Tuesday, October 13, 2020

फरा-

 फरा :


(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से )


   कुछ नया नाम लग रहा है न? लेकिन गौहन्ना में ये नाम न जाने कब से चल रहा होगा । अवध क्षेत्र में इस व्यंजन को फ़रा नाम से ही जानते हैं । आपकी सुविधा के लिए बता दें कि इसकी तुलना आप मोमोज से कर सकते हैं । लेकिन दोनों में थोड़ा अंतर भी जानना जरूरी होगा नहीं तो इस अवधी व्यंजन के आंनद को महसूस नहीं कर पाएंगे ।


    जिस तरह हर क्षेत्र का कुछ खास व्यंजन होता है उसी तरह अवध क्षेत्र का फरा बहुत खास होता है । इसे चावल के आटे से बनाते हैं और चावल के आटे की छोटी छोटी पतली रोटियों के ऊपर उड़द की पिसी भीगी हुई मसाले वाली दाल इसमें भर दी जाती है । किसी छोटी कागज की नाव की तरह इसका आकार होता है लेकिन इसका मुंह खुला रहता है । फरा को बटुली या पतीली के ऊपर भाप में लगभग बीस से पच्चीस मिनट पकाना पड़ता है ।

मोमोज और फरा में मूल अंतर मुंह के खुले और बन्द होने का होता है। मोमोज पूरी तरह बन्द होता है जबकि फरा का मुंह खुला रहता है और इसका अंदर का सामान बिल्कुल नायाब होता है ।


    कहते हैं कि किसी पर्यटक स्थल पर जब लोग जाते है तो वहां के स्थानीय व्यंजन ढूंढ़ते हैं । लेकिन अवध के ढाबे और होटल अवध के कम पंजाब के नकल में ज्यादा फंस गए, इसलिए वहां आप फरा नहीं ढूंढ़ पाएंगे । करते भी क्या ट्रक का हाईवे, ड्राइवर, खलासी सब पंजाब के तो खाना भी उसी तरह का चल निकला किसी का ध्यान इस बात पर गया ही नहीं कि अयोध्या भ्रमण पर आने वाले पाहुन को लोकल डिश की भी तलाश होगी ठीक उसी तरह जिस तरह आपको दक्षिण भारत में सांभर- डोसा की तलाश रहती है । ठीक उसी तरह जब आप गुजरात में ढोकला और खांख्रा ढूंढ़ते हैं । ठीक उसी तरह जिस तरह आप पंजाब में मक्के की रोटी और सरसों का साग ढूंढ़ते हैं जो आपको वहां के हर ढाबे पर मिल जाता है ।


   गौहन्ना और आस पास के क्षेत्र में फरा बनाने के लिए चलनी या जालीदार सिकहुला का प्रयोग किया जाता है । इसको बनाने का चलन कार्तिक मास से फाल्गुन तक ज्यादा होता है । तैयार फरे को घी के साथ खाने का आंनद ही कुछ और होता है । आम या इमली की मीठी चटनी के साथ इसे परोसा जाता है । इसको गरमा गरम खाने का मजा ही कुछ और है लेकिन अगर ये बच जाए तो घी और जीरे के छौंक के साथ इसे नए अंदाज में आप खा सकते हैं । इस डिश के साथ गांव में गन्ने के रस से चावल का रसियाव भी खाया जाता है । जो किसी खीर की तरह बनता है । गांव के इन व्यंजनों में जन्मों जन्मों की तृप्ति एक साथ मिल जाती है । 


    फरा के सीजन में ही दलभरी पूड़ी का चलन भी रहता है । चने की दाल को पीस कर रोटी के अंदर भर कर बनाने की कला गांव - गांव में प्रचलित है । ये दलभरी पूड़ी तवे पर बड़े इत्मीनान से सरसों के तेल में सेकीं जाती है और मक्खन , गुड या अचार खासकर भरवा मिर्चे के साथ परोसी जाती है ।जिस के मुंह ये एक बार लग गई तो लग गई फिर आदमी आलू का पराठा खाना भूल जाता है ।

   इस तरह के न जाने कितने व्यंजन अवध की स्थानीय ग्रामीण संस्कृति में घर - घर बनाए जाते हैं । इनमे से कुछ की चर्चा करते रहेंगे । फिलहाल जब तक होटल और ढाबे में ये डिश नहीं बनने लगती तब तक जब भी अवध क्षेत्र के ग्रामीण अंचल में जाएं तो इन व्यंजनों को खाना न भूलें ।संकोच मत करिएगा कि कोई खिलाएगा नहीं । जम के लोग खिलाएंगे , खुश होकर खिलाएंगे ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक से साभार )

Wednesday, October 7, 2020

शुक्ला दरोगा-

 शुक्ला दरोगा -


    नाम तो उनका शंकर दत्त शुक्ला था । नए नए रौनाही थाने में आए थे । लेकिन इलाके के लोग उन्हें शुक्ला दरोगा के नाम से ही जानते थे । चलते बुलेट से थे। जिस तरफ उनकी बुलेट निकलती थी रास्ता साफ हो जाता है । तब के जमाने में दबंग जैसी फिल्में नहीं बनी थीं न ही सिंघम का किरदार। बल्कि  पुलिस तो तब पहुंचती थी जब हीरो अपना काम कर चुका होता था । लेकिन फैजाबाद जिले के रौनाही इलाके के हीरो तो शुक्ला दरोगा ही थे । लंबा चौड़ा शरीर और ऊपर से पहलवान और जब बुलेट पर बैठते थे अकेले ही पूरा थाना लगते थे । 


   ये वो दौर था जब गांव के इलाकों में चोरी, डकैती, लूट आम घटनाएं हुआ करती थीं । गौहन्ना भी इससे अछूता न था । उस समय गौहन्ना बाराबंकी जिले का हिस्सा हुआ करता था लेकिन था वर्तमान अयोध्या जिले का बॉर्डर । थाना भी रुदौली हुआ करता था लेकिन शुक्ला दरोगा के आने से आस पास के थानों से भी अपराधी नदारद होने लगे थे । खौफ उनका इतना था कि गांव के किनारे अगर बुलेट की आवाज आ जाय तो  पुराने डकैतों के उस्ताद के भी पैजामे गीले हो जाते थे । वकील साहब से दोस्ती के नाते उनका हलके से बाहर गौहन्ना गांव आना लगा रहता था । गांव वाले भी उन्हें अपना ही दरोगा समझते थे ।


    प्रशासन के फॉर्मूलों में एक अघोषित पर मशहूर फॉर्मूला 'कौआ टांगना' होता है । जिस तरह किसान फसल बचाने के लिए  खेत में एक कौआ मार कर टांग देता है तो अगले दिन से उस खेत में कोई भी कौआ नजर नहीं आता उसी तरह शुक्ला जी भी करते थे । शुक्ला दरोगा इस फार्मूले के माहिर थे । फैशन के चक्कर में न जाने कितने हिप्पी लौंडे उनकी भेंट चढ़ चुके थे मजनुओं के लंबे -लंबे बाल को नाई से उस तरह उतरवाते थे जैसे खुरपे से घास छीली जाती है. उसके बाद तो लंबे बालों का शौक एक लंबे समय तक मजनू लोग पूरा नहीं कर पाए ।ये घटना भले रौनाही चौराहे पर हुई हो लेकिन खबर गांव गांव में चटकारे लेकर सुनी और सुनाई जाती थी ।


"अरे आज एक जने आधी बांह मोड़ के रौनाही गे रहे 

शुक्ला दरोगवा पकर के उनके कपड़ा आधी बांह से कटवाय दिहिस ।" ....

  ....    शाम को अलाव के पास इस तरह की चर्चाएं गांव गांव में आम थीं । संभ्रांत लोग और सभ्य समाज में इस तरह की चर्चाएं एक तरह से लोगों में कानून के प्रति और अधिकारी के प्रति भरोसे का प्रतीक थीं और उसका असर ये था कि चोर उचक्के लफंगे और मजनुओं ने भूमिगत होने में ही भलाई समझी । इस दौर में मीडिया के नाम पर रेडियो व अखबार ही हुआ करते थे ,आज का दौर होता तो सोशल मीडिया पर तानाशाह होने का आरोप लगा के वीडियो वायरल कर दिया जाता । हालांकि शुक्ला दरोगा जितना करते थे उससे ज्यादा उनकी कहानियां उस दौर में वायरल हुआ करती थीं । अब कौन तस्दीक करने जाय कि ये सब हुआ भी या नहीं। उन्हीं कहानियों में एक कहानी ये भी थी कि कोई एक हाथ से सायकिल चला रहा था तो शुक्ला जी ने उसका आधा हैंडल कटवा दिया था । कोई अपनी पत्नी को धूप में पैदल बिदा करा कर ला रहा था तो उसको कंधे पर लाद कर लेे जाने का फरमान सुना दिया आदि आदि । ये सब कहानियां बड़े नए नए अंदाज में लोग एक दूसरे को सुना के खुश हुआ करते थे ।


   मुगदर भांजने और कसरत के शौकीन शुक्ला जी दस दस लीटर दूध पीने के लिए मशहूर थे । कटोरा भर के घी पीने वाले शुक्ला दरोगा इलाके की जनता के हीरो थे और जनता के रहनुमा । जिनके नाम से ही पूरा इलाका चैन की नींद सोता था। इस दौर में  सिपाही सायकिल से ही अपनी बीट का दौरा करते थे । थ्री नॉट थ्री टांगे और बेंत सायकिल में फंसाए ये सिपाही जिस गांव में रात हो जाती थी वहीं रुक जाते थे खाने पीने का इंतजाम किसी संभ्रांत परिवार से हो ही जाता था । गांव का चौकीदार साहब के पैर दबाने से लेकर नहलाने तक पूरा खयाल रखता था । 

सुबह सुबह गांव से निकलने के पहले सिपाही दसियों सूचना लेकर निकलता था । हफ़्ते भर की मुखबिरी गांव में इकठ्ठा हुई रहती थी जो मुखबिर न भी हो वो अपने नम्बर बढ़ाने के चक्कर में कुछ न कुछ बता ही देता था ।


'अरे पाड़े कहां जात हो ?

सुना है शुक्ला दरोगा आवा हैं।उनही का देखै जाइत है ।'

   प्रेम चन्द के नमक का दारोगा का ह्रदय परिवर्तन तो बाद में होता है लेकिन शुक्ला दरोगा जन्मजात जनता के सेवक थे सो बने ही रहे ।जनता ने भी  इस अफसर को सर आंखों पर बिठा के रखा।    इस दौरान उन्होंने सख्ती व  इमानदारी भी बना कर रखी ।

    आम जनता अपने हीरो शुक्ला दरोगा को देखने के लिए उमड़ पड़ती थी जिस तरफ से उनकी बुलेट गुजरती थी उस तरफ उनकी चर्चा हफ़्ते भर रहती थी । साहब का इकबाल जिस तरह बुलंद होना चाहिए उस तरह बुलंद था । बताते हैं कि एक बार रेलवे की पटरी पर भी बुलेट दौड़ा दिए थे । उनके तबादले के बाद भी कई सालों तक शुक्ला दरोगा के लिए इलाका तरसता रहा। संभवतः पुलिस उपाधीक्षक पद से सेवा निवृत्ति के बाद भी ये सिंघम आज भी उस दौर के लोगों के दिलों दिमाग में बसा हुआ है ।

- डॉ ललित नारायण मिश्र


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

चाचा चौधरी-

 चाचा चौधरी -


     बच्चे और कॉमिक्स का रिश्ता वही जानता है जिसने कॉमिक्स बचपन में पढ़ी हो । प्राइमरी स्कूल बड़ागांव से लौटते समय रेलवे फाटक के पास बाज़ार में जिस नई दुकान से भेंट हुई वह थी कॉमिक्स की दुकान । तब तक किताब  पढ़ना आने लगा था और कहानियों का चस्का भी लग चुका था । घर में एक दो कॉमिक्स की किताबें अा चुकी थीं तो इतना पता था कि इसमें कहानियां होंगी ।


"हां घर लेे जा सकते हो  एक कॉमिक्स का किराया 25 पैसे प्रति दिन लगेगा " दुकान वाले ने कहा।


    सोच में पड़ गया कि रात भर में पढ़ पाऊंगा कि नहीं 

फिर हिम्मत कर के ले लिया और अगले दिन पढ़ के लौटा भी दिया । इस तरह चाचा चौधरी और साबू के ज्यादातर कथानक बचपन में ही पढ़ डाले । दुकान पर चंदा मामा , नन्दन , पराग, लोट पोट जैसी बच्चो के लायक कई किताबें रहती थीं । कॉमिक्स की इस लत को परवान चढ़ने का समय तब आया जब गर्मी की छुट्टियों में मामा जी के पास गया। 


     मामा जी की पोस्टिंग उस समय रायपुर हुआ करती थी । 1984 में रायपुर मध्य प्रदेश का ही शहर हुआ करता था । शांत , मनभावन रायपुर का तालाब  बड़ा और बहुत खूबसूरत लगता था । रायपुर में जिस किराए के कमरे में मामा जी रहा करते थे उसके नीचे के परिवार में एक बड़े भैया रहते थे जो कॉमिक्स के सुपर शौकीन थे नाम था राम चन्द्र कामत । उनके पास कॉमिक्स का खजाना था जिसमें चाचा चौधरी, पिंकी, बबलू, अमर चित्र कथा , नन्दन, न जाने कितने संग्रह उनके संदूक में मौजूद थे मैंने भी उनसे धीरे धीरे दोस्ती गांठ ली और रोज एक कॉमिक्स पढ़ने लगा  । इन कॉमिक्स को पढ़ते पढ़ते जाने अनजाने  संस्कृति , विज्ञान, देश दुनिया , प्रकृति की समझ अपने आप जेहन में गहराई से उतरने लगी ।

डांट भी खूब पड़ती थी कि हर समय कॉमिक्स में लगे रहते हो पढ़ाई कब होगी । परीक्षा में कैसे पास होगे ?


     खैर कॉमिक्स का ये चस्का जो लगा तो लगा ही रहा । जब थोड़ा और बड़े हुए तो सुमन सौरभ और चंपक माता जी ने डाक से ही मंगवाना शुरू कर दिया । किसी किसी महीने पत्रिका घर तक नहीं पहुंचती थी तो उलझन बनी रहती थी । वैसे तो बड़े भाई साहब बड़े संस्कारित और जेंटल मैन की तरह वाले थे । लेकिन इस मामले में कभी कभी मुझको भी पीछे छोड़ देते थे ।


     इस बीच  गांव यानि गौहन्ना में ही पुस्तकालय का पता चल गया था ये था 'पांडेय पुस्तकालय' . इसके सर्वे सर्वा थे फूल चन्द्र पाण्डेय जिन्हे सब लोग पी सी पांडेय के नाम से ज्यादा जानते थे । पेशे से वो कचहरी में मुंशी थे और पापा के तख्ते पर उनके रोज के सहकर्मी थे इसलिए उनके पुस्तकालय पर धीरे धीरे अपनी पहुंच आसान हो गई । लगभग सौ डेढ़ सौ पुस्तकों का उनका संग्रहालय उनकी एक कोठरी का हिस्सा हुआ करता था । अपने पुस्तकालय के लिए उन्होंने बकायदे मुहर बनवा रखी थी और हर किताब पर ठप्पा लगा रहता था 


' पांडेय पुस्तकालय

गौहन्ना '


   पुस्तकालय का यह नशा कॉमिक्स से गुजरते हुए हम दोनों भाइयों के मन में भी समा गया सोचा कि पुस्तकालय खोला जाए । यही कोई चौथी- पांचवीं कक्षा के छात्र के रूप में हम लोगों ने इस प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की योजना बनाई । नाम रखा गया ' मिश्रा पुस्तकालय '.

