Saturday, February 13, 2021

गोंदरी

 गोंदरी -

कहते हैं नींद न जाने टूटी खाट
नींद कुछ को आती ही नहीं तो गौहन्ना के लोग गोंदरी बिछा के आराम से सो जाते हैं । गोंदरी स्थानीय बिस्तर बनाने की कला है जिसे धान के पैरा यानि पुवाल से बनाया जाता है रस्सी और पुवाल की मदद से बनी यह संरचना महलों के गद्दे को फेल करती है । जाड़े के दिनों में गरीब ग्रामीणों के लिए इससे बड़ा सहारा मिल जाता है । मुंशी प्रेमचन्द की पूस की रात कहानी अगर पढ़ी होगी तो गांव के जाड़े का अहसास थोड़ा बहुत जरूर हुआ होगा । खेत में पानी लगाने से लेकर जानवर से खेतों की रखवाली तक सब कुछ किसान उस कड़कती ठंड में कर लेता है । किसी बगीचे में अगर पैरा यानि पुवाल की खरही अर्थात ढेर लगा है तो रात आसानी से कट जाती थी ।
गांव में जाड़े से निपटने के लिए तपता यानि अलाव जलता था । खेत के फूस व छप्पर के कराइन को फूंक के जाड़ा निपट जाता है । तपता गौहन्ना गांव की गतिविधियों का केंद्र हुआ करता था । मोहल्ले के लोग जिसके घर तपता जलता था वहां रात में भोजन के पहले या बाद में थोड़ी देर बैठ कर अपने सुख दुख साझा करते थे । किसके घर क्या हुआ ? किसके घर मेहमान आए किसके घर में आज क्या बना सब पता चल जाता था । बड़ों के बीच बच्चे भी घुस के इन चर्चाओं का रसास्वादन किया करते थे ।
तपते के चारों तरफ बैठने के लिए बीड़ा की व्यवस्था की जाती थी । बीड़ा पुवाल से ही बनता था जिसे आजकल के छोटे मोढ़े से समझा जा सकता है । बीड़ा केवल बुजुर्ग या सम्मानित व्यक्ति को ही मिलता था । बच्चे वगैरह जमीन पर बैठ कर आग सेंकते थे । मचिया संभ्रांत लोगों के बैठने की कुर्सी थी । मचिया छोटी खाट की तरह होती थी जिसे चार पायों पर रस्सी से बुनकर बनाया जाता था । खटिया या चारपाई पर बैठ कर कम ही लोग आग सेकते थे इसे अच्छा नहीं मानते थे हां तखत पर रोक नहीं थी। लेकिन अग्नि देवता का सम्मान जरूरी था इसलिए सब लोग नीचे बैठते थे । अगर किसी ने पैर के तलवे आग की तरफ कर दिए तो उसको बहुत डांट पड़ती थी कि आग देवता को पैर नहीं दिखाते । कहते हैं कि जब तक माचिस का आविष्कार नहीं हुआ था तब तक कुछ घरों में आग संरक्षित की जाती थी । एक दूसरे को चूल्हा जलाने के लिए आग मांगनी पड़ती थी ।
इस तपते में शाम के समय आलू और गंजी भूजी जाती थी जो रात के भोजन में बड़े चाव से खाई जाती थी । आलू का भरता गौहन्ना का मजेदार व्यंजन हुआ करता था और अगर आटे की बाटी भी साथ में भूज ली गई है तो पूर्ण आहार बन जाता था । अक्सर गौहन्ना की बटियों सादी ही होती थीं उनमें सत्तू कभी कभार ही पड़ता था । सादी बाटी भी घी , भरता और चटनी के साथ मस्त लगती थी ।
तपते की आग से कभी कभी बड़े हादसे भी हो जाते थे छप्पर की आग दो चार घर हर साल निपटा देती थी । लेकिन जाड़े से बचने का ये सबसे अच्छा उपाय था ।सुना है आजकल घरों में हीटर ने तपता की जगह लेे ली है और गद्दे रजाई ने गोंदरी प्रथा की जगह लेे ली है । फिर भी कुछ पुराने लोग और रात में सरकारी ट्यूब वेल से खेत सींचने वाले किसान अभी भी इसे बनाना जानते हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

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