Saturday, February 13, 2021

नेवता हंकारी -

 नेवता हंकारी -

"मिसिर दादा तोहार नेवता है" । नाई ने आवाज लगाई ।
कहां ? मिसिर दादा ने पूछा।
हाजीपुर पराग पाड़े के भागवत बैठी है ।
अच्छा अच्छा । अरे लल्ला घर से नेवतौनी लै आओ ।
नेवतऊनी लेकर नाई अगले घर में निमंत्रण देने चला गया । अवध क्षेत्र में निमंत्रण को नेवता संबोधन के साथ जाना जाता है । निमंत्रण भी जेंवार के सभी लोगों को भेजने की परम्परा है । जेंवार उस इलाके को कहते हैं जिनके साथ खान पान का सम्बन्ध होता है इसका दायरा प्रायः दस किलोमीटर के आस पास हुआ करता था । अस्सी के दशक के नेवता खाने वालों के अनुभव कुछ अलग ही होते थे । क्या बड़े क्या बुजुर्ग सभी को कुर्ता बनियान निकाल के भोजन की पंगत में बैठना पड़ता था यहां तक कि घनघोर जाड़े में भी उपरि वस्त्र के साथ कोई भी पंगत में नहीं घुस सकता था । पंगत उठने के पहले गांव देश में क्या हो रहा क्या होना चाहिए इसकी चर्चा के लिए पर्याप्त समय होता था । एक दूसरे के गांव का कुशल क्षेम वहीं पूछा और पता किया जाता था । रिश्ते नाते भी इन्हीं आयोजनों और बैठकों में तलाश किए जाते थे ।
जब पंगत यानि पंक्ति या पांत बैठ जाती थी तो किसी नए आदमी को उनके उठने तक इंतजार करना पड़ता था और पंगत तभी उठती थी जब समूह में सभी भोजन कर तृप्त हो जाते ।
'पूड़ी भाई पूड़ी ' परोसने वाले खिलाने में चूक नहीं करते थे । कोई सूखी सब्जी जैसे कद्दू या घुईया आदि बनवाता था तो कोई सूखी के साथ रसेदार सब्जी जैसे कटहल या परवल आदि बनवाता था । सक्षम लोग दोनों की व्यवस्था करते थे । गलका एक विशेष तरह का व्यंजन था जो अचार की तरह चटखारे के लिए अनिवार्य रूप से होता था । खाने के साथ साथ बूंदी या गोरस और शक्कर का चलन था । गोरस यानि मठठा या छाछ आस पास के गांव से लोग उसके घर फ्री में सहयोग की भावना से पहुंचा जाते थे । खाने वाले भी मोछा बोर धकेलते जाते थे। गोरस और बुरा शक्कर पूरे खाने को आसानी से पचा देती थी फिर चाहे गाड़ी ओवरलोड ही क्यों न हो गई हो। और हां एक राज की बात ये भी होती थी कि कितनी भी जनता भंडारे में अा जाय गोरस कभी कम नहीं पड़ता था आखिर तक आते आते एक बाल्टी असली मठ्ठे में पांच बाल्टी पानी भी मिलाना पड़ जाय तो भी लोग बुरा नहीं मानते थे । सरयू किनारे की छोटी पूड़ी से लेकर गोमती किनारे की अंगौछा छाप पूड़ी को पचाने में
गोरस की बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका होती थी ।
नेवता खाने के बाद सबको सबूत कपड़े जब मिल जाते थे तो दक्षिणा और पान की बारी आती थी पहले ये गांव वार किसी मुखिया को दी जाती थी जो उस गांव के सभी निमंत्रित को बांटता था बाद में सुविधा के लिए खाने के आखिरी दौर में पान और दक्षिणा पत्तल पर ही दे दी जाने लगी ।