खलंगा वाले घर में बकायदे पोस्टर चिपका कर बीस- तीस किताबें जमा की गईं । बड़े भाई साहब ठहरे बड़े सो उन्होंने पुस्तकालयाध्यक्ष मुझे बना के बैठा दिया । दिन भर पुस्तकालय में भूखा प्यासा बैठा रहा बोहनी भी नहीं हुई ।

अगले दिन से मिश्रा पुस्तकालय बन्द कर दिया गया घर वालों की डांट पड़ी सो अलग ।


   पुस्तकालय भले बन्द हो गया लेकिन बिक्रम बेताल , सिंहासन बत्तीसी , पंच तंत्र, हितोपदेश, प्रेरक प्रसंग, बाल महाभारत जैसे न जाने कितनी किताबों के पन्ने गर्मी की छुट्टियों में हम लोगों ने पलट डाले । 75 पैसे की विज्ञान प्रगति घर में अनिवार्यतः आती रहती थी उसका असर ये रहा कि विज्ञान जेहन में घुस गया जो आज भी जिंदा है ।


    नंदन पत्रिका की पहेली में जीता गया पहला पुरस्कार जो उस समय पचास रुपए का था उसने मेरा पहला बैंक एकाउंट खुलवा दिया । बैंक था क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा बड़ागांव । उस पचास रुपए की खुशी अद्भुत थी । उसके बाद आकाश वाणी लखनऊ ने भी इनाम में टॉर्च भेज दी । 


    चंदा मामा पत्रिका का चस्का इतना था कि घर की चोरी चोरी वार्षिक शुल्क उसके पते पर भेज दिया बड़े भाई हमेशा की तरह योजना कार का काम करते थे परदे के सामने नहीं आते थे । इस बार पत्रिका नहीं आई बड़ा दुख हुआ बाद में समझ में आया कि मनी ऑर्डर में पूरी कहानी हम लोगो ने हिंदी में लिख मारी थी और चंदा मामा का मुख्यालय तमिल नाडु में था । आज जब बच्चों के लिए चाचा चौधरी की कॉमिक्स खरीद के लाता हूं तो बच्चों के पहले खुद ही उसे पढ़ने बैठ जाता हूं । पत्रिका नहीं होती तो टी वी पर ही बच्चों बजे साथ कार्टून का मजा लेता हूं । मोटू पतलू डॉ झटका और घसीटा का जमाना अभी बीता नहीं है । कभी मन हो तो आप भी देख लेना कसम से  बचपना लौट आएगा । 


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

बड़ेगांव -बड़गईंया :

 बड़ेगांव- बड़गईंया -


    ग्रामीण जीवन की एक विशेषता होती है कि वो कठिन से कठिन बातों को भी बड़ी आसानी से कह देती है और बहुत सी बातों को हंसी मजाक में उड़ा देती है । अगर आपस में झगड़ा या मन मुटाव भी हो जाय तो कुछ दिन बाद ख़तम हो ही जाता है । 


गौहन्ना के आस पास के लगते हुए गांवों में एक दूसरे पर तंज कसने के लिए कुछ स्थानीय भाषा के मुहावरे प्रचलित थे जो पीढ़ी दर पीढ़ी चले अा रहे थे । हो सकता है आज भी कुछ लोगों को याद हों लेकिन ये परम्परा अब लुप्त प्राय हो रही है । वैसे ये अध्ययन और शोध का विषय है कि ऐसा किन कारणों से रहा होगा ? फिर भी एक दूसरे गांव के बीच ये चुहल बाजी बड़ी रोचक थी । 


गौहन्ना और मीसा दोनों गांव आपस में आधा किलोमीटर की दूरी पर है इन दोनों गांव के लोग अक्सर जुमला दोहराते हैं -


जब गौहन्ना वाले बोलते हैं तो -


'मीसे मांगे भीख

गौहन्ना काढ़े खीस '


जब मीसा वाले अपनी तारीफ करेंगे तो कहेंगे-


'मीसा काढ़े खीस  

गौहन्ना मांगे भीख '


बताते हैं मीसा और गौहन दो सगे भाई थे जिन्होंने ये दोनों गांव बसाए । श्रेष्ठता दिखाने के लिए दोनों गांव एक दूसरे से इसी जुमले के सहारे मजे लेते हैं । हालांकि दोनों गांव के रिश्ते बड़े मधुर और सबसे पुराने हैं ।


ठीक इसी तरह बड़ागांव जो आस पास के दस किलोमीटर की आर्थिक गतिविधियों का केंद्र है के लिए इजाद किया गया जुमला है 


'बड़ेगांव बड़गईंया

मुर्गी चले बकइंया '


  अब बड़ागांव में मुर्गी ही ज्यादा पाली जाती थीं क्योंकि इस्लाम बहुल इलाका था तो उसके लिए आसान जुमला यही ईजाद हो गया और सबकी जुबान पे भी चढ़ गया ।


   गौहन्ना गांव से एक कोस दक्षिण की दूरी पर स्थित है मुंशी का पुरवा गांव और उसी के बगल है बलैया गांव । अब दोनों के रिश्ते जब से बने बिगड़े हों लेकिन उनका मुजरा सुबह सुबह ही होगा ये कहावत आम है -


'मुंशी कै पुरवा बलैया के डाड़ें 

मोर तोर मुजरा होय भिंसारे '


अवधी भाषा के लोक कवियों में किसने इस तरह की सूक्तियां विकसित की इसका कोई उल्लेख किताबों में नहीं मिलता । बस परम्परा ही इतिहास है और इतिहास ही परम्परा ।


     बताते हैं कि कभी कभी कई गांवों की पंचायतें एक साथ बैठ कर आपसी मुद्दे सुलझा लिया करती थीं । लोगो में संवाद था विवाद नहीं । विवाद हल करने के लिए सोलह गांवों की पंचायतों के साथ बैठने की लोक श्रुति हमने भी सुनी है । आपस में खान पान का रिश्ता कई गांवों तक था । इस खान पान के भौगोलिक दायरे को जेंवार कहा जाता था और जेंवार बाहर होने का मतलब था किसी व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार । इस प्रकार समाज का अनुशासन सब पर भारी था इसलिए जुर्म भी कम या न के बराबर थे । अगर कोई घटना हो भी गई तो सालों साल मुकदमे नहीं चलते थे दंड देकर या जुर्माना भर कर मामला निपटा दिया जाता था । दंड को इस इलाके में डांड़ नाम से भरवाया जाता था । जिसे पंचायत लेती थी ।


गौहन्ना से एक कोस पूरब में सनगापुर गांव है और उसी के बगल में पिरखौली गांव भी है । दोनों की जनसंख्या में 

ठाकुर लोगों का बाहुल्य है । अब ठाकुर हैं तो मूंछ की लड़ाई लगी ही रहती है । इन लड़ाइयों के चक्कर में दोनों गांव के लिए जो जुमला बना वो था-


' सनगापुर पिरखौली

चले दना -दन गोली '


अब इस तरह के लोक मुहावरे कुछ ही शब्दों में गांव के मूल चरित्र का भी चित्रण कर दिया करते थे । अगर कोई नया आदमी किसी गांव को जा रहा हो तो दूसरे गांव वाला संकेतों में ही गांव के बारे में बहुत कुछ इन्हीं कविताओं से समझा देता था ।


ये लोकोक्ति सिर्फ इन्हीं गांवों तक सीमित नहीं थीं हर इलाके के अपने जुमले और मुहावरे थे जो अब केवल बुजुर्गों की यादों में ही जिंदा हैं ।  अब ये परम्परा धीरे धीरे विस्मृत हो रही है इससे पहले कि ये लुप्त हो जाय , लेख बद्ध तो हो ही जानी चाहिए । क्या पता किसी सामाजिक शोध के लिए उपयोगी हो जाय ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश )

Friday, October 2, 2020

लौकल-

 लौकल -


(ललित मिश्र के ब्लॉग jhallarmallarduniya.blogspot.com से)


  जेम्स वाट ने जिस भाप की ताकत देखी थी उसी भाप को इस्तेमाल कर जार्ज स्टीफेंसन ने भाप वाला रेलवे इंजन सन 1830 में बना डाला।  जब अंग्रेजों को  भारत में माल ढोने और सिपाहियों की बटालियन को ढोने की जरूरत पड़ी तो रेलवे लाइन हिन्दुस्तान में भी बिछ गयी ।

 

   'गौहन्ना' गांव बसा ही कुछ ऐसा था कि आस पास के गांव के बगल से रेलवे लाइन निकली लेकिन इस गांव के बीचोबीच से रेलवे लाइन को लेे जाना पड़ा । उस रास्ते में जितने भी घर पड़े उनको टूटना ही था सो किसी ने लाइन के उत्तर घर बनाया तो किसी ने दक्षिण । अपना पुश्तैनी घर भी उसी चपेट में निपट गया और मिसिर दादा के दादा के दादा ने लाइन के दक्षिण फिर से घर खड़ा कर दिया । इस तरह गौहन्ना गांव दो भाग में बंट गया एक लाइन इस पार दूजा  उस पार । एक दूसरे के लिए दोनों लोग पार के हो गए।  रेलवे लाइन ने भले ही गांव को भौगोलिक विभाजन दिया हो लेकिन दिल के विभाजन वो न कर सकी । बस एक दूसरे से मिलने को ये देख कर लाइन पार करनी पड़ती थी कि कहीं किसी ओर से कोई गाड़ी तो नहीं आ रही क्योंकि क्रॉसिंग पे रेलवे फाटक तब तक नहीं लगा था ।


   बताते हैं कि जब अंग्रेजो ने रेलवे लाइन बिछाई थी तो दोनों किनारों से कोई जानवर न घुस सके इसलिए पत्थर के खंभों से होकर कंटीले तार लगाए गए थे । प्रचलित कथा अनुसार एक बार किसी राजा का हाथी तार के अंदर तो घुस गया लेकिन बाहर न निकल सका और रेल गाड़ी की चपेट में आ गया । तब से वो तार अंग्रेजों को हटाने पड़े और केवल रेलवे फाटक को छोड़ कर अपनी सुरक्षा खुद करें की तर्ज पर रेल गाड़ी बेधड़क पटरियों पर दौड़ रही है । अक्सर गांव के जानवर इन पटरियों पर अनजाने में अपनी जिंदगी गंवा बैठते हैं । गांव के लोग कभी गुहार लगाने रेल विभाग के पास भी नहीं गए अगर जाते भी तो कौन सा वो सुन ही लेते।  कभी कभी बच्चे और बूढ़े भी इसकी चपेट में आ चुके थे सिर्फ सुरेमन दीदी सौभाग्य से जिंदा बच गईं थीं ।


सुबह 7 बजे का समय , वकील साहब को लोकल ट्रेन पकड़नी थी आज पूजा करते करते लेट हो चुके थे । 


"निहोरे देखि आओ सिंगल डाउन भवा कि नाही"


"निहोरे रेलवे क्रॉसिंग से ही आवाज लगाते दादा सिंगल होय गवा "


इतना सुनते ही वकील साहब को भेजने के लिए सायकिल निकल जाती । 

सायकिल वाले को इस स्पीड से सायकिल दौड़ानी पड़ती कि ट्रेन मिल जाय । अक्सर ट्रेन मिल ही जाती थी ।


स्थानीय कार्यों के लिए फैजाबाद और रुदौली जाने के लिए ट्रेन ही सुलभ साधन थी । कभी कभी मात्र दस किलोमीटर रुदौली जाने के लिए दिन दिन भर ट्रेन का इंतजार करना पड़ता था । वैसे ट्रेन की आदत 

गौहन्ना वालों को इतनी पड़ गई थी कि कब कौन सी गाड़ी आई बिना देखे बता देते थे । चरवाहों को लाैकल के साथ ही निकलना होता था और जब लौकल फैजाबाद से वापस आती थी उस समय जानवर हांक के घर लाने का समय फिक्स रहता था ।


लौकल तो लौकल ही थी जैसा नाम वैसा गुण भी । कोयला उड़ाते हुए जब चलती थी उसका ही रौला होता था।  मर्जी उसकी चलती थी कभी बिफोर आती थी तो कभी दस दस घंटे लेट । लेकिन मजाल जो कोई उसपे उंगली उठा दे । कभी कभी जब गुस्सा होती थी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से आगे जाने को मना कर देती थी अब झोंकते रहो उसमे कोयला । जब मन आयेगा तब ही चलेगी यात्री भी उसके नखरे जानते थे सो चना चबैना और पूड़ी पराठा बांध कर ही चलते थे । कोयले के इंजन के धुएं का असर इतना था कि फैजाबाद के लाल मुंह वाले बन्दर भी काले मुंह के किसी गैराज के मेकेनिक लगते थे ।


एक बार लौकल की बड़ी बहन  साबरमती एक्सप्रेस गाड़ी से  बैठ कर हम और पिता जी कानपुर के लिए निकले । शाम को लगभग 6 बजे गाड़ी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से चल कर दस बजे लखनऊ जा पहुंची । पापा ने कहा कानपुर दो घंटे का रास्ता है अब रात लखनऊ रुक लेते हैं सुबह कानपुर चलेंगे । मेरे मन में डर था कि सुबह दस बजे एडमिशन के लिए पत्थर कॉलेज यानि चन्द्र शेखर आजाद कृषि विश्व विद्यालय में काउंसलिंग में देर न हो जाय , बड़ी मेहनत से एडमिशन मिला है । अतः रात में ही निकल चलो ये गाड़ी कानपुर तो जा ही रही है। पिता जी बोले चिंता न करो हमे पता है कैसे पहुंचना है । खैर रात में एक परिचित फार्मासिस्ट जो पिता जी के दोस्त थे उनके घर जा पहुंचे । सुबह सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ने लखनऊ जंक्शन जा पहुंचे । ट्रेन का पता किया तो पता चला रात की वही साबरमती अब तक खड़ी है और जल्दी ही चलने वाली है । हंसते हुए फिर से उसी ट्रेन में हम लोग सवार हुए । टिकट पहले से ही उसी का था ।


अक्सर खिड़की किनारे बैठने वालों की आंख में कोयले के कण पड़ ही जाते थे .लखनऊ के बाद जब बाराबंकी स्टेशन आता था समोसा वालों को ढूंढने की होड़ लग जाती थी । वहां के समोसे टेस्ट में कुछ खास हुआ करते थे और जिसको बाराबंकी के समोसे की लत लग जाती थी फिर उसकी जेब में अगर पैसे है तो उसे समोसे खरीदने से कोई रोक नहीं सकता था । जनरल डब्बे में प्रायः चना बेचने वाला घुस ही जाता था पुलिस वाला दिख भी जाय तो उसको कैसे मनाना है ये उसको पता होता था । 


"नींबू वाले चने - नींबू वाले चने

दो दो रुपए में खाइए

नींबू वाले चने "


और जैसे ही नींबू वाला चने में नींबू निचोड़ता था पूरा कूपा महक जाता था अच्छो अच्छों को अपनी जेब उस चने के लिए ढीली करनी पड़ जाती थी । 


रसौली स्टेशन तक आते आते मूंगफली वाला भी आ ही जाता था..


"मोंफ्ली मोंफ्ली

दो दो रुपए मोंफ्ली

टाइम पास मोंफ्ली

चिनिया बादाम मोंफ्ली

पैसा वसूल मोंफ्ली"


फिर उसके बाद गुलाब रेवड़ी वाले का नंबर..


"रेवड़ी लेे लीजिए रेवड़ी ,

दस के चार पैकेट "


दस के चार"


"..अरे दस के पांच दोगे "


"नहीं साहब "


"तब ले जाओ नहीं लेना मुझे"


"अच्छा चलो पांच ले लो और इस तरह रेवड़ी का सौदा पट जाता था" ।


 दरियाबाद में लौकल का इंजन कोयला और पानी लेकर ही आगे बढ़ता था ।


इधर गाड़ी पटरंगा और रौजागांव पार करती थी उधर सूरदास अपनी खंजडी के साथ लौकल के डिब्बों में घूम घूम कर भजन गाना शुरू करते थे 


"सीता सोचैं अपने मन मा मुंदरी कंहवा से गिरी "..


"शंकर तेरी जटा में बहती है गंग धारा" ..


