लौकल -
(ललित मिश्र के ब्लॉग jhallarmallarduniya.blogspot.com से)
जेम्स वाट ने जिस भाप की ताकत देखी थी उसी भाप को इस्तेमाल कर जार्ज स्टीफेंसन ने भाप वाला रेलवे इंजन सन 1830 में बना डाला। जब अंग्रेजों को भारत में माल ढोने और सिपाहियों की बटालियन को ढोने की जरूरत पड़ी तो रेलवे लाइन हिन्दुस्तान में भी बिछ गयी ।
'गौहन्ना' गांव बसा ही कुछ ऐसा था कि आस पास के गांव के बगल से रेलवे लाइन निकली लेकिन इस गांव के बीचोबीच से रेलवे लाइन को लेे जाना पड़ा । उस रास्ते में जितने भी घर पड़े उनको टूटना ही था सो किसी ने लाइन के उत्तर घर बनाया तो किसी ने दक्षिण । अपना पुश्तैनी घर भी उसी चपेट में निपट गया और मिसिर दादा के दादा के दादा ने लाइन के दक्षिण फिर से घर खड़ा कर दिया । इस तरह गौहन्ना गांव दो भाग में बंट गया एक लाइन इस पार दूजा उस पार । एक दूसरे के लिए दोनों लोग पार के हो गए। रेलवे लाइन ने भले ही गांव को भौगोलिक विभाजन दिया हो लेकिन दिल के विभाजन वो न कर सकी । बस एक दूसरे से मिलने को ये देख कर लाइन पार करनी पड़ती थी कि कहीं किसी ओर से कोई गाड़ी तो नहीं आ रही क्योंकि क्रॉसिंग पे रेलवे फाटक तब तक नहीं लगा था ।
बताते हैं कि जब अंग्रेजो ने रेलवे लाइन बिछाई थी तो दोनों किनारों से कोई जानवर न घुस सके इसलिए पत्थर के खंभों से होकर कंटीले तार लगाए गए थे । प्रचलित कथा अनुसार एक बार किसी राजा का हाथी तार के अंदर तो घुस गया लेकिन बाहर न निकल सका और रेल गाड़ी की चपेट में आ गया । तब से वो तार अंग्रेजों को हटाने पड़े और केवल रेलवे फाटक को छोड़ कर अपनी सुरक्षा खुद करें की तर्ज पर रेल गाड़ी बेधड़क पटरियों पर दौड़ रही है । अक्सर गांव के जानवर इन पटरियों पर अनजाने में अपनी जिंदगी गंवा बैठते हैं । गांव के लोग कभी गुहार लगाने रेल विभाग के पास भी नहीं गए अगर जाते भी तो कौन सा वो सुन ही लेते। कभी कभी बच्चे और बूढ़े भी इसकी चपेट में आ चुके थे सिर्फ सुरेमन दीदी सौभाग्य से जिंदा बच गईं थीं ।
सुबह 7 बजे का समय , वकील साहब को लोकल ट्रेन पकड़नी थी आज पूजा करते करते लेट हो चुके थे ।
"निहोरे देखि आओ सिंगल डाउन भवा कि नाही"
"निहोरे रेलवे क्रॉसिंग से ही आवाज लगाते दादा सिंगल होय गवा "
इतना सुनते ही वकील साहब को भेजने के लिए सायकिल निकल जाती ।
सायकिल वाले को इस स्पीड से सायकिल दौड़ानी पड़ती कि ट्रेन मिल जाय । अक्सर ट्रेन मिल ही जाती थी ।
स्थानीय कार्यों के लिए फैजाबाद और रुदौली जाने के लिए ट्रेन ही सुलभ साधन थी । कभी कभी मात्र दस किलोमीटर रुदौली जाने के लिए दिन दिन भर ट्रेन का इंतजार करना पड़ता था । वैसे ट्रेन की आदत
गौहन्ना वालों को इतनी पड़ गई थी कि कब कौन सी गाड़ी आई बिना देखे बता देते थे । चरवाहों को लाैकल के साथ ही निकलना होता था और जब लौकल फैजाबाद से वापस आती थी उस समय जानवर हांक के घर लाने का समय फिक्स रहता था ।
लौकल तो लौकल ही थी जैसा नाम वैसा गुण भी । कोयला उड़ाते हुए जब चलती थी उसका ही रौला होता था। मर्जी उसकी चलती थी कभी बिफोर आती थी तो कभी दस दस घंटे लेट । लेकिन मजाल जो कोई उसपे उंगली उठा दे । कभी कभी जब गुस्सा होती थी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से आगे जाने को मना कर देती थी अब झोंकते रहो उसमे कोयला । जब मन आयेगा तब ही चलेगी यात्री भी उसके नखरे जानते थे सो चना चबैना और पूड़ी पराठा बांध कर ही चलते थे । कोयले के इंजन के धुएं का असर इतना था कि फैजाबाद के लाल मुंह वाले बन्दर भी काले मुंह के किसी गैराज के मेकेनिक लगते थे ।
