Friday, November 25, 2011
इक जानवर की जान आज इंसानों ने ली है --चुप क्यों है इंसान ?
आदमी का वहशीपन रह-रह कर जागता है और हम फिर यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं की हम सभ्य हुए भी कि नहीं ? उत्तराखंड के पौड़ी जिले में बून्खाल कालिका देवी मंदिर पर आज भैंसे और बकरों की बलि चढाने के लिए मनौती कर्ता उन्मादित हैं । जिस जानवर की बलि चढ़ाई जाती है उसे पहले खूब शराब पिलाई जाती है फिर उसे डंडे मारमार कर पूरे खेत में दौड़ाया जाता है इतना दौड़ाया जाता है कि उसकी जीभ लटक कर बाहर निकल आती है । जब थक जाता है तो फिर डंडे पड़ते हैं फिर से दौड़ता है और फिर कुछ तथाकथित धर्म के ठेकेदार उसकी गर्दन तलवार से काट देते हैं । इस तरह सैकड़ों बेजुबान जानवरों को तडपा-तडपा कर मार दिया जाता है और मान लिया जाता है कि देवी खुश हो गयी । पता नहीं देवी अपने बेजुबान बच्चों की हत्या पर कितना खुश होती होगी लेकिन इतना जरूर है कि हम कितना भी मोडर्न हो जाएँ वहशीपन का कीड़ा हमें रह-रह कर न जाने कब तक काटता रहेगा।-Lalit
Thursday, November 24, 2011
फिर से-
सुना है कुछ बँट रहा है अरे यह तो यू.पी.है । घर-आंगन का बंटवारा , जमीन जायदाद का बंटवारा .......दिलों का बंटवारा ......कुछ दिनों बाद हर जिले में एक सी.ऍम और एक सचिवालय की मांग हम भी करेंगें।
Monday, November 21, 2011
अजीज आज़ाद की रचना-
अब मेरा दिल कोई मज़हब न मसीहा माँगेये तो बस प्यार से जीने का सलीका माँगे...ऐसी फ़सलों को उगाने की ज़रूरत क्या हैजो पनपने के लिए ख़ून का दरिया मांगेसिर्फ ख़ुशियों में ही शामिल है ज़माना साराकौन है वो जो मेरे दर्द का हिस्सा मांगेजुल्म है, ज़हर है, नफ़रत है, जुनूँ है हर सूज़िन्दगी मुझसे कोई प्यार का रिश्ता मांगेये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़रलोग हर जश्न पे मेहमान से पैसा मांगेकितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ‘अज़ीज़’ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे- अज़ीज़ आज़ाद
Saturday, November 12, 2011
मीडिया का सच-
पत्रकारिता उर्फ़ जर्नलिज्म बहुत से लोगों की चाहत है ,तमन्ना है. कुछ शौकिया करते हैं तो कुछ पत्रकारिता के लबादे में बड़े-बड़े खेल करते हैं । चाहे न्यूज़ पेपर/ चैनल के शिखर पर बैठे मालिक हों या हाकर से पत्रकार बन बैठे लेफ्ट -राईट पत्रकार । इस पत्रकारिता की दुनिया में कुछ ऐसे हैं जो लाखों का पॅकेज लेकर काम करते हैं हर महीने ५० हज़ार या ज्यादा वेतन पाते हैं तो वहीं कुछ या यूँ कहें तमाम सर्वहारा वर्ग वाले पत्रकार हैं जो दिन भर खबर जुटाने के बावजूद रोटी का जुगाड़ भी नहीं कर पाते । फिर कुछ मुड़ते हैं दर-दर विज्ञापन ढूँढने के लिए तो कुछ ख़बरों के खुलासे का भय दिखाकर नेताओं, अधिकारियों को ब्लैक मेल करने के इरादे से धमकाने की राह पर । इस सर्वहारा वर्ग के पत्रकारों पर न तो उस अखबार का आई कार्ड होता है जिसके लिए वे काम करते हैं और न ही उनकी लाइफ का बीमा । उनकी भेजी ख़बरें छपती तो जरूर हैं पर उनकी अपनी पहचान .......?? पता नहीं । जिसको अपनी ख़बरें छपवानी होती है वो उन्हें कुछ नजराना देता है और अगले दिन अखबार या टी वी पर उसकी खबर लग जाती है मीडिया की चकाचौंध में अँधेरे की एक लम्बी फेहरिस्त है । कभी किसी सर्वहारा पत्रकार से मिलकर देखिये इस सबके बावजूद उसकी ऐंठ बरक़रार मिलेगी बातें ऐसी क़ि जर्नलिज्म में पीएचडी कर रखी है. सबकी लड़ाई लड़ने वाले इन पत्रकारों के हक में खड़ा होने वाला कोई नहीं । दूसरों को हक दिलाने वाला खुद हक मांगे तो किससे और फिर देगा कौन ?
Friday, November 11, 2011
बाकी सब ठीक है
कहने के लिए भारतीय लोकतंत्र में कोई भी चुनाव लड़ सकता है जो भारत का नागरिक है और पागल या दिवालिया नहीं है और निर्धारित उम्र पूरी कर चुका हो । होरी ने चुनाव लड़ने की सोची है उसको नहीं पता की परधानी में खर्चा २ लाख,विधायकी में ३० लाख और सांसदी में ९० लाख आता है । पढ़े लिखे मतदाता जो भारत की तस्वीर बदलना चाहते हैं धूप में वोट देने नहीं जा सकते और जो वोट देने के लिए दिहाड़ी छोड़ कर जाते हैं वे वोट का सौदा करना ज्यादा पसंद करते हैं क्योंकि उन्हें पता है क़ि ये मौका ५ साल में सिर्फ एक बार ही मिल सकता है । देश में लगभग ३.५ करोड़ मतदाता जो सरकारी कर्मचारी हैं अपने वोट का इस्तेमाल नहीं कर पाते विशेषकर लोकसभा और विधानसभा चुनाव में ड्यूटी के टेंशन में वोट देने का कर्त्तव्य निभाना मुश्किल हो जाता है । ये ३.५ करोड़ ऐसे हैं जो चुनाव लड़ भी नहीं सकते। बाकी सब ठीक है।
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