और कोई न कोई उन सूरदास को चवन्नी अठन्नी दे ही देता था । कोई झिड़क भी देता था । लेकिन उनकी खंजड़ी के बिना उन दिनों लौकल भी उदास सी लगती थी । इसी बीच जादू दिखाने वाले कलाबाज नटों का कुनबा रुदौली में जिस डब्बे में घुसता था उस डब्बे को टी टी भी छोड़ कर भाग खड़ा होता था । गौरियामऊ और बड़ागांव आते आते ये डेरे उतरने लगते थे और डेली पैसेंजर ताश के पत्तों के साथ अपनी मंडली सजा लेते थे । टी टी अब आराम की मुद्रा में आ चुका होता था और डेरवा आते आते बिना स्टेशन के चेन पुलिंग कर गाड़ी खड़ी हो जाती थी उसके बाद जब तक कटे हौज पाईप को कोई जोड़ न दे तब तक उस अज्ञात गाड़ी रोकने वाले को गालियों का तोहफा मिलता रहता था ।


अब गाड़ी लौकल थी तो मज़ा भी लौकल ही था । बिजली के बल्ब गाड़ी से गायब होकर गांव भी पहुंच जाते थे   सीट फाड़ के बाज़ार के लिए झोरा बन जाता था । समय के साथ साथ लौक़ल पे लोगों ने रहम की और लौकल सकुशल फैजाबाद पहुंचने लगी । लेकिन आउटर पर खड़ी होने की उसकी पुरानी आदत आज भी नहीं छूटी ।


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

बिक्स और बाम -

 बिक्स और बाम 


    हां सही पढ़ा आपने बिक्स और बाम ' गौहन्ना,' के हर घर में थे ।  उस समय सर्दी जुकाम के लिए बिक्स और बाम ही असली दवा हुआ करती थी । किसी को खांसी जुकाम हुआ तो बिक्स ठीक कर देती थी । गांव की दुकान पे आसानी से मिल भी जाती थी । ज्यादा खांसी खुर्रा हुआ तो जोशांदा का काढ़ा बनाकर पीने से आराम मिल जाता था । बच्चों की बाल जीवन घुट्टी भी गांव की दुकानों पर आसानी से उपलब्ध थी।


   वैसे तो गांव में दो दुकानें थीं जहां सुई से लेकर दवाई तक सब कुछ मिल जाता था । एक दुकान साव चाचा की थी दूसरी कुंवारे बढ़ई की । साव चाचा बचपन में ही मा बाप का साया खो चुके थे लेकिन उनकी मेहनत देख कर ये लगता था कि ये दुकान वो ही खड़ी कर सकते थे । सायकिल से अनाज की बोरी लाद कर पैदल रुदौली तक दस किलोमीटर चले जाते थे ।उनकी दुकान में बिस्किट , साबुन के साथ साथ रोजमर्रा की दवाएं भी होती थीं बाम और बिक्स आसानी से मिल जाते थे । कुंवारे बढ़ई की दुकान भी हंड्रेड इन वन थी जो चाहो वो हाज़िर । पैसे  तो होते नहीं थे अनाज से बदल कर चाहे पैसे ले लो या सामान । दोनों सुविधा थी ।


    अब रात में बुखार आ जाय तो डॉक्टर को दिखाने दो किलोमीटर कौन जाय ? पन्द्रह पैसे की आंनदकर टेबलेट

दोनों दुकानों पर आसानी से मिल जाती थी और नब्बे परसेंट केस में आंनदकर आंनद दे ही जाती थी । ऐनलजेसिक दवाएं एनालजिन और नोवलजीन के नाम से सबको पता थीं ।  उस समय एंटी बायोटिक का नाम आना शुरू ही हुआ था । लेकिन गांव तक इनका चलन कम ही था । सो लोग बगैर एंटी बायोटिक ठीक हो जाते थे या यूं कहे ठीक होना ही उनकी नियति थी । पेचिश के लिए हरा पुदीना और अमृत धारा की दो बूंद वास्तव में दो बूंद जिंदगी की हुआ करती थी । सल्फा ड्रग्स और ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया से बनी दवाएं बहुतों को चंगा कर देती थीं ।   ये सब दवाई गांव के दुकान के एक कोने के मेडिकल रेक में उपलब्ध रहती थी। कोने की दराज ग्रामीण जीवन का मेडिकल स्टोर ही हुआ करती थी । 


   बरसात के सीजन में आंख तो उठ ही जाती थी उठने का मतलब इंफेक्शन से समझें तो बेहतर होगा । अब गांव में आंख उठने पर कोई डॉक्टर ढूंढने नहीं जाता था । नई नई खुली इंदर पाल की दुकान में आंख वाली कुचुन्नी चवन्नी  यानि पच्चीस पैसे में मिल जाती थी । वास्तव में तो ये पेनिसिलिन आधारित थी लेकिन मजाल क्या कि सुबह तक आंख ठीक न कर दे । जितनी डॉक्टर की फीस उससे कम में अगर ठीक हो जाय तो कोई क्यों डॉक्टर को ढूंढे ।


    दाद खाज खुजली वाला जालिम लोशन तब भी बिकता था आज भी बिकता है । थोड़ा बहुत समझ दार लोग बी टेक्स मलहम पर भरोसा करते थे । लेकिन खुजली अक्सर जाती नहीं थी । मान्यता ये भी थी कि गंदे तालाब में नहाने या अमुक मिट्टी लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं कुछ गांव इसीलिए प्रसिद्ध भी थे । होता हुआता कुछ नहीं था बस मन का एक संतोष हुआ करता था । कभी कभी लोग ठीक भी हो जाते थे । 


"अरे केहू दौर के आईडेक्स लाओ हो जन्नू पेडे से गिर   गए "


  आयोडेक्स ही उस समय सब चोट का इलाज हुआ करती थी । अच्छी से अच्छी चोट गायब । अगर हड्डी उखड़ जाय तो शिव राम मुराव शाम को एक बली रोटी यानि एक तरफ सिकी मोटी रोटी बंधवा देते थे रात भर रोटी बंधी रहती थी सुबह शिव राम मुराव के  एक हलके झटके में वो हड्डी ठीक हो जाती थी  । कई बार हमने भी टेढ़ी गरदन उनसे ही ठीक करवाई । आज का जमाना होता तो फोर्थ जेनरेशन के डॉक्टर बिना ऑपरेशन ठीक ही न होने देते ।


कहते हैं दांत का दर्द होता है तो दिन में तारे नज़र आने लगते हैं लेकिन गौहन्ना में एक निश्चिंतता रहती थी । गांव में पसियन टोला में दांत झाड़ने के एक्सपर्ट यानि बिना डिग्री के डेंटिस्ट दांत ठीक कर देते थे । बुध और शनिवार छोड़कर दवा देते थे । कोई पत्ती दांत के नीचे रखते थे और कान में सरसों का तेल डाल के मंत्र मारते थे फिर तो कान के रास्ते भर भरा के कीड़ा गिरता था । दांत का कीड़ा कान से कैसे गिरता था ये तो डेंटिस्ट ढूंढे लेकिन दर्द गारंटी के साथ ठीक हो जाता था । दांत ही नहीं बिच्छू और फेटारा झाड़ने वाले भी गांव में मौजूद थे ठीक प्रेमचंद की मंत्र कहानी के पात्रों की तरह ।


 सबसे ज्यादा आने वाली समस्या का होती थी सिर दर्द और सिर दर्द की परवाह जिनको होती थी वो ज्यादा से ज्यादा हिमसार तेल लगा के उसे ठीक कर लेते थे । ग्रामीण जीवन में बीमारी प्रायः अपने आप ही अपना रस्ता नाप लेती थी जो थोड़ी बहुत होती भी थी वो बिक्स और बाम के खौफ से ठीक हो जाती थी । 


(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश )

बासी

 बासी 


बासी शब्द से आप परिचित हो या न हों हिंदी की ये लोकोक्ति जरूर सुनी होगी 


'बासी बचे न कुत्ता खाय '


     मतलब जब बासी बचेगी ही नहीं तो कुत्ता क्या चोरी करेगा । रात के भोजन का बचा हुआ अंश अवध क्षेत्र में बासी के रूप में प्रसिद्ध है । सुबह का नाश्ता या यूं कहें कि कलेवा बासी से ही होता है । अक्सर घरों में इतना भोजन बनता है कि रात को बच ही जाता है वहां शहरी सभ्यता के अनुसार रोटियां गिन कर नहीं बनती कोई किसी से पूछता नहीं कितना खाओगे जितना मन हो उतना खाओ । रात के बचे भोजन को बड़े सलीके से छत से टंगे सिक हर पर इस तरह रखा जाता था जिससे चूहे और बिल्ली से बचा रहे । सुबह वह भोजन खाने योग्य रहा या नहीं रहा ये भी माताएं बहनें उसकी महक सूंघ कर बता दिया करती थीं उसके लिए तब तक कोई फूड सेफ्टी प्रोटोकॉल विकसित नहीं हुआ था ।


     सुबह -सुबह जब दाल भात सान कर चूल्हे पर गरम किया जाता था तो बच्चों के साथ साथ बड़ों बड़ों की लार टपक जाती थी और अगर उसमे घी पड़ जाय तो उसका आनंद कुछ और ही होता था । करोनी यानि खुरचन का झगड़ा बच्चों में आम होता था । वो सोंधा पन आजतक दुर्लभ ही रहा ।


    बताते हैं कि वाजिद अली शाह के राज में जिन तीतरों को लड़ाई के लिए तैयार किया जाता था उन्हें रात की घी लगी रोटी सुबह सुबह खिलाई जाती थी । जिसका तीतर जीतता था उस के बारे में ये चर्चा रहती थी कि इसने अपने तीतर को घी लगी बासी रोटी जम के खिलाई होगी । 


  "बच्चों ताज़ा भोजन ही खाना चाहिए बासी खाना हमें नहीं खाना चाहिए " ..मास्टर साहब ने कहा । 


बासी खाना खाने से बीमारियों का खतरा रहता है ।


"जी गुरु जी "... बच्चे समवेत स्वर में बोले ।


....अगले दिन बच्चे फिर वही बासी खा कर आते । 


"अरे जब खाना गरम कर दिया तो बीमारी कैसे फैलेगी"


  लाल जी भैया बोले ।


"मनसुख आज तुमने क्या खाया" ? नौमी लाल ने पूछा ।


"बासी रोटी बची थी भैया अम्मा खेत निरावै जात रहीं तौ वही रोटी मा सरसई कै तेल लगाय कै पियाजी के साथ खाय लिहन । का करी जाड़ा मा इतनी जल्दी खाब थोड़े खराब होत है।".. मनसुख ने जवाब दिया।


"खेल के बाद आज सभी बच्चों को कुछ खाने को मिलेगा" ..मास्टर साहब बोले


"गुरु जी ये तो ब्रेड है "..मनसुख ने कहा 


"आप तो बासी खाने को मना करते हो ये ब्रेड तो 

दो दिन पहले बनी है न विश्वास हो तो पैकेट पर लिखा है देख लो । हम तो रात की ही बासी रोटी सुबह खाते है ।

उसके बाद भी बचता है तो जानवर को खिला के ख़तम कर देते हैं" ।


"चुप रहो बहुत बोलते हो" मास्टर जी ने कहा 


मनसुख सहित पूरी क्लास में सन्नाटा छा गया । सभी बच्चे चुपचाप ब्रेड खाने लगे ।


दिल्ली में पढ़ाई करते समय यमन के रहमान के घर जाना हुआ। वो परिवार के साथ पूसा में सरस्वती हॉस्टल में रहा करते थे । रहमान ने जब रोटी ला के रखी तो मैं दंग रह गया । इतनी लंबी चौड़ी रोटी पहली बार देख रहा था रहमान भांप गया, बोला ये अफगानी रोटी है बाज़ार से खरीद कर लाया हूं खासतौर से आपके लिए क्योंकि आप शाकाहारी हो ।


.....वो रोटी किसी तौलिए के बराबर बड़ी थी और इतनी सूखी हुई थी कि लगभग दस दिन पहले की बनी लग रही थी । बाद में पता चला कि कई देशों में ऐसी ही सूखी रोटी खाने का चलन है । हिन्दुस्तान की तरह ताजी रोटी सब मुल्क में नहीं चलती । ज्यादातर लोग दुकान दे ही रोटी खरीद कर लाते हैं । भारत में तवे की गरमा गरम रोटी का ही जलवा रहता है ।


    आयुर्वेद के अनुसार बासी रोटी के अलग ही गुण हैं कई रोगों को मिटाने के लिए बासी रोटी खाने की सलाह भी दी जाती है । आधुनिक विज्ञान दस दिन पुराने ब्रेड और महीनों पुराने बिस्किट को तो बर्दाश्त कर लेता है लेकिन रात की बासी पर आज भी नाक भौं सिकोड़ लेता है । खैर ये परम्परा धीरे धीरे गौहन्ना से भी गायब हो रही है 


    फिर भी सुबह सुबह काम पर जाने वाले किसान को जब बासी लेे के उसकी घरैतिन पहुंचती है तो उसके चेहरे की मुस्कान दुगुनी हो जाती है । थकान तो बासी खाते खाते अपने आप ही उतर जाती है ।


(गौहन्ना. कॉम पुस्तक का अंश)

Tuesday, September 29, 2020

सधई बाबा -

 सधई बाबा :

       

         ( ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया  से)

"अरे हरी राम के सधई बाबा आए हैं पीपल के पेड़ पर चढ़े हैं "।


    हरी राम वैसे तो दुबले- पतले थे और कद- काठी में भी सामान्य थे, लेकिन जब उनके ऊपर सधई बाबा सवार होते थे तो असामान्य कार्य उनके बांए हाथ का खेल होता था । दस दस आदमी उनको पकड़ने की कोशिश करते थे और वो उन्हें झटक देते थे । 


    आज हरी राम पर फिर से  सधई बाबा की सवारी आई थी और वो पेड़ पर चढ़े हुए थे । वैसे तो हरी राम को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था लेकिन जब सवारी आती थी तो दौड़ते हुए पेड़ पर चढ़ जाते थे । 


"बाबा आपकी हाई स्कूल कै इम्तिहान है पास होब कि नाही" । किसी विद्यार्थी ने पूछा ।


 "पास होय जाबो बच्चा" - उत्तर मिलता था और विद्यार्थी के हौसले बुलंद हो जाते थे ।


   ये आत्माओं की सवारी गौहन्ना गांव में कुछ लोगों को ही आती थी। लोगों के लिए वे आशा के केंद्र थे उम्मीद ये कि हर समस्या का समाधान ऐसी जगह मिलेगा । उनका सम्मान उनके डर की वजह से ज्यादा होता था । रास्ते में ढरकौना चौराहे पर मिल जाय तो अनिष्ट की आशंका बनी रहती थी । गलती से भी उसे कोई पार नहीं करता था । 


   कोई बच्चा खो गया , भैंस दूध नहीं दे रही , औरत विदा होकर नहीं अा रही, पति परदेस से कब लौटेंगे, लड़के को नौकरी कब मिलेगी , बीमारी कैसे ठीक होगी इन सभी समस्यायों का समाधान ग्रामीण जनता को इन लोगों के पास मिल जाता था । कहने का मतलब इनके ठिकाने 'सिंगल विंडो सिस्टम' होते थे जो हर समस्या को हल कर सकते थे । तीर कहें या तुक्का, अक्सर लोगों को फायदा हो भी जाता था । 


   गांव में हठीले बाबा कोई मुस्लिम आत्मा थीं तो किसी पे  बरम बाबा का साया था कोई किसी से ठीक होता था तो किसी को किसी दूसरे से फायदा होता था । मिठाई के बप्पा राम परसाद पाड़े कलमा पढ़ के झाड़ते थे तो बेचन बाबा लोहबान सुलगा के भूत उतारते थे । लल्लू पाड़े का इलाका दूर दूर तक फैला था  । बड़ी दूर दूर से लोग उनके यहां हाजिरी लगाने आते थे । खेत पात नाम मात्र ही था शादी हुई नहीं थी यही उनकी जीविका थी और यही उनका धंधा भी ।