गौहन्ना गांव और आस पास के इलाके में दो तरह के निमंत्रण और भी प्रचलित थे जिन्हें चुलिहा नेवार और लंगोट बन्द नेवता कहा जाता था । चुलिहा नेवार नेवता में घर के सभी लोगो चाहे वो पुरुष हो या स्त्री , बुजुर्ग हो या बच्चे सब का निमंत्रण रहता था यानि उस दिन चूल्हा नहीं जलाना बस आयोजक के घर धमकना और जम के खाना होता था । वहीं लंगोट बन्द नेवता में घर के पुरुष वर्ग को ही जाना होता था । बताते हैं कि पहले के जमाने में भोजन की उच्च तम शुद्धता बनाने के लिए हल्दी और नमक भोजन बनाते समय न डालकर अलग से पत्तल पर परोसा जाता था । नमक को राम रस कहते थे और नमक का बड़ा सम्मान था मजाल था कि नमक जमीन पर गिर जाए । बड़ी हिदायते नमक को लेकर थीं कि अगर जमीन पर गिर जाएगा तो आंख की बरौनी से उठाना पड़ेगा । ये डर ऐसा था कि नमक ही रसोई का राजा बन गया ।
एक बार मिसिर दादा के साथ उनका हमराह साहब दीन भी भंडारे में बैठा । परोसने वाले में नमक यानि राम रस वाले ने चिल्ला कर पूछना शुरू किया
रामरस भाई रामरस
साहब दीन बोले दे दो
उसने थोड़ा सा नमक पत्तल में रख दिया । साहब दीन को गुस्सा अा गई ये क्या थोड़ा ही रखा । परसने वाला ताड़ गया कि अजनबी है पहली बार पंगत में बैठा है बस उसने ज्यादा रख दिया।
साहबदीन खुशी में पूड़ी का पहला टुकड़ा रामरस के साथ खा बैठे और फिर उसके बाद उनने किसी भी भंडारे में रामरस नहीं मांगा ।
पूड़ी कद्दू का संयोग बहुधा हर गांव में प्रचलित था बाद में एनडी यूनिवर्सिटी में पढ़ते समय प्रोफेसर एसबी सिंह ने जो रहस्योद्घाटन किया उसे सुनकर आंचलिक विज्ञान के सामने नत मस्तक होना पड़ा । बकौल प्रोफेसर साहब पूड़ी में वसा होता है और कद्दू में विटामिन ए । विटामिन ए वसा में घुलन शील है इसलिए दोनों की जोड़ी फेमस है । कद्दू पूड़ी खाइए कभी अपच नहीं होगा ।
इन आयोजनों प्रयोजनों में जिसके घर भंडारा होता था उस को पूरा गांव ,समाज मदद करता था । कोई बरतन उपलब्ध करवाता था तो कोई हलवाई का काम करता था । मिल जुल कर बड़े से बड़ा भंडारा जिसमें हजारों लोग खाते थे आसानी से निपटा लिया जाता था । बड़े परोजनो यानि प्रयोजनों में कमान प्रायः गांव के पुरुष समाज के पास ही होती थी । एक कि इज्जत पूरे गांव की इज्जत होती थी । इसलिए गांव के लोग सबसे आखिरी में भोजन करते थे जब दूर दराज के लोग छक कर चले जाते थे ।
आज के दौर में सामूहिकता के इस सामाजिक ताने बाने की परम्परा धीरे धीरे कैटरर के हाथ में चली गई । पत्तल दोने बनाने वाले बन मानुष बेरोजगार हो गए । कुल्हड़ बीते जमाने की बातें हों गईं उनकी जगह प्लास्टिक के गिलास ने लेे ली । कुम्हार का चाक आहिस्ता आहिस्ता धीमा होता गया और उनको भी रोजी रोटी का संकट खड़ा हो गया । पुराने लोग यह भी कहते मिल जाते हैं कि न अब उस तरह नेवता खाने वाले रहे न खिलाने वाले । बफे सिस्टम जिन ने हज़म किया वो आज भी खड़े होकर खाना खा ले रहे हैं । बस वो महज औपचारिकता भर है रिश्तों और भाई चारे की गरमाहट अब ढूंढने से भी नहीं मिलती ।

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