एक बार लौकल की बड़ी बहन साबरमती एक्सप्रेस गाड़ी से बैठ कर हम और पिता जी कानपुर के लिए निकले । शाम को लगभग 6 बजे गाड़ी बड़ागांव रेलवे स्टेशन से चल कर दस बजे लखनऊ जा पहुंची । पापा ने कहा कानपुर दो घंटे का रास्ता है अब रात लखनऊ रुक लेते हैं सुबह कानपुर चलेंगे । मेरे मन में डर था कि सुबह दस बजे एडमिशन के लिए पत्थर कॉलेज यानि चन्द्र शेखर आजाद कृषि विश्व विद्यालय में काउंसलिंग में देर न हो जाय , बड़ी मेहनत से एडमिशन मिला है । अतः रात में ही निकल चलो ये गाड़ी कानपुर तो जा ही रही है। पिता जी बोले चिंता न करो हमे पता है कैसे पहुंचना है । खैर रात में एक परिचित फार्मासिस्ट जो पिता जी के दोस्त थे उनके घर जा पहुंचे । सुबह सुबह उठ कर फिर ट्रेन पकड़ने लखनऊ जंक्शन जा पहुंचे । ट्रेन का पता किया तो पता चला रात की वही साबरमती अब तक खड़ी है और जल्दी ही चलने वाली है । हंसते हुए फिर से उसी ट्रेन में हम लोग सवार हुए । टिकट पहले से ही उसी का था ।
अक्सर खिड़की किनारे बैठने वालों की आंख में कोयले के कण पड़ ही जाते थे .लखनऊ के बाद जब बाराबंकी स्टेशन आता था समोसा वालों को ढूंढने की होड़ लग जाती थी । वहां के समोसे टेस्ट में कुछ खास हुआ करते थे और जिसको बाराबंकी के समोसे की लत लग जाती थी फिर उसकी जेब में अगर पैसे है तो उसे समोसे खरीदने से कोई रोक नहीं सकता था । जनरल डब्बे में प्रायः चना बेचने वाला घुस ही जाता था पुलिस वाला दिख भी जाय तो उसको कैसे मनाना है ये उसको पता होता था ।
"नींबू वाले चने - नींबू वाले चने
दो दो रुपए में खाइए
नींबू वाले चने "
और जैसे ही नींबू वाला चने में नींबू निचोड़ता था पूरा कूपा महक जाता था अच्छो अच्छों को अपनी जेब उस चने के लिए ढीली करनी पड़ जाती थी ।
रसौली स्टेशन तक आते आते मूंगफली वाला भी आ ही जाता था..
"मोंफ्ली मोंफ्ली
दो दो रुपए मोंफ्ली
टाइम पास मोंफ्ली
चिनिया बादाम मोंफ्ली
पैसा वसूल मोंफ्ली"
फिर उसके बाद गुलाब रेवड़ी वाले का नंबर..
"रेवड़ी लेे लीजिए रेवड़ी ,
दस के चार पैकेट "
दस के चार"
"..अरे दस के पांच दोगे "
"नहीं साहब "
"तब ले जाओ नहीं लेना मुझे"
"अच्छा चलो पांच ले लो और इस तरह रेवड़ी का सौदा पट जाता था" ।
दरियाबाद में लौकल का इंजन कोयला और पानी लेकर ही आगे बढ़ता था ।
इधर गाड़ी पटरंगा और रौजागांव पार करती थी उधर सूरदास अपनी खंजडी के साथ लौकल के डिब्बों में घूम घूम कर भजन गाना शुरू करते थे
"सीता सोचैं अपने मन मा मुंदरी कंहवा से गिरी "..
"शंकर तेरी जटा में बहती है गंग धारा" ..
और कोई न कोई उन सूरदास को चवन्नी अठन्नी दे ही देता था । कोई झिड़क भी देता था । लेकिन उनकी खंजड़ी के बिना उन दिनों लौकल भी उदास सी लगती थी । इसी बीच जादू दिखाने वाले कलाबाज नटों का कुनबा रुदौली में जिस डब्बे में घुसता था उस डब्बे को टी टी भी छोड़ कर भाग खड़ा होता था । गौरियामऊ और बड़ागांव आते आते ये डेरे उतरने लगते थे और डेली पैसेंजर ताश के पत्तों के साथ अपनी मंडली सजा लेते थे । टी टी अब आराम की मुद्रा में आ चुका होता था और डेरवा आते आते बिना स्टेशन के चेन पुलिंग कर गाड़ी खड़ी हो जाती थी उसके बाद जब तक कटे हौज पाईप को कोई जोड़ न दे तब तक उस अज्ञात गाड़ी रोकने वाले को गालियों का तोहफा मिलता रहता था ।
अब गाड़ी लौकल थी तो मज़ा भी लौकल ही था । बिजली के बल्ब गाड़ी से गायब होकर गांव भी पहुंच जाते थे सीट फाड़ के बाज़ार के लिए झोरा बन जाता था । समय के साथ साथ लौक़ल पे लोगों ने रहम की और लौकल सकुशल फैजाबाद पहुंचने लगी । लेकिन आउटर पर खड़ी होने की उसकी पुरानी आदत आज भी नहीं छूटी ।
(गौहन्ना डॉट कॉम पुस्तक का अंश)