      नजर उतारने वालों में बूढ़ी दादी का जवाब नहीं था जम्हाई लेते हुए चुटकी में नजर उतार देती थीं लेकिन हां मंगल और बीफै (बृहस्पति वार) को ही नजर झाड़ी जाती थी किसी और दिन नहीं । भैंस , गाय , नई बहू तो नजराती ही थीं कभी कभी बड़े बूढ़े भी नजरा जाते थे । अब नजर उतारने का कोर्स डॉक्टर को तो पढ़ाया नहीं जाता सो इस विद्या की डॉक्टर तो बुढ़ेई दादी ही थीं ।

घिर्राऊ के मेहरारू को ज्वाला माई की सवारी आती थी तो मस्टराइन को शीतला माई का वरदान था ।


   अगरबत्ती , लोह बान , कपूर , मिर्च, डली वाला नमक, झाड़ू या डंडा  ये सब इन सिंगल विंडो सिस्टम के उपकरण हुआ करते थे । विज्ञान के दौर में जब गांव में डॉक्टर न मिले तो बीमार को कपूर और लोबान का धुंआ डिस इन्फेक्टेंट का थोड़ा बहुत काम कर ही देता था ये उसका साइको इफेक्ट होता था कि उसका मनोबल ऊंचा हो जाता था और वो जल्दी ठीक होने लगता था । गाय के गोबर की भभूत आयुर्वेद में वैसे भी औषधि के समतुल्य मानी गई है ।


    कहते हैं आदमी का मन ब्रह्माण्ड की शक्तियों का केंद्र है इससे जो चाहो करवा लो । पल भर में कहीं घूम लो तो पल भर में कहां क्या हो रहा ये पता कर लो ।  परा विद्या पूरी दुनिया में रहस्य, रोमांच और संशय का केंद्र रही है जिसे विज्ञान ने कभी मान्यता नहीं दी । लाख विज्ञान पढ़ने के बाद भी आज भी जब निम्मल बाबा जैसे लोगों के पीछे  डॉक्टर इजीनियर और शहरी समाज की भीड़ उमड़ती हो तो उन बेचारे गरीब ग्रामीणों का क्या दोष जिनको न विज्ञान का ककहरा पता है और न ही समस्या का वैज्ञानिक समाधान ।


   फिर भी ओझा देवा, सोखा , की ये परंपराएं मानव शास्त्र में विस्तार से पढ़ी लिखी और समझी जाती हैं । शोधकर्ताओं के लिए आज भी ये संस्कृतियों को समझने के साथ साथ कौतूहल का केंद्र भी हैं । 


(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)

Monday, September 28, 2020

चना चबैना-

 चना चबैना -

     (ललित मिश्र के ब्लॉग 'झल्लर मल्लर दुनिया' से)

चना चबैना गंग जल जो पुरवै करतार 

काशी कबहुं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार


   चना -चबैना  अवध के ग्रामीण क्षेत्र का अभिन्न हिस्सा रहा है । सुबह सुबह अगर चबैना न मिले तो दिन की शरूआत अधूरी सी लगती है ।

हल लेकर खेतों को  जाते हुए किसान से लेकर बस्ता टांगे  स्कूल जा रहे विद्यार्थियों तक चबैना का साथ न जाने कितनों की यादों में रचा बसा होगा ।


  संस्कृतियां जीवंत किताबें है 'गौहन्ना' में उन दिनों चाय की बजाय सुबह सुबह दिशा -फराकत के बाद जब भूख लगती थी तो चबैना  ही जल्दी से सुलभ होने वाला स्नैक्स था । एक बार भुजा लिया तो महीने भर चलता था ।

मेहमानों का स्वागत अक्सर चबैना  से ही होता था । एक नोइया या मवनी जो सरपत और सींक की बनी होती थी, में चबैना भर कर गुड के साथ ही पाहुन को पानी पिलाने की परम्परा थी मजाल था कि सादा पानी परोस दिया जाए । साथ में नमक- मिर्च, लहसुन, धनिया की सिल बट्टा पर पीसी चटनी का मज़ा ही कुछ और होता था ।


   चबैना कुकरी शास्त्र यानि पाक कला का अर्वाचीन आविष्कार कहा जा सकता है जब लोग ऐसा भोजन चाहते थे जो बिना सड़े गले कई दिन तक वैसा ही बना रहे । दूर सफर का साथी भी ऐसे ही भोजन हो सकते थे । कैसे भी बांध लिया, कहीं भी खा लिया अलग से किसी चीज की जरूरत नहीं । इसलिए चबैना  या भूजा संस्कृति का अनिवार्य हिस्सा बन गया । गांव में इसे बनाने के लिए पहले धान को उबाल कर धूप में सुखा कर भुजिया बना लिया जाता है फिर भूसी हटाकर भाड़ में बालू पर रोस्टिंग की जाती है ।


चबैना इतनी सुलभ वस्तु थी कि  कैकेई ने वरदान मांगने के बाद किंकर्तव्य विमूढ़ राजा दशरथ को ताना मारते हुए कहा था ..


..जानेहु लेइहि मागि चबेना  


(राम चरित मानस, अयोध्या काण्ड)


  सामूहिक रूप से  सभी चबैना सभी भूजे हुए अन्न का प्रतिनिधित्व करता है । गेंहू के रूप में गुड़ धानी बन जाता है तो मक्के के रूप में मुरमुरा । ज्वार के रूप में लावा बन जाता है तो कच्चे बाजरे के रूप में परमल। बड़े बड़े शहरों में भेल पूरी के नाम से जाना जाता है और बड़ी अकड़ के साथ बिकता है ।


    गांव में इनको भूजने वाले तीन परिवार हुआ करते थे जहां सुबह शाम लाइन लगा करती थी । 

'भुजइन अम्मा' का ये पैतृक पेशा था जिनके पास दो भाड़ थे एक मटकी वाला तो दूसरा लोहे की कड़ाही वाला ।

दिन भर की मेहनत के बाद बाग के पत्तों को इकट्ठा कर मैता, सुभागा और कबूतरा दीदी मुश्किल से दो दिन भाड़ चलाते थे उस पर भी भुजाने वालों का ये आरोप रहता ही था कि ज्यादा भुजौनी निकाल लिया । भगत भुजवा और उनकी पत्नी रेलवे लाइन के पार अपना काम करते थे बाद में उनके घर के उपर से सड़क निकल जाने से उन्होंने अपना भाड़ गांव किनारे मुरावन टोला में खोल लिया था ।

महरिन काकी के कोई संतान न थी लेकिन उन्हें चबैना भूनने का हुनर जबरदस्त था । लेकिन उनका भाड़ रोज नहीं जलता था ।

 

  जब हम लोग स्कूल जाते थे तो दोपहर में भूख मिटाने के लिए घर से गुड चबैना ही मिलता था । कपड़े में बांध कर झोले में रख के चबैना लेे जाते थे और साथियों के साथ खाते थे । खेतों में काम कर रहे किसान और मजदूरों के लिए भी सुबह का पन पियाव अक्सर चना 

चबैना ही होता था । 


 गांव में धीरे धीरे चबैना का स्थान बड़े बड़े दाने वाली लईया ने लेे लिया और दुकानों पर बिकने वाले बड़े भुने चनों ने भाड़ और भुजाने की परम्परा को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया । भुजिया करने की फुरसत किसी को नहीं थी । उधर नमकीन और दालमोट चबैना से ज्यादा स्वादिष्ट लगने लगी थी । बाद में पता चला कि कुछ जलदीराम टाइप कम्पनियों ने उसे ढ़ंग से पैक कर चबैना से नमकीन बना कर बेच दिया । अपना मुरमुरा यानि पॉप कोर्न तो सिनेमा हाल की पहचान ही बन गया ।

 

..."मिश्रा जी आपको विटामिन बी 12 चेक करवा लेना चाहिए "। डाक्टर ने कहा 


मैंने पूछा क्यों?


"एक तो आप वेजेटेरियन हो और दूसरे आपका काम दिन भर दिमाग से जुड़ा हुआ है । बी ट्वेल्व आपके लिए जरूरी है "। - डॉक्टर ने कहा ।


  घर आकर मैंने सोचना शुरू किया कि देखा जाय कि किस शाकाहारी आहार में ये ज्यादा मिलेगा । तो पता चला कि पफड राइस , मक्के आदि में ये ज्यादा मिलेगा ।

सोचा ये तो मैं बचपन से ही खा रहा था। छोड़ने का घाटा ये हुआ कि बी- ट्वेल्व की टेबलेट खरीदनी पड़ी ।

उसी दिन बाज़ार से ढूंढ कर चबैना फिर से टेबल पर सजा लिया । शाम को ऑफिस से लौटने के बाद 

चबैना के साथ आज भी उन्हीं यादों में खो जाता हूं जिसे बचपन में जिया था । सबसे अच्छा तो तब लगा जब ट्रेन के एसी डब्बे में भी बंगाल का एक परिवार थाली भर कर भूज़ा लिए बैठा था । अपनी जड़ों से जुड़े रहने का यह एक सुखद अहसास था । अवध के साथ साथ बिहार, बंगाल, उड़ीसा, झारखंड, बुंदेलखंड आदि का ये आज भी पौष्टिक आहार है ।


    वैसे युवा पीढ़ी चाहे तो एक अच्छा स्टार्ट अप इससे शुरू हो सकता है बेचने के लिए ऑनलाइन प्लेटफार्म तो हैं ही और हमारे जैसे खरीद दार भी मिल ही जायेंगे ।

(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश)

Sunday, September 27, 2020

परत दर परत एक गांव -



   कहते हैं हर जगह इतिहास के पन्नों जैसी होती है और हर जगह का एक इतिहास होता है । सो 'गौहन्ना' उससे अलग कैसे ? न जाने कितनी सदियों के थपेड़े खा के भी ये गांव जिंदा है . जिंदा इसलिए कि आधा से अधिक गांव जिस डेहवा मोहल्ला पर बसता है वो गांव के दूसरे कोने की दुमंजिली छत के समानांतर होता है कहने का मतलब उस कोने की दुमंजिल आज भी डेहवा की नींव के बराबर होती है ।


    बताते हैं कि कई बार डेहवा की खुदाई के दौरान बड़े बड़े असामान्य प्रकार के ईंट मिलते रहे हैं । लोगों का कहना है कि कुछ गहने और तांबे के सिक्के भी मिले लेकिन लोगों ने छिपा लिए । इन तांबे के सिक्के का एक नमूना देखने को तब मिला जब खेल खेल में ही अपनी दोस्ती 'मिठाई भाई' से गहरा गई थी -


"केहू से बतायो न भाय 

बप्पा हमका बहुत मरिहैं "


    मिठाई के भरोसे से दिखाया गया वो सिक्का अनगढ़ और मोटा था मोटाई कुछ यूं जितना आज का तीन या चार सिक्का समा जाय । कुछ ऐसा याद आता है कि किसी आदमी की आकृति भी थी । 


   जब तक इतिहास और पुरातत्व की जानकारी होती तब तक बहुत से साक्ष्य बिखर गए और बिना साक्ष्य के इतिहास कैसा ? और फिर अदने से गांव के पुरातत्व को मानेगा कौन? फिर भी इतनी जल्दी इस गांव का इतिहास समाप्त हो जाय तो गांव का नाम गौहन्ना कैसा ?


  लगता है वैदिक कालीन आर्य यही रहते रहे होंगे गौ पालन इतना रहा होगा कि गांव का नाम ही गौ से पड़ गया । परत दर परत न जाने कितनी बार ये गांव बसा और उजड़ा होगा ? उन्नीसवीं सदी में जब गांव के बीच से रेलवे लाइन गुजरी तो न जाने क्या क्या मिला लेकिन कहीं रिकॉर्ड न हो सका । बस लोगो की चर्चा का विषय ही बना रहा । गांव का हज़ार साल से अधिक पुराना बरगद का पेड़ यानि 'चक्का बाबा' लोक परम्परा में सदियों से पूजित है वो भी अपने आप में स्वयं जीता जागता इतिहास है ।


   जो रिकॉर्ड हो सका उसमे आज भी सिर रहित चार हाथ वाले विष्णु भगवान की मूर्ति है जो काले पत्थर की है नक्काशी इतनी अद्भुत है कि लगता है सुई से तराशी गई हो । मूर्ति के पैरों के पास यक्षिणी की नृत्य मुद्रा की मूर्ति , विष्णु जी के पैरों तक मेहराब दार वस्त्र कम से कम इसे सेन काल या गुप्त काल तक लेे जाते हैं । यह मूर्ति गांव के पास डोभी तालाब की खुदाई के समय मिली थी जिसे मुस्लिम आक्रमण कारियों ने तोड़ कर तालाब में फेंक दिया था, ऐसा कहते हैं । फिलहाल उस पर गांव वालों ने अनगढ़ सिर की स्थापना कर के लाल पीले रंग से पेंट भी कर दिया है ।


   गांव के उत्तर में काली माई का चौतऱा दासियों खंडित मिट्टी और पत्थर की मूर्तियों के साथ बहुत कुछ कहता है । शीतला माई के स्थान पर सबसे ज्यादा बलुआ पत्थर की मूर्तियां हैं किसी का सिर तो किसी का धड किसी को देखकर पुरुष व किसी में स्त्री का अंदाजा लगता है । सिर के चारों तरफ मुकुट जैसा चक्र या मण्डल भी मिलता है । उसमें देवी देवता की पहचान करना थोड़ा मुश्किल होता है बस अंदाजा ही लगाया जा सकता है । गहने भी मूर्तियों पर उत्कीर्ण मिलते हैं।

मिट्टी की पकी मूर्तियां खासकर सिर का भाग बहुतायत से गांव के  हर देव स्थान पर हैं ।


    शीतला माता रोगों से बचने की देवी हैं तो पूरब में भवानी बगिया में ज्वाला माई ,बूढ़ी माई और भैरों बाबा के डीह इन्हीं  मृण मूर्तियों व प्रस्तर मूर्तियों से भरे पड़े थे जो समय के साथ इधर उधर भी हो गए । 


    कारे देव बाबा की मूर्तियों पर नाग पंचमी को दूध और लावा भीगे बदन, मौन रहकर चढ़ाने जाना पड़ता था । दक्षिण में मेंहदी महरा और पश्चिम में बाबा हरदेव पर भी इसी तरह की मूर्तियों के अवशेष आज भी मिल जाएंगे । ये सब भले ही पाषाण काल की निशानी न हो फिर भी कांस्य या ताम्र युग तक की संभावना से जरूर जुड़े होंगे ।

गौरैया बाबा की बगिया के पास तालाब में मूर्तियों के साथ साथ एक दस फीट से बड़ा आदमी का जीवाष्म मिलने के बाद गांव वाले डर गए थे  । बकौल स्वामी दयाल श्रीवास्तव चाचा व अन्य कईयों के अनुभव में डेहवा में आज भी खुदाई करते समय ऐसा लगता है कि नीचे कोई  कमरा या घर  हो । 


   लोक कथा के अनुसार बुजुर्ग लोगो का मानना ये भी है कि कभी यहां भर नामक यायावर पशुपालक प्रजाति यहां रहती थी जो अपने पूर्वजों के नक्शे लेकर गांव में बीजक लगा कर खजाने की खोज में डेहवा आते रहते थे ।उनका बीजक सूर्य की रोशनी या परछाईं किस माह में कहां पड़ेगी उस सिद्धांत पर आधारित होता था ।


   आज भी शादी विवाह के समय या किसी शुभ आयोजन के लिए इन सभी डीह -डयोहार को पूजने जाना पड़ता है  । जो इस बात की पुष्टि करता है कि पुरातन इतिहास और संस्कृति को पीढ़ी दर पीढ़ी बचाए रखना है कभी तो कोई ऐसा आएगा जो बताएगा कि इस गांव में मानव सभ्यता कितनी पुरानी रही होगी ?


