Saturday, February 13, 2021

झुलनी -

 झुलनी -

गहने हर संस्कृति की पहचान रहे हैं । गहने लोक गीतों से लेकर आधुनिक गीतों में भी समाहित हैं । धातुओं के मूल्य के आधार पर समृद्ध संस्कृति का आकलन होता रहा है । हिन्दुस्तान को सीने की चिड़िया कहे जाने के पीछे एक राज यह भी था कि हर घर में सोने के आभूषण पहनने का रिवाज था । काली मिर्च के बदले सोना यूरोप, अरब हर जगह से आता था । सोने के चक्कर में आक्रमण कारियों के लिए आकर्षण का केंद्र भी हिन्दुस्तान ही रहा । उसमें भी अवध का क्षेत्र व गंगा जमुना का दोआब का आकर्षण ये था कि जिसने इस क्षेत्र पर कब्जा कर लिया उसने पूरे देश पर राज कर लिया ।
गौहन्ना में भी गहनों का चलन सदियों से रहा है कुछ तो खुदाई में भी मिलते रहे लेकिन जिनको मिले वो छुपा गए । फिर भी संस्कृति अनवरत चलती रहती है ।
स्त्रियों में गहने का चलन पैरों से लेकर सिर तक रहा है । कड़ा , छड़ा , पावजेब, लच्छा, पायल , बिछुआ ये सब पैरों में पहने जाते हैं । कहते हैं कमर के नीचे सोना नहीं पहनना चाहिए इसलिए ये सब आभूषण चांदी के है होते रहे । बिछिया सौभाग्य वती स्त्रियों को ही अनुमन्य थी ।
कमर में करधनी और पेटी पहनने वाले समृद्ध घर के माने जाते थे ।गौहन्ना में जिनको सोने का आभूषण बनवाना मुश्किल होता था वो चांदी के पहनते थे । भगतिन आजी
मोटे मोटे चांदी के कड़े पहनती थीं । दुरपदा बुआ कान में बड़े बड़े चांदी के छल्ले पहनती थीं यहां तक कि उनके कान के छेद उन छल्लों से बड़े होकर अंगूठे जितने मोटे हो गए थे लेकिन कभी भी उनको मोटा छल्ला उतारे नहीं देखा । कान में झुमका , कुंडल , बाली का पहनावा आम था । झुमका कुछ वैसा ही जैसा गानों में सुना होगा
झुमका गिरा रेे
बरेली के बाजार में
झुमका..
पंडि ताई न आजी की नाक में लटकने वाली सुराही धीरे धीरे चलन से बाहर हो गई स्मार्ट गहने ज्यादा चलने लगे सो नथुनी कील फैशन में अा गई और नाक के बीच में झूलने वाली झुलनी इतिहास बनने लगी । झुलनी तो कबीर के उपदेशों में भी उतर आई थी
झुलनी का रंग सांचा
हमार पिया..
सर के श्रृंगार में बिंदी टिकुली के साथ माथ बिंदिया नारी के सौंदर्य की साथी रही है ।
इन सबको जिन हाथों से सजाया जाता था उन हाथों के आभूषण में अंगूठी से लेकर कंगन, चूड़ी , बाजूबंद , दस्ताना पहने जाते थे । बाजूबंद कुहनी के ऊपर पहना जाता था जो अब नई पीढ़ी में चलन से बाहर है ।
सारे गहने होने के बावजूद अगर गला सूना है तो सारे आभूषण पहनने का कोई मतलब नहीं होता था । गले का मंगल सूत्र सौभाग्य की निशानी होती है । चेन, हार , कंठा, गुलू बन्द , मोहर माला ये सब गले के श्रृंगार थे जो ज्यादातर सोने के होते थे । नौलखा हार जिसके घर होते थे वो बड़े खानदान के माने जाते थे ।
ये गहने स्त्री सशक्तीकरण के प्रतीक थे । गाढ़े समय पर बहुत काम आते थे । पीढ़ी दर पीढ़ी बेटी , बहू को किसी संस्कार की तरह हस्तांतरित होते रहते थे ।
कहते हैं भारतीय संस्कृति में गहनों का प्रचलन आयुर्वेद से भी जुड़ा हुआ है एक्यू पंचर से इलाज की पद्धति का ये भी एक तरीका था । हमारे शरीर में खनिज की आवश्यकता वनस्पतियों के साथ साथ धातुओं से भी पूरी होती रही थी कुछ खनिज गहनों से भी त्वचा के माध्यम से शरीर को मिलते रहते थे । सोना चांदी च्यवन प्राश तो सुना ही होगा आयुर्वेद की ये औषधियां गहनों से मिल जाती थीं और लोग सौ सौ साल आराम से जिंदगी जीते थे । अब दवाओं की भरमार के बावजूद सौ तक बिरले लोग ही पहुंच पाते हैं । काश इन गहनों के विज्ञान को समय से समझ लिया जाता ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

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