Monday, August 5, 2013

मुनव्वर राणा की एक ग़ज़ल -

 

मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं । 


कहानी का ये हिस्सा आज तक सब से छुपाया है
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं । 

नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं ।

अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं । 

किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी 
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं । 

पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से 
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं ।

जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है 
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं । 

यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद 
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं । 

हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है, 
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं ।

हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है 
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं । 

सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे, 
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं । 

हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं, 
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं ।

गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब, 
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं । 

हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की 
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं । 

कई आँखें अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं, 
के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं ।

शकर इस जिस्म से खिलवाड़ करना कैसे छोड़ेगी, 
के हम जामुन के पेड़ों को अकेला छोड़ आए हैं । 

वो बरगद जिसके पेड़ों से महक आती थी फूलों की 
उसी बरगद में एक हरियल का जोड़ा छोड़ आए हैं । 

अभी तक बारिसों में भीगते ही याद आता है, 
के छप्पर के नीचे अपना छाता छोड़ आए हैं ।

भतीजी अब सलीके से दुपट्टा ओढ़ती होगी, 
वही झूले में हम जिसको हुमड़ता छोड़ आए हैं । 

ये हिजरत तो नहीं थी बुजदिली शायद हमारी थी, 
के हम बिस्तर में एक हड्डी का ढाचा छोड़ आए हैं । 

हमारी अहलिया तो आ गयी माँ छुट गए आखिर, 
के हम पीतल उठा लाये हैं सोना छोड़ आए हैं ।

महीनो तक तो अम्मी ख्वाब में भी बुदबुदाती थीं, 
सुखाने के लिए छत पर पुदीना छोड़ आए हैं । 

वजारत भी हमारे वास्ते कम मर्तबा होगी, 
हम अपनी माँ के हाथों में निवाला छोड़ आए हैं । 

यहाँ आते हुए हर कीमती सामान ले आए, 
मगर इकबाल का लिखा तराना छोड़ आए हैं ।

हिमालय से निकलती हर नदी आवाज़ देती थी, 
मियां आओ वजू कर लो ये जूमला छोड़ आए हैं । 

वजू करने को जब भी बैठते हैं याद आता है, 
के हम जल्दी में जमुना का किनारा छोड़ आए हैं । 

उतार आये मुरव्वत और रवादारी का हर चोला, 
जो एक साधू ने पहनाई थी माला छोड़ आए हैं ।

जनाबे मीर का दीवान तो हम साथ ले आये, 
मगर हम मीर के माथे का कश्का छोड़ आए हैं । 

उधर का कोई मिल जाए इधर तो हम यही पूछें, 
हम आँखे छोड़ आये हैं के चश्मा छोड़ आए हैं । 

हमारी रिश्तेदारी तो नहीं थी हाँ ताल्लुक था, 
जो लक्ष्मी छोड़ आये हैं जो दुर्गा छोड़ आए हैं ।

कल एक अमरुद वाले से ये कहना गया हमको, 
जहां से आये हैं हम इसकी बगिया छोड़ आए हैं । 

वो हैरत से हमे तकता रहा कुछ देर फिर बोला, 
वो संगम का इलाका छुट गया या छोड़ आए हैं।

अभी हम सोच में गूम थे के उससे क्या कहा जाए, 
हमारे आन्सुयों ने राज खोला छोड़ आए हैं । 

मुहर्रम में हमारा लखनऊ इरान लगता था, 
मदद मौला हुसैनाबाद रोता छोड़ आए हैं ।

जो एक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है, 
वहीँ हसरत के ख्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं । 

महल से दूर बरगद के तलए मवान के खातिर, 
थके हारे हुए गौतम को बैठा छोड़ आए हैं । 

तसल्ली को कोई कागज़ भी चिपका नहीं पाए, 
चरागे दिल का शीशा यूँ ही चटखा छोड़ आए हैं ।

सड़क भी शेरशाही आ गयी तकसीम के जद मैं, 
तुझे करके हिन्दुस्तान छोटा छोड़ आए हैं । 

हसीं आती है अपनी अदाकारी पर खुद हमको, 
बने फिरते हैं युसूफ और जुलेखा छोड़ आए हैं । 

गुजरते वक़्त बाज़ारों में अब भी याद आता है, 
किसी को उसके कमरे में संवरता छोड़ आए हैं ।

हमारा रास्ता तकते हुए पथरा गयी होंगी, 
वो आँखे जिनको हम खिड़की पे रखा छोड़ आए हैं । 

तू हमसे चाँद इतनी बेरुखी से बात करता है 
हम अपनी झील में एक चाँद उतरा छोड़ आए हैं । 

ये दो कमरों का घर और ये सुलगती जिंदगी अपनी, 
वहां इतना बड़ा नौकर का कमरा छोड़ आए हैं ।

हमे मरने से पहले सबको ये ताकीत करना है , 
किसी को मत बता देना की क्या-क्या छोड़ आए हैं ।

------ मुन्नवर राणा