(gauhanna.com से )

दुरदुरिया-

 *दुरदुरिया*-


(ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से)


    ये नाम कैसे और कब पड़ा होगा? कहना मुश्किल है. लोक मान्यताएं कब विकसित हुईं कब उनका स्वरूप कैसा रहा होगा? इसे लोगों से सुनकर ही जाना जा सकता है . इसका लिखित इतिहास बहुत कम ही होता है और हां इतिहास सबूत मांगता है इसलिए दुरदुरिया भले ही कितनी पुरानी हो लोक मान्यता के पैमाने पर अवध क्षेत्र की पवित्र प्रथाओं में से एक है जिसे सुहागिनें मनौती के रूप में या मनौती पूरी होने के रूप में आयोजित करती हैं । इतिहास का पन्ना इसे समेट नहीं सकता, समझ नहीं सकता ।


"मम्मी आज संतोष के घर दुरदुरिया है 

आपके बलौवा है "।


.."कितने बजे "?


"दस बजे" ।


     कह कर अम्बरीष नाऊ की पत्नी आगे बढ़ गई । उधर भड़ भूजा के यहां दुरदुरिया का भुजिया चावल भुनाने के लिए संतोष का बेटा जा पहुंचा। गांव में तीन जगह भाड़ जलता था एक भुजइन अम्मा के यहां , दूसरा भगत भुजवा के यहां और तीसरा महरिन अम्मा के यहां । भुजाने वालों की अपनी पसंद अलग- अलग थी किसी को भगत की भुजाई पसंद थी तो किसी को महरिन अम्मा की । लेकिन इनके भाड़ हमेशा नहीं जलते थे सिर्फ एक भुजइन अम्मा का भाड़ दो चार दिन छोड़ दें तो हमेशा जलता था ।


"मैता ई दुरदुरिया कै चाउर है 

यका पहले भूज देव "


..भुजइन अम्मा बोलीं 


"अच्छा अम्मा " मैता दीदी की आवाज आई 


"लाओ भैया 

केकरे घर के होव"?


उत्तर - 

"संतोष के, आज दुरदुरिया है"


  दुरदुरिया की पूजा में सात सुहागिनें बुलाई जाती हैं और उनको यही भुने चावल अर्थात चबैना या यूं कहें कि धान की लाई सभी स्त्रियों को दिया जाता है। सभी स्त्रियां स्नान आदि के बाद भूखे पेट दुरदुरिया की पूजा में शामिल होती हैं । सभी सातों को आयोजक स्त्री जिसने मनौती मानी होती है उसके कोंछ में थोड़े- थोड़े हिस्से भरने पड़ते हैं। इस प्रकार सबके सहयोग से उसका काेंछ भर जाता है और माना जाता है कि इस आशीर्वाद से मनौती पूरी हो जाएगी । फिर औसाना या अवसाना माई की कथा होती है । सिंदूर माई को चढ़ाकर प्रसाद के रूप में खुद भी लगाया जाता है । मिल बांट कर एक दूसरे को सहयोग और आशीर्वाद का यह आयोजन अवध और आस पास के इलाके में हर गांव में मिल जाएगा । संतोष और उम्मीद की यह मान्यता किसी को निराश नहीं होने देती । 


    वैसे तो उनका नाम अलका है लेकिन गांव में सारे बच्चे उनको 'मम्मी' ही कहते हैं जो अपने समय की सबसे पढ़ी लिखी महिला रहीं । बकौल मम्मी आैसाना माई अवसाना का अपभ्रंश है । दुरदुरिया गौरी यानि पार्वती जी की ही पूजा है । जब सीता जी भगवान राम को देखने के बाद गौरी जी की पूजन को गईं तो प्रार्थना की ..


नहि तव आदि मध्य अवसाना 

अमित प्रभाव बेदु नहि जाना 


भव भव विभव पराभव कारिनि 

बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि


.. (राम चरित मानस बाल कांड)


राम के इलाके में उनके आराध्य आदि देव भगवान शिव की पत्नी गौरी जी की पूजा तो होगी ही वो चाहे जिस रूप में क्यों न प्रचलित हो । गौरी गणेश के बिना आज तक कोई पूजा हुई है क्या?


   शास्त्र के दृष्टकोण से भले ही इसका वर्णन न मिलता हो और अवसाना का दूसरा अर्थ हो लेकिन समाज शास्त्रीय दृष्टि कोण से गौरी पूजा का स्थानीय करण होकर अवसाना माई की पूजा के रूप में ये आज भी प्रचलित है । इसे दुरदुरिया नाम कैसे मिला होगा ये शोध का विषय है फिलहाल इतना ही मान लेना पर्याप्त है कि दाने चबाने के समय आने वाली दरर -दरर की आवाज से इसका सम्बन्ध हो सकता है ।


  जब भी कभी अवध क्षेत्र का समाज शास्त्रीय अध्ययन होगा लोक मान्यता का ये त्योहार बहुत गूढार्थ भरा मिलेगा ।


(गौहन्ना.कॉम से )

Saturday, September 26, 2020

इस तन का इंजन समझ लिया

 इस तन का इंजन समझ लिया -


   "अरे गैस जलाओ हो , कीर्तनिहा आवत होईहैं" ।

आवै दियो अबहीं मिंटर नहीं आवा ।

थोड़ी देर में पेट्रो मैक्स का मिंटर उजाला ही उजाला फैला देता था । पेड़ पर चढ़ कर कोई लाउड स्पीकर का भोंपू सेट कर आता था ।


   गौहन्ना  की कीर्तन मण्डली आस-पास के इलाके में शानदार कीर्तन मण्डली हो चली थी । इस कीर्तन मण्डली की शुरुआत सन अस्सी के लगभग हुई थी और थोड़े बहुत पैसे जोड़-जाड़ कर एक हारमोनियम , एक ढोलक और एक जोड़ी मंजीरे की व्यवस्था बन गई थी । गांव में जिसको कीर्तन करवाने का मन होता था बस उसे पेट्रोमेक्स यानि घासलेट वाली गैस लाइट की और हो सके तो माइक की व्यवस्था करनी होती थी । माइक न हो तो भी चलेगा । सब कुछ फ्री था । बस भजन कीर्तन की मस्ती पे सब कुछ न्यौछावर था ।


   शाम आठ बजे के लगभग राम नेवाज दादा की ढोल कसने लगती थी और पन्द्रह बीस मिनट में मण्डली अपना आलाप लेे लेती थी ..


.. गाइए गणपति जग बंदन 

शंकर सुवन भवानी के नन्दन ..


  "अरे चलौ हो मिसिर दादा के दुवारे कीर्तन होय लाग" मतलब मास्टर साहब का कीर्तन शुरू हो गया । 

मोहल्ले की एक आवाज ने सबके कदम मिसिर दादा की घर की ओर मोड़ दिए । मास्टर साहब यानि श्री संतराम त्रिपाठी जो उन सबके सर्वमान्य मुखिया थे जिनके घर सारा साजो-सामान जमा रहता था अक्सर शुरुआत वही किया करते थे ।


   अगला नंबर राम मिलन मौर्या का हुआ करता था 

बड़ी मधुर आवाज में मंजीरे की ताल के साथ वो गाना शुरू करते ..


सीता राम से, राधे श्याम से 

लागी मेरो लगन, चारों धाम से ..


   अरे वाह मौर्या जी एक और ...

राम मिलन मौर्या और भगवान बख्श मौर्या जिन्हें लोग डाक्टर साहब भी कहते हैं, दोनों सगे भाई हैं 'मिलन' बड़े तो डाक्टर मौर्या छोटे । डाक्टर मौर्या भजन लिखने का भी शौक रखते हैं और अपने भजन में नए-नए प्रयोग अभी भी करते रहते हैं। अलंकार विधा के साथ साथ फिल्मी अंदाज में भी गानों को नए अंदाज में पेश करने का उनका अभी भी इलाके में कोई सानी नहीं है । मौर्या जी को सुनने के लिए भीड़ दूर -दूर से आती थी। क्या सहजौरा, क्या मीसा, क्या बड़ागांव - सब डाक्टर मौर्या के फैन थे। डाक्टर मौर्या के पहले अगर श्री राम तेली दादा को मौका न मिले तो वो नाराज़ हो जाते थे इसलिए उन्हें अक्सर मौर्या से पहले ही मौका दे दिया जाता था । जिस तरह नामी वक्ता के बोलने के बाद भीड़ खिसक जाती है उसी तरह मौर्या जी को सुनने के बाद भीड़ इक्का दुक्का ही मिलती थी।


   नेवाज़ दादा यानि ढोलकिहा को कितनी भी झपकी आ जाय मगर मजाल था कि कीर्तन पर ढोलक की लय बिगड़ जाय । बताते थे कि उनके सामने अच्छे अच्छे तबला वादक भी पानी भरते थे । उनके बुढ़ापे के समय में राम नरेश उर्फ मस्ताना अलबत्ता ढोल को समझ चुके थे । मस्ताना के आने के बाद  अब ढोल नए अंदाज में मटकने लगी थी लंबू बढ़ई की हारमोनियम अब ढोल की आवाज में दब जा रही थी । इसलिए धीरे धीरे मस्ताना ने पेशेवर अंदाज में हारमोनियम पर हाथ आजमाना शुरू कर दिया था ।


 श्री राम तेली दादा शरीर से दुबले पतले जरूर थे लेकिन जब गाना शुरू करते थे तो पंडाल हिला के रख देते थे..


.. चोरी माखन की दे छोड़ 

कन्हैया मैं समझाऊं तोय 


बड़े घरों की राधा रानी 

नहीं बरेगी तोय 

..और फिर उमंग में जो नाचना शुरू करते थे तो पुरवइया ही भजन पूरा करते थे श्री राम तेली दादा की मस्ती बहुत देर बाद ही टूटती थी ।


   पुरवईयों में बृजराज पाड़े के साथ जय कुमार , बीरे, सुमिरन , नोहर दादा , कल्लू पाड़े , बलवंत के पापा की टीम हुआ करती थी और अच्छे श्रोताओं में वकील साहब , नेगपाल , भूखल और मुल्ला पाड़े का जवाब नहीं था कहो तो रात-रात भर कीर्तन चलता रहे। भोर की पुरवाई के पहले झोंके की ठंडक से ही पता चलता था कि अब सुबह हो रही है और खेत में भी जाना है ।


"आओ हो वकील साहब एक तोहरौ भजन होय जाय"

दूसरी आवाज ..


"हां हां बलाओ काहे न गैहैं "


..क्या भरोसा है इस जिंदगी का 

साथ देती नहीं है किसी का


.. दुश्मन मिलें भोरहिएं मिलें 

मतलबी यार न मिलें ..


वाह वकील साहब वाह।

 

    अब मनीराम काका की बारी । मनीराम काका डेहवा पर रहते थे और जवाबी कीर्तन में मौर्या , मस्ताना और मनीराम की जोड़ी से इलाका घबराता था। दुर्गा पूजा , दशहरा के मौकों पर क्या बड़ागांव, क्या रुदौली, क्या पटरंगा हर जगह ये तिकड़ी झंडा गाड़ चुकी थी । कीर्तन कीर्तन न होकर सुपर संग्राम होता था । कभी कभी तो बड़े बड़े इनाम भी मिल जाते थे नाम होता था सो अलग । तो गौहन्ना की तिकड़ी चौहद्दी में मशहूर हो चली थी ।


कुंवर लोहार दादा के मजीरे पर मनीराम ने अपने भजन की शुरुआत की ..


आ जाओ मातु मेरी ..

पूजा करूंगा  तेरी ..।


"का मौरया कै नींद होय गै"?

वकील साहब बोले


"पंद्रह बीस भै अबहीं "


"अच्छा दुई चार भजन तो होय जाय "


   और डाक्टर मौर्या का आलाप शुरू हुआ नहीं कि चारपाई से उठ के सोते हुए लोग भागते चले आते थे


अा ... अा ...


इस तन का इंजन समझ लिया 

हर बार प्यारे ज्ञानी ..


दशा इस दीन की भगवन बना दोगे क्या होगा?


एक और मौर्या  जी एक और । 

ऐसे करते करते न जाने कितने भजन होते थे .


..बिन काज आज महाराज लाज गई मेरी 

दुख़ हरो द्वारिका नाथ शरण मै तेरी 


सच पूछो तो मुझको नहीं कुछ ज्ञान तुम्हारा 

पर दिल में रहा करता है कुछ ध्यान तुम्हारा


फ़रियाद इश्क आह की गर चाह है तुमको 

इस दिल में ही मौजूद है समान तुम्हारा ..


कभी कभी मीसा के ननकऊ बढ़ई के बाप निरगुन भजन से आनंद ला दिया करते थे.


 ..नौ मन लकड़ी मा जारा गए 

वही मजवा मा बालम मारा गए ..


सुंदर  चाचा अपनी मस्ती में गा उठते ..


भजन करो भगवान शंकर दानी का

क्याभरोसा दो दिन की जिंदगानी का..


     फिलहाल अब वहां भी लोगों के पास समय नहीं है । गांव की गुटबंदी में किसी को कीर्तन की फुर्सत कहां फिर भी थोड़ा बहुत कीर्तन का दौर आज भी गौहन्ना में  मिल जाएगा ।  लेकिन वो एक दौर था जहां जाति धर्म से ऊपर दिन भर खेत में काम करने के बावजूद  निश्छल भाव से ईश्वर की आराधना होती थी ।


    एक पूरी की पूरी पीढ़ी जिन कीर्तन की धुनों पर नौजवान हुई उस को क्या पता कि अनजाने में ही गौहन्ना और उस दौर के संस्कार अपने आप उसमे घुल मिल गए । यादों के झरोखे में जब भी उस दौर में जाता हूं तो लगता है आज भी सुबह-सुबह  कोई गुनगुना रहा है ..


उठ जाग मुसाफिर भोर भई।

अब रैन कहां जो सोवत है ।।

जो सोवत है सो खोवत है

जो जागत है सो पावत है।।


(gauhanna.com से शेष अगले अंक में )

Thursday, September 24, 2020

मिसिराइन आजी

 *मिसिराइन आजी* 


(ललित मिश्र के ब्लॉग *झल्लर मल्लर दुनिया* से )


   "ये तीन खुराक दवा है तीन दिन सुबह सुबह खाली पेट खाना है ठीक हो जाओगे" । 


"फिर कब आना है आजी "


"भगवान चाहे तो इतने में ही ठीक हो जाओगे छत्तीस रोग की मारंग है ये जड़ी "

"अच्छा आजी पांय लागी "

 

    दूर दूर इलाके में सफेद बालों वाली बुढ़िया आजी का बड़ा नाम था उनके ठीक होने वाले मरीजों में कोसों दूर दूर तक के लोग थे । गांव में सब लोग उन्हें मिसिराइन आजी के नाम से जानते थे । वैसे उनका असली नाम बृज रानी था ।


   जबसे हमने उन्हें देखा तो  कमर से झुक कर चलते ही देखा। लेकिन जीवटता इतनी थी कि एक बार पेड़ से गिरते बच्चे को  गोद में ही लपक लिया था और एक बार 'पनिहा सांप' को अपनी कुबरी से जमलोक का रास्ता दिखा दिया था । सौ साल की उमर में भी अपने बेटे यानि मिसिर  दादा से दुगुनी-तिगुनी मेहनत वो करती थीं  ।बगिया और बरिया के सैकड़ों पेड़-पौधों की वो मां भी थीं । 

       झक सफेद बाल के साथ उनके चेहरे की चमक सारी झुर्रियों पर भारी थी । 


"मिसिराइन आजी तोहार इमलिया केहू बीने लेत है "

.. किसी की आवाज आती 


प्रति उत्तर में ..


