Saturday, June 19, 2021

किसुली

 किसुली-


     गौहन्ना और अवध में आम के बीज को किसुली कहते हैं । किसुली नाम इसलिए अब तक याद है कि जब आम छोटा और कच्चा होता था तो उसकी किसुली बहुत छोटी सफेद और बिना जाली की होती थी कच्चे आम को फोड़ते ही वह हाथ में आ जाती थी । ये किसुली पकड़ते ही फिसलती थी इसलिए इसके साथ एक मजेदार वाकया जुड़ा हुआ था । किसकी शादी किस दिशा में होगी ये किसुली के उछलने की दिशा पर निर्भर था  किसुली को अंगूठे और तर्जनी के बीच में रखकर उछाला जाता था या यूं कहें कि दबाया जाता था और  किसुली जिधर की तरह उछलती थी मान लिया जाता था कि उस तरफ उस बच्चे की शादी होगी । अब यह उछालने का क्रम हम बच्चों के लिए मनोरंजन  और खुशी दोनों का साधन था।


   अवध क्षेत्र में फलों का मतलब ज्यादातर आम से ही था वहां आम के न जाने कितने बाग होते थे। बागों के नाम भी अलग-अलग तरह के होते थे जैसे भवानी बगिया, दसवन तारा , बझरैया,  गौरैया बाबा,  कारे देव बाबा , घेरवा जैसे न जाने कितने तरह के नाम बाग- बगीचों के होते थे। इन बगीचों में  तरह-तरह के आम होते थे कोई भी दो पेड़ के आम एक टेस्ट के नहीं होते थे कुल मिलाकर हर बार हर बाग आम की जैव विविधता का भंडार था । अचार बनाने वाला आम मोटा होता था। रसीले आम केवल खाने के काम आते थे । खटाई का आम अलग होता था । जब आम की पूरी बहार आती थी तो उसका अमावट पड़ता था । अमावट के लिए आम का रस और गूदा निकाल कर किसी कपड़े के ऊपर धूप में सुखाया जाता था सूखने के बाद रोटी की तरह उसे लपेट दिया जाता था । इसे साल भर कभी भी खा सकते थे ।


     सिंधुरिया आम सिंदूर के रंग का होता था ।  मॉल दहवा आम मोटा होता था , खट्टहवा आम बहुत खट्टा होता था कहते थे कि अगर इसे मुर्दे को खिला दो तो वो भी उठ कर भाग जाएगा । इसी तरह बहेरी आम सबसे छोटा होता था और  एक ही बार में उसे पूरा मुंह में भर सकते थे  । तोतहवा आम की चोंच निकली होती थी। इनका वैज्ञानिक नाम भले न था पर इस तरह आम के न जाने कितने प्रकार और उनकी किस्में गांव में मौजूद थी। बताते हैं कि एक लाख देशी वेराइटी के आम के बाग भी राजाओं के पास थे जिसे लक्खी बाग कहते थे ।  एक खास बात हर आम के साथ थी कि उसकी चोपी निकालनी पड़ती थी।  यह चोपी डंठल के पास जमा हुआ एसिड होता था अगर यह मुंह में चला जाता था तो खांसते खांसते बुरा हाल होता था।हर बाग हर साल फलता था चाहे दो चार पेड़ों पर ही बौर आएं आते जरूर थे । बौर आने के समय आम के नीचे से अगर गुजर गए तो भुनगे यानि छोटे -छोटे कीड़े बहुत बुरा हाल करते थे । 


     आम बीनने के चक्कर में हम बच्चों के बीच अक्सर अधिकार को लेकर कहा सुनी और मार पीट हो जाती थी । कभी कभी बच्चों की यह लड़ाई खतरनाक रूप से बड़ों की लड़ाई बन जाती थी और एकाध बार लाठियां चलने की नौबत आ जाती थी । आम के सीजन के बाद फिर से पुराना मेल -भाव बहाल हो जाता था। हालांकि आम ही ऐसा फल था जो सबको मिल पाता था इसलिए उर्दू में सर्व सुलभ को आम कहा जाने लगा जैसे कि आम जनता, आम रास्ता । बताते चलें कि आम्र संस्कृत भाषा का शब्द है जिसे उर्दू ने शायद स्वीकार कर लिया होगा ।


