सधई बाबा :
( ललित मिश्र के ब्लॉग झल्लर मल्लर दुनिया से)
"अरे हरी राम के सधई बाबा आए हैं पीपल के पेड़ पर चढ़े हैं "।
हरी राम वैसे तो दुबले- पतले थे और कद- काठी में भी सामान्य थे, लेकिन जब उनके ऊपर सधई बाबा सवार होते थे तो असामान्य कार्य उनके बांए हाथ का खेल होता था । दस दस आदमी उनको पकड़ने की कोशिश करते थे और वो उन्हें झटक देते थे ।
आज हरी राम पर फिर से सधई बाबा की सवारी आई थी और वो पेड़ पर चढ़े हुए थे । वैसे तो हरी राम को पेड़ पर चढ़ना नहीं आता था लेकिन जब सवारी आती थी तो दौड़ते हुए पेड़ पर चढ़ जाते थे ।
"बाबा आपकी हाई स्कूल कै इम्तिहान है पास होब कि नाही" । किसी विद्यार्थी ने पूछा ।
"पास होय जाबो बच्चा" - उत्तर मिलता था और विद्यार्थी के हौसले बुलंद हो जाते थे ।
ये आत्माओं की सवारी गौहन्ना गांव में कुछ लोगों को ही आती थी। लोगों के लिए वे आशा के केंद्र थे उम्मीद ये कि हर समस्या का समाधान ऐसी जगह मिलेगा । उनका सम्मान उनके डर की वजह से ज्यादा होता था । रास्ते में ढरकौना चौराहे पर मिल जाय तो अनिष्ट की आशंका बनी रहती थी । गलती से भी उसे कोई पार नहीं करता था ।
कोई बच्चा खो गया , भैंस दूध नहीं दे रही , औरत विदा होकर नहीं अा रही, पति परदेस से कब लौटेंगे, लड़के को नौकरी कब मिलेगी , बीमारी कैसे ठीक होगी इन सभी समस्यायों का समाधान ग्रामीण जनता को इन लोगों के पास मिल जाता था । कहने का मतलब इनके ठिकाने 'सिंगल विंडो सिस्टम' होते थे जो हर समस्या को हल कर सकते थे । तीर कहें या तुक्का, अक्सर लोगों को फायदा हो भी जाता था ।
गांव में हठीले बाबा कोई मुस्लिम आत्मा थीं तो किसी पे बरम बाबा का साया था कोई किसी से ठीक होता था तो किसी को किसी दूसरे से फायदा होता था । मिठाई के बप्पा राम परसाद पाड़े कलमा पढ़ के झाड़ते थे तो बेचन बाबा लोहबान सुलगा के भूत उतारते थे । लल्लू पाड़े का इलाका दूर दूर तक फैला था । बड़ी दूर दूर से लोग उनके यहां हाजिरी लगाने आते थे । खेत पात नाम मात्र ही था शादी हुई नहीं थी यही उनकी जीविका थी और यही उनका धंधा भी ।
नजर उतारने वालों में बूढ़ी दादी का जवाब नहीं था जम्हाई लेते हुए चुटकी में नजर उतार देती थीं लेकिन हां मंगल और बीफै (बृहस्पति वार) को ही नजर झाड़ी जाती थी किसी और दिन नहीं । भैंस , गाय , नई बहू तो नजराती ही थीं कभी कभी बड़े बूढ़े भी नजरा जाते थे । अब नजर उतारने का कोर्स डॉक्टर को तो पढ़ाया नहीं जाता सो इस विद्या की डॉक्टर तो बुढ़ेई दादी ही थीं ।
घिर्राऊ के मेहरारू को ज्वाला माई की सवारी आती थी तो मस्टराइन को शीतला माई का वरदान था ।
अगरबत्ती , लोह बान , कपूर , मिर्च, डली वाला नमक, झाड़ू या डंडा ये सब इन सिंगल विंडो सिस्टम के उपकरण हुआ करते थे । विज्ञान के दौर में जब गांव में डॉक्टर न मिले तो बीमार को कपूर और लोबान का धुंआ डिस इन्फेक्टेंट का थोड़ा बहुत काम कर ही देता था ये उसका साइको इफेक्ट होता था कि उसका मनोबल ऊंचा हो जाता था और वो जल्दी ठीक होने लगता था । गाय के गोबर की भभूत आयुर्वेद में वैसे भी औषधि के समतुल्य मानी गई है ।
कहते हैं आदमी का मन ब्रह्माण्ड की शक्तियों का केंद्र है इससे जो चाहो करवा लो । पल भर में कहीं घूम लो तो पल भर में कहां क्या हो रहा ये पता कर लो । परा विद्या पूरी दुनिया में रहस्य, रोमांच और संशय का केंद्र रही है जिसे विज्ञान ने कभी मान्यता नहीं दी । लाख विज्ञान पढ़ने के बाद भी आज भी जब निम्मल बाबा जैसे लोगों के पीछे डॉक्टर इजीनियर और शहरी समाज की भीड़ उमड़ती हो तो उन बेचारे गरीब ग्रामीणों का क्या दोष जिनको न विज्ञान का ककहरा पता है और न ही समस्या का वैज्ञानिक समाधान ।
फिर भी ओझा देवा, सोखा , की ये परंपराएं मानव शास्त्र में विस्तार से पढ़ी लिखी और समझी जाती हैं । शोधकर्ताओं के लिए आज भी ये संस्कृतियों को समझने के साथ साथ कौतूहल का केंद्र भी हैं ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)
अद्भुत है ये लेख। पुराने समय में जब आज की तरह आधुनिक युग के हाई प्रोफाइल बाबा लोग नहीं होते थे तो यही "सिंगल विंडो सिस्टम" लोक समस्याओं के समाधान का केंद्रबिंदु थे।
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