"आइत है दहि जरऊ मोंछ उखार लेब "



"अरे दहिजरा क नाती खेत खवाय लिहिस केकै बकरी आय रे"

 

    ये आवाज़ पांच सौ मीटर तक गूंज जाती थी जब मिसिराइन आजी की दहाड़ सुनाई देती थी ।


    वो जिस गांव से पली बढ़ी थीं वहां उनका घर अकेला ही था। अकेले घर का गांव, आस-पास कोई डॉक्टर नहीं तो अगर जिंदा रहना है तो जड़ी-बूटियों का ज्ञान न हो तो जीवन चलना मुश्किल हो जाय । ज्ञान विज्ञान के गंवई रिसर्च को सूट-बूट टाई वाले डॉक्टर साहब को हज़म होना भी नहीं था सो आज तक नहीं हुआ उनको कौन बताए कि जब एंटीबायोटिक की चिड़िया पैदा भी नहीं हुई थी तब से लोग ऐसे ही ठीक होते आए थे।मिसराइन आजी जड़ी बूटियों का चलता-फिरता एनसाइक्लोपडिया थीं ।


   गांव में इस तरह के लोग अक्सर मिल जाया करते थे।  गांव के ही शिवराम मुराव किसी भी तरह की टूटी हड्डी को बिना प्लास्टर खींच -खांच के सेट कर देते थे और हां मजाल कि कोई उन्हें पैसा दे दे । न बाबा न । गुरूजी सिखा गए थे कि किसी से पैसा मत लेना सो गरीबी में गुजर-बसर कर लिया लेकिन पैसा नहीं लिया ।

 

     मिसिराइन आजी के सामने गांव की चौथी और पांचवीं पीढ़ी धीरे धीरे बड़ी हो रही थी लेकिन क्या छोटा, क्या बड़ा सब उन्हें 'मिसिराइन आजी' ही कहते थे । याददाश्त इतनी तगड़ी कि किसकी शादी कब कहां से हुई क्या- क्या हुआ सब ज़बान पर रटा पड़ा था. किसकी रिश्तेदारी कहां है? कौन खानदानी है  कौन बहेल्ला ? सब पता था । 

सैकड़ों सोहर और भजन मुंह जबानी  याद थे । पढ़ी लिखी तो थी नहीं लेकिन कढ़ी जरूर थीं ।


    मांगलिक कार्यक्रमों में पुरवाने वाले थक जाते थे लेकिन मजाल था कि मिसिराइन आजी थक जाएं । 

उनकी चार बेटियों की शादी चारों दिशाओं के हिसाब से हुई थी 

ब्रह्मा देई उत्तर तो सावित्री दक्षिण में थीं , मोहर कली पूरब तो सुबरन पश्चिम में थीं लेकिन उनकी कला तक कोई भी नहीं पहुंच पाया था ।


  शाम को ओसार के नीचे बैठ के नन्ही लाल चुन्नी व भेड़िया की कहानी ,राजा शिवि, ऋषि दधीचि और हरिचंद नरेश की कहानी , राजा भगीरथ, विक्रमाजीत की कहानी सुन के न जाने कितनी पीढ़ी बड़ी हुई थी।


 पति और बड़े बेटे के जाने के बाद 

गया-जगन्नाथ-बदरीनाथ सब कर आई थीं . उनका चारों धाम का यात्रा वृतांत सांकृत्यायन जी को भी फेल करता था ।

  

     मिसिराइन आजी की कई पीढ़ियाँ कृतज्ञ रहीं । मजाल कि आस-पास का कोई बिना खाए सो जाय । बकौल बृजराज पांड़े "आजी ने ही उन्हे जिंदा बचा के रखा था  । घर में कभी -कभी ऐसी भी नौबत आती थी कि चूल्हा नहीं जलता था लेकिन आजी ने भूखे नहीं सोने दिया" । 

   बीरे और जय कुमार के लिए मिसराइन आजी मां -बाप सब कुछ थीं ।


    मिसिराइन आजी की रावटी में दसियों मटकी- कूड़ों में अलग अलग तरह के न जाने कितने बीज होते थे आज के जमाने के अच्छे अच्छे जीन बैंक उसके आगे फेल थे । 

 

'हे लल्ला ई बिया बोवै का है '

कद्दू का बीज और लौकी का बीज छोटे छोटे बच्चों से बुवाई करवा कर गृह वाटिका की मानो ट्रेनिंग दे देती थी उनकी लौकी और कद्दू कुछ ही दिनों में झखरा से चढ़ कर छप्पर पर छा जाती थी और फिर बड़े बड़े फल , क्या कहने..


नखत वितान  भोरहरी उठ कर जांता में कई सेर आटा पीसने के बाद मिसराइन आजी का भजन जब गूंजता था तो ऐसा लगता था कि भोर की किरण राग भैरवी सुना रही हो 

जब तक हम लोग नित्य क्रिया से निवृत होकर आते थे तब तक आजी *बासी* गरम कर हम लोगो के लिए तैयार रखती थीं ।

 दिन भर की थकान के बाद रात में मिसिराइन आजी का भजन गूंजता था ..


अबकी राख लेव भगवान

तरे पारधी बान साधे

ऊपर उड़त सचान 

अबकी राख लेव भगवान ...


   तो पूरा टोला उस भजन में लीन हो जाता था। उनके भजन में वो मधुरता थी कि इतने दिनों बाद भी कभी- कभी ऐसा लगता है कि कहीं  दूsssर  से


मिसिराइन आजी कोई भजन गा रही हों..


...जतन बताए जायो कैसे दिन बितिहैं?

   यहि पार गंगा वहि पार जमुना 

बिचवा मा मड़ैया छवाए जायो 


कैसे दिन बितिहैं ?

जतन बताए जायो ! ...


माया महा ठगिनी हम जानी 

निरगुन फांस लिए कर बैठी 

बोले मधुरी बानी 

ये सब अकथ कहानी

माया महा ...


(Gauhanna.com से, शेष अगले अंक में .. )

Wednesday, September 23, 2020

राम जी की घोड़ी -

 *राम जी की घोड़ी -* 


   बरसात के दिनों में अक्सर जिस छोटे लाल रंग के जीव को हम लोग देखते थे उसे अवध क्षेत्र में राम जी की घोड़ी कहते थे  । जैसे जैसे बरसात होती थी खेत और बगीचों की मेड़ पर इनकी झुंड की झुंड दिख जाया करती थी ।

डर तो लगता था लेकिन ये बात सभी बड़े बुजुर्गो ने बता दी थी कि राम जी की घोड़ी है तो राम जी की घोड़ी से डर कैसा । अपने राम जी के इलाके में तो राम जी की जय जय कार थी ऊपर से जब सुनसान जगह या रात में निकलना हो तो हनुमान जी थे ही


जै हनुमान ज्ञान गुण सागर

जै कपीस तिंहुं लोक उजागर ..


..भूत पिसाच निकट नहिं आवै।

महावीर जब नाम सुनावै।। 


जब डर ज्यादा लगता था तो हनुमान चालीसा थोड़ा जोर जोर से पढ़ना पड़ता था लेकिन काम हो जाता था।


  एक बार रात में खेत सींचने ट्यूबवेल पर जाना पड़ा 

ट्यूबवेल गांव से लगभग एक किलोमीटर दूर थी लेकिन इस कम दूरी वाले रास्ते में तालाब का पानी चढ़ जाता था तो दूर के रास्ते से घूम कर जाना पड़ता था । रात में इसलिए जाना पड़ा कि उस समय गांव में दिन में बिजली मिलना किसी साहब के दर्शन करने जैसा था । दिन की बिजली एलीट शहरातियों के खाते में थी । गांव में तो बिजली थी ही नहीं लेकिन चूंकि एक किलोमीटर दूर सरकारी ट्यूब वेल में बिजली थी इसलिए गांव को विद्युतीकृत मान लिया गया था। अब मान लिया गया तो मान लिया गया। किसको फुर्सत थी कि गांव जा के तफ़्तीश करे ?वैसे भी हाकिम ने जो कह दिया सो कह दिया


...'न खाता न बही,

 जो हाकिम कहे वो सही'


    तो उस अंधेरी रात में बिजली के इंतजार में लालटेन के उजाले में काशी काका के साथ हम भी चले जा रहे थे । 

उमस भरी झींगुर की झन्नाटे दार रात में हवाई चप्पल में अंदाजे अंदाजे से हम लोग ट्यूबवेल पर जा पहुंचे । पहुंचते ही बड़े जोर से पेड़ से भर भराने की आवाज आई। ऑटोमेटिकली हम लोगों का हनुमान चालीसा चालू हो गया । बाद में पता चला पेड़ से बिल्ली कूदी थी ।


  ट्यूबवेल में उस समय बिजली नहीं आ रही थी पहली पंच वर्षीय योजना की बुलंद निशानी उस ट्यूबवेल  के बगल में एक आवास जैसा कुछ था । आवास जैसा इसलिए कि फिलहाल खंडहर हो रहा था सुना था किसी जमाने में ऑपरेटर साहब वहां रहते थे । वैसे तो गांव में पानी किसके खेत में जाएगा ये तय करने का काम ऑपरेटर साहब का ही था लेकिन जब से ऑपरेटर साहब ने शहर में ठिकाना ढूंढा था तब से 'लठ्ठ के जोर से' पानी आगे बढ़ता था ।


 उसी इमारत के उपर छत पर दिन में चरवाहे सुरबग्घी और लच्छी खेला करते थे । सुरबग्घी शतरंज की बिसात की तरह थी उसके खेलने का मजा कहीं भी कुछ कंकण इकठ्ठा कर लिया जा सकता था तो लच्छी बिना उछले कूदे नहीं खेली जा सकती थी । इसे खेलने का मज़ा तो हमको भी खूब आता था लेकिन शाम होने के पहले ही भाग कर घर में इस तरह पहुंच जाते थे जैसे लगता था कि बच्चा खेतों की रखवाली करके आया हो ।


   ट्यूबवेल के बगल की खंडहर इमारत के इर्द गिर्द राम जी की घोड़ी यानि लाल रंग की लिल्ली घोड़ी का साम्राज्य हुआ करता था । लिल्ली घोड़ी नाम हो सकता है लाल रंग से पड़ गया होगा लेकिन मुकम्मल तौर पर यह बता पाना मुश्किल था कि उसका नामकरण कैसे हुआ ? बस इतना पता था कि राम जी की घोड़ी है तो इसे मारना नहीं है नहीं तो पाप लगेगा ।


  हां! तो उस रात बिजली का इंतजार करते करते रात के लगभग दो बज गए जैसे ही बिजली आई तो 'बिजुली माई की जय' के नारे के साथ मोटर स्टार्ट कर दी गई । पानी हर -हर -हर -हर ईटो की नाली से होकर खेत की तरफ चल निकला । बताते चलें कि ये नाली भी उसी पंचवर्षीय योजना की थी जब की ट्यूबवेल थी आधा से ज्यादा पानी वो अपने 'टैक्स' के रूप में निगल जाती थी बचा खुचा पानी जब खेत में पहुंचता था तो लगता था जैसे सूखे मन में हरियाली आ गई हो ।  चूंकि किसान इस तरह के 'टैक्स' देने का आदी होता था इसलिए नाली से उसे कोई शिकवा नहीं था । खेत तक पानी पहुंचाना और खेत का पूरा भर जाना किसी जंग जीतने से कम नहीं था । रात के अंधेरे में सांप बिच्छू के खतरे राम भरोसे निपट जाया करते थे काशी काका को गेहूं के बोझ में बैठा बिच्छू सिर ने भी डंक मार चुका था वो अपनी बहादुरी के किस्से रात भर सुनात  रहे हम डरे डरे से थे लेकिन किसी को महसूस नहीं होने देते थे । जहां-जहां राम जी की घोड़ी दिख जाती थी तो लगता था कि रास्ता  निरापद ही होगा । जूलॉजी के पन्नों का यह प्यारा मिलीपीड बचपन के दिनों का एक ऐसा अजूबा होता था जिस को रास्ते में देख के लोग पैरों को इस कदर संभाल के रखते थे कि कहीं राम जी की घोड़ी दब न जाए ।

  आज भी यदा- कदा जब ये प्यारा सा बचपन का जीव दिख जाता है तो सबसे पहले पैरों को संदेश मिल जाता है कि संभल के आगे 'राम जी की घोड़ी' है ।

Sunday, September 20, 2020

 सफेद दूब-


   वैसे तो सफेद दूब दुर्लभ मानी जाती है लेकिन हमारे जमाने में विद्यार्थियों के लिए यह इसका महत्व किसी रत्न से कम नहीं था । जिस तरह एकमुखी रुद्राक्ष को योगी ढूंढ़ते हैं और दक्षिणा वर्ती शंख को संसारी ढूंढ़ते हैं उसी तरह श्वेत दूर्वा यानि सफेद दूब को बचपन में हम विद्यार्थी ढूंढा करते थे । बॉटनी के लिहाज़ से 'म्यूटेंट घास' उस जमाने में हम बच्चों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होती थी।


    घर से विद्यालय लगभग दो किलोमीटर दूर था । कहने को वो प्राइमरी स्कूल था लेकिन इलाके में वही एक स्कूल था जहां से कई पीढ़ी पढ़ के निकली थी। बड़ागांव का यह प्राइमरी स्कूल बताते हैं कि अंग्रेजों के जमाने का था  । दीवारें इतनी मोटी थी जैसे किले की दीवार और छत खपड़ैल थी जिसकी ऊंचाई किसी मल्टीस्टोरी के तिमंजिले तक रही होगी । मेरे बाबा जी जो अपने हलके के नामी आल्हा गायक थे वो भी उसी प्राइमरी के पढ़े थे जहां हम पढ़ रहे थे । कोस- कोस की दूरी से झोला टांगे और तख्ती- बुचका लिए लल्लन, बब्बन,मुन्नन जैसों की न जाने कितनी टोली कई गांव से वहां पढ़ने आती थी।


   जब ये टोली पढ़ने निकलती थी तो खेतों और खलिहानों के रास्ते स्कूल पहुंचती थी रास्ते में अगर सफेद दूब दिख जाती थी तो टोली उस पर टूट पड़ती थी जिस किसी के हाथ सफेद दूब की एक भी पत्ती लग जाती थी उसको लगता था जैसे कोई निधि मिल गई हो । जिसको नहीं मिलती थी वो इस उम्मीद से आगे बढ़ चलता था कि कहीं आगे उसे भी सफेद दूब मिल जाएगी । 


  छुटपन में हम लोग जिस रास्ते से जाते थे वह रेलवे लाइन का किनारा होता था । उसके किनारे अक्सर सफेद दूब मिल ही जाती थी । मेरे गांव गौहन्ना से बड़ागांव प्राइमरी स्कूल तक पहुंचने में नन्हे क़दमों से लगभग आधा घंटा लग ही जाता था फिर रास्ते में मस्ती भी तो होती थी इसलिए कभी कभी उससे ज्यादा समय भी लग जाता था । स्कूल में पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी का अपना मज़ा होता था मज़ा इसलिए कि जब प्रभात फेरी निकलती थी तो पूरा बड़ागांव घूमना पड़ता था ..


झंडा ऊंचा रहे हमारा 

विजई विश्व तिरंगा प्यारा..


   प्रभात फेरी का ये लंबा रास्ता कभी खलता नहीं था। बड़ागांव के कई व्यापारी थाली में बताशे और लड्डू लिए हम बच्चों का इंतजार करते थे । जैसे ही प्रभात फेरी की अगुवाई करते दखिनपारा वाले गुरु जी यानि हेड मास्टर साहब  उस दुकान के सामने पहुंचते फूलों से उनका स्वागत होता और बताशे, लड्डू हम लोगों को मिलते थे। लड्डू और बताशे के चक्कर में प्रभात फेरी बिल्कुल भी नहीं छूटती थी । प्रभात फेरी की लाइन बिगड़ने न पाए इसका विशेष ध्यान 'गौहन्ना वाले मास् साब' को रखना पड़ता था । उनके हाथ की छड़ी को हम लोगों ने कभी जुदा होते नहीं देखा था उनका खौफ इतना था कि बेमन से पढ़ने वाले गोलू भोलू भी रीढ़ की हड्डी सीधी करके 'दो का दो , दो दुन्नी चार' रटते नजर आते थे ।


  स्कूल में जूट की टाट- पट्टी किसी गद्दे से कम नहीं होती थी और मास साब की कुर्सी किसी सिंहासन से कम नजर नहीं आती थी । कौन कितना फर्राटे दार पाठ पढ़ के सुना देता था उस बच्चे की धमक पूरी क्लास में रहती थी वही क्लास का मॉनिटर बना दिया जाता था जिसका जलवा ही जलवा होता था । 


   पाठ पढ़ते समय जिसकी किताब के बीच सफेद दूब होती थी उसके चेहरे पर थोड़ी कम शिकन होती थी कि या तो उसका नंबर नहीं आयेगा या तो वो पाठ पूरा कर लेगा।  वैसे तो 'करेरु वाले मास साब' हमेशा मुस्कराते रहते थे लेकिन जिस बच्चे की कॉपी मंगा ली उसके प्राण सूख जाते थे । कॉपी अच्छी निकल गई तो ये नसीहत जरूर मिलती थी कि नाखून काट के आया करो और आंख में काजल जरुर होना चाहिए । सब बच्चे अगले दिन कजरौटा लगा के चमा चम चमकते हुए आते थे उस दिन पूरी क्लास ही मासूमियत भरी फुलवारी लगती थी ।


  एक दिन कॉपी पलटते हुए 'डेलवाभारी के मास साब' ने एक बच्चे की किताब से दसियों सफेद दूब निकाली 

पूछा 

" ये क्या है " ?


" मास साब सफेद दूब है "


"कॉपी में क्यों रखी" ?


"इससे विद्या माई खूब आतीं हैं "

बच्चे ने असलियत बता दी ।


सुन के गुरु जी हंसने लगे और अपने जमाने की यादों में खो गए । हां हम लोग भी तो यही करते थे।

ये सफेद दूब ही तो सरस्वती साधना का बीज मंत्र रूपी जड़ी थी ।

-ललित

Monday, September 7, 2020

"पेंशन"-


"पैसों की कमी है तो आप बच्चों से कहते क्यों नहीं ?अब तो पढ़ लिख के दो पैसे कमाने भी लगे हैं" । निर्मला ने पंखा झलते हुए पति से कहा तो रमेश ने चेहरा उठा के पत्नी की तरफ देखा । लंबी गहरी सांस लेकर कहने लगे "अरे काम तो चल ही रहा है बच्चों पर वैसे जी इतनी बड़ी जिम्मेदारी पहले से ही है जितना वेतन मिलता होगा वो बच्चों को पढ़ाने में ही चला जाता है स्कूल की फीस, ऑटो का खर्चा , ट्यू शन की फीस , मकान का किराया कैसे खर्च चलता होगा निखिल का ये तो सोचो । फिर अपना क्या है रूखा सूखा खा के काम चल ही जाता है "। कह के रमेश यादों में खो गए ।
अप्रैल के पहले मंगलवार को छोटे बेटे का रिज़ल्ट आ गया था उस दिन घर में बड़ी धूम धाम थी शुभम अपने पहले ही प्रयास में जजी की परीक्षा पास कर चुका था घर में रिश्ते के लिए फोन घनघनाने लगे थे रमेश अपने नोकिया मोबाइल पर सबको तसल्ली दे रहे थे कि ट्रेनिंग पूरी होने दो उसके बाद शादी कर देंगे ।
ट्रेनिंग के बाद रमेश ने शुभम की शादी एक जज साहब की बेटी से कर दी उनको लगा था कि जज साहब का व्यवहार जब इतना अच्छा है तो उनके बच्चों का भी अच्छा ही होगा ।
उम्र के साथ रमेश को शुगर और ब्लड प्रेशर की दिक्कत आने लगी थी लेकिन बच्चों को पढ़ाने में उनने कोई कोर कसर न छोड़ी ।सोचा बच्चे कहीं लग जाएंगे तो इलाज के लिए पैसे अपने आप ही मिल जाएंगे । लेकिन ऐसा हुआ नहीं । बड़े बेटे निखिल को दिल्ली में मिली नौकरी ने ऐसा उलझाया कि घर कभी कभार आता था उसकी पत्नी को गांव के साथ साथ सास से भी चिढ़ सी लगती थी । अपने बच्चों को भी उसने दादा दादी से दूर ही रखा था ।
शुभम की बहू कुछ दिन ही संस्कार की ओढ़नी बचा पाई धीरे धीरे बड़ी बहू से गुरु मंत्र लेकर उसने भी रमेश और निर्मला से किनारा कस लिया ।
"आप ही संभालो इस नकचढ़ी बुढ़िया को मेरे बस का नहीं " शुभम की बहू दिव्यांश को स्कूल ड्रेस पह नाते हुए बोली । "जब जब शहर आतीं हैं घर में अपनी हुकूमत चलाने लगती हैं अब मैं उन्हें यहां नहीं बुलाऊंगी आपकी मम्मी हैं आप ही उनको संभालो ।"
.. " भैया क्या इसी दिन के लिए मम्मी पापा ने हम लोगों को पढ़ाया था" शुभम ने रुआसे होकर ऑफिस से लौटते समय बड़े भाई को फोन किया ।" हां छोटू मुझे भी यह बात हरदम कचोटती है कि मम्मी पापा कैसे अपना खर्च चलाते होंगे । दिन रात मेहनत कर के हमें पढ़ाया । ऐसा कोई भी महीना नहीं गया जब समय से पापा का मनी ऑर्डर न आया हो । लेकिन इन लोगों के चलते मां बाप से हम लोग दूर होते जा रहे हैं क्या उपाय किया जाय छोटू तू ही बता तेरी भाभी को बात पता चलेगी तो मेरी जान खा जाएगी " ।
.. शुभम तुझे याद है न कि मम्मी पापा अपने लिए एक साल के बजाय दो साल में नए कपड़े लाते थे कि हम लोगों की पढ़ाई ठीक से चल सके अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया कि हम लोग बड़ी पोस्ट पर पहुंच जाय । कहते कहते निखिल यादों में खो गए जब मम्मी ने मामा से राखी में मिले पैसों से उसे इलाहाबाद कोचिंग के लिए भेजा था । हर महीने राशन गांव से भिजवा देती थीं । फिर शुभम भी वहीं तैयारी के लिए साथ आ गया था किराए के कमरे में दोनों भाई रहते थे । आखिर एक दिन निखिल स्टाफ सेलेक्शन कमीशन में सफल हो ही गए थे । उनकी खुशी तब दोगुनी हो गई जब शुभम भी जज बन कर निकला था ।
.."कुछ तो उपाय करना पड़ेगा भैया क्या हम उस दौर में पहुंच गए हैं जहां मदर्स डे और फादर्स डे पर ही फेसबुक में मां बाप के गीत गाएंगे । भैया हमने भी लॉ और फिलोसॉफी से तैयारी की है । अब मम्मी पापा को क्या इनके कहने से दूर कर देंगे" ?
.."तो क्या सोचा छोटू "? निखिल ने कहा.
"बस देखते जाओ भैया" शुभम बोला । हमने भी संस्कार अपने गांव से सीखे हैं । केवल नौकरी के लिए पढ़ाई हमने भी नहीं की है भैया".
" हैलो मै जज साहब का स्टेनो बोल रहा हूं आप बैंक मैनेजर साहब बोल रहे हैं न"?
"जी बोल रहा हूं".
..साहब आपसे बात करना चाहते हैं कह कर स्टेनो ने काल जज साहब को ट्रांसफर कर दी ।
... मैनेजर साहब ...
"जी साहब ..
समझ गया साहब" ..
"जी साहब हो जाएगा" ...
.. "अजी सुनती हो खाते में दो हज़ार रुपए आएं हैं समझ में नहीं आ रहा किसने भेजे "।
.."अरे हां मेरे खाते में भी आज कुछ पैसे आए है कौन भेज रहा होगा " निर्मला बोली।
" हो सकता है बुजुर्ग समझ कर सरकार दे रही होगी ? लेकिन हम तो सरकारी सीमा से अधिक आय वाले हैं सेक्रेट्री तो यही कह रहे थे । अच्छा चलो छोड़ो गलती से आ गए होंगे " कहते हुए रमेश ने गहरी सांस ली ।
अगले महीने..
"अरे फिर से मेरे खाते में पैसे आए" ।
"अरे हां मेरे खाते में भी आए ।और एक मोबाइल भी डाकिया दे गया है उसमे वीडियो काल भी होती है" - पत्नी बोली ।
ट्रिंग ट्रिंग ...
ट्रिंग ट्रिंग..
"अरे किसका फोन है निर्मला "?
"वीडियो काल है किसी की ।
...अरे ये तो छोटू है" हां मम्मी भैया भी कॉन्फ्रेंसिंग पे हैं "। "छोटू पैसा तुम भेज रहे हो क्या"?
"हां मम्मी लेकिन ये बात बहू को मत बताना । सीधे खाते से लिंक है आपका अकाउंट हर महीने मिलते रहेंगे
पापा क्या कर रहे हैं मम्मी" ?
"बैंक से पैसा निकाल कर अभी अभी लौटे हैं उनके खाते में भी हर महीने कोई *पेंशन* भेज रहा है" ।
मां नम आंखों से दोनों बेटों और उनके बच्चों की कुशल क्षेम पूछ रही थी और
दोनों भाई सुकून से मुस्करा रहे थे ।
-Lalit

Tuesday, September 1, 2020

बेजुबानों के मसीहा -

बेजुबानों के मसीहा - कहते हैं कि देवत्व एक गुण है उतर आए तो दुनिया स्वर्ग बन जाए । ऐसा ही कुछ किया है हरिद्वार के युवाओं ने वैसे तो ये पढ़ाई भी करते हैं , अपना बिजनेस भी करते हैं लेकिन जानवरों के प्रति इनका लगाव अनूठा है । फीड स्ट्रे एनिमल संस्था से जुड़े ये युवा रोज जानवरों को खाना खिलाते हैं लेकिन जो अभिनव प्रयोग ये कर रहे हैं उसकी तारीफ जरूर होनी चाहिए । इनकी टीम को ये लगा कि रात्रि में जानवर दिखाई न देने से गाड़ी वाले अक्सर इन्हे टक्कर मार देते थे जिससे ये बेजुबान या तो अपना जीवन खो देते थे या हमेशा के लिए अपंग हो जाते थे फिर इनकी देखभाल करने वाला भी कोई नहीं । नवदीप अरोड़ा और रुचि की टीम ने इस पीड़ा को महसूस ही नहीं किया बल्कि 40-50 युवाओं की टीम के साथ रिफ्लेक्टर वाला कालर इन जानवरों को पहनाना शुरू किया । ये काम इतना आसान नहीं था बहुत से जानवर रिएक्ट भी करते थे लेकिन इन युवाओं ने बहुत से जानवरों जैसे गाय और कुत्तों को रिफ्लेक्टर युक्त कॉलर पहनाए जिससे बहुत सी दुर्घटनाएं अपने आप थम गईं । शुरू- शुरू में इस टीम को रिफ्लेक्टर ऑटो गैराज की दुकान से मांग कर लेना पड़ा, जब इनका अभियान सफल हुआ तो बड़े स्केल पर मंगाना पड़ रहा है। टीम के इस अभियान को जनता और अधिकारियों का भी समर्थन मिलने लगा । फिलहाल टीम आवारा पशुओं और सायकिल मजदूर पर फोकस कर रही है जहां ये कॉलर और स्टिकर अभियान चला रहे हैं । टीम रोज अपने अभियान को नए आयाम देने में लगी है । ऐसी अनोखी पहल हर जगह हो जाय तो दुर्घटनाएं अपने आप कम हो जाय । ये युवा भारत है जो किसी के भरोसे नहीं अपने दम पर बदलाव की उड़ान भर रहा है ।>










 

Wednesday, August 26, 2020

इंस्टैंट राशन-

 

(लघु कथा)

 

  मेरे मित्र आशू जो हरिद्वार में रहते हैं पिछले दिनों लॉक डाउन के दौरान की एक घटना शेयर कर रहे थे ।  गांव और किसानी से जुड़ी ये घटना हमारी लाइफ स्टाइल को देखते हुए और भी महत्वूर्ण बन जाती है उन्होंने बताया कि अम्मा और उनका संयुक्त परिवार जिसमें छोटा भाई बहू सब साथ साथ रहते हैं लेकिन अम्मा अक्सर कहती रहती हैं कि बेटा घर में एक साथ दो चार कुंतल अनाज पड़ा रहना चाहिए । 

     

      इस बात पर छोटे बेटे को बहुत ऐतराज होता था  "क्या अम्मा ? तुम भी न ! गांव थोड़े ही है ये , शहर है शहर । बगल का आढ़्तिया मेरा दोस्त जिस तरह का अनाज चाहिए वो सब तो दे देता है ये गया और वो लाया । ढेर सारा अनाज लाकर घर पर रखो फिर उसमे कीड़े लग जाते है फिर उसे साफ करो । क्या फायदा , अब आपकी उमर आराम करने की है आराम से भजन करो और बहुओ के हाथ का खाना खाओ । इंस्टैंट राशन है न बाज़ार में वो भी साफ सुथरा और स्वादिष्ट ।"


  अम्मा को लगा कि ये मेरी बात नहीं सुनेगा तो आशू यानि बड़े बेटे से उन्होंने अनाज लाने की इच्छा जाहिर कर दी । आशू अम्मा की बात रखते हुए कुछ अनाज घर लेे आए और रखवा दिया । 


    जिन लोगों ने गांव का जीवन देखा या जिया होगा वो  समझते होंगे कि किसान किस तरह फसल काटने के बाद उसे बड़ी मेहनत से साल भर सहेज कर रखता है । उसी से साल भर खाने का इंतजाम करता है और अगली फसल के लिए बीज भी निकालता है । अम्मा भी उसी जमाने की थीं फिलहाल बच्चों के साथ रहने को शहर आ गईं थीं । 


  अम्मा अब रोज अनाज साफ कर के लोहे की टंकी में भर रही थीं उनके चेहरे पर एक संतोष था लेकिन छोटे बेटे को ये सब बेकार की मेहनत लग रही थीं । उधर अम्मा को अपनी मेहनत पर सुकून था । उन्होंने अपने दौर में ये सब कुछ देख रखा था और कर भी रखा था ।


   "बेटा परेशान मत होना लॉक डाउन तीन हफ्ते का ही लगा है न" ? अम्मा बोलीं । "चाहे छः महीने का भी लग जाय हमने व्यवस्था कर रखी है घर पर राशन की कमी नहीं है । कहीं नहीं निकलना पूरे परिवार को । घर पे सब कुछ है ।  छुटके को भी कह देना कहीं न जाय । बिल्कुल परेशान न हो वो । "  

    

  आशू अम्मा की बात सुनकर मन ही मन मुस्करा रहे थे छोटे बेटे के दोस्त की दुकान लॉक डाउन में बन्द हो चुकी थी घर से बाहर की गली में पुलिस का पहरा था । अम्मा की चादर पर फैले अनाज से एक चिड़िया अपने बच्चों के लिए दाना लेने भी आ गई थी । 😊

