Friday, October 2, 2020

बिक्स और बाम -

 बिक्स और बाम 


    हां सही पढ़ा आपने बिक्स और बाम ' गौहन्ना,' के हर घर में थे ।  उस समय सर्दी जुकाम के लिए बिक्स और बाम ही असली दवा हुआ करती थी । किसी को खांसी जुकाम हुआ तो बिक्स ठीक कर देती थी । गांव की दुकान पे आसानी से मिल भी जाती थी । ज्यादा खांसी खुर्रा हुआ तो जोशांदा का काढ़ा बनाकर पीने से आराम मिल जाता था । बच्चों की बाल जीवन घुट्टी भी गांव की दुकानों पर आसानी से उपलब्ध थी।


   वैसे तो गांव में दो दुकानें थीं जहां सुई से लेकर दवाई तक सब कुछ मिल जाता था । एक दुकान साव चाचा की थी दूसरी कुंवारे बढ़ई की । साव चाचा बचपन में ही मा बाप का साया खो चुके थे लेकिन उनकी मेहनत देख कर ये लगता था कि ये दुकान वो ही खड़ी कर सकते थे । सायकिल से अनाज की बोरी लाद कर पैदल रुदौली तक दस किलोमीटर चले जाते थे ।उनकी दुकान में बिस्किट , साबुन के साथ साथ रोजमर्रा की दवाएं भी होती थीं बाम और बिक्स आसानी से मिल जाते थे । कुंवारे बढ़ई की दुकान भी हंड्रेड इन वन थी जो चाहो वो हाज़िर । पैसे  तो होते नहीं थे अनाज से बदल कर चाहे पैसे ले लो या सामान । दोनों सुविधा थी ।


    अब रात में बुखार आ जाय तो डॉक्टर को दिखाने दो किलोमीटर कौन जाय ? पन्द्रह पैसे की आंनदकर टेबलेट

दोनों दुकानों पर आसानी से मिल जाती थी और नब्बे परसेंट केस में आंनदकर आंनद दे ही जाती थी । ऐनलजेसिक दवाएं एनालजिन और नोवलजीन के नाम से सबको पता थीं ।  उस समय एंटी बायोटिक का नाम आना शुरू ही हुआ था । लेकिन गांव तक इनका चलन कम ही था । सो लोग बगैर एंटी बायोटिक ठीक हो जाते थे या यूं कहे ठीक होना ही उनकी नियति थी । पेचिश के लिए हरा पुदीना और अमृत धारा की दो बूंद वास्तव में दो बूंद जिंदगी की हुआ करती थी । सल्फा ड्रग्स और ग्राम निगेटिव बैक्टीरिया से बनी दवाएं बहुतों को चंगा कर देती थीं ।   ये सब दवाई गांव के दुकान के एक कोने के मेडिकल रेक में उपलब्ध रहती थी। कोने की दराज ग्रामीण जीवन का मेडिकल स्टोर ही हुआ करती थी । 


   बरसात के सीजन में आंख तो उठ ही जाती थी उठने का मतलब इंफेक्शन से समझें तो बेहतर होगा । अब गांव में आंख उठने पर कोई डॉक्टर ढूंढने नहीं जाता था । नई नई खुली इंदर पाल की दुकान में आंख वाली कुचुन्नी चवन्नी  यानि पच्चीस पैसे में मिल जाती थी । वास्तव में तो ये पेनिसिलिन आधारित थी लेकिन मजाल क्या कि सुबह तक आंख ठीक न कर दे । जितनी डॉक्टर की फीस उससे कम में अगर ठीक हो जाय तो कोई क्यों डॉक्टर को ढूंढे ।


    दाद खाज खुजली वाला जालिम लोशन तब भी बिकता था आज भी बिकता है । थोड़ा बहुत समझ दार लोग बी टेक्स मलहम पर भरोसा करते थे । लेकिन खुजली अक्सर जाती नहीं थी । मान्यता ये भी थी कि गंदे तालाब में नहाने या अमुक मिट्टी लगाने से चर्म रोग ठीक हो जाते हैं कुछ गांव इसीलिए प्रसिद्ध भी थे । होता हुआता कुछ नहीं था बस मन का एक संतोष हुआ करता था । कभी कभी लोग ठीक भी हो जाते थे । 


"अरे केहू दौर के आईडेक्स लाओ हो जन्नू पेडे से गिर   गए "


  आयोडेक्स ही उस समय सब चोट का इलाज हुआ करती थी । अच्छी से अच्छी चोट गायब । अगर हड्डी उखड़ जाय तो शिव राम मुराव शाम को एक बली रोटी यानि एक तरफ सिकी मोटी रोटी बंधवा देते थे रात भर रोटी बंधी रहती थी सुबह शिव राम मुराव के  एक हलके झटके में वो हड्डी ठीक हो जाती थी  । कई बार हमने भी टेढ़ी गरदन उनसे ही ठीक करवाई । आज का जमाना होता तो फोर्थ जेनरेशन के डॉक्टर बिना ऑपरेशन ठीक ही न होने देते ।


कहते हैं दांत का दर्द होता है तो दिन में तारे नज़र आने लगते हैं लेकिन गौहन्ना में एक निश्चिंतता रहती थी । गांव में पसियन टोला में दांत झाड़ने के एक्सपर्ट यानि बिना डिग्री के डेंटिस्ट दांत ठीक कर देते थे । बुध और शनिवार छोड़कर दवा देते थे । कोई पत्ती दांत के नीचे रखते थे और कान में सरसों का तेल डाल के मंत्र मारते थे फिर तो कान के रास्ते भर भरा के कीड़ा गिरता था । दांत का कीड़ा कान से कैसे गिरता था ये तो डेंटिस्ट ढूंढे लेकिन दर्द गारंटी के साथ ठीक हो जाता था । दांत ही नहीं बिच्छू और फेटारा झाड़ने वाले भी गांव में मौजूद थे ठीक प्रेमचंद की मंत्र कहानी के पात्रों की तरह ।


 सबसे ज्यादा आने वाली समस्या का होती थी सिर दर्द और सिर दर्द की परवाह जिनको होती थी वो ज्यादा से ज्यादा हिमसार तेल लगा के उसे ठीक कर लेते थे । ग्रामीण जीवन में बीमारी प्रायः अपने आप ही अपना रस्ता नाप लेती थी जो थोड़ी बहुत होती भी थी वो बिक्स और बाम के खौफ से ठीक हो जाती थी । 


(गौहन्ना. काम पुस्तक का अंश )

No comments:

Post a Comment