   आम के ही सीजन में जामुन का भी फल आता था कहते थे कि भगवान ने एक तरह मीठा आम दिया तो दूसरी तरफ उसकी मिठास से शुगर न  बढ़ जाए इसलिए जामुन पैदा किया । अगर ज्यादा आम खा लिया तो दो चार जामुन खाना जरूरी होता था जिससे कि आम पच जाए। आम के ही सीजन में आम पकने के दौरान बारिश भी होने लगती थी जिससे बाग बगीचों मैं पानी  भर जाता था अक्सर आम बीनने के लिए घुटने घुटने पर पानी में मेहनत करनी पड़ती थी। इस दौरान सांप और बिच्छू जैसे खतरनाक जानवरों से भी सामना करना पड़ता था। अगर झापस लग गया तो समझो आम भदरा गया यानि आम को अब बीनना भी श्रम साध्य हो जाता था, उस समय इतना आम गिरता था कि बाग को बुहारना पड़ता था ।


 अस्सी के दशक बीतते -बीतते कलमी आम का दौर अवध क्षेत्र में शुरू हो गया था । देसी पेड़ धीरे धीरे खत्म होने लगे  । बाग बगीचों में लोगों ने कलमी पेड़ लगाने शुरू कर दिए  । कलमी आम के अच्छे दाम मिलते थे और किसानों को जमकर आमदनी होने लगी। रसायनिक  कीटनाशकों और फ़र्टिलाइज़र का खूब उपयोग होने लगा । देसी पेड़ों को तो कोई खाद पानी भी नहीं पूछता था । धीरे धीरे अवध क्षेत्र से देसी पेड़ लगभग लगभग लुप्त प्राय हो गए और नेचुरल जीन बैंक धीरे धीरे स्वयं ही समाप्त होने लगा । देसी पेड़ लंबे समय तक फल देते थे कुछ पहले शुरु हो जाते थे और कुछ बहुत बाद तक फल देते थे । आखिर तक फल देने वाला पेड़ हमारे बाग में सवनहा के नाम से जाना जाता था । गिलहरी और चिड़ियों के कटे आम खासकर तोते के अधखाए कच्चे आम से पकते हुए सावन तक के आम अब गौहन्ना में छोटे कद के कलमी आम की भेंट चढ़ चुके हैं । दो- चार देशी आम के बाग अब भी वहां  किसी बुजुर्ग की तरह गांव की बदलती आबो हवा को देख रहे हैं और अपने दिन गिन रहे हैं । देशी आमों का वैविध्य पूर्ण साम्राज्य पूंजीवादी कलमी आमों की भेंट चढ़ चुका है ।देशी आमों के दौर में पहले कोई किसी को आम खाने से मना नहीं करता था बाग चाहे जिसका हो, लेकिन अब तो कलमी आमों के बाग में मजाल है कि दूसरा कोई घुस जाय ।


    जब आम के बीज यानि किसुली इठला  कर पेड़ बनने लगती थी तो हम बच्चे उसकी सीपी बनाते थे जो कई तरह की  ध्वनि निकालती थी । अमोला यानि आम का पौधा जैसे ही बड़ा हो जाता था वो फिर किसी बाग का हिस्सा बना दिया जाता था। देशी आम और अमोलों की पीढ़ी रोजगार की तलाश में शहर को जा चुकी है ।  सुना है कुछ प्रकृति प्रेमी फिर से देशी आम के बीज इकठ्ठा कर लगवा रहे हैं । क्या पता आम की ये देशी किसुली किस दिशा में गिरेगी और लहलहा कर लंबे पेड़ के रूप में खड़ी हो जायेगी और रिसर्च पेपर छपेंगे " गांव में फिर मिला आम का जीन बैंक" । वैसे हम तो किसुली को ही श्रेय देंगे जो शादी कराती थी।


(गौहन्ना डॉट काम पुस्तक का अंश )