Tuesday, July 14, 2020

पोथी पढ़ पढ़ -

  बात उन दिनो की है जब पूसा इंस्टीट्यूट नई दिल्ली में पढ़ाई और रिसर्च दोनों चल रहा था । पढ़ाई अपने अंतिम चरण में थी और करियर की चिंता सर पर सवार थी । एक्जाम पर एक्जाम होते जा रहे थे , कभी पहला चरण पार होता था कभी दूसरा इसी तरह हम उम्र साथियों की दिन चर्या एक दूसरे को दिलासा देते गुजर रही थी । हमारे एक मित्र थे प्रभात शुक्ल Prabhat Kumar  जो आजकल उसी संस्थान में प्रधान वैज्ञानिक हैं वो हर रिज़ल्ट के बाद एक जुमला दोहरा दिया करते थे "Success has a thousand fathers, but failure is an orphan." उनका ये जुमला किसी ठंडे मरहम की तरह दिल को सुकून दे दिया करता था कि चलो फिर से लगो दोस्तों अभी अपना समय नहीं आया है उस समय उनका वो जुमला उतना समझ में नहीं आया जितना आज इस *सेंचुरियन जेनरेशन* को देख कर समझ आ रहा है ।  दसवीं और बारहवीं के नतीजे धड़ाधड़ आ रहे हैं । कुछेक शत प्रतिशत नंबर लेकर पास हो रहे हैं। सोशल मीडिया में बधाइयों का दौर मै भी देख रहा था तभी ऑफिस के एक हंसमुख कर्मचारी ने बड़े उदास होकर कहा " सर बिटिया कल से खाना नहीं खा रही उसके  परसेंट कम आएं हैं " मैंने  पूछा कितने आए हैं तो उसने बताया कि यही कोई 65% । मैंने कहा कि नंबर तो बहुत अच्छे हैं उसने कहा कि स्कूल में कई बच्चों के 90% के ऊपर हैं । बात यहीं से गड़बड़ा गई वो बच्ची जो अपनी मेहनत से 65% से ऊपर नंबर ला चुकी है उसका आत्मविश्वास सिर्फ इसलिए डगमगा रहा था कि उसे कईयों  से कम नंबर मिले , यही नहीं लोगों की तारीफ नहीं मिली, स्कूल की भी तारीफ नहीं मिली क्योंकि नगाड़े सेंचुरियन के लिए बज रहे थे । उस जुमले में असफल अनाथ होते थे इस दौर में सफल बच्चे भी अनाथ से हो रहे हैं । ये समय है जब बच्चा समाज और स्कूल से आंखों ही आंखों से बहुत कुछ सुनना चाहता है मां बाप और परिवार से बहुत से दर्द बांटना चाहता है इस दर्द को न बांटने का परिणाम भयावह होगा। ये वो पीढ़ी है जिसको मनचाही सफलता से नीचे कुछ भी मंजूर नहीं उसे ये पाठ कभी पढ़ाया ही नहीं गया कि हार के बाद जीत भी होती है समय हमेशा एक जैसा नहीं होता । न ये चैप्टर स्कूल की किसी किताब में उसे मिला न ही घर की किसी दीवार पर । अब उसे अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है और यहीं से डिप्रेशन की शुरुआत हो जाती है जो मां बाप और पड़ोसी फर्स्ट आने पर ताली बजाते और केक काटते थे वे अवाक से गुमसुम हो जाते हैं । उस बच्चे ने अब तक तालियां बजते देखी थीं नंबर कम आने या फेल होने पर कैसे संभला जाता है ये किसी ने सिखाया नहीं था उसे क्या पता कि जिस कबीर पर लोग पीएचडी करते हैं वो अनपढ़ थे , कालिदास की जीवन यात्रा विफलताओं से ही शुरू हुई । न जाने कितने आविष्कार सैकड़ों प्रयोग फेल होने के बाद सफल हुए। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन के नाम असफलताओं की लंबी फेहरिस्त है ।  कभी आपने ये जानना चाहा क्या कि भगवान बुद्ध को कितने नंबर मिले? क्योंकि जिंदगी नंबर से नहीं कर्मों से पहचानी जाती है ।  ये जीवन अमूल्य है स्कूल और किताबें ही जिंदगी का परिणाम घोषित नहीं करतीं । बहुत से टॉपर्स कॉम्पटीशन के दौर में लड़खड़ा जाते हैं , स्कूलों के नम्बर दीवार पर धूल खा रहे होते हैं और गोल्ड मेडल पर लगी जंग बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है । जिंदगी इन नंबरों और भेड़ चाल के सामाजिक पैमानों पर नहीं चलती ।सिर्फ नंबर ही जिंदगी नहीं है जिंदगी नंबरों की दौड़ से बहुत परे है । यहां वही सम्राट होता है जो गिर कर भी संभलना सीख लेता है। जिंदगी अपनी पाठशाला में ही असली सबक सिखाती है और निष्पक्ष नंबर देती है। ये बात तब और बेहतर समझ में आएगी जब स्कूल और यूनिवर्सिटी का दौर पार कर आप कहीं नए मुकाम पर खड़े होंगे और अपने साथ साथ इस देश के लिए कुछ नए सपने देख रहे होंगे ।आप इस देश का भविष्य हैं आपके अंदर बहुत संभावनाएं हैं उसे तलाशना और तराशना है , आपसे बेहतर तोहफा इस देश के लिए कुछ भी नहीं है, बस हिम्मत मत हारना ।- ललित ( सत्यमेव जयते )

Thursday, June 11, 2020

तुम्हें कुछ भी नहीं आता -

रहा तालीम का ता उम्र हावी सिलसिला हम पर
मगर फिर भी मिले ताने, तुम्हें कुछ भी नहीं आता

शिकायत इस तरह कुछ मेहरबां, होती रहीं अक्सर
लिखावट माशा अल्ला है, मगर पढ़ना नहीं आता

फकत चलने की चाहत में, फिसलती जिंदगी हर पल
गिरे कुछ इस कदर साहब, कि अब उठना नहीं आता

कभी देखा नहीं खुद को, रहे रूठे हमीं से हम
गजब चिल्ला रही दुनिया , मुझे सुनना नहीं आता

नजर छुपते छुपाते, रूह से दीदार कर बैठी
उसे पूजा नही आती,मुझे सजदा नही आता

हुए जब रू बरू दिल से, हक़ीक़त आ गई आगे
डरे सहमे कदम हरदम, तुम्हे जीना नहीं आता

तुम्हारे खत में थी जो इक पहेली, उसमें उलझा हूं
तुम्हें लिखना नहीं आता, हमें पढ़ना नहीं आता


खुलासा ये हुआ आख़ीर में, क्या खाक पढ़ लिक्खे
तुम्हें ये भी नहीं आता, तुम्हें वो भी नहीं आता। - ललित

Saturday, May 23, 2020

कोरोनिए-

लघु कथा

 *कोरोनिए*-

(साभार जेएमडी, सभी
 पात्र व घटना काल्पनिक)

 आज फिर जगई अचंभे में था बब्बन अपनी कार पे चिपकहवा पास लगा कर थोड़ी देर पहले शहर की तरफ जाते दिखा था जबकि घरैतिन के इलाज के लिए पिछले दस दिन से जगई को पास नहीं मिल पा रहा था।  वैसे शहर में लॉक डाउन का चरण ही बदला था बब्बन का चाल चलन वही था जो ताला बन्दी के पहले था । बब्बन को जब से पिछले साल दारू का ठेका मिला था तब से उनमें संस्कारिक परिवर्तन का उबाल देखने को मिल रहा था । माथे पर लंबा लाल तिलक और गले में केसरिया गमछा , मुंह में पान की गिलौरी , झुक कर बिना बोले सब को प्रणाम  । बब्बन अब गली के गुंडे से बब्बन भैया हो गए थे । जब से संस्कारों का उदय हुआ था तब से उनके आगे पीछे गली मोहल्ला संस्करण चिंटू पिंटू के नाम बदल कर चिंटू भैया और पिंटू भैया हो गए थे
  बब्बन भैया लॉक डाउन के पहले सोमरस की होम डिलीवरी में पूरे इलाके को मात कर चुके थे लेकिन लॉक डाउन के चलते सरकार ने दुकान पर मातम ला दिया था 4-4 दुकान के सेल्समैन और 10-15 होम डिलीवरी के लाखैरे सब बब्बन भैया के संस्कारों पर पल रहे थे । दुकान के पीछे चलने वाली चखना रेस्टोरेंट भी लालटेन में घासलेट की आखिरी बूंद को हजम कर भभक भभक कर अन्तिम सांसे गिन रहा था ।
  जगई का कलुआ वैसे तो एक कुत्ता प्रजाति का मरियल सा पिल्ला था लेकिन जब से चखना रेस्टोरेंट जाने लगा था तब से जगई की तरफ टांग उठाने में उसे संकोच नहीं होता था । आज जैसे बब्बन भैया अपनी गाड़ी से निकले तो कलुआ ने कंधे तक शस्त्र उठा कर सलामी दी । इस सलामी ने जगई को ये सोचने पर मजबूर कर दिया कि आखिर बात क्या है ? इस पास की बब्बन भैया को जरूरत क्या पड़ गई ? कलुआ की सलामी से इस बात के संकेत मिल गए थे कि बब्बन भैया किसी बड़ी समाज सेवा को अंजाम दे रहे थे। बब्बन भैया की गाड़ी कुछ दूर जाकर उस चौराहे पर रुक गई जहां वर्दी वाले कोरोना वारियर जमे हुए थे । थे तो वो दूसरे थाने के लेकिन बब्बन भैया लॉक डाउन के पहले दिन से ही सुबह शाम उनका ध्यान रख रहे थे । गाड़ी में ब्रेक लगते ही बब्बन भैया के चिंटू और पिंटू मुंह पर गमछा लपेटे पानी की बोतल और पूड़ी सब्जी का पैकेट लेकर साहब की सेवा में पहुंच गए। गाड़ी में बैठे बैठे ही शीशा खोलकर पान थूक कर  बब्बन भैया चिल्लाए "साहब आज दो ढाई हजार गरीबों को भोजन देना था इसलिए भंडारा तैयार करने में देर हो गई " । 'कौनौ बात नहीं दरोगा जी खेखार कर बोले । इंहा सबेरे से सूखे जा रहे थे तुम आए तो जान में जान आई । बहुते नेक काम कर रहे हो बब्बन  । तुम इस इलाके के लोगों के लिए मसीहा हो मसीहा '।
  बब्बन दोनों हाथ जोड़ कर दरोगा जी के आशीर्वाद से कृत कृत्य हो रहे थे उधर चिंटू और पिंटू ने जब तक दरोगा जी और उनकी टीम को गले तक पूड़ी नहीं खिला दी तब तक आगे नहीं बढ़े । बब्बन अब दोनों चेलों को गाड़ी में ठूंस कर आगे गरीब बस्ती में पहुंच गए वहां पहले से ही खाने वालों की लंबी कतार लग गई थी सोशल डिस्टेंस के मंत्र के साथ चिंटू पिंटू बोनट पर रख कर एक एक कर गरीबों को खाना बांट रहे थे । पीछे से धीरे से बगल  की दुकान का शटर उठा कर मगलू ने चार - पांच  बड़े गत्ते  जिस पर निःशुल्क भोजन सेवा लिखा था बड़ी नजाकत से गाड़ी से खींच कर शटर के अंदर सरका दिए । खाना बांट कर बब्बन भैया ने बड़े प्यार से मगलू को समझा दिया कि जो संभ्रांत लोग शरम के मारे खाना लेने नहीं आ पाए उन्हें अपने सेवादारों से घर तक भिजवा देना । मगलू होम डिलीवरी का पुराना उस्ताद था उसने कनखियों से बब्बन को आंख मारकर सब समझने का संकेत दे दिया तो बब्बन तसल्ली से मुस्कराए ।
  गाड़ी को लौटने में तीन घंटा लगा लेकिन तब तक कलुआ एकटक उस राह को ही तके जा रहा था जैसे ही गाड़ी जगई के चौराहे पर आईं कलुआ ने बाजू शस्त्र किया और साष्टांग हो गया । बब्बन भैया ने धीरे से बचा हुआ चखना कलुआ को सरकाया तो जगई ने लंबी सांस ली और बुद बुदाया हे भगवान कोरोनियो के हाथ कितने लंबे हैं ? ठेका बन्द है लेकिन दुकान घाटे में नहीं है। 

Monday, May 4, 2020

इमेज-

इमेज - 

(साभार: JM दुनिया से)

  इंचार्ज साहब की जय हो पुलिस प्रशाशन जिन्दाबाद के नारे गूंज रहे थे महकमे के लोगों पर हर गली में फूलों की बरसात हो रही थी । सब गदगद थे इंचार्ज साहब से । टूटी चारपाई पर पड़े जगई ने ध्यान से देखा तो वर्दी में इलाके के नए थानेदार साहब नजर आए मुंह पर मास्क लगाए थे उनके आगे पीछे लगभग बीस पुलिस वाले हाथों में खाने का पैकेट लिए चल रहे थे । जो भी गली में गरीब जैसा दिख जा रहा था उसे पकड़ पकड़ कर खाना पकड़ा कर बढ़िया सी फोटो ग्राफी व वीडियो ग्राफी हो रही थी ।जगई पुलिस का यह नया चेहरा देख कर दंग था होली के समय जब वो फैक्ट्री से काम कर के लौट रहा था तो एक कार ने उसे टक्कर मार दी थी जब वो एफ आई आर कराने थाने पहुंचा था तो इन्हीं थानेदार साहब ने दिन भर बैठा के रखा था भूखे प्यासे बैठे बैठे जब न रहा गया तो इनसे कई बार हाथ पैर जोड़े थे कि साहब एप्लिकेशन तो लेे लो लेकिन साहब न पसीजे । जब रात के 10 बज गए तो बोले कि वो नगर सेठ के बेटे की गाड़ी थी उसके खिलाफ मामला दर्ज नहीं कर सकते और नुकसान ही कितना हुआ थोड़ा तुम टूटे हो और  सायकिल की रिम ही तो टूटी है रात 12 बजे गाली देकर धक्के मारकर थाने से भगा दिया था इन्होंने । हां यही थे आज भले ही मास्क लगाए हों लेकिन थे यही साहब ।पोस्टिंग के कुछ ही दिनों में साहब की गाथा पूरे इलाके में गूंजने लगी थी जिस गांव जाते थे वहां की मुर्गियों की संख्या अगले दिन घट जाती थी । नेताओ और कप्तान साहब के बड़े चहेते थे इंचार्ज साहब । खनन की और जंगलात से आने वाली गाड़ियों पर साहब की ऐंठती मूंछों का रहमोकरम था । मलाई मूंछ में थी या मूंछ मलाई में ये कहना कठिन था । किसी की क्या मजाल जो साहब की शान में गुस्ताखी कर दे । पत्रकार भी आगे पीछे खुशामद में लगे रहते थे आज वही पत्रकार इंचार्ज साहब की धांसू फोटो छापने में लगे थे । अरे साहब पुलिस ही काम आती है वो न हो तो जनता भूखों मर जाय । इंचार्ज साहब और उनकी पुलिस भगवान बन कर मोहल्ले मोहल्ले घूम रहे थे घूमना भी उन्हीं को था क्योंकि रोका भी उन्हीं ने था और इससे बढ़िया मौका क्या होता अपनी और पुलिस महकमे की इमेज बनाने का । फेसबुक पर लाइव वीडियो और साहब की जयजयकार कप्तान साहब और डीजीपी साहब तक पहुंच गई थी ।साहब की दरिया दिली देखकर  लाकडाउन में ढील के समय जगई साहब के पास फिर वही एप्लीकेशन लेकर थाने पहुंच गया  । फिर आ गया तू अबे तुझे पता नहीं जो खाना मैंने तुझे लाक डाउन में खिलाया था वो थाने को वहीं से बन कर आता था जिसके खिलाफ तू एफ आई आर लेकर आया है । "साहब लेकिन अपराध तो अपराध है" जगई बोला, मेरे अस्पताल का खर्चा सात हजार रूपए आया आज भी उठ नहीं पा रहा काम पर भी नहीं जा पा रहा हूं । 
  चल चल तेरी एफ आई आर के चक्कर में इलाके का सेठ खाना देना बन्द कर देगा । फिर मेरी इमेज कैसे बनेगी इसी साल प्रमोशन भी लेना है । अपना लाक डाउन भी तो ख़तम करना है डीजीपी साहब ने सभी थाने को पुलिस की इमेज बनाने को कह रखा है । चलो निकलो यहां से मुझे मलिन बस्ती में खाना बांटने जाना है ये कहते हुए इंचार्ज साहब गाड़ी में अपने मातहतों के साथ खाना बांटने निकल गए उधर जगई अपनी टूटी कमर और टूटी सायकिल के साथ वापस घर लौट पड़ा वो बड़ी देर से ये समझने की कोशिश कर रहा था कि ये इमेज आखिर क्या बला होती है जिसके लिए बड़े साहब से लेकर इंचार्ज साहब तक  इतने परेशान हैं।