23 दिसम्बर किसान दिवस है इस अवसर पर आइये कम से कम एक दिन किसान की बात कर ली जाय वही किसान जो मीडिया और सोशल मीडिया दोनों में न जाने किस हाशिये पर पहुंच गया है। किसान को इस बात की चिंता भी नही है कि शासन या सत्ता उसके बारे में कितना चिंतित हैं बस उसका संघर्ष ऐसा है जो रोज रोज का है चाहे वह बाढ़ हो या सूखा या फिर कीड़ों और रोगों का आक्रमण । फसल बच गई तो खुश न बची तो पेट भरने का संघर्ष तो उसकी नियति है ही . ये पेट भरने का संघर्ष जीवन का संघर्ष भी कहा जा सकता है । हिंदुस्तान में लगभग 58 % लोग खेती पर निर्भर हैं ये लोग किसान हैं या उनके परिजन या खेतिहर श्रमिक जिनकी जिंदगी खेती के भरोसे ही चलती है। आज भी खेती एक बहुत बड़ी आबादी को रोजगार देती है। खेती की कम उपज का बहुत बड़ा कारण सिंचाई के साधनों का आभाव है। खेती का एक बहुत बड़ा हिस्सा आज भी असिंचित है आंकड़ों के अनुसार हिंदुस्तान में लगभग 36 % खेती ही सिंचित है विडम्बना यह है कि आज़ादी के बाद ये आंकड़ा बहुत ज्यादा बदला नही जा सका । देश में खेती योग्य जमीन की उपलब्धता लगातार घट रही है। विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रति व्यक्ति जमीन की उपलब्धता 2013 में मात्र 0.12 है. ही रह गयी है जो 1961 में 0.34 है. हुआ करती थी । कहने का मतलब यह है कि जनसंख्या बढ़ी किन्तु खेती योग्य जमीन कम होती गयी यदि यही गति रही तो इसका दुष्परिणाम ये होगा कि भविष्य में खाद्यान्न सहित दलहन व् तिलहन आदि के लिए हमें दूसरे देशों पर निर्भर हो जाना पड़ेगा। अब प्रश्न यह है कि क्या भारत का किसान इससे निजात दिलवा सकता है तो उत्तर हाँ में है बशर्ते उसे देश की नीति में प्राथमिकता पर लेना होगा जिसे हमने हाशिये पर छोड़ रखा है उसे सिंचाई के साधन देने होंगे अच्छे बीज, उन्नत तकनीक देने होंगे ,जंगली जानवरों से सुरक्षा प्रदान करनी होगी और उसके उत्पादों को उपभोक्ता द्वारा दिए जा रहे मूल्य के आस -पास पहुंचा देना होगा। हम इस बात पे खुश हो सकते हैं कि हिंदुस्तान की जीडीपी में उद्योग का और सेवा क्षेत्र का हिस्सा बढ़ रहा है और हम विकसित देश की तरफ बढ़ रहे हैं लेकिन क्या ये सब खेती की कीमत पर हमें मंजूर है ? खेती का हिंदुस्तान की जीडीपी में हिस्सा पिछले छह दशक में लगभग 80 % घटा है और वर्तमान में कुल जीडीपी का 13 .9% ही रह गया है। एक महत्वपूर्ण पहलू और है कि हिंदुस्तान का किसान जितना उगाता है उसका लगभग 40 % नष्ट हो जाता है यू एन डी पी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में उतना गेहूँ नष्ट हो जाता है जितना ऑस्ट्रेलिया में पैदा होता है कुल मिलाकर खेती की उपज का एक लाख करोड़ रूपये का नुकसान प्रति वर्ष इस देश में हो जाता है जो बहुत आसानी से गोदाम ,प्रसंस्करण केंद्र आदि बना कर रोका जा सकता है . इक्कीसवीं सदी में हिंदुस्तान की खेती ऐसे दौर से गुजर रही है जहां एक तरफ दाल बाहर से आयात की जा रही है तो वहीं मोटे अनाजों की किस्में लुप्त होती जा रही हैं , उपभोक्ताओं को अपने खाद्य तेल में मिलावट का सन्देह है वहीं किसान का तिलहन देश में कोई नही पूछ रहा । किसानों को अपनी उपज औने पौने दामों पर बेचनी पड़ रही है आज भी उपभोक्ता जो मूल्य दे कर अनाज सब्जी फल आदि खरीद रहा है उसका लगभग आधे से भी कम किसान को मिल पा रहा है बाकी बिचौलियों की और मोटे सेठों की जेब में जा रहा है। उदाहरण के लिए जो चावल 50 रूपये प्रति किलो में उपभोक्ताओं को बेचा जा रहा है वह लगभग 18-20 रूपये प्रति किलो में लोकल आढ़तिये द्वारा किसान से खरीदा गया होता है यही हाल दाल तिलहन ,सब्जी और फलों का भी है। उपभोक्ता और किसान का सीधा लिंक जब तक नही होगा ये समस्या बनी रहेगी। खेती के लिए बड़े बड़े कर्ज और उन्हें खेती से न चुका पाना ये किसान की नियति हो गयी है। सूखा ,बाढ़ ,रोग, कीड़े और जंगली जानवर सब किसान को ही झेलने हैं यही कारण है कि किसान आत्महत्या के लिए विवश हो रहा है। किसानों की बीमा की प्रक्रिया और उनमें की जाने वाली औपचारिकताएं इतनी ज्यादा है कि बहुत से किसान इससे दूर भागते हैं । आज जरूरत इस बात की है कि खेती और किसानों के लिए सहज और सुगम नीति बनाई जाय । खेती से जुड़े उद्योग उन्ही निकट वर्ती क्षेत्रों में लगाए जांय जहां जो फसल पैदा हो रही है। जब तक खेती और किसान देश की शीर्ष प्राथमिकता में नही आते न देश का उद्धार सम्भव है न ही किसान का । -डॉ ललित नारायण मिश्र