं कहा जा सकता था उसके नाम अलग अलग थे जब वो शहन दरवाजे पर होता था तो ओसारा कहलाता था , बाहर मड़हा कहलाता था और छत के ऊपर पूरी तरह छत को ढकता था तो रावटी कहा जाता था जिसमें बीज को कई मटके व मटकी में रखा जाता था एक प्रकार से ये तब का जीन बैंक होता था ।
मड़हा दोनों तरफ ढाल दार होता था उसके चारों तरफ रोकने के लिए लकड़ी की थूनी लगाई जाती थी जो Y आकार की होती थी मध्य भाग बड़ेर को बड़ी बड़ी लकड़ियों यानि थमरा पर टिकाया जाता था ।
छप्पर का छोटा रूप परछती कहलाता था और छप्पर के जिस हिस्से से बरसात का पानी जमीन पर गिरता था उसे बरौनी कहते थे ठीक आंख की बरौनी की तरह ।
इन छप्परों में खेती किसानी के बीज से लेकर सिकहर पर रोटी और खाना भी टंगा होता था । अक्सर छप्परों पर तोरी, लौकी, कद्दू , सेम के पौधे मिल ही जाते थे । किचन गार्डन का यह फार्मूला गांव की हर घर में दादी आजी को पता होता था । गांव खुद में ही स्वावलंबी होते थे । जब इनमें फल आते थे तो किसी छोटे बच्चे को छप्पर पर चढ़ा कर फल तुड़वाए जाते थे जिससे छप्पर को नुक्सान न पहुंचे और सब्जी भी मिल जाय ।
छप्पर किसानों के खेत में रखवाली के लिए जब रखा जाता था तो इस मचान को अटाना के नाम से जाना जाता था । ये अटाना जमीन से पांच छह फीट की ऊंचाई पर होता था जिससे पूरा खेत देखा जा सके । उस अटाना पर चढ़ने के लिए थूनी में ही खड्डे बना दिए जाते थे । ये अटाना कुछ समय के लिए हवा महल की अनुभूति जरूर करा दिया करता था ।
जानवरों के रहने के लिए बनाए जाने वाले स्थान को सरिया कहा जाता था जिसका छपरा ज्यादातर एक तरफ ढाल वाला होता था । छप्पर को कस कर बांधने के लिए अरहर की कईनी का प्रयोग होता था । बांस के डंडे छप्पर की मजबूती के लिए बीच बीच में जरूर लगाएं जाते थे । प्रायः ये डंडे डेढ़ से दो फीट की समान दूरी पर दोनों तरफ रहते थे ।
छप्पर का गर्मियों में अलग ही आनंद होता था तापमान कितना भी बढ़ जाय लेकिन बिना एसी के अंदर का मौसम मजेदार रहता था । जाड़े के दिनों में मड़हा के चारों ओर टटिया लगानी पड़ती थी जो जाड़ों से सुरक्षा देती थी। अरहर की टट्टी और गुजराती ताला के कहावत वाली ये टटिया ठंडी हवा से बचाव करती थी ।
जब कभी गांव में आग लग जाती थी तो मंजर खतरनाक होता था कभी कभी एक दो घर के बाद आग बुझा ली जाती थी तो कभी कभी गांव के गांव साफ हो जाते थे । फायर ब्रिगेड होते जरूर थे लेकिन जब तक सूचना जाती थी और वो दो चार घंटे बाद आते थे तब तक सर्व नाश हो चुका होता था । लेखपाल या तहसीलदार मातम पुर्सी के लिए अा जाय तो एहसान जैसा होता था । आज की तरह न तो जनता जागरूक थी न ही उसे इन सब चीजों से बहुत उम्मीद थी। गौहन्ना गांव में बिजली लगने के बाद सबसे ज्यादा घर इसलिए जल गए थे कि चलती बिजली लाइन में पानी डालने से करंट लग रहा था । दिया और तपता यानि अलाव और कभी कभी हुक्का और बीड़ी पीने वालों की असावधानी छप्पर के छप्पर निपटा जाती थी ।
अब गौहन्ना में भी पक्के घरों का चलन हो गया है । हां आज भी छप्पर मौजूद हैं पर छपरा के छवैया यानि आर्किटेक्ट अब ख़तम होते जा रहे हैं । कुछेक आर्किटेक्ट बड़े बड़े होटलों ने बुला लिए हैं जहां छपरा में लोग बैठ कर लग्ज़री महसूस करते हैं । ग्रामीण जीवन के इस मौलिक आर्किटेक्ट को आज जब होटल में देखता हूं तो सोचता हूं कि जो ग्रामीण जीवन की मज़बूरी में विकसित कला कृति अब कमाई का जरिया भी